रवीन्द्रनाथ ठाकुर
और उनका ‘शांति निकेतन’
श्रीराम पुकार शर्मा
‘यत्र विश्वम भवते कनिदम’ - अर्थात
‘सारा विश्व ही एक घर है ।'
विश्वकवि
रवीन्द्रनाथ ठाकुर (टैगोर) सम्पूर्ण दुनिया को एक घर या फिर एक ही परिवार मानते थे
। उन्होंने अपने तरुणाई में ही ‘महामानव का महानिकेतन’ बनाने का एक वृहद स्वप्न
देखा था, जहाँ हर देश की अपनी संस्कृति को अपनी अलग पहचान और सम्मान प्राप्त हो
सके । अपने उस विराट स्वप्न को यथार्थ स्वरूप देने के लिए ही उन्होंने पश्चिम
बंगाल के बीरभूम जिले के बोलपुर शहर के निकट ज्ञान-कला का एक विराट सांस्कृतिक
केंद्र के रूप में ‘शांति निकेतन’ को स्थापित किया, जो उनके विराट विश्व-संस्कृति
जनित महान विचार के अनुकूल ही आज विश्व व्यापी अपनी महानता को प्राप्त किए हुए है
।
‘शांति
निकेतन’ और ‘गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर’ दोनों एक दूसरे के पर्याय ही तो हैं ।
‘शांति निकेतन’ का नाम लेते ही विश्व साहित्य के ‘नोबेल पुरस्कार’ से सम्मानित
प्रथम भारतीय गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर के विराट भव्य दार्शनिक स्वरूप मनीषी छवि
का स्वतः ही स्मरण हो जाता है और इसी तरह से ‘गुरुदेव’ का नाम लेते ही ‘शांति
निकेतन’ की विराट छवि मन-मस्तिष्क में उभर आती है । ये दोनों ही हमारी भारतीयता की
विशेष सांस्कृतिक पहचान हैं । दोनों में से किसी एक को अलग करके नहीं देखा जा सकता
है ।
‘शांति
निकेतन’ गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की अपरिमित मानवता और अनथक कर्मशीलता का ही
प्रत्यक्ष प्रबल दृष्टांत है, जो अपने आप में माँ भारती के दिव्य ज्ञान का एक
विस्तृत उन्मुक्त प्रांगण है । जहाँ विद्या, ज्ञान, कर्म और उपलब्धि की कोई सीमा नहीं है ।
यहाँ प्रकृति और मानवीय कलात्मक क्रिया-कलापों के बीच में एक अटूट भावनात्मक
शाश्वत बंधन है । इसी ‘शांति निकेतन’ में गुरुदेव ने अपने जीवन का एक बड़ा और
बहुमूल्य हिस्सा को बिताया था । यह गुरुदेव का ‘शांति निकेतन’ भारत का ४१ वाँ
‘विश्व धरोहर स्थल’ के रूप में सर्व सम्मानित एक विरासत है, जिसे १८ सितंबर, २०२३ को ‘यूनेस्को’ द्वारा सऊदी अरब के
रियाद में आयोजित ‘विश्व धरोहर समिति’ ने ४५ वाँ ‘विश्व धरोहर स्थल’ के रूप में भी
स्वीकार किया है ।
‘शांति निकेतन’ का शाब्दिक अर्थ होता है,
‘शांति’ का ‘निवास स्थल’ यानी,
वह स्थान, जहाँ पर सर्वत्र ही प्राकृतिक नीरवता का विस्तृत
हरीतिमा का विराट साम्राज्य फैला हुआ हो । ‘शांति निकेतन’ के संदर्भ में यह पूर्णतः
सार्थक भी रहा है । हालांकि हाल के कुछ वर्षों में इसके इर्द-गिर्द बेहताश बढ़ती
जन-संकुलता, कुछ उद्योग-धंधे और फिर कुछ राजनीतिक गर्मा-गर्मी जनित गतिविधियों से
‘शांति निकेतन’ की प्राकृतिक शांति कुछ भंग होती अवश्य ही प्रतीत हो रही है ।
परंतु यह भी सत्य है कि ‘शांति-निकेतन’ की ‘शांति’ की नींव इतनी गंभीर और ठोस है
कि शांति-विरोधी ऐसे कुछ व्यवधान हवा के क्षणिक झोंके मात्र ही साबित होते हैं ।
सन् १८६३ में, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के दार्शनिक, विद्या-प्रेमी,
सामाजिक-धार्मिक सुधारक, ब्रह्म-समाजी धनाढ्य पिता महर्षि देवेन्द्र नाथ ठाकुर एक
बार बीरभूम जिले के बोलपुर के ‘लेटराइट’ युक्त शुष्क लाल मिट्टी वाली अनुर्वर ‘राढ़
प्रदेश’ क्षेत्र से गुजरते समय उस क्षेत्र की सुनसान माध्यम ऊँचाई की हरियाली और घोर
प्रशांति से प्रभावित होकर, इसके तत्कालीन मालिक,
रायपुर (पश्चिम बंगाल) के जमींदार भुबन मोहन सिन्हा से 20 बीघे जमीन खरीदने का फैसला किया और उसे खरीदा । उस समय उस
निर्जन स्थान को भुवनडांगा के नाम से जाना जाता था,
जो एक डकैत प्रभावित क्षेत्र माना जाता था । जमीन खरीदने के
बाद उस क्षेत्र में क्रियाशील डकैतों की जीवन-शैली को बदलने और उन्हें आम नागरिक
की भाँति ही समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए उन्होंने समयानुसार सामाजिक और
प्रशासनिक बहुत मेहनत की । अंततः उनकी मेहनत रंग लायी और वे उनके लूट-खसोट और
मार-काट की जीवन-शैली को बदलने में पूर्ण सफल हुए । उन्हें वे समाज की मुख्य धारा
में जोड़ ही दिए थे । उन्होंने उस ज़मीन पर एक आध्यात्मिक आश्रम स्थापित किया और
अपने छात्रों को ब्रह्म समाज के सिद्धांतों के साथ ही साथ प्रकृति और सादगी के
महत्व के बारे में पढ़ाना शुरू किया । फिर उन्होंने वहाँ की निवासियों के ही सहयोग
से १८६३ में वहाँ पर एक अद्वितीय स्वरूप वाले ६० फीट लंबा और ३० फीट चौड़ा,
ऊपर से ‘टाइल्स’ से निर्मित छत और संगमरमर से बना फर्श का
एक सुंदर ध्यान-केंद्र का निर्माण करवाया । इसके दीवारों पर काले शीशे लगवाए ।
सर्वत्र ही नीरव प्रकृति से घिरा और शहरी हलचल से बहुत दूर इस प्रशांत और रमणीय
‘ध्यान-केंद्र’ में ध्यान लगाकर बैठने से उन्हें अपने मन में अद्भुत शांति का
एहसास होता था । अतः उन्होंने इसका नाम ‘शांति निकेतन आश्रम’ रखा । उस प्रार्थना
कक्ष को आज भी ‘ठाकुर आश्रम’ या ‘काँच घर’ कहा जाता है,
जो महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर के आध्यात्मिक भव्य विचारों
के संवाहक और प्रचारक है । वहीं पास में ही औषधीय गुणों से युक्त तेज महक वाले
छतिम (सप्तवर्णी) पेड़ों के नीचे ही बैठकर महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर अक्सर ध्यान
किया करते थे । छतिम पेड़ों से परिपूर्ण वह स्थान आज भी ‘छतिमतला’ के रूप में
विख्यात है । ‘शांतिनिकेतन’ के विकास के प्रारम्भिक चरण में ही शांतिमय आश्रम,
शांति निकेतन गृह, उपासना मंदिर और प्रार्थना कक्ष जैसी महत्वपूर्ण संरचनाओं
का निर्माण हुआ था ।
रवीन्द्रनाथ अपनी तरुणाई में १७ वर्ष की आयु में १८८७ में
अपने पिता महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर के साथ उस शांति निकेतन में अपना पहला कदम
रखे थे । वहाँ की चतुर्दिक हरीतिमा और ग्रामीण शांतिमय वातावरण ने उनके तरुणाई मन
को अपनी ओर आकर्षित कर लिया । वहीं पर रहने के क्रम में ही उसके निकटवर्ती
क्षेत्रों में रहने वाले बायउल गीत-संगीत से तरुण रवीन्द्र का परिचय हुआ । उन बाउल
गीत-संगीत के माध्यम से बाउल गायक आत्मा-परमात्मा जनित संबंधों को वैष्णवी-सूफी
रहस्यवादी ढंग से प्रस्तुत किया करते थे । वे सभी प्राकृतिक और मानवीय उपादन
परस्पर मिलकर रवीन्द्र की तरुणाई मन में ही कवि,
गीतकार, संगीतकार, कहानीकार, उपन्यासकार, नाटककार, कलाकार, सुवक्ता आदि के सुदृढ़ बीज को अंकुरित कर दिए थे, जो
कालांतर में वृहद स्वरूप को धारण कर न केवल भारत, बल्कि विश्व मानव को ही ज्ञान और
शांति प्रदान करने में प्रबल सहायक बने ।
बहुमुखी प्रतिभा-सम्पन्न युवक रवींद्रनाथ अपने पिता महर्षि
देवेन्द्रनाथ ठाकुर के सामाजिक और धार्मिक सुधार-कार्यों से प्रेरित होकर शिक्षा
और लौकिक प्रगति के प्रकाश से कोसों दूर गंभीर अंधकार में जीवन बसर कर रहे स्थानीय
देहाती जन-जातियों को शिक्षित कर उन्हें स्वावलंबी बनाने की प्रबल इच्छा जागृत हुई
। उन्हें विश्वास था कि शिक्षा संबंधित आदान-प्रदान की प्रक्रिया यदि बंद कमरों के
स्थान पर स्वच्छंद प्रकृति की गोद में हो,
विषय वस्तु की सानिध्यता में हो, तो विद्यार्थी के निर्मल
मस्तिष्क सरलता से पठनीय विषय-वस्तु को समझ पाएंगे । इसके साथ ही उनमें परस्पर
प्रेम-सहयोग की भावना, अनुशासन की भावना, बड़ों के प्रति सम्मान की भावना,
प्राणियों के प्रति प्रेम की भावन आदि जैसी नैतिकता के साथ ही प्राकृतिक
आत्मनिर्भरता भी जागृत होंगी । अपने चतुर्दिक के पेड़-पौधों,
पशु-पक्षी, मानवीय क्रिया-कलापों तथा वातावरण को आत्मसात् कर
विद्यार्थी उनके प्रति पूर्ण जागरूक भी हो सकेंगे । इसके लिए उन्हें भीड़-भाड़
वाले शहरी परिवेश से दूर एकांत प्राकृतिक स्थल की आवश्यकता हुई, जो ‘शांति निकेतन
आश्रम’ के रूप में उनकी खोज पूर्ण हुई । उस व्यापक प्रशांत क्षेत्र को ही १९०१ में
रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने ‘शांति निकेतन’ नाम रखा, जहाँ प्राचीन भारतीय गुरुकुल शिक्षण
परंपरा के अनुकूल ही प्राकृतिक की स्वच्छंद गोद में हरित पेड़-पौधों की छाया में पक्षियों
के मधुर कलरव के बीच विद्यार्थियों को शिक्षित करने का महायज्ञ प्रारंभ किया,
जिससे विद्यार्थियों और उनके पर्यावरण के बीच परस्पर प्रेम
का एक मजबूत संबंध को बढ़ावा मिलता रहे । आज भी शांति निकेतन धार्मिकता और
क्षेत्रीयता से परे होकर गुरुदेव द्वारा प्रशस्त मार्ग पर बढ़ते हुए विश्व भर में
ज्ञान-प्रकाश को निरंतर प्रस्फुटित कर रहा है ।
१९१३ में, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर को साहित्य में विश्व प्रसिद्ध
‘नोबेल पुरस्कार’ प्राप्त हुआ । इसी वर्ष १९२१ में उन्होंने ६० वर्ष की आयु में
शांति निकेतन में ही ‘विश्व भारती’ नामक एक अलग शैक्षणिक संस्थान की स्थापना की,
जो प्रारंभ में भारतीय संस्कृति और परंपराओं के
अध्ययन-अध्यापन के लिए एक छोटा-सा ‘पाठ भवन’ विद्यालय मात्र थी । फिर समयानुकूल
कार्य के अनुरूप उसका तेजी से विकास हुआ, क्योंकि रवीन्द्रनाथ की ख्याति ‘नोबेल पुरस्कार’ विजेता के
रूप में वैश्विक स्तर पर फैल चुकी थी, फलतः पूरे देश व विदेश से अनेक विद्वान
शिक्षकों का ‘विश्व भारती’ में आवागमन होने लगा था । उन्होंने अपनी अंतिम साँस
(१९४१) तक अपने तन-मन-धन से ‘विश्व भारती’ का भरपूर पोषण किया । उनके द्वारा
प्रशस्त किये गए मार्ग पर अग्रसर होकर १९५१ में ‘विश्व भारती’ राष्ट्रीय और
अंतर्राष्ट्रीय ख्याति को प्राप्त एक विशेष प्रतिष्ठित केंद्रीय विश्वविद्यालय के
रूप में परिणत हो गई । कालांतर में उसमें विश्व स्तरीय आवश्यकता के अनुरूप आवश्यक
सुधार और विस्तार किया गया । उसमें कला, विज्ञान और मानविकी सहित कई नवीन विषयों को भी शामिल कर
शिक्षण हेतु उसे विश्व स्तरीय समृद्ध किया गया ।
तब तक विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ‘भारतीय आध्यात्मिकता के
अग्रदूत’ की दर्जा प्राप्त कर चुके थे और मैत्रीपूर्ण शैक्षणिक व्याख्यान-दौरे पर
लगभग पूरी दुनिया की यात्रा कर चुके थे । परंतु अपने व्यस्तम कार्यक्रमों में भी
उन्होंने शांति निकेतन की प्राकृतिक सुषमा का सदैव ध्यान रखा । इसके छात्रों में
उन्होंने सदैव कल्पनाशीलता, सतर्कता और जिज्ञासा के विकास पर जोर देते रहे, ताकी
छात्रों को सर्वदा प्राकृतिक वातावरण के प्रति प्रेम और संबंधित आवश्यक सठीक
शिक्षा प्राप्त होता ही रहे ।
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कालांतर में ‘शांति निकेतन’
में कई अन्य सांस्कृतिक और शैक्षणिक संस्थानों की भी स्थापना की । यथा, -
(१) पाठ भवन – ६ से १२ वर्ष के बालकों के लिए बंगला माध्यम से ‘स्कूल
सर्टिफिकेट’ (मैट्रिक परीक्षा) तक की शिक्षा दी जाती है ।
(२) शिक्षा भवन - इसमें उच्च छात्रों के लिए सामाजिक, सांस्कृतिक
और अन्य सहगामी क्रियाओं के आधार पर ‘सीनियर स्कूल सर्टिफिकेट’ (इन्टर परीक्षा) तक
की शिक्षा दी जाती है ।
(३) विद्या भवन - इसमें संस्कृत, बंगाली, हिन्दी, उड़िया, अंग्रेजी, अर्थशास्त्र
और दर्शन से संबंधित स्नातक (बी.ए. व आनर्स) तथा स्नातकोत्तर (एम.ए) की शिक्षा दी
जाती है । छात्र इन विषयों से संबंधित अनुसंधान कार्य भी करते हैं । इसके अतिरिक्त
विदेशी भाषा चीनी, जापानी, तिब्बती, फ्रेंच, जर्मन, अरबी और अंग्रेजी की व्यापक शिक्षा दी जाती है ।
(४) विनय भवन - यह एक अध्यापक प्रशिक्षण कॉलेज है, जिसमें बी.एड. पाठ्यक्रम की
व्यवस्था है ।
(५) कला भवन - इसमें ड्राइंग, पेंटिंग, मूर्ति कला, कढ़ाई आदि के अतिरिक्त काष्ठ कला, कलात्मक
चर्म-कार्य तथा अन्य शिल्पों की शिक्षा भी दी जाती है ।
(६) संगीत भवन - इसमें संगीत में इंटरमीडिएट परीक्षा का पाठ्यक्रम, तत्पश्चात
रवीन्द्र संगीत, हिन्दुस्तानी संगीत, सितार, मणिपुरी
नृत्य, कत्थक, कथाकली और भरतनाट्यम की शिक्षा दी जाती है ।
(७) चीन भवन - इसमें भारतीय छात्रों को चीनी संस्कृति और चीनी छात्रों को
भारतीय संस्कृति संबंधित शिक्षा दी जाती है ।
(८) हिन्दी भवन - इसमें हिन्दी भाषा की शिक्षा तथा अनुसंधान कार्य करने की
पर्याप्त सुविधाएँ हैं ।
(९) हिन्द-तिब्बती शिक्षालय - इसमें तिब्बती भाषा की शिक्षा दी जाती है ।
(१०) श्री निकेतन - इसमें ग्राम्य जीवन की समस्याओं और उसके समाधान की शिक्षा
दी जाती है । साथ ही घरेलू उद्योग-धन्धों के प्रशिक्षण का कार्य भी किया जाता है ।
वर्तमान में शांति निकेतन और विश्व भारती के विभिन्न अंग
शैक्षणिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक गतिविधियों के विश्व प्रसिद्ध केंद्र बन गए हैं,
जिन्होंने दुनिया भर के विद्वानों और कलाकारों को अपनी ओर
आकर्षित किया है । यह विराट सांस्कृतिक संस्था गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के
शिक्षा तथा मानवता सम्बन्धी विचारों का विराट मूर्तमान स्वरूप है । सात्विक व सादा
जीवन, प्रकृति की सानिध्यता, प्राचीन व आधुनिक शिक्षा, आध्यात्मिक व भौतिक शिक्षा एवं
मानवीय सांस्कृतिक उत्थान आदि इस संस्था की अपनी मूल विशेषताएँ हैं । स्वयं
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने विश्व भारती की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए लिखा
है, - ‘विश्व भारती, भारत का प्रतिनिधित्व करती है । यहाँ भारत की बौद्धिक सम्पदा सभी के लिए उपलब्ध है । अपनी संस्कृति के श्रेष्ठ तत्व
दूसरों को देने में और दूसरों की संस्कृति के श्रेष्ठ तत्व को अपनाने में भारत सदा
से उदार रहा है । विश्व भारती, भारत की इस महत्वपूर्ण परम्परा को स्वीकार सहर्ष
करती है ।’
शांति निकेतन के बारे में
प्राच्य विद्वान सिल्वियन लेवी ने १९२३ में गुरुदेव
रवीन्द्रनाथ ठाकुर को शांति निकेतन के बारे में एक पत्र में लिखा था, - ‘मुझे नहीं
पता कि शांति निकेतन कभी दुनिया में शिक्षा के सबसे विकसित संस्थानों में शुमार
होगा या नहीं, लेकिन आप संतुष्ट हो सकते हैं कि आपने अद्वितीय शांति का निवास बनाया है । मैं
फिर से आम के पेड़ों की छाया में बैठ सकता हूँ,
शाल की शानदार गलियों में चल सकता हूँ,
सपने देख सकता हूँ, संगीत सुन सकता हूँ, छंद सुन सकता हूँ, प्यारे दोस्तों के साथ आपकी आनंददायक,
मधुर, प्रिय संगति का आनंद ले सकता हूँ वहाँ ।’
शांति निकेतन व विश्व भारती की सानिध्यता को प्राप्त कर
अपने कार्य-क्षेत्र में असाधारण योग्यता और प्रतिभा को विश्व स्तरीय प्रमाणित कर
राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शांति निकेतन की गरिमा को चिर-स्थायी बनाने
वाले कुछ प्रमुख व्यक्तित्व, - अमर्त्य सेन (अर्थ शास्त्री), सुरेन्द्रनाथ कर, सुचित्रा
मित्रा, शांतिदेव घोष व कणिका बंधोपाध्याय (गायक), सागरमय घोष (पत्रकार), सावित्री
देवी, सत्यजीत राय (फिल्म व संगीत), इंदिरा गाँधी व गायत्री देवी (राजनीतिज्ञ),
अवनीन्द्रनाथ टैगोर,
नंदलाल बोस, बिनोद बिहारी मुखर्जी,
रामकिंकर बैज, के. जी सुब्रमण्यन,
प्रभात मोहन बंधोपाध्याय, कृपाल सिंह शेखावत, ब्योहर राम
मनोहर सिन्हा, दिनकर कौशिक (मूर्तिकार एवं चित्रकार), भीमाराव हौसकर शास्त्री
(संगीतकार), गुरु केलू नायर (कथकली), क्षितिजमोहन सेन, महाश्वेता देवी, शिवानी,
नाबाकान्त बरुआ, भुवन ढुंगाना (प्रसिद्ध विद्वान), प्रदीप के चक्रवर्ती, चित्रा
दत्त (वैज्ञानिक), प्रतिमा देवी, असित कुमार हलदार (कलाकार), कृष्ण कृपलानी
(लेखक), दिनेन्द्रनाथ टैगोर (संगीतज्ञ), इंदिरा देवी चौधुरानी, सुमित्रा गुहा
(शास्त्रीय संगीत), गौर गोपाल घोष (खिलाड़ी) सैय्यद मुज्तबा अली (उपन्यासकार व भाषाविद) आदि हैं ।
जबकि अनगिनत विदेशी विद्वान शांति निकेतन में आकर अपने कार्य-क्षेत्रों में
असीम ज्ञान प्राप्त किये । कुछ ने तो शांति निकेतन में रहकर अपनी सेवाएँ प्रदान
कीं, जबकि कुछ विदेशी विद्वान शांति निकेतन से अर्जित ज्ञान से अपने देशों की सेवा
की हैं । विदेशी विद्वानों में चार्ल्स फ्रीर एंड्रयूज (दीनबंधु एंड्रयूज),
लियोनार्ड नाइट एल्महर्स्ट, मार्टिन काम्पचेन (जर्मन अनुवादक), सिल्वियन लेवी
(प्राच्य विद्वान), आनंद यांग, (इतिहासकार), तान युन शान (चीनी विद्वान), मार्टिन कैंप चैन (जर्मन विद्वान), मैक्सिमियानी पोर्टस
(लेखिका), अदिति मोहिसिन (बांग्लादेश), आनंद समरकून (श्रीलंका) आदि नाम विशेष उल्लेखनीय
है ।
‘शांति निकेतन’ हम भारतीयों का गौरव है । गुरुदेव
रवीन्द्रनाथ ठाकुर के महान उद्देश्यों के अनुरूप ही उसे पूर्णतः प्राकृतिक और विशेष
शिक्षण कार्य करने हेतु उसे वर्तमान राजनीतिक गर्मा-गर्मी परिवेश से दूर ही रखना
वांछनीय है । तभी ‘शांति निकेतन’ की प्रशांत गौरवशालीनता तथा ‘विश्व भारती’ के नाम
की सार्थकता सिद्ध हो सकेगा ।
श्रीराम पुकार शर्मा
अध्यापक व स्वतंत्र लेखक,
२४, बन बिहारी बोस रोड,
हावड़ा – 7111०१ (पश्चिम बंगाल)