शनिवार, 31 दिसंबर 2022

दिसंबर – 2022, अंक – 29

 




शब्द-सृष्टि 

दिसंबर – 2022, अंक – 29


शब्द संज्ञान – डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

विचार स्तवक – गजानन माधव मुक्तिबोध

कवि परिचय – संत कवि दादूदयाल – डॉ. हसमुख परमार

पुस्तक समीक्षा – गुर्जरी पल्लव – डॉ. पूर्वा शर्मा

आलेख – नवगीत काव्य विधा में युगबोध – डॉ. माया प्रकाश पाण्डेय

क्षणिकाएँ – प्रीति अग्रवाल ‘अनुजा’

कहानी – रेत का घर – सुदर्शन रत्नाकर

कविता – हे पिता ! – त्रिलोक सिंह ठकुरेला

निबंध – भारतेन्दु हरिश्चंद्र – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल

चित्र कविता – अनिता मंडा

कविता – डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा

अनुवाद – दगा (गुजराती कहानी) – राघव जी माधड़ (हिन्दी अनुवाद - डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र)

गीत – वर्जना के पार – डॉ. ऋषभदेव शर्मा

कविता – इश्क की राह में – रमेश कुमार सोनी

कवि परिचय

 



संत कवि दादूदयाल

डॉ. हसमुख परमार

          हिन्दी के मध्यकालीन भक्तिकाव्य, विशेषतः निर्गुण भक्ति की ज्ञानाश्रयी शाखा से संबद्ध काव्य के विकास में संत कवियों का प्रमुख योगदान रहा, अतः आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल की जिस शाखा को ज्ञानाश्रयी शाखा कहा उसी को डॉ. रामकुमार वर्मा ने संतकाव्य कहा। वैसे तो संत और भक्त, इन दोनों में कोई मूल अंतर नहीं है, दोनों का आशय एक ही है, परंतु हिन्दी में निर्गुण उपासकों को संत तथा सगुण उपासकों को भक्त कहने की एक रूढ़ि है। लेकिन साथ में यह भी सच है कि इस रूढ़ि का आग्रहपूर्वक पालन भी नहीं होता। कबीर को संत कबीर भी कहते हैं और भक्त कबीर भी। इसी तरह तुलसी के साथ भी संत और भक्त दोनों समान रूप से प्रयुक्त होता है, परन्तु यह स्थिति सूर के साथ नहीं है। विशेषकर निर्गुण उपासकों को संत कहा जाता है और उनकी वाणी को संत काव्य की संज्ञा दी गई है।

          हिन्दी संतकाव्य के विकास में जिन कवियों का योगदान रहा उनमें प्रभावशाली संत कवि के रूप में कबीर का नाम सबसे पहले लिया जाता है। दरअसल हिन्दी में संतकाव्य की एक अविच्छिन्न व व्यवस्थित परंपरा का वास्तविक विकास कबीर से ही माना जाता है। कबीर के अतिरिक्त संतकाव्यधारा के विकास में जिन कवियों का योग रहा उनमें दादूदयाल का नाम भी विशेषतया उल्लेखनीय है। कबीरदास, रैदास, नानकदेव, मलूकदास, सून्दरदास, धर्मदास, सदना, पीपा प्रभृति संतकवियों की तरह दादूदयाल को भी पर्याप्त लोकप्रियता प्राप्त हुई।

          अन्य संतकवियों की तरह दादूदयाल के जीवन के संबंध में भी प्रामाणिक जानकारी का अभाव है। दादू के जन्म, जाति व गुरु को लेकर अलग-अलग मत प्रचलित हैं। दादू के जीवनवृत्त संबंधी सामग्री उनके शिष्य जनगोपाल द्वारा लिखित ‘श्री दादू जन्मलीला परची’ में मिलती है। किंतु उस सामग्री में ठीक ठीक ऐतिहासिक विवरण नहीं मिलते । क्योंकि वे जीवनियाँ भक्तों द्वारा श्रद्धाभाव से लिखी गई हैं। दादूपंथ के ही एक और संत राघवदास के भक्तमाल ग्रंथ से भी इस विषय में कुछ तथ्य प्राप्त होते हैं। आधुनिक काल में कुछ अध्येताओं ने दादूदयाल के जीवनवृत्त पर कार्य किया है। डॉ. बडथ्वाल, आचार्य रामचंद्रशुक्ल और परशुराम चतुर्वेदी ने दादू का जन्म 1544 ई. में माना जबकि डॉ. रामकुमार ने दादू का जन्म 1601 ई. बताया है। उनके जन्म स्थान के बारे में भी अलग अलग मत है। दादूपंथ में प्रचलित मान्यता के अनुसार दादू का जन्म अहमदाबाद (गुजरात) में हुआ था। जन्म वर्ष एवं जन्म स्थल की ही तरह दादूदयाल की जाति के संबंध में भी विद्वानों में मतैक्य नहीं है। कुछ विद्वान दादू को ब्राह्मण तो कुछ धुनिया बताते हैं। क्षिति मोहन सेन ने अपने ग्रंथ ‘दादू’ में बताया है कि वे ब्राह्मण के पालित पुत्र थे।

          संत कवियों में गुरु का महत्व अधिक रहा है। गुरुमहिमा का वर्णन संत काव्य का एक प्रमुख विषय रहा है। दादू ने भी अपनी वाणी में गुरुमहिमा का गान तो खूब किया है, लेकिन वहाँ उनके गुरु के नाम का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। दादू के गुरु कौन थे इस बारे में स्पष्ट व प्रामाणिक जानकारी का अभाव ही है। कतिपय मत देखें-

- दादूदयाल का गुरु कौन था, यह ज्ञात नहीं। पर कबीर का इनकी बानी में बहुत बार नाम आया है औऱ इसमें कोई संदेह नहीं कि ये उन्हीं के मतानुयायी थे। (हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पृ. 60)

- दादू के गुरु वृद्ध भगवान थे, जनगोपाल ने ‘जनमलीला परची’ में इस मत का समर्थन किया है। (हिन्दी साहित्य का इतिहास, सं.डॉ. नगेन्द्र, पृ. 151)

- कुछ लोग इन्हें रामानंद की शिष्य परंपरा में छठवाँ शिष्य मानते है। रामानंद के शिष्य कबीर हुए, कबीर के कमाल, कमाल के जमाल, जमाल के विभव, विभव के पूढ़न। यही पूढ़न दादू के गुरु बताए जाते हैं। (हिन्दी साहित्य का इतिहास, डॉ. विजयपाल सिंह, पृ. 98)

- कुछ अन्य अध्येताओं द्वारा दादू के अज्ञात गुरु बुड्ढन या वृद्धानंद बताया जाता है।

दादूदयाल के जीवन तथा उनके देहावसान के संबंध में आचार्य रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं - ‘‘दादूदयाल 14 वर्ष तक आमेर में रहे, वहाँ से मारवाड़, बिकानेर आदि स्थानों में घूमते हुए संवत 1659 में नराना (जयपुर से बीस कोस दूर) में आकर रह गये। वहाँ से तीन-चार कोस पर भराने की पहाड़ी है वहाँ भी वे अंतिम समय में कुछ दिनों तक रहे और वहीं संवत 1660 में शरीर छोडा। वही स्थल दादूपंथियों का प्रधान अड्डा है और वहाँ दादू के कपड़े और पोथियाँ अभी तक रखे हैं ।’’

विनम्र स्वभाव, दादू के व्यक्तित्व का एक बड़ा गुण था। उदार मन के इस संत ने अपने पूर्ववर्ती व समकालीन संतों को बडे आदर और सम्मान की दृष्टि से देखते हुए अपनी रचनाओं में उनके प्रति श्रद्धा का भाव प्रकट किया है, विशेषतः नामदेव, कबीर और रैदास तो दादू के आदर्श ही थे।

अमृत राम रसाइण पीया, ताथै अमर कबीरा कीया ।

राम राम कहि राम समाना, जन रैदास, मिली भगवान ।।

अब हम दादूदयाल के साहित्य या रचनाओं पर एक दृष्टिपात करते हैं । कहते हैं कि इस प्रतिभाशाली संत कवि ने हजारों की संख्या में पदों और साखियों की रचना की थी, परंतु उनका समग्र कृतित्व आज उपलब्ध नहीं है। दादू के साहित्य को व्यवस्थित रूप देने का श्रेय उनके शिष्यों जगन्नाथदास, सन्तदास और रज्जब को दिया जाता है। सन्तदास एवं जगन्नाथदास ने ‘हरडे वाणी’ शीर्षक से उनकी रचनाओं का संग्रह प्रस्तुत किया । इस संग्रह में अंग विभाजन या विषय विभाजन नहीं है । दूसरी रचना ‘अंगवधू’ का संग्रह दादू के प्रसिद्ध शिष्य रज्जब ने किया जिसमें उन्हों ने रचनाओं का वर्गीकरण करके भिन्न-भिन्न अंगों के अंतर्गत रखा। दादू साहित्य विषयक उपलब्ध संग्रहों में पंडित परशुराम चतुर्वेदी संपादित ‘दादूदयाल’ ज्यादा प्रामाणिक संकलन माना जाता है ।

दादूदयाल की रचनाओं के वस्तुपक्ष का अध्ययन करने से पता चलता है कि उनकी रचनाओं के विषय वही हैं जो संतसाहित्य के सर्वमान्य विषय हैं। जैसे - ईश्वर की व्यापकता, सद्गुरु की महिमा, जात-पाँत का निराकरण, संसार की अनित्यता, आत्मबोध इत्यादि । दादू की बानियाँ अधिकतर कबीर की साखियों से मिलती-जुलती है। दादू के बारे में यह सर्वविदित है कि वे कबीर के विचारों से अत्यधिक प्रभावित रहे । कुछ लोग उन्हें कबीर का अनुयायी मानते हैं । परंतु उनमें कबीर जैसी अक्खडता तथा आक्रमकता बिल्कुल नहीं है। ‘‘संत दादू की विचारधारा कबीर से प्रभावित है । निर्गुण भक्त कवि होने पर भी उन्होंने ईश्वर के सगुण स्वरूप को मान्यता दी है। इस प्रकार भक्ति को उन्होंने सहज भाव से अंगीकार किया है, किसी मतवाद की उलझन में वे नहीं पड़े। उनकी भाषा कबीर की अपेक्षा सरल और बोध गम्य है। उनकी वाणी में ओज और गाम्भीर्य दोनों के दर्शन हो जाते है।’’ (हिन्दी साहित्य का इतिहास, सं.डॉ. नगेन्द्र, पृ. 151-152)

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के मतानुसार ‘‘दादूदयाल की रचनाओं में प्रेमतत्व की व्यंजना अधिक है। घट के भीतर के रहस्य प्रदर्शन की प्रवृत्ति उनमें बहुत कम है। दादू की बानी में यद्यपि उक्तियों का वह चमत्कार नहीं है जो कबीर की बानी में मिलता है, पर प्रेमभाव का निरुपण अधिक सरस और गंभीर है।’’

भक्त के बारे में दादू बताते हैं कि एक सच्चे भक्त को नम्र, शीलवान और वीर होना चाहिए। दादू के विचार से समाज में सुव्यवस्था तथा जीवन में शांति व संतुलन बनाये रखने में संतों की अहम भूमिका होती है। मानवधर्म ही संत का धर्म होता है। ‘‘दादू के विचार में सच्चा संत अपनी सब चारित्रिक बुराइयों को दूर कर, उन गुणों को धारण करता है जो उसको सर्व दोष रहित ब्रह्म के समान निर्मल औऱ स्वच्छ बना देता है।’’ (हिन्दी भक्तिसाहित्य में सामाजिक मूल्य व अवधारणाएँ, सावित्री चन्द्र, शोभा, पृ. 180)

दादू अवगुण छाड गुण गहै सोई शिरोमणि साधू ।

गुण अवगुण तै रहित है, सो निज ब्रह्म अगाधू ।।

          सामाजिक विषमता, जाति-पाँति, मूर्तिपूजा, बह्याचारों, मिथ्याचारों, आडम्बरों आदि का विरोध दादू ने उग्र भाषा में नहीं किया है। उनमें खण्डन की प्रवृत्ति कम मिलती है। वर्ण व जातिगत भेद दादू की दृष्टि से जन्म के आधार पर नहीं बल्कि मनुष्य के कर्म और विचार के आधार पर होना चाहिए।

दादू करनी उपरि जाति है, दूजा सोच विचार ।

मैली मध्यम् ह्वै गए, उज्जवल ऊँच विचार ।।

          काव्यभाषा व काव्यकला के लिहाज से संतकवियों की रचनाओं में काफी साम्यता मिलती है। संतों की वाणी में काव्यशास्त्रीय ज्ञान तथा कलात्मक भाषा कौशल के दर्शन कम ही होते है क्योंकि कुछ अपवाद को छोड दें तो ये संत ज्यादा पढ़े लिखे तो थे नहीं। काव्यगुण तथा अन्य काव्यशास्त्रीय संदर्भों की चिंता इन्हें ज्यादा थी भी नहीं, वे तो अपनी अनुभूतियों को पूरे वेग और प्रभाव के साथ व्यक्त करते थे। अन्य संत कवियों की ही तरह दादू काव्य की भाषा बोलेचाल में प्रयुक्त सामान्य हिन्दी का स्वाभाविक रूप है।

सो दिनद कब हूँ आवेगा, दादूडा पिव पावेगा ।

क्यूं ही अपणै अंग लगावेगा, तब सब सुख दुःख जावेगा।

साधु ही नहीं बल्कि सामान्य मनुष्य के लिए भी दादू कहते हैं कि अपने विवेक से सच-झूठ, ज्ञान-अज्ञान की पहचान कर मनुष्य को अपने सद्गुणों के सहारे अपना जीवन जीना चाहिए ।

          दादू साँभर और जयपुर में ज्यादा रहे और वहीं पर उन्होंने ब्रह्म संप्रदाय की स्थापना की । यही ब्रह्म संप्रदाय आगे चलकर ‘दादूपंथ’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। आज भी दादूपंथ राजस्थान तथा उसके आसपास के प्रदेशों में किसी न किसी रूप में जीवित है। दादूदयाल की लम्बी शिष्य-परंपरा में अनेकों शिष्यों का नामोल्लेख मिलता है। गरीबदास, रज्जब, सुंदरदास, जगजीवन, जनगोपाल, संतदास औऱ जगन्नाथ उनके प्रमुख शिष्य थे ।



डॉ. हसमुख परमार

एसोसिएट प्रोफ़ेसर

स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर

जिला- आणंद (गुजरात) – 388120

 

 

आलेख

 


नवगीत काव्य विधा में युगबोध

डॉ. माया प्रकाश पाण्डेय

नवगीतों में युगबोध की चर्चा करने से पूर्व उसके सैद्धान्तिक पहलुओं पर किंचित विचार करना आवश्यक हो जाता है, जिससे यह स्पष्ट हो जाएगा कि नवगीतका प्रारम्भ कब हुआ या कब से माना जाना चाहिए। वे कौन सी स्थितियाँ, परिस्थितियाँ थीं जिनके फलस्वरूप नवगीतअस्तित्व में आया। नवगीत हिन्दी साहित्य की अत्याधुनिक विधा है। इसका प्रारम्भ महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निरालाके गीतकाव्यों से माना जाता है। निराला के गीतों में जहाँ एक ओर विशुद्ध जनगीत मिलते हैं जो भाव एवं छन्द की दृष्टि से विशुद्ध जनगीत माने जाते हैं वहीं दूसरी ओर भक्ति के गीत भी हैं जैसे अर्चना, आराधना आदि। अतएव निराला के काव्य में नवगीतअल्प मात्रा में है। हिन्दी साहित्य में रोमानी गीतों की परम्परा भी चल रही थी जिनमें हरिवंशराय बच्चन, अंचल जैसे कवि अपनी रचनाएँ प्रस्तुत कर रहे थे। ऐसा माना जाता है कि इन्हीं रोमानी गीतों की प्रतिक्रिया स्वरूप आगे चलकर हिन्दी गीतों का एक हिस्सा नवगीत के रूप में अपना स्वरूप ग्रहण कर लेता है।

गीत से नवगीत तक की यात्रा में प्रगतिवाद की भी अहम् भूमिका रही है। तत्कालीन कवि प्रगतिवाद के प्रभाव से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाये थे। जैसाकि इस संदर्भ में डॉ. रामदरश मिश्र लिखते हैं कि “इन्हीं दिनों प्रगतिवाद की धारा साहित्यिक गीतों को लोकगीतों के बहुत समीप लाना चाहती थी या यों कहा जाय कि प्रगतिवाद के जनवादी प्रभाव के नाते ही लोकगीतों की शक्ति और शब्दावली लेकर ऐसे साहित्यिक गीत लिखने की प्रेरणा कवियों को प्राप्त हुई। इस धारा से प्रयोगवाद में परिगणित कवि (अज्ञेय, गिरजाकुमार माथुर, भारती और नरेश मेहता) भी अछूते नहीं रहे।”1 नवगीत की प्रगति में प्रगतिवादी कवियों की अहम् भूमिका रही है। जीवन के यथार्थ को देखने-परखने की दृष्टि गीतकारों को प्रगतिवाद से ही मिली है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि मार्क्सवाद आम लोगों के जीवन-जगत से जुड़ा रहा है इसलिए नवगीत मार्क्सवाद के प्रभाव के कारण सामान्य लोगों के जीवन की बुनियादी जरूरतों से जुड़ने का प्रयास करने लगा।

नवगीत के नामकरण के संदर्भ में डॉ. गिर्राज सिंह लिखते हैं कि “नवगीत का नामकरण नई कविता के वजन में हुआ लगता है नवगीतसन् 1956-58 तक अघोषित और प्रचारित रहा। अधिकतर आलोचकों ने नवगीत का जन्म छठे दशक में स्वीकार किया है। गीतांगिनी’ (1958) सम्पादक राजेन्द्र प्रसाद सिंह, ‘लेखनी बेला’ (1958) - वीरेन्द्र मिश्र, क्वार की साँझ (1958) - रामनरेश पाठक, बंशी और मादल’ (1960) - ठाकुर प्रसाद सिंह आदि कृतियों के प्रकाशन से नवगीत विधिवत प्रमाणित हुआ है। नवगीतसंज्ञा को लेकर कई तरह की शंकाएँ और असहमतियाँ जताई गई हैं। डॉ. रवीन्द्र भ्रमर, डॉ. शम्भूनाथ सिंह, बाल स्वरूप राही, रामनरेश पाठक, राजेन्द्र प्रसाद सिंह, डॉ. जयप्रकाश आदि ने अपने लेखों में नवगीत की संज्ञा का प्रयोग किया है। लेकिन डॉ. कुंवरपाल सिंह जैसे आलोचक इसे नवगीतन कहकर आधुनिकया नये गीत कहना अच्छा समझते हैं-इस पीढ़ी द्वारा रचित गीतों को आधुनिक व नये गीत कहना चाहूँगा, ‘नवगीतनहीं2 केदारनाथ सिंह ने नवगीतको नयागीतकहा है तो ठाकुर प्रसाद सिंह ने इसे नये गीतसंज्ञा से अभिहित किया है। नवगीतकी अवधारणा को लेकर डॉ. रामदरश मिश्र जी लिखते हैं कि “जहाँ तक आज के गीतों के नयेपन की इयत्ता को स्पष्ट करने का सम्बन्ध है वहाँ तक तो नवगीत नाम सार्थक हो सकता है, किन्तु लगता है कि वह एक आन्दोलन बन गया है। एक ओर तो यह अपने को समूची नई कविता का अंग मानकर स्वयं में पूर्ण समझ ले रहा है। दूसरी ओर कल तक के अनेक सम्मेलनी गवैये गीतकार गीत को नवगीत बना देने वाले कुछ उपकरणों को चुन-चुन कर सायास आयोजन के साथ नवगीत रचना कर रहे हैं। समग्र कविता के प्रवाह से कटकर एक छोटी-सी लहर के घेरे में अपनी इयत्ता की घोषणा आसानी से की जा सकती है ।”3

नये युग के नये दौर में नवीन भावबोध व नवीन रचनाशैली के द्वारा प्रस्तुत गीत नवगीत कहलाता है। इस संदर्भ में डॉ. शम्भूनाथ सिंह के विचार देखिए- “नवगीत एक सापेक्षिक शब्द है, नवगीत की नवीनता युग सापेक्ष होती है। किसी भी युग में नवगीत की रचना हो सकती है। गीत रचना की परम्परा-पद्धति और भावबोध को छोड़कर नवीन पद्धति और विचारों के नवीन आयामों तथा नवीन भावसरणियों को अभिव्यक्त करने वाले गीत जब भी और जिस युग में भी लिखे जायेंगे, नवगीत कहलायेंगे।”4 यहाँ यह भी जान लेना आवश्यक है कि काव्य की तमाम विधाओं के बावजूद नवगीत की जरूरत क्यों महसूस हुई। नवगीत से पूर्व गीत की परंपरा चली आ रही थी, जिनमें समयानुसार छंदादि के दोष परिलक्षित होने लगे या यों कहें कि गीतों में छंदों का प्रयोग असहज लगने लगा। तत्पश्चात् उस गीत में नव विशेषण लगाकर उन गीतों के नये स्वरूप की परिकल्पना की गयी। नवगीत की आवश्यकता को बताते हुए रमेश रंजक लिखते हैं कि “यह सर्वविदित है कि छायावाद की भाषा-शैली जब दार्शनिक गूढता, घुमावदार, मुहावरों, कल्पना की वायवीयता, एकांगी रहस्यात्मकता में जकड़ती चली गयी तब समकालीन आलोचकों के जबरदस्त प्रहारों से छायावादी कवियों की मानसिता को एक जोरदार धक्का लगा और जीवन-जगत के वास्तविक यथार्थ से जुड़ने की माँग साहित्य में तेजी से उभरने लगी, जिसका सबसे ज्यादा प्रभाव निराला और पंत पर हुआ चुनांचे पंत और निराला अपनी छायावादी मानसिकता का अतिक्रमण कर यथार्थ की ठोस जमीन की ओर अग्रसर हुए।”5

इस प्रकार हिन्दी साहित्य में नवगीत परम्परा अनेक संदेहों, शंकाओं, कुशंकाओं के बावजूद सातवें दशक तक आते-आते अपना स्थान निर्धारित कर लेती है। गीतांगिनी (1958) से हिन्दी साहित्य में नवगीत का प्रारम्भ माना जाने लगता है।

नवगीत में यथार्थबोध :

नवगीत ने भी अपने आपको यथार्थ के धरातल से जोड़ा जैसाकि डॉ. श्यामसुन्दर घोष का कहना है कि “जब तक हम इस दबाव से वंचित रहे, हम एक मीठी दुनिया में, सपनों की दुनिया में सोये हुए थे, गीतों की प्रकृति, प्रेम, रुमान और स्वप्न तक सीमित रखे रहे, लेकिन जब यथार्थ का करारा झटका लगा, मोहभंग हुआ, तो त्रस्त और क्षुब्ध हुए। इस दशा में यथार्थ का बढ़ता हुआ प्रभाव वह जादू हो गया जो गीतों के सिर पर भी चढ़कर बोला।”6 नवगीत ने अपनी विषय-वस्तु का दायरा विस्तृत कर दिया, क्योंकि कोई भी युग यथार्थ को दरकिनार नहीं कर सकता। इसलिए तत्कालीन युग में जो कुछ भी हो रहा था, शनैः शनैः नवगीत में अंकित होने लगा। इसीलिए साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। लोग उससे प्रभावित होने लगे, प्रेरित होने लगे, इसलिए साहित्य को समाज का दीपक भी कहा जाता है। भारत आजाद होने के पश्चात् भी सामान्य लोगों की आकांक्षाएँ, अपेक्षाएँ पूर्ण नहीं हुई, ये मोहभंग की स्थिति में आने लगे।  लोगों को प्रजातंत्र से जो अपेक्षाएँ थीं ये धरी की धरी रह गई, स्थिति और भी जटिल एवं डरावनी सी हो गयी उनकी यह सोच कि देश आजाद होगा, हमारी सारी समस्याएँ दूर होंगी। अंग्रेजों के शोषण और दमन से हम आजाद हो जाएँगे, किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। तब न सिर्फ जनता में अपितु नवगीतकारों में विद्रोह के स्वर दिखाई देने लगे। जैसाकि रवीन्द्र भ्रमर की ये पंक्तियाँ कहती है –

“रक्षकों की पहन कर वर्दी

राजपथ पर खड़े बढ़मार

भेडियों के मुँह लगा है खून

चल रहा है मरण का व्यापार

राक्षसों के हाथ पहरा है।”

(सोन मछरी मन बसी, पृ. 95)

इस देश के लोकतंत्र में सरकार को जनता बनाती है और वही सरकार जनविरोधी नीतियों को गढ़ती है। फिर उसी जनता को उस सरकार के विरोध में जाना पड़ता है। नवगीतकार ऐसी सरकार में रहकर जनता का शोषण करने वालों को बेनकाब करते हैं। रमेश रंजक की इन पंक्तियों पर गौर करने लायक है –

“इनके हाथ बड़े लम्बे हैं

पाँव नहीं इनके खम्बे हैं

गाँधी का चरखा चबा गये

भरे पेट पर देश खा गये

फिर भी ये भूखे के भूखे

माँग रहे अनुदान

(इतिहास दुबारा लिखो, रमेश रंजक, पृ. 28)

गीत की अपनी सीमा होती है, उस सीमा में रहकर नवगीतों में वर्ग संघर्ष की अभिव्यक्ति दृष्टिगत होती है। नवगीत जन-जन तक पहुँचने की प्रक्रिया में प्रयासरत रहता है। इस प्रक्रिया में नवगीत को जनवाद से काफी सहायता मिली है। नवगीतकार को यह आभास हो चुका है कि उनकी सार्थकता तभी सिद्ध होगी जब वे जन-जन की वेदना, दुःख, दर्द, शोषण, अत्याचार आदि तक पहुँचेंगे। रमेश रंजक की इन पंक्तियों को देखिए –

मेरा गीत न गा पाया यदि दर्द आदमी का ।

अगर नहीं कर पाया थके पसीने का टीका।

भाषा बोल न पाया हारी थकी झुर्रियों की।

लाख मिले मुझको बाजारू जीत

कुछ नहीं।

(हिन्दी की प्रतिनिधि श्रेष्ठ कविताएँ - रमेश रंजक, पू. 117)

नवगीतकारों ने प्रतीकों और बिम्बों का नवीनतम् प्रयोग किया है। उन्होंने परम्परागत पुराने प्रतीकों, बिम्बों के स्थान पर नवीन बिम्बों का प्रयोग करके आधुनिक जीवन को अभिव्यक्ति प्रदान की है और मानव जीवन के विविध पहलुओं से बिम्बों को ग्रहण किया है। जीवन की थकान, विवशता, निराशा का सुन्दर बिम्ब रमेश रंजक ने अपने नवगीत में प्रस्तुत किया है –

“पर्वत के कन्धे पर सूरज की लाश

चुभी हुई सूई थके जोड़ी के वास

जितना तय किया सफर

धरती पर फैलाकर

बाकी पथ ओढ़ सो गये

जैसे बीमार हो गये।”

 (गुलाब और बबूल वन- रमेश रंजक, पृ. 72)

यहाँ पर्वत तथा सूरज का मानवीकरण किया गया है जिससे पर्वत और सूरज में मानव का एक स्पष्ट बिम्ब उभरता है, आगे जैसे बीमार आदमी पथ रूपी चादर ओढ़कर सो गया है। ऐसा एक बिम्ब उभरता है। रमेश रंजक के इन गीतों में युग-संदर्भ पूर्णरूपेण व्यक्त हुआ है।

साहित्य निर्माण समाज से समाज में और समाज के लिए ही होता है ठीक उसी प्रक्रिया में नयगीतकार समाज से ही समाज के लिए अपने गीतों के विषय चुनता है तत्पश्यात् उसमें अपने भावों व विचारों का स्पर्श कराते हुए उसे अभिव्यक्ति प्रदान करता है। आज सामान्य जन की विकट समस्या है मँहगाई। जिसके बढ़ते कदम ने आम लोगों का जीना दूभर कर दिया है। इस बढ़ती मँहगाई की तुलना कुँवर बेचैन ने सुरसा के मुख से की है, आप भी देखिए –

“गलियों में चौराहों पर

घर-घर में मचे तुफैल-सी

बाल बिखेरे फिरती है

मँहगाई किसी चुड़ैल - सी

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सुरसा - सा मुँह फाड़ रही है

बाज़ारों में कीमतें

बारूदी दीवारों पर

बैठी हैं जीवन की छतें

टूट रही है आज जिंदगी

इक टूटी खपरैल-सी।”

(डॉ. कुँवर बेचैन के नवगीत, पृ. 31 )

हमारे देश में आज भी कितने ऐसे लोग हैं जिन्हें भर पेट अन्न नहीं मिल रहा है। यह कटु सत्य है कि जब तक पेट में अन्न प्रवेश नहीं करता तब तक नींद भी नहीं आती। जिंदगी रूपी भूख को कैसे मिटाया जाय? इस व्यथा को रात कहाँ बीते नवगीत में बेचैनजी ने इस प्रकार व्यक्त किया है –

“पेट में अन्न नहीं भूख

साहस के होठ गए सूख

खेतों के कोश हुए रीते

जीवन की रात कहाँ बीते?

(डॉ. कुँवर बेचैन के नवगीत, पृ. 18)

मानव-जीवन दुःखों, वेदनाओं और संघर्षों से भरा पड़ा है। तभी तो निराला जी सरोज स्मृति में लिखते हैं –

दुःख ही जीवन की कथा रही,

क्या कहूँ आज जो नहीं कही।

(सरोज स्मृति- निराला)

मनुष्य सारी जिन्दगी तिनका तिनका जोड़कर सुखों को बटोरने या सँजोने का प्रयास करता रहता है। इस प्रक्रिया में कब उसकी उम्र ढल जाती है पता ही नहीं चल पाता। कब जवानी आयी, कब बुढ़ापा आ गया, उसका एहसास तक नहीं होने पाता, क्योंकि वह अपने दुःख-दर्द से निजात पाने के प्रयास में इतना मसगूल हो जाता है कि वह अपने बारे में सोच भी नहीं पाता। इसी में कब जिन्दगी बीत जाती है पता ही नहीं चल पाता। कुँवर बेचैन की पेड़ बबूलों के नवगीत की ये पंक्तियाँ ऐसा ही कुछ कह रही हैं –

“संघर्षों से बतियाने में

उलझा था जब मेरा मन

चला गया था आकर यौवन

मुझको बिना बताए

ज्यों अनपढ़ी प्रेम की पाती

किसी नायिका के हाथों से

आँधी में उड़ जाए।

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दुःख-दर्दों को समझाने में

उलझा था जब मेरा मन

कई सफलताओं के घर से पाँव लौटकर आए

जैसे कोई तीर्थ यात्री

संगम पर कुछ दिन रहकर भी

लौटे बिना नहाए।”

(डॉ. कुँवर बेचैन के नवगीत, पृ. 20)

20वीं सदी के कटु यथार्थ को उद्घाटित कर रहे हैं कुँवर बेचैन के नवगीत हर आँख द्रौपदी है की ये पंक्तियाँ –

“आँखों में सिर्फ बादल, सुनसान बिजलियाँ हैं,

अंगार हैं अधर पर सब साँस आँधियाँ

रग-रग में तैरती-सी इक आग की नदी है।

यह बीसवीं सदी है।

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हर सत्य का युधिष्ठर बैठा है

मौन पहने ये पार्थ, भीम सारे आए हैं, जुल्म सहने

आँसू हैं चीर जैसे हर आँख द्रौपदी है।

यह बीसवीं सदी है।”

(डॉ. कुँवर बेचैन के नवगीत, पृ. 30)

आज मनुष्य निःसंदेह प्रगति के पथ पर अग्रसर होता चला जा रहा है. किन्तु वहीं संबंधों की सीढ़ियों से उतरता भी जा रहा है। मानवीय संबंध धीरे-धीरे खोखले होते जा रहे हैं. मानवीय संबंधों के बीच स्वार्थपरता बढ़ती जा रही है। यहाँ तक कि स्वार्थ पूर्ण होने के पश्चात् हम माता-पिता को वृद्धाश्रम छोड़ आते हैं। घर में रहते हुए भी हम घर में नहीं अपने अतीत में खोये रहते हैं। संभवतः ऐसा ही कुछ कुँवर बेचैन अपने नवगीत जैसे एक पुराना कागज में कहना चाहते हैं –

“अर्थहीन संबंध हुआ अब

तेरे-मेरे प्यार का

जैसे एक पुराना कागज

“अर्थहीन संबंध हुआ अब

जैसे एक पुराना कागज

फटे हुए अखबार का

तेरे-मेरे प्यार का

मेरा मन अक्सर टँग जाता

घायल दर्द सलीब से

खुशियाँ रोज़ गुजरती रहतीं

मेरे बहुत करीब से

व्यर्थ बोझ बन गया आज मैं

खुद सारे संसार का एक पुराना कलैंडर

जैसे हो दीवार का”

(डॉ. कुँवर बेचैन के नवगीत, पृ. 90)

मनुष्य धीरे-धीरे अपनी सभ्यता और संस्कार को भूलता जा रहा है, अपने ही लोगों को जहाँ वह उपेक्षित करता जा रहा है वहीं वह स्वयं भी उनसे उपेक्षित होता जा रहा है। चेतना उपेक्षित है’ कुँवर बेचैन के नवगीत की इन पंक्तियों पर गौर करें –

“कैसी बिडंबना है जिस दिन ठिठुर रही थी

कुहरे-भरी नदी में माँ की उदास काया

लानी थी गर्म चादर में मेज़पोश लाया।

कैसा नशा चढ़ा है।

यह आज टाइयों पर

आँखें तरेरती है अपनी सुराहियों पर

मन से न बाँध पाई रिश्ते गुलाब जैसे

ये राखियाँ बँधी हैं केवल कलाइयों पर।”

(डॉ. कुँवर बेचैन के नवगीत पू. 97)

गाँव और शहर के अन्तर को कुँवर बेचैन जी ने अपने नवगीत अंतर में बखूबी चित्रित किया है। बहुत ही सटीक, सुंदर और चिंतनीय हैं उनकी ये पंक्तियाँ-

“मीठापन जो लाया था मैं गाँव से,

कुछ दिन शहर रहा अब कड़वी ककड़ी है।

तब तो नंगे पाँव धूप में ठंडे थे

अब जूतों में रहकर भी जल जाते हैं

तब आया करती थी महक पसीने से

आज इत्र भी कपड़ों को छल जाते हैं

मुक्त हँसी जो लाया था मैं गाँव से

अब अनाम जंजीरों ने

आ जकड़ी हैं।”

(डॉ. कुँवर बेचैन के नवगीत पृ. 90)

नवगीतकार कुँवर बेचैन ने महानगर का अतिसुन्दर चित्रण अपने नवगीत महानगर : एक शब्द चित्र’ में किया है। इसी के साथ मैं अपनी लेखनी को विराम दे रहा हूँ और आप सब महानगर की सुन्दरता का आनंद उठाइए –

“गर्मी रेत शुष्कता मरुथल।

और हाँफते हुए आदमी।

सड़कें बसें धुआँ आवाजें ।

भागमभाग।  चटखती भीड़ें।

दीवारें पोस्टर विज्ञापन।

नंगी-अधनंगी तस्वीरें

बस। रफ्तार। पीठ। दुर्घटना।

और हाँफते हुए आदमी।

ऑफिस बॉस क्लर्क । चपरासी ।

गुट । गुटबंदी । तर्क- दुधारे ।

गप्पे । चाय। रिश्वतें । लड़की।

मैच । कमैंट् । फिल्म सितारे।

फाइल । मेज़ । कुर्सियाँ । परदे।

और हाँफते हुए आदमी ।

लंबी प्यास मुखौटे - चेहरे ।

सूखी हँसी ढोंग मुस्कानें ।

हिलते हाथ। थके संबोधन ।

अजनबियत भूली पहचानें ।

जलती आँख। सुलगते सपने।

हाथ तापते हुए आदमी।”

(डॉ. कुँवर बेचैन के नवगीत, पृ. 30)

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सन्दर्भ :

1 - आज का हिन्दी साहित्य : संवेदना और दृष्टि, रामदरश मिश्र, पृ. 106, हिन्दी नवगीत : संदर्भ और सार्थकता-सं. डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ, पृ. 36

2 - नवगीत अवधारणा और प्रकृति-डॉ. गिर्राज सिंह, हिन्दी नवगीत: संदर्भ और सार्थकता - सं. डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ, पृ. 37

3 - आज का हिन्दी साहित्य : संवेदना और दृष्टि, रामदरश मिश्र, हिन्दी नवगीत : संदर्भ और सार्थकता – सं. डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ, पृ. 38

4- कविता – 64, सम्पादक ओमप्रभाकर, पृ. 78-79, हिन्दी नवगीत: संदर्भ और सार्थकता- सं. डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ, पृ. 36

5- नवगीत से जनगीत तक- रमेश रंजक, हिन्दी नवगीत: संदर्भ और सार्थकता - सं. डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ, पृ. 09

6- नवलेखन : समस्याएँ और सन्दर्भ, पृ. 21-22 हिन्दी नवगीत: संदर्भ और सार्थकता- सं. डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ, पृ. 41

 



डॉ. माया प्रकाश पाण्डेय

सहायक आचार्य

हिन्दी विभाग, कला संकाय,

महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय,

बड़ौदा-390002, गुजरात

अप्रैल 2024, अंक 46

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