सच्चा शिक्षक कौन ?
श्री रामेन्द्र त्रिपाठी
आचार्य विनोबा भावे ने कहीं कहा था कि अगर कोई शिक्षक
राष्ट्रपति हो जाय, तो यह आचार्यत्व की तौहीन है ;
क्योंकि उसकी निगाह में राष्ट्रपति का पद गुरुतर है और
शिक्षक का कमतर। हाँ, अगर कोई राष्ट्रपति यह कहे कि वह अपना पद छोड़कर
अध्यापन-कार्य करेगा और इतना ही नहीं, वह सत्ता-प्रतिष्ठान के समूचे लाव-लश्कर और विपुल राजवैभव
को सचमुच ठोकर मारकर पढ़ने-पढ़ाने के महत्कार्य में लग जाता है,
तो ऐसे व्यक्ति के जन्मदिन को शिक्षक-दिवस के रूप में मनाना
श्रेयस्कर रहेगा।
समाज, राष्ट्र, विश्व और व्यक्ति के निर्माण में शिक्षक की भूमिका सर्वोपरि
है । वह गढ़ता है जडीभूत मूल्यों के स्थान
पर स्वस्थ जीवन-मूल्य ; वह सुसंस्कृत करता है नयी पीढ़ी को ;
और हमें अनुप्राणित करता है प्रतिफल,
सत्य की खोज में अहर्निश सन्नद्ध रहने को । सच्चा शिक्षक जीर्ण-शीर्ण सामाजिक ढांचे के
ध्वंस का वातावरण तैयार करता है और वह करता है , नयी समाज-रचना के लिए बीजवपन । वह बेहतर समाज बनाने के लिए खड़ी करता है ,
समर्पित युवा कार्यकर्ताओं की फ़ौज । इसलिए शिक्षक का स्थान या महत्त्व
राष्ट्राध्यक्ष या शासनप्रमुख से कहीं ज़्यादा है ।
सच कहा जाय , तो राजकाज और प्रशासन में दोयम दर्जे के नेतृत्व से काम
चलाया जा सकता है ; लेकिन राष्ट्र-निर्माण और नयी समाज-रचना की अगुआई आला दर्जे
के तत्त्वचिन्तकों , मनीषियों या आचार्यों को ही करनी पड़ेगी । ऐसे प्रखर, कर्मठ , पक्षमुक्त और ऊर्जस्वित लोग निकलेंगे,
जनगण के बीच से । सच कहा जाय ; तो प्रामाणिक , दूरद्रष्टा, परिवर्तनकांक्षी, प्रतिश्रुत, पथप्रदर्शक और निर्भीक नेतृत्व का अधिकांश शिक्षकों के बीच
से निकलेगा ।
आज ज़रूरत है, चाणक्य जैसे शिक्षकों की, जो न केवल व्यापक जन-आन्दोलनों के गर्भ से एक नयी राजनीतिक
शक्ति,
कार्यप्रविधि और व्यवस्था को जन्म दे सकें ;
बल्कि जो सूत्रपात करें आमूलाग्र सामाजिक क्रान्ति के
चक्र-प्रवर्तन का ।
विद्या के क्षेत्र का व्यक्ति मूलत: सत्ता व दल की राजनीति
करने के लिए नहीं बना होता । आपद्धर्म की
बात अलग है और समझ में आती भी है ; लेकिन आपद्धर्म को सहज गुणधर्म नहीं माना जा सकता । कहने का मतलब यह है कि शिक्षा के क्षेत्र का
व्यक्ति राजसत्ता नहीं चाहेगा । वह अपने
सारस्वत क्षेत्र में पूरी तरह जमे रहते हुए आवश्यकता पड़ने पर सत्ता-प्रतिष्ठान को
सावधान ज़रूर कर सकता है । शिक्षक
लोकशक्ति का वाहक बनकर भ्रष्ट, मदान्ध, कर्त्तव्यच्युत और दायित्वविमुख शासन-तन्त्र को सही सबक़
सिखा सकता है ।
अध्यापक अपने विद्यार्थियों को तो पढ़ायेगा ही – यह
उसका न्यूनतम बुनियादी यानी प्राथमिक दायित्व और कर्त्तव्य है । अनिवार्य रूप से करणीय इस कार्य के साथ-ही-साथ
उससे एक बृहत्तर भूमिका की अपेक्षा भी की जाती है । वह अपने परित: परिवेश और सन्निकटस्थ समुदाय या
समाज से जुड़कर लोकशिक्षण का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य भी करेगा । शिक्षक व्यापक लोकहित का पैरोकार रहेगा । समाज, राष्ट्र या राज्य से यह अपेक्षा की जाती है कि वह शिक्षक
के सम्यक योगक्षेम की सम्मानजनक व्यवस्था सुनिश्चित करेगा । विद्या, पाठशाला और शिक्षक को बाज़ार की ताक़तो के भरोसे या रहमोकरम
पर बिल्कुल भी नहीं छोड़ा जा सकता । राज्य,
समाज या समुदाय को शिक्षा का बोझ वहन करना ही पड़ेगा ।
श्री रामेन्द्र त्रिपाठी
(आई ए एस)