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बुधवार, 30 अप्रैल 2025

पुस्तक समीक्षा

भीड़तंत्र से लोकतंत्रीय दृष्टि की ओर ले जाती पुस्तक ‘रामायण में जनप्रिय शासन’

डॉ. सुषमा देवी

भारतीय ज्ञान परंपरा के आलोक में रामायणकालीन शासन व्यवस्था को लेखिका द्वारा विविध धरातल पर विवेचित किया गया है ।  प्राचीन शासन व्यवस्था के चिंतन का विवेचन करते हुए लेखिका ने राम के मर्यादा स्वरूप को विस्तारपूर्वक विवेचित करते हुए शासन का स्वरूप न्यायप्रिय राजा के द्वारा स्थापित होते हुए दिखाया है ।  उन्होंने भारत की राजतंत्रीय प्रणाली के मूल में लोकतंत्र को पल्लवित होते हुए दिखाया है ।  वाल्मीकि रामायण के महत्व को प्रतिपादित करते हुए लेखिका इसे भारत ही नहीं, अपितु विश्व साहित्य के सर्वोत्तम महाकाव्य के रूप में प्रतिष्ठापित करती हैं ।  इसमें आर्य संस्कृति के गौरव राम के उज्ज्वल चरित्र की वृहद व्याख्या की गई है ।  जहाँ ‘रामायण’ में राजनीति, धर्मनीति तथा शासन नीति की विस्तृत व्याख्या की गई है, वहीं तुलसीकृत ‘रामचरितमानस’ में शासन तथा राजनीति से अधिक भक्ति का गहन प्रतिपादन हुआ है ।  भारतीय जीवन दर्शन में चार पुरुषार्थों में धर्म को सर्वोपरि स्थान दिया गया है ।  धर्म को शासन के मूल रूप में रखते हुए रामायण काल में धर्म के लिए शासन किए जाने का चित्रण हुआ है ।  यही कारण है कि शासन-व्यवस्था जन-जन के कल्याणार्थ समर्पित रही है ।  धर्म तत्व की रक्षा के लिए ही राम कौशल्या से कहते हैं -

‘नहीं धर्मः पूर्वं ते प्रतिकूलं प्रवर्तते ।

पूर्वेश्यमभिप्रेतो गतो मार्गोनुगम्यते।’

(रामायण में जनप्रिय शासन, डॉ. सुरभि दत्त, पृष्ठ-52)

लेखिका द्वारा राजपद के महत्व को विवेचित करते हुए उसका निरूपण इस प्रकार किया गया है- राजा को यम  के समान दंड धारण करते हुए, कुबेर के समान समृद्धि का कारक तथा वरुण के समान प्रजा पर  कल्याण वर्षा करते हुए इंद्र के समान प्रजा का अपनी संतान की भांति पालन करने वाला होना चाहिए ।  

लेखिका की गहन अध्ययन दृष्टि की परिचायक यह पुस्तक उनके इस विचार से पोषित है – ‘शासन वही सुशासन है, जहाँ राजा धर्म में स्थित रहता है और प्रजा भी धर्मपरायण होती है ।  कोई किसी का शोषण नहीं करता, सभी एक-दूसरे के पोषक, रक्षक और हितचिंतक होते हैं । ’

रामायणकालीन शासन की जनप्रियता को कालिदास की कृति ‘रघुवंश’ महाकाव्य में भी उद्धृत किया गया है -

‘प्रजानां विनायधान द्रक्षणाद भरणादपि

स पिता पितरस्तासां केवलं जन्महेतवः। ’

(रघुवंश महाकाव्य, कालिदास, 1.8)

राजपद का लक्ष्य प्रजा का रंजन, प्रसन्नता तथा उनके कल्याण से जुड़ा होता है ।  यहाँ तक कि  दंडकारण्य में पहुँचने के बाद सीता राम से यही कहती है कि- राम राक्षसों का बिना बैर के संहार न करें तथा अपने क्षत्रिय धर्म का पालन संकट में घिरे प्राणियों की रक्षा के लिए करें ।  रामायण काल में धर्म को राजा से भी ऊँचा स्थान प्रदान किया जाता था ।  राजपद का उपयोग राजा द्वारा धर्म और न्यायपूर्ण शासन व्यवस्था के लिए कठोरता और कोमलता दोनों ही धारण करने की अपेक्षा की जाती थी।  

रामायणकालीन शासन व्यवस्था की कल्याणकारी नीतियों के संदर्भ में पाश्चात्य विद्वान ग्रिफ़िथ ने रामायण के पद्य अनुवाद में राम की धर्म पर आधारित शासन व्यवस्था का उल्लेख करते हुए लिखा है-

‘राम के शासन में व्याधि और अकाल की स्थिति कभी नहीं आयी।  जनता सुखी और प्रसन्न थी ।’ 

(रामायण में जनप्रिय शासन, डॉ. सुरभि दत्त, पृष्ठ-89)

रामायणकालीन न्याय व्यवस्था का स्वरूप अत्यंत व्यापक था ।  राजा जनता ही नहीं, जीव मात्र के प्रति करुणार्द्र रहता था ।  सुग्रीव की पत्नी तारा को बलपूर्वक जब बाली अपने महल में रखता है, तो राम उसे दंडित करते हुए स्मृतियों का उदाहरण देते हुए कहते हैं-

‘मनु ने राजोचित सदाचार का प्रतिपादन करते हुए कहा है चोर आदि पापी पुरुष राजा से प्राप्त दंड से पाप मुक्त हो जाते हैं, किंतु राजा यदि पापी को उचित दंड नहीं देता, तो वह स्वयं पाप का फल भोगता है। ’  

(रामायण में जनप्रिय शासन, डॉ. सुरभि दत्त, पृष्ठ-94-95)

रामराज्य में जनता अपने-अपने धर्म का पालन करते हुए कर्मरत थी, साथ ही धर्म, अर्थ तथा काम पुरुषार्थों की प्राप्ति में सभी निमग्न रहते थे, सभी निर्भय होकर जीवन का आनंद लेते थे। लेखिका ने रामायणकालीन न्याय व्यवस्था की सूक्ष्मतम व्याख्या करते हुए राजा के लिए त्याज्य विषयों का वृहद उल्लेख किया है । जब शासन व्यवस्था विवेकशील लोगों की उचित मंत्रणा से की जाती है ।  शासन नीति पर स्वेच्छाचारिता का प्रभाव नहीं पड़ता है ।  वाल्मीकि रामायण में परिषद, समिति और संसद, इन तीन शब्दों का प्रयोग किया गया है ।   परिषद के सदस्य राज्य के प्रतिष्ठित विद्वान होते थे ।  इन्हें युवराज के चयन, युद्ध तथा शांति के निर्णय आदि के संबंध में अपने विचार स्वतंत्रतापूर्वक व्यक्त करने के अधिकार थे   सभा के प्रधान पद पर राजा होते थे, किंतु उनकी अनुपस्थिति में पुरोहित प्रधान बनता था ।  राज्य की भलाई के कार्य के लिए नियुक्त मंत्रियों के कर्तव्य का वाल्मीकि ने अत्यंत विस्तार से उल्लेख किया है -

‘उनका कर्तव्य है कि कोष खाली न हो, निष्पक्ष न्याय हो, मंत्री युद्ध और शांति नीति के ज्ञाता हो, अपनी बुद्धि के बल पर सही परामर्श दें ।  नीतिशास्त्र और आत्म-तत्व के ज्ञाता हो, उसमें कुशल हो । ’ (रामायण में जनप्रिय शासन, डॉ. सुरभि दत्त, पृष्ठ-121)

शासन नीति की सुचारू व्यवस्था की स्थापना में कभी-कभी शांति के लिए युद्ध का मार्ग अपनाना पड़ता है ।  युद्ध के लिए सेना की आवश्यकता होती है, अतः वाल्मीकि ने पाँच प्रकार की सेना का उल्लेख किया है, जिसमें मित्र बल (मित्र राजाओं की सेना), अटवी बल (वन्य जनों की सेना), मौल बल (क्षत्रिय वर्ग की सेना), भृत्य बल (वेतन पर भर्ती सेना), द्विषद बल (शत्रु सेना के भागे हुए सैनिक) आदि ।  रामायण काल में आज की तरह ‘सैंपर्स व माइनर्स’ का उल्लेख प्राप्त होता है, इनका कार्य सेना के कूच के लिए भूमि तैयार करना होता था ।

प्राचीन भारत में राजनीति को धर्म की श्रेणी में रखा जाता था ।  विश्व के लिए भारतीय राजनीति की यह बहुत बड़ी देन है ।  ‘रामायण’ में चित्रित शासन को आज भी शासन के सर्वोत्तम स्वरूप में माना जाता है ।  राजनीति में नैतिकता न हो तो राजा के निरंकुश होने की पूरी संभावना होती है ।  धर्म का सीधा संबंध नैतिकता से होता है, इसलिए प्राचीन भारत में राजनीति को धर्म कहा जाता था ।  मानव संस्कृति के विकास में धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति का मुख्य आधार राज्य को माना गया है ।  त्रिवर्ग की प्राप्ति मानव जीवन की सार्थकता मानी जाती है ।  राजा और प्रजा का संबंध पिता और संतान की तरह होता है ।  राजधर्म की रक्षा के क्रम में व्यवधान डालने वाले के लिए दंड नीति का निर्धारण किया गया है ।  रामायण में शासन की एक ऐसी कला विकसित हुई, जिसमें पूर्णरूपेण प्रजा के नैतिक, सामाजिक, आर्थिक उत्थान को केंद्र में रखा गया है ।  महात्मा गांधी का स्वप्न भारत में स्वराज की स्थापना करना था ।  वे इसे राम राज्य के आधार पर विवेचित करते हुए कहते हैं -

‘स्वराज के कितने ही अर्थ क्यों न किए जाएँ, मेरे लिए त्रिकाल सत्य एक ही अर्थ है-रामराज्य ।  यदि किसी को रामराज्य शब्द बुरा लगता है, तो मैं उसे धर्म राज्य कहूँगा । ’ (आमुख अंश से उद्धृत)

समस्त रामायण राजा का प्रजा के प्रति कर्तव्य को विवेचित करता है ।  यहाँ तक कि जनता की जीवन शैली भी पूरी तरह से धर्म से प्रेरित होती थी-

‘धर्मेंण राज्यं लभते मनुष्या स्वर्ग च धर्मेण नरः प्राष्यति ।

आयुष्य  कीर्ति च तपश्च धर्म धर्मेण मोक्ष लभते मनुष्यः । । ’ (आमुख अंश से)

वाल्मीकि के मर्यादा पुरुषोत्तम लौकिक जीवन की मर्यादाओं का निर्वाह करने वाले वीर पुरुष है ।  लेखिका कहती हैं- सनातन ‘सत्य’ यही है रामायण महाकाव्य है ।  ऋषि वाल्मीकि आदिकवि हैं और मंजुल मूर्ति राम ‘अद्वितीय कविता’ ।  

अल्लाया इकबाल के शब्दों में- ‘राम के वजूद पर हिंदुस्तान को नाज अहले वतन समझते हैं, उनको इमामे हिंद । ’ (आमुख से)

वर्तमान परिवेश में लोकतंत्र को सर्वाधिक प्रिय शासन के रूप में विश्व भर में अपनाया जा रहा है ।  लेखिका द्वारा वर्तमान जोड़-तोड़ की राजनीति को भीड़ तंत्र से तुलना करते हुए  प्राचीन भारत के नृपतंत्रीय शासन का आधार लोक कल्याण और लोकमत को बताया गया है ।  वैदिक वांग्मय में राजा के चुने जाने के संबंध में मंत्र मिलते हैं –

‘राजा को प्रजा इसलिए चुनती है, क्योंकि वह उनके कष्टों को हरता है ।  राजा प्रतिज्ञा करता है कि प्रजा रक्षण को वह अपना कर्तव्य समझेगा । ’ (रामायण में जनप्रिय शासन, डॉ. सुरभि दत्त, पृष्ठ-18)

‘रामचरितमानस’ में तुलसीदास ने आदर्श राजा का बड़ा सुंदर चित्रण किया है ।  राजा धर्म का साक्षात अवतार है ।  प्रजा के सतत पालन, पोषण और अभ्युदय हेतु ही वह शासन-सत्ता ग्रहण करता है और आजीवन उसी में तत्पर रहता है । ’ (रामायण में जनप्रिय शासन, डॉ. सुरभि दत्त, पृष्ठ-23)

हमारे प्राचीन भारतीय विद्वानों के द्वारा राजा को प्रजा का सेवक तथा उनके हितों का रक्षक बताया गया है ।  श्रीमद् भागवत पुराण में राम की प्रजा वत्सलता का भव्य वर्णन किया गया है ।

लेखिका रामायण की भूमिका को प्रासंगिक रूप में चित्रित करते हुए कहती है, कि साधनहीन  भारतीय जब विश्व के विभिन्न देशों में पहुँचे, तो उनके हाथ में ‘रामचरितमानस’ एक जीवन संबल की तरह था, जिसने उन्हें दास्य भाव से मुक्ति दिलाया ।  मोनियर विलियम्स के शब्दों में –

‘विश्व के संपूर्ण साहित्य में कुछ ऐसी कविताएँ होंगी जो रामायण से संभवतः सुंदर हो परंतु यह एकमात्र ऐसा महाकाव्य है जिनमें गौरवपूर्ण पवित्रता, शैली की स्पष्टता, सरलता और असाधारण काव्य चमत्कार, जिसके द्वारा वीरोचित घटनाओं, प्रकृति के सुंदर दृश्यों का शुभ विवेचन किया गया है ।  मानवीय भावनाओं और उसमें परस्पर संघर्ष का बहुत निकट से चित्रण के कारण यह किसी भी देश में निर्मित साहित्य से सर्वाधिक सुंदर है । ’ (रामायण में जनप्रिय शासन, डॉ. सुरभि दत्त, पृष्ठ-34)

रामायण और महाभारत भारतीयों के लिए नैतिक सिद्धांतों का अक्षय कोष तथा सांस्कृतिक जीवन का आलेख माना जाता है ।  राजा का प्रजा के प्रति कर्तव्य निर्वाह प्रजापालन, प्रजारंजन, दंड व्यवस्था आदि का रामायण में धर्म के परिप्रेक्ष्य में ही उल्लेख किया गया है ।  राजनीति का जितना विस्तृत उल्लेख रामायण में प्राप्त होता है, उतना शायद ही किसी अन्य युग में हुआ हो ।  रामायण काल में शासकों ने प्रत्येक स्तर पर वेदों, स्मृतियों का अनुसरण किया है ।  शासन ही नहीं, अपितु जनता की जीवन शैली भी धर्म से प्रेरित रही है ।  वेदों, स्मृतियों तथा पुराणों में नियत किए गए राजधर्म का इस युग में अक्षरशः पालन किया गया है ।  रामायण में धर्म को कर्तव्य मानकर तथा न्याय व्यवस्था को धर्माधारित मान कर शासन तथा जनता के द्वारा पालन किया जाता रहा है ।  इक्ष्वाकु वंश को सर्वोत्तम प्रशासन का उदाहरण माना जाता रहा है । इसी वंश के राजा राम मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम से विख्यात है । राम का राजा के रूप में चयन जनता की स्वीकृति से हुआ था ।  

लेखिका ने अपने शोध के द्वारा यह सिद्ध किया है कि राज्य की सात विशेषताएँ हैं, यथा –

1. एकता (जिसका प्रतिनिधि राजा होता है),

2. स्थिर प्रशासन (परिषद एवं मंत्रीगण),

3. कर व्यवस्था (राजकोष)

4. सैन्य बल

5. जनपद

6. सहृदय मित्र

7. जनहित आदि ।

रामायण में राम किसी की शक्ति को कम करके नहीं मानते थे ।  वे पशु, पक्षी, वन्यजीव, वन्य प्राणी आदि सबको साथ लेकर चलने वाले शासन में विश्वास करते थे ।  राम युद्ध क्षेत्र में भी आदर्श और यथार्थ पद्धति का पालन करते थे ।  हमारे शास्त्रों के अनुसार- ‘जो शासन कुशल रणनीति निर्माण से शत्रु को जनरंजन से जुड़े प्रशासनिक कार्यों के निर्वहन द्वारा जनता के हृदय को जीत लेता है, दोनों क्षेत्र पर विजय श्री उसी के साथ होती है ।  (रामायण में जनप्रिय शासन, डॉ. सुरभि दत्त, पृष्ठ-48 -49)

जबकि इन सबका त्याग करने के कारण रावण का विनाश हुआ ।  लेखिका ने रामायण को नैतिक शिक्षा का अक्षय कोष माना है ।  राजा द्वारा प्रजा के दुख दूर करने का हर संभव प्रयास किया जाता था ।  शासन का आधार धर्माधारित होने के कारण धर्म को सर्वोपरि स्थान दिया गया है ।  जब राम को वन गमन से पूर्व माता कौशल्या यह कहते हुए रोकना चाहती है, कि राम पिता की आज्ञा मानने के लिए बाध्य नहीं हैं, इस पर राम इसे धर्म विरुद्ध मानते हुए कहते हैं कि ‘केवल राजा बनने की इच्छा से यदि मैं पिता की आज्ञा की अवहेलना करता हूँ तो ऐसा राज्य धर्महीन होगा । ’ 

लेखिका रामायणकालीन जनप्रिय शासन का उल्लेख करते हुए कहती हैं कि जब राम के वनवास जाने की स्थिति में वशिष्ठ ने सीता को कोशल के राज सिंहासन पर बिठाने का प्रस्ताव यह कहते हुए रखा-

 ‘अनुष्ठाष्यति रामस्य सीता प्रकृति मासनम्। ।

 आत्मा हि दाराः सर्वेषां  दारसंग्रह वतिणाम् ।

आत्मेयमिति रामस्य पालयिष्यति भेदिनीम् । । ’

(रामायण में जनप्रिय शासन, डॉ. सुरभि दत्त, पृष्ठ-43)

रामायणकालीन शासन में मानव के लोग-परलोक, अन्तःबाह्य का परिष्कार करते हुए मानव जीवन के सर्वोच्च विकास का प्रयत्न किया गया है ।  राम वन गमन के समय लक्ष्मण के क्रोध को शांत करते हुए राम कहते हैं-

‘केवल राज्य प्राप्ति के लिए महान फलदायक धर्म पालन रूप सुयश को मैं पीछे नहीं धकेल सकता और अधर्मपूर्वक इस तुच्छ पृथ्वी का राज्य लेना नहीं चाहता । ’ (रामायण में जनप्रिय शासन, डॉ. सुरभि दत्त, पृष्ठ-44)

अंततः पाठक से यह अपेक्षा रहेगी कि वे इस पुस्तक का अध्ययन करते हुए अपनी राजनीतिक समझ का संवर्द्धन करेंगे ।  पुस्तक को लेखिका ने वर्त्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य के लिए उपयोगी बनाने का पूरा प्रयत्न किया है ।  यह पुस्तक राज्य के लिए राजा को परमावश्यक मानते हुए भी जनप्रतिनिधियों द्वारा राजा का चयन राजनीतिक संतुलन का उत्तम उदाहरण प्रस्तुत करता है ।  इस पुस्तक में टंकण त्रुटियों की यदि उपेक्षा की जाय तो लेखिका के शोधश्रम को पूर्ण अंक दिया जा सकता है ।  हिंदी अकादमी, हैदराबाद, तेलंगाना से प्रकाशित 164 पृष्ठों की यह पुस्तक रामायणकालीन शासन की जनप्रियता की मिसाल प्रस्तुत करता है ।  यह पुस्तक पाठक को निश्चय ही पढ़नी चाहिए ।  जनतंत्र को भेड़तंत्र से बाहर निकालने की यह दृष्टि प्रदान करती है ।

पुस्तक: रामायण में जनप्रिय शासन

रचनाकार: डॉ. सुरभि दत्त

प्रकाशन : हिंदी अकादमी, हैदराबाद, तेलंगाना

पृष्ठ: 164

प्रकाशन वर्ष: जनवरी 2025

मूल्य: 695/-

ISBN: 978-93-49138-25-4


समीक्षक

डॉ. सुषमा देवी

एसोसिएट प्रोफेसर,

हिंदी विभाग, बद्रुका कॉलेज,

हैदराबाद , तेलंगाना

 

शनिवार, 31 अगस्त 2024

कविता

मिट्टी के चूल्हे

डॉ. सुषमा देवी

मिट्टी के चूल्हों पर प्यार तभी तक पकता था

मन से मन का नाता तभी तक जुड़ता था

जब

गहराई प्रेम की न नापी जाती थी

निःस्वार्थ प्रीत की जलती रहती बाती थी

अदहन जब दाल की बटलोई में खदकता था

अहरे पर रख कर भात भी बगल में पकता था

कोई तरकारी मिलकर काटी जाती थी

फिर उसमें प्यार का तड़का थोड़ा लगता था

तावे पर बरसाती पानी के छीटें पड़ते थे

रोटी पर चिट्टे संग छींटें भी सजते थे

सब मिल कर भोजन का आनंद उठाते थे

बातों की छोर न कोई पाते थे

गुड़ की भेली भी सबको अंत में मिलती थी

जीवन की मिठास सभी में घुलती थी।

 



डॉ. सुषमा देवी

एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग

बद्रुका कॉलेज, काचीगुडा, हैदराबाद-27, तेलंगाना.

बुधवार, 31 जुलाई 2024

आलेख

 


हिंदी साहित्य और प्रेमचंद

डॉ. सुषमा देवी

हिंदी साहित्य की बात प्रेमचंद के बिना हो, यह संभव ही नहीं है ।  उपन्यास सम्राट प्रेमचंद ने हिंदी साहित्य को एक यथार्थवादी दिशा प्रदान किया ।  प्रेमचंद का साहित्य अधिकांशतः  वंचितों एवं कृषकों के जीवन पर केंद्रित रहा है, किंतु अपने युग में नगरीकरण के मोह के स्पष्ट चित्र को उन्होंने अत्यंत जीवंतता के साथ प्रस्तुत किया है ।  साहित्यकार की दृष्टि अपने समय से बहुत आगे की ओर जाकर मानवता का उत्कृष्टतम चित्र खींचने में सक्षम होती है ।  सत्यं शिवम् सुन्दरम की अवधारणा को विद्वान् मनीषी सदैव प्रतिष्ठित करते रहे हैं ।  प्रेमचंद का कथा साहित्य यथार्थवादी विषयों पर केंद्रित जीवन मूल्यों के औदात्य को स्थापित करने हेतु प्रतिबद्ध प्रतीत होता है ।  प्रेमचंद अपनी रचनाओं में स्त्रियों, कृषकों एवं दलितों की वकालत करते हैं ।  गोदान, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, सद्गति के किसान आज भी भारतीय ग्रामीण परिवेश में मिल जाएंगे।  

हिंदी साहित्य को प्रेमचन्द ने उपन्यास और कहानी के माध्यम से जन-जन तक जन-जन की बात पहुँचाई है ।  31 जुलाई, 1880 में उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के लमही गाँव में जन्में मुंशी प्रेमचंद के बचपन का नाम धनपत राय था ।  मुंशी जी के पिता अजायब राय ने जब पहली पत्नी के देहांत के बाद दूसरा विवाह किया तो प्रेमचंद का जीवन कंटकाकीर्ण बन गया ।  अपने जीवन के यथार्थ से बचकर कल्पनाओं की दुनिया की कहानियाँ सुनते हुए आगे चलकर वे स्वयं कथा सम्राट बन गए ।  उनकी हिंदी, उर्दू पर समान पकड़ थी ।  उन्होंने रतन नाथ सरशार सरुर मोलमा शार की लगभग पूरी रचनाएँ बचपन में ही पढ़ डाली थी ।  वे पढ़ते तो ‘तिलिस्मे –होशरुबा’ और रोनाल्ड की रचनाओं को थे, किंतु अपनी आँखों उन्होंने जिस दुनिया को देखा था, उसे ही अपने तेरह वर्ष के वय से लिखने लगे थे ।  प्रेमचन्द ने अपनी पहली पत्नी की मृत्यु के कुछ समय पश्चात् बाल विधवा शिवरानी देवी से विवाह किया ।  शिवरानी देवी भी बहुत अच्छा लिखती थीं, उनकी रचना ‘प्रेमचंद घर में’ उल्लेखनीय है ।

प्रेमचन्द के औपन्यासिक संवेदनाओं को लक्ष्य करते हुए बांग्ला भाषा के प्रसिद्ध साहित्यकार शरतचंद्र ने उन्हें ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि प्रदान की थी ।  हिंदी कथा साहित्य को साहित्य और भाषा की दृष्टि से संपन्न बनाने में प्रेमचंद का अन्यतम स्थान है ।  प्रशासनिक  सेवा करते हुए प्रशासन की नीतियों को  केंद्र में रखते हुए जब उन्होंने जनचेतना के उद्देश्य से ‘सोजे वतन’ की रचना की, तो रचना जब्त होने के साथ ही अपनी साहित्यिक भाषा उर्दू के साथ ही अपना नाम नवाबराय भी छोड़ना पड़ा ।  इस प्रकार हिंदी साहित्य को एक ऐसा युग प्रवर्तक लेखक मिला, जिसने साहित्य को ठोस आधारशिला रखी ।  

तिलिस्मे होशरूबा को पढ़ते हुए प्रेमचन्द ने अपनी कल्पना को विस्तार दिया ।  रेनाल्ड के ‘लंदन रहस्य’ तथा सरशार की रचनाओं ने उनकी लेखनी पर गहरा प्रभाव डाला ।  साहित्यकार जब वर्तमान को ईमानदारी से अपनी रचनाओं में उतारता है, तो पाठक उसे हाथों हाथ लेते हैं ।  प्रेमचंद की रचनाओं में न त्यों भूतकाल की घटनाओं की गौरवगाथा का बखान है और न ही भविष्य के सपनों का मायाजाल ।  वे अपने आस-पास की जीवन शैली से अपनी रचनाओं के जीते-जागते कथानक तथा पात्र उठाकर ज्यों की त्यों रख देते हैं ।  उनकी रचनाओं में प्रगतिवादी विचारधाराओं की व्यावहारिक प्रस्तुति हुई है ।  ‘गोदान’ में धनिया के रूप में कई बार लेखक ही प्रकट होते हैं ।  होरी की गाय को उसका छोटा भाई विष देकर मार देता है, इसे जानते हुए भी जब होरी अपने भाई को बचाने का यत्न करता है, तो धनिया कहती है- ‘सवेरा होते ही लाला को थाने न पहुँचाऊँ तो अपने बाप की बेटी नहीं ।  हत्यारा भाई कहने जोग है ।  यह भाई का काम है ।  वह बैरी है,पक्का बैरी, और बैरी को मारने में पाप नहीं छोड़ने में पाप है । ’(गोदान-प्रेमचंद,पृष्ठ- 93)

प्रेमचंद किसी भी तरह के अनाचार अत्याचार को सिरे से नकार देते हैं ।  उनकी रचनाओं में जहाँ कल्पना का प्रयोग हुआ है, वहाँ भी शोषण से मुक्ति का प्रयास दिखाई देता है ।  उनकी ‘कफन’ कहानी में जब माधव की पत्नी की प्रसव वेदना से मृत्यु हो जाती है, तो गाँव वालों से दोनों पिता-पुत्र कफन के पैसे माँगते हैं, जिसे खा-पीकर उड़ा देते हैं और पुनः गाँव वालों से पैसे माँगने की बात कहते हैं ।  घीसू पात्र के द्वारा अपने पुत्र माधव से कहा गया यह वाक्य प्रेमचंद के व्यवस्था के विरुद्ध बगावती विचार व्यक्त होते हैं –‘ वह न बैकुंठ में जाएगी तो क्या ये मोटे-मोटे लोग जाएँगे जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं । ’ (प्रेमचंद, कफन, दिनेश प्रसाद ,सं., पृष्ठ-60)

प्रेमचन्द की रचनाओं में कल्पनाओं ने जहाँ भी अंगड़ाई ली, वहाँ उनकी लेखनी का उद्देश्य जनकल्याण के सरोकार से जुड़ता रहा है ।  प्रेमचंद के विचारों पर गांधीवाद का प्रभाव बड़े सशक्त रूप में दृष्टिगत हुआ है ।  वे अपनी रचनाओं में, यथा-‘रंगभूमि’, ‘प्रेमाश्रम’,‘कर्मभूमि’ आदि उपन्यासों में गांधीवाद को प्रत्यक्षतः व्यक्त करते हैं ।  ‘प्रेमाश्रम’ उपन्यास में वे स्वीकारते हैं कि ‘किसानों और जमीनदारों के संबंध प्रेम और सहयोगपूर्ण हो सकते हैं ।  प्रेमशंकर और मायाशंकर जैसे जमीनदार-वर्ग के व्यक्ति किसानों की सेवा में अपने जीवन को पूर्णतया समर्पित कर सकते हैं । ’(प्रेमाश्रम, प्रेमचन्द, पृष्ठ-42)

प्रेमचन्द की रचनाओं में जनकल्याण की भावना सर्वत्र व्याप्त रही है ।  प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में आदर्शवाद को प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया है ।  ‘सेवासदन’ उपन्यास में जब सुभद्रा सुमन से कहती हैं –‘हम कोई भेड़-बकरी नहीं हैं कि माँ-बाप जिसके गले मढ़ दे,बस उसी के हो रहे ।  अगर अल्ला को मंजूर होता कि तुम मुसीबतें झेलो, तो तुम्हें परियों की सूरत क्यों देता? यह बेहूदा रिवाज यही के लोगों में है कि औरत को इतना जलील समझते हैं ।  नहीं तो और सब मुल्कों में औरत आज़ाद है ।  अपनी पसंद से शादी करती है और उसे रास नहीं आता तो तलाक  देती हैं लेकिन हम सब वही पुरानी लकीर पीटे चली जा रही हैं । ( प्रेमचंद, सेवासदन,पृष्ठ-42)  वह सुमन को बदली हुई परिस्थितियों में देखकर विश्वास नहीं कर पाती है ।  क्योंकि पति के घर से निकाले जाने के बाद वैश्यालय पहुँचने वाली सुमन का सेवासदन में औदात्यपूर्ण आचरण देखकर ‘सुमन के प्रति उसके हृदय में भक्ति उत्पन्न हो गई थी ।  वह सुमन को इस नई अवस्था में देखना चाहती थी ।  उसको आश्चर्य होता था कि सुमन इतने नीचे गिरकर कैसे ऐसी विदुषी हो गई कि पत्रों में उसकी प्रशंसा छपती है । ’(प्रेमाश्रम, प्रेमचन्द, पृष्ठ-214)

 

प्रेमचंद का आदर्शवाद थोपा हुआ न होकर सहज प्रतीत होता है ।  उनके आदर्शवाद में युगीन यथार्थ का जो स्वरूप व्यक्त हुआ वह युग की अभिव्यक्ति मानी जा सकती है ।  भारतीय स्वतंत्रता काल में समाज सुधार के दौर में ‘सेवासदन’ जैसी रचनाओं का औचित्य और भी अधिक महत्वपूर्ण सिद्ध होता है ।  भारतीयों को अंग्रेजी माध्यम की गलत शिक्षा नीति के द्वारा कुंठित बना कर कुरीतियों, धार्मिक आडम्बरों एवं अंधविश्वासों के गहन गह्वर में धकेल दिया जाता है ।  भारतीयों में चेतना की भावधारा जगाने के लिए कई विद्वानों ने कलम पकड़ी ।  हिंदी साहित्य के इन विद्वानों में प्रेमचंद का नाम सर्वप्रथम लिया जाता है ।  भारतीयों में आत्माभिमान की भावना को विकसित करने का प्रयास प्रेमचंद की रचनाओं में सर्वत्र किया गया है ।  प्रेमचंद ने हिंदी कथासाहित्य को मानव हित से जोड़ते हुए कल्पना और तिलिस्म से निकाल कर यथार्थ की दुनिया में प्रस्तुत किया है ।  प्रेमचंद का साहित्य केवल जनरंजन का कारक ही नहीं बनता है, अपितु जन कल्याण के लिए आवश्यक हर उस विचारधारा को प्रस्तुत करता है, जो  मानवतावादी विचारों का पोषक हो ।  

प्रेमचंद को अमर बनाने के लिए उनके दर्जनों उपन्यास तथा सैकड़ों कहानियों की संख्या पर्याप्त नहीं है ।  बल्कि उनके रचनात्मक अवदान की गंभीरता उन्हें अमर बनाती है ।  हंस,जागरण,माधुरी जैसी पत्रिकाओं का सफल संपादन उन्हें सुलझा हुआ जिम्मेदार साहित्यकार सिद्ध करता है ।  हिंदी साहित्य अपने इस कालजयी रचनाकार के कारण सदैव गरिमामंडित होता रहेगा ।

 



डॉ.सुषमा देवी

एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग

बद्रुका कॉलेज, काचीगुडा, हैदराबाद-27, तेलंगाना.

 

बुधवार, 31 जनवरी 2024

कहानी

 


हेड कि हेडेक

डॉ. सुषमा देवी

आज टेम्स कॉलेज के भाषा विभाग में बड़ी चहल-पहल है ।  मिसेज वर्मा की वर्षों की दबी इच्छाओं को साकार रूप मिला है ।  मिसेज माही वर्मा दिल्ली से जब पहली बार हैदराबाद आयीं थीं, हैदराबाद में हर जगह दिल्ली ढूँढती रहती थीं ।  उनके पति मि. रुपेश वर्मा सूचना तकनीकि विभाग में कार्यरत थे ।  उनका स्थानांतरण होने के बाद से ही मिसेज वर्मा बड़ी चिंतित रहने लगी थीं ।  क्योंकि दिल्ली में घर के आस-पास ही सभी रिश्तेदार रहा करते थे और अनजान शहर में पति के कार्यालय जाने के बाद वे क्या करेंगी, यही चिंता उन्हें व्यग्र कर रही थी ।  मिसेज वर्मा को टेलीविजन देखने की भी आदत नहीं थी, उस पर उनके दोनों बेटे बोर्डिंग में पढ़ रहे थे ।  मि. रुपेश वर्मा के माता-पिताजी वाराणसी में रहते थे ।  

बात यही कोई 2012 की है , पूरी दुनिया में अफवाहें उडी हुई थीं कि  इसी साल दुनिया समाप्त होने वाली है ।  मिसेज माही वर्मा अंग्रेज़ी का समाचार पत्र डेकन क्रॉनिकल पढ़ते हुए उबासी ले रही थीं, कि अचानक उनकी नज़र टेम्स कॉलेज की रिक्तियों पर पड़ी ।  एक बार के लिए उनकी आँखों में चमक आ गयी ।  यह कॉलेज न केवल हैदराबाद , बल्कि भारत के प्रतिष्ठित महाविद्यालयों की श्रेणी में आता था ।  इन रिक्तियों को देखने के बाद आज मिसेज माही वर्मा को समय काट रहा था ।  वे मिस्टर रुपेश वर्मा के ऑफिस से लौटने का इंतजार कर रही थीं ।  शाम के यही कोई आठ बजे मुख्य दरवाजे की डोररिंग बजते ही माही दरवाजा खोलने पहुँचीं ।  रुपेश को देखते ही अपने स्वभाव के विपरीत आज माही कॉलेज रिक्तियों के बारे में बताने के लिए उतावली हो रही थीं ।  आज पत्नी को रुपेश ने शातिराना मुस्कान बिखेरते हुए देखा, तो दिन भर की थकान भूलकर पत्नी को अंक में भरकर पूछा- क्या है? कोई कोहिनूर हाथ लगा गया क्या?

माही अपने हमेशा के अंदाज में बोलने लगी- आज पता है, जब मैं डेकन क्रॉनिकल पढ़ रही थी, तो उसमें हैदराबाद के प्रसिध्द टेम्स कॉलेज की वेकेंसी पर नजर पड़ी ।  उसमें असिस्टेंट प्रोफेसर के पद के लिए इंग्लिश में पोस्ट ग्रेजुएशन में केवल 55 प्रतिशत पूछा गया है ।   मेरा तो पी.जी. में 68 परसेंट है ।  आप कहें तो मै अप्लाई कर दूँ ।  

मिस्टर रुपेश-  अरे भई, कर देना अप्लाई ।  पहले मुझे फ्रेश होने दो, कॉफ़ी- वाफी तो पिला दो ।  

मि.रुपेश को तो मानो अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था ।  क्योंकि उसके घर में हर कोई ऊँचे प्रशासनिक एवं शैक्षणिक पदों पर कार्यरत है ।  स्वयं उसके पिताजी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में भूगर्भ विज्ञान विभाग में डीन थे तथा माँ भी सरकारी विद्यालय की प्राचार्या थीं ।  मि. रुपेश का छोटा भाई लंदन बिजिनेस स्कूल में निदेशक हैं ।  माता-पिताजी वाराणसी में अपने पुश्तैनी घर में रहते हुए धर्म-कर्म के कार्यों में व्यस्त रहते थे ।  रुपेश के भाई ने ब्रिटिश महिला से विवाह कर लिया था, सो उनका भारत में आना-जाना कम ही रहता था ।  

विवाह के आरंभिक तीन वर्षों में दोनों बेटों अजय और अभय के जन्म के बाद प्रायः माही इतनी अस्वस्थ रहने लगी थी कि वे चाह कर भी पत्नी से नौकरी की चर्चा न कर पाए ।  माही का नौकरी करने की आवश्यकता आर्थिक कम मि. रुपेश के लिए पारिवारिक और सामाजिक प्रतिष्ठा अधिक थी ।  उन्होंने माही के मुख से पहली बार नौकरी शब्द सुनते ही बिना कुछ सोचे ‘हाँ’ कह दिया ।

 माही को कॉफ़ी लेकर आते देख कर मि. रुपेश ने कहा कि- टेम्स कॉलेज का जो कह रही थी, तुरंत आवेदन कर दो ।  यह भी कोई पूछने की बात है और हाँ, आज डिनर बनाने की जरुरत नहीं ।  हम दोनों बाहर चलेंगे, तुम्हारे अप्लाई करने की ख़ुशी सेलिब्रेट करेंगे ।  दोनों बेटे नैनीताल के बोर्डिंग स्कूल में पढ़ रहे थे ।  घर में अन्य कोई भी न था, ऐसे  में वे दोनों डिनर बाहर करने के लिए अकसर चले जाया करते थे ।  

माही ने टेम्स कॉलेज की कुंडली गूगल पर ढूँढ़नी शुरू की, तो ख़ुशी से झूम उठीं,  मानो अंधे के हाथ बटेर लग गया हो ।  वेबसाइट पर यह हैदराबाद के सर्वोत्तम कॉलेज में से एक था ।  माही ने तुरंत एप्लीकेशन भरकर मेल कर दिया और दस दिन के अंतराल में ही साक्षात्कार के लिए उन्हें बुलावा भी आ गया ।  चूँकि अंग्रेजी भाषा पर उनकी अच्छी पकड़ थी ।  अतः पी.जी. करने के 11 वर्षों बाद तक कोई कार्य अनुभव न होने पर भी उन्हें चुन लिया गया ।

टेम्स कॉलेज के भाषा विभाग की अध्यक्ष हिंदी विषय की शिक्षिका डॉ. रेणुका थीं ।   माही का अंग्रेजी का अहम् हिंदी विषय की विभागाध्यक्ष के अंतर्गत बहुत चोटिल हुआ ।  भाषा विभाग में कुल पंद्रह भाषा शिक्षिका थीं । टेम्स कॉलेज में अस्सी प्रतिशत महिला शिक्षिकाएँ ही थीं, क्योंकि उनको नगर के इतने बड़े कॉलेज में कामकाजी होने का रुतवा और मोटी तनख्वाह मिलती थी और संस्था को इनका खून चूसने का अधिकार ।  माही को सबसे अधिक तनाव अपनी विभागाध्यक्ष से रहता था ।  वह सामने से तो नहीं, लेकिन एक-दूसरे से पीछे-पीछे अपनी दबी हुई मंशा व्यक्त कर चुकी थीं ।  डॉक्टर रेणुका को भी इस संस्था में काम करते हुए पूरे 28 साल हो गए थे ।  माही की नियुक्ति के बाद विभाग में उनसे पहले के कार्यरत अधिकांश अध्यापकों की सेवानिवृत्ति हो चुकी थीं ।  माही के सामने एक के बाद एक तेरह नए शिक्षक भाषा विभाग में नियुक्त हुए ।  डॉ. रेणुका जी की सेवानिवृत्ति के बाद मिसेज माही वर्मा वरिष्ठता सूची में सर्वप्रथम आ गईं ।  अतः डॉ. रेणुका जी के विदाई समारोह में प्राचार्य ने मिसेज माही को जैसे ही अगली भाषा विभागाध्यक्ष  के रूप में नामित किया। उनकी बारह वर्षों की दबी महत्वाकांक्षाओं ने पर खोल दिए। एकदम शांत, शातिराना अंदाज की मालकिन मिसेज माही इस दिन के इंतजार में वर्षों से घात लगाए हुए थीं।  घर में पति की नजरों में और अपनी सोसाइटी में सम्मान पाने का वे यही एक माध्यम समझती थीं।  टेम्स कॉलेज में आने के बाद शुरू के 9 साल शिक्षण, अकादमी कार्यों के अलावा उन्होंने कभी कुछ नहीं किया।  लेकिन जब कॉलेज में पीएचडी के आधार पर वेतन वृद्धि का नियम देखा, तो तुरंत शहर के नामी विश्वविद्यालय में अपना दाखिला करा लिया ।  भाषा विभागाध्यक्ष  के पद के लिए नामित होते ही वे खुशी से भूली न समाईं ।

समारोह सभागार में मिली-जुली प्रतिक्रिया मिसेज माही के लिए देखी गई ।  कंप्यूटर विभाग की मिसेज लांबा  जो थोड़ी सी मुहफट थीं, उन्होंने कहा कि भाषा विभाग वालों बचकर रहना ।  ये इतनी धीरे से वार करेंगी कि तुम्हें भी पता न चलेगा, पूरी मीठी छुरी हैं । जब ऐसे वाक्य भाषा विभाग में नई-नई शिक्षिकाओं को सुनने को मिलें, तो उन्हें लगा कि पता नहीं क्या करेंगी, ये नई विभागाध्यक्ष ।

ये सभी जानते थे कि इस कॉलेज में सभी सेवा देने के लिए आए हुए हैं ।  किंतु कॉलेज में नौकरशाही चरम पर थीं ।  स्वायत्तशाषी संस्था होने के कारण प्रबंधन समिति स्वयं को एक कॉलेज का प्रबंधक नहीं, अपितु किसी राज्य का राजा समझते थे ।  प्रिंसिपल अन्य शिक्षकों को अपने अधीन काम करने वाले कर्मचारी न मान कर अपने घर के सहायक व्यक्तियों की भाति आदेश देते थे ।  इस कॉलेज में ‘विवेक’ शब्द कहीं नहीं दिखता था ।  ‘विद्या विनय ददाति’ की उक्ति इस कॉलेज से कोसों दूर थी ।  कॉलेज को सेवा देने वाले समस्त कर्मचारियों में मालिक-नौकर जैसा व्यवहार देखा जा सकता था ।  

भाषा विभाग की चापलूस मंडली ने दूसरे ही दिन मिसेज माही वर्मा के नाम की पट्टिका मंगा कर कांजीवरम की साड़ी उपहार के रूप में दिया।  माही विभागाध्यक्ष की कुर्सी पर बैठीं, तो अचानक सबने अनुभव किया कि उनकी गर्दन बिना किसी कॉलर बेल्ट के तन गई। एक अदृश्य कॉलर बेल्ट अब हमेशा उनके विभागाध्यक्ष की कुर्सी पर बैठते ही लग जाती थी ।  जैसे ही वे कुर्सी से उठती थी, वह गायब हो जाता था और वे सभी से सामान्य शिक्षिका जैसा व्यवहार करने लगती थीं ।  

मिसेज माही ने अति शीघ्र पीएचडी का कार्य भी आरंभ कर दिया, जो शोध कार्य पिछले 4 सालों में न कर पायीं थीं, वह उन्होंने 3 महीने में कर डाला ।  अपनी आयु के 50 वें साल में प्रवेश करते-करते आखिर अपने शोध निर्देशक की सहायता से अपने जीवन में पहला शोधालेख प्रकाशित कर लिया ।  शोधालेख यूजीसी केयर पत्रिका में प्रकाशित होने की खुशी उन्होंने पूरे विभाग को कॉफ़ी, समोसे और अंजीर बर्फी के साथ बाँटी ।  डॉ. अदिति चतुर्वेदी हिंदी की नई शिक्षिका थीं, जो डॉ. रेणुका के स्थान पर नई शिक्षिका के रूप में नियुक्त हुई थीं ।  डॉ. अदिति चतुर्वेदी आश्चर्यचकित थीं कि शोधालेख प्रकाशित होने पर इस प्रकार से भी खुशी व्यक्त किया जाता है तो निश्चय ही उसके कटोरा पकड़ कर भीख मांगने की स्थिति शीघ्र आ सकती है ।  क्योंकि पिछले 14 वर्षों में वह 50 से भी अधिक आलेखादि राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित कर चुकी थीं, ऐसे में आलेख प्रकाशित होने की ऐसी खुशी को कभी व्यक्त नहीं किया ।  क्योंकि वे इसे भी अकादमिक गतिविधियों का अनिवार्य हिस्सा मानती थीं ।  अदिति स्वयं की उपलब्धियों को कभी अनुभूत न कर पायीं थीं ।  

 मिसेज माही के भाग्य खुल गए थे ।  विभागाध्यक्ष बनकर उन्हें कुलपति जैसा आनंद प्राप्त हो रहा था।  अदिति से मिसेज माही की कभी न बनती थी ।  क्योंकि प्राय अन्य महाविद्यालय से अतिथि व्याख्याता के रूप में अदिति  को बुलाया जाता, तो वे कुंठा में छुट्टियों के अनुमोदन पर शिकंजा कसने लगीं ।  अंततः वेतन कटौती, आकस्मिक  छुट्टी के बावजूद भी अदिति को व्याख्यान व प्रपत्र प्रस्तुति के लिए अनुमति देने में वे आनाकानी करने लगीं ।  लेकिन रुकना तो जैसे अदिति ने सीखा ही न था ।  इसलिए मिसेज माही की कोपभाजक बनी रहती थीं ।  

मिसेज माही पीएचडी के नाम पर हर दिन दोपहर एक बजे ही निकल जाती थीं और एक दिन विभाग में फिर से मिठाइयों के साथ प्रवेश किया, यह कहते हुए कि मेरी पीएचडी मौखिक की परीक्षा हो गई है ।  अदिति को तो अपने कान पर भरोसा ही नहीं हो रहा था ।  वह सोचने लगी कि अंतरराष्ट्रीय स्तर के शिक्षण संस्थान में ऐसी धांधली कि पीएचडी मौखिक की रिपोर्ट रातों-रात आ जाए ।  और तो और शोध प्रबंध मिसेज माही ने ऑनलाइन जमा किया था और इतने आनन-फानन में मिसेज माही डॉ. माही बन चुकी थीं ।  यद्यपि विभाग में तीन लोगों का पीएचडी शोध कार्य चल रहा था ।  लेकिन इतना त्वरित कार्य करने में कोई सक्षम न था ।  जैसे ही विभागाध्यक्ष को डॉक्टर की उपाधि मिली, विभाग की संस्कृत शिक्षिका मिसेज श्वेतमणि को बेचैनी होने लगी ।  उन्होंने भी प्रेरित होकर अपना पीएचडी जल्दी पूर्ण करने का निश्चय कर लिया ।  एकमात्र ईमानदार अंग्रेजी की  शिक्षिका नीता शर्मा का पीएचडी शोध-प्रबंध तीन साल की कठोर तपस्या के बाद भी अब तक जमा न हो पाया था, शोध प्रबंध जमा  करने से पूर्व की स्वीकृति के अभाव में उनका कार्य रुका हुआ था ।   जबकि उनका यह शोध कार्य आठ माह पूर्व ही पूरा हो चुका था ।  अदिति शिक्षण जगत की कलाबाजियों से हतप्रभ थी ।  

अब तक माही का कई बार अदिति से गतिरोध हो चुका था ।  डॉ. माही वर्मा विभाग में सभी को ये सीखाने पर अमादा थीं कि बिना उनकी अनुमति के दूसरे विभाग के लोगों से कोई मिले भी न और न ही पुस्तकालय जाए ।  दूसरे विभाग के शिक्षकगण प्रायः यह कहते रहते थे कि आप लोग तो लघु शंका भी बिना अपने विभागाध्यक्ष की अनुमति के न जाते होंगे ।  

अदिति की दृष्टि में शिक्षण जगत बुद्धि, विवेक के विकास का स्थान होता है ।  ऐसे में जब तीन शिक्षकों का कार्य भार उसे दिया गया, तो उसने अपने स्वास्थ्य की परवाह न करते हुए पूरी कक्षाएँ लीं, ताकि विद्यार्थियों को कोई समस्या न हो ।  उसके महाविद्यालय में प्रवेश के करने के बाद तीन प्रिंसिपल बदल चुके थे ।  शिक्षा व्यवस्था तो दिन-ब-दिन व्यापार बनता जा रहा है ।  कॉलेज प्रबंधन जहाँ तक हो सके पैसे बचाने की कोशिश करते रहते हैं ।  किंतु विद्यार्थियों की पढ़ाई का हर्ज न हो, इस प्रयास में अदिति पचास कक्षाओं के विद्यार्थियों को ठूँस-ठूँस कर तीस कक्षा में लेने लगी ।  विद्यार्थियों तक अपनी आवाज पहुँचाने के प्रयास में वह लगभग चिल्लाकर पढ़ाने  लगी थी ।  यह क्रम चार महीने तक चला, जिससे उसका गला हमेशा के लिए खराब हो गया ।  उसका ध्वनि यंत्र पूरी तरह से नष्ट होने की स्थिति में आ चुका था ।  अदिति का स्वास्थ्य अत्यधिक बिगड़ने के बाद जब सत्र समाप्त होने वाला था, तो नई शिक्षिका को नियुक्त किया गया ।   

अदिति का दूसरे वर्ष के नौकरी संविदा के नवीकरण में जब वेतन वृद्धि शून्य से आगे न बढ़ा, तो वह सीधे प्राचार्य के समक्ष अपने महाविद्यालय से जुड़े रहने के संदर्भ में अपनी असहमति व्यक्त करने पहुँच गई ।  लेकिन प्राचार्य के आश्वासन पर उसने नई संविदा के लिए स्वीकृति दी, किंतु वेतन वृद्धि दो माह बाद जब पूरे कॉलेज के संविदा शिक्षकों के साथ हुआ, तो उसका माथा ठनका ।  अरे! यह क्या? दो हजार, तीन हजार,पाँच हजार, आठ हजार तथा यहाँ तक कि चौदह हजार तक वेतन में वृद्धि अलग-अलग शिक्षकों की हुई थी, जिसका कोई निश्चित तथा स्पष्ट आधार न था ।  यद्यपि पाँच हजार की वेतन वृध्दि अदिति की भी हुई थी, लेकिन सबके वेतन में इतने अंतर को देखकर प्राचार्य से इसका आधार पूछने जब पुनः गई, तो कोई संतोषजनक उतर न पाकर सत्र समाप्त करते हुए त्यागपत्र देने का निर्णय लिया ।  टेम्स कॉलेज से निकलकर अदिति ने पुनः पूर्व के शिक्षण संस्थान में कार्य करने का निश्चय किया ।  अदिति जब से टेम्स कॉलेज में आयी थी, लगातार अवसाद में जी रही थी । अवसाद की दवाएँ भी उसे ठीक नहीं कर पा रही थीं ।  उसकी स्थिति साँप-छछूंदर की हो गई थी । पिछले दो सालों में अदिति को ऐसा प्रतीत होने लगा था, मानो उसने किसी भ्रष्ट तंत्र को अपने जीवन का आधार बना लिया है । शिक्षण जगत का ऐसा भ्रष्ट स्वरूप अदिति के लिए कल्पनातीत था ।  भ्रष्टाचार तो उसने अपने कार्यानुभव में बहुत देखे थे, किंतु टेम्स कॉलेज में अंतरराष्ट्रीय स्तर के विद्यार्थी पढ़ने आते थे, इसलिए इस शिक्षण संस्थान का भ्रष्ट स्वरूप उसके लिए कल्पनातीत था ।  यद्यपि अदिति टेम्स कॉलेज में अति शीघ्र विभागीय कार्यों का कुशलतापूर्वक निष्पादन करने लगी थी, इसलिए डॉ. माही वर्मा मन ही मन तो चाह रही थीं कि अदिति को रोक लें, किन्तु उनका अहम् आड़े आ रहा था ।  

डॉ. सुषमा देवी

असोसिएट प्रोफ़ेसर

हिंदी विभाग

बद्रुका कॉलेज,काचीगुडा

हैदराबाद-27, तेलंगाना

अगस्त 2025, अंक 62

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