बुधवार, 26 अप्रैल 2023

अप्रैल – 2023, अंक – 33

 


शब्द-सृष्टि  

अप्रैल – 2023, अंक – 33


व्याकरण विमर्श – वाच्य परिचय – डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

आलेख – काव्य-प्रयोजन की दृष्टि से उपन्यास साहित्य पर एक विहंगम् दृष्टिपात – डॉ. हसमुख परमार

आलेख – हिन्दी हाइकु : तथ्य और कुछ विचार – डॉ. पूर्वा शर्मा

विशेष – गो संवर्द्धन एक लाभकारी एवं पुण्यकारी व्यवसाय – डॉ. अशोक गिरी

कहानी – जिन्दगी बड़ा सच – डॉ. वरुण कुमार

ताँका – डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा

कविता – प्रकृति – रूपल उपाध्याय

सामयिक टिप्पणी – वाइब्रेंट विलेज : कितने वाइब्रेंट – डॉ. ऋषभदेव शर्मा

हाइगा – अनिता मंडा

कविता – प्रेम-बीज – डॉ. पूर्वा शर्मा

कविता

 



प्रेम-बीज

डॉ. पूर्वा शर्मा

 

क्या तोहफ़ा दूँ

आज मैं तुम्हें !

दिए थे तुमने ही

बरसों पहले मुझे

‘प्रेम-बीज’

रख लिया था जिसे मैंने

दिल में दबाकर,

और फिर

वक्त की वही कहानी...

जुदा हुई राहें

और... जुदा ज़िंदगानी

लेकिन अरसे बाद

फिर से वक्त ने ली

कुछ करवटें

और आ गए सामने

तुम....

मुझे लगा था कि

वक्त के ताप में दबकर

नष्ट हो गए होंगे

यह नन्हे प्रेम-बीज,

मगर

वक्त और हालात की मार ने

इस प्रेम-बीज को बना दिया

प्रेम का ‘कल्पवृक्ष’

पनप रहे हैं अब इस वृक्ष पर

प्रेम के असंख्य बीज-पुष्प

यदि तुम स्वीकार करो तो

देना चाहती हूँ आज तुम्हें

वही पुष्प, वही बीज...

जो है मेरे जीवन के मंत्र-बीज ।

 


डॉ. पूर्वा शर्मा

वड़ोदरा

 

हाइगा

 









सामयिक टिप्पणी



वाइब्रेंट विलेज : कितने वाइब्रेंट

डॉ. ऋषभदेव शर्मा

अरुणाचल प्रदेश के सीमावर्ती इलाकों के नाम बदलने की चीन की कुटिल चाल का सबसे अच्छा जवाब यही हो सकता है कि भारत सरकार वहाँ अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्शाए।  इस लिहाज से गृह मंत्री अमित शाह की अरुणाचल प्रदेश की यात्रा और सीमा पर वाइब्रेंट विलेज प्रोग्रामके शुभारंभ को अच्छा रणनीतिक कदम कहा जा सकता है। देखना यह होगा कि यह केवल घोषणा तक ही सीमित न रहे, बल्कि वे गाँव सचमुच ऐसे जीवंत गाँव बन कर उभरें, जो देशी और विदेशी पर्यटकों को अपनी ओर खींच सकें।

गौरतलब है कि केंद्रीय गृह मंत्री ने अरुणाचल प्रदेश के सीमावर्ती गाँव किबिथू में वाइब्रेंट विलेज प्रोग्रामकी नींव रखी है।  अरुणाचल सरकार की 9 सूक्ष्म पनबिजली परियोजनाओं और 120 करोड़ रुपये की भारत-तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) की 14 बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं का भी उद्घाटन किया गया है। इस मौके पर शाह का यह बयान उत्साहवर्धक तो ज़रूर है कि सीमावर्ती गाँवों के प्रति लोगों का नजरिया बदला है और अब सीमावर्ती क्षेत्र में आने वाले लोग किबिथू को अंतिम गाँव के रूप में नहीं बल्कि भारत के पहले गाँव के रूप में जानते हैं। लेकिन इस बयान को व्यापक सच्चाई बनाने के लिए ज़रूरी है कि ऐसे गाँवों तक लोगों का आना-जाना सुगम और निरापद हो। यह बात केवल किबिथू पर ही नहीं, समूचे उत्तर और उत्तर-पूर्व के सीमावर्ती गाँवों पर भी लागू होती है। जैसा कि गृह मंत्री ने कहा है, सीमा की सुरक्षा ही देश की सुरक्षा है। इसलिए  सीमा पर बुनियादी ढाँचे को बढ़ाने के लिए ठोस काम होना ज़रूरी है। ऐसा करके ही चीन के दुष्प्रचार को निष्प्रभावी बनाया जा सकता है।

दरअसल, सरकारों के स्तर पर ऐसे प्रयासों की बड़ी जरूरत है जो सुदूर सीमावर्ती इलाकों में यह बोध जगा सकें कि वे भारत की मुख्य भूमि से दूर या अलग-थलग नहीं हैं। अगर आज भी उत्तर और उत्तर-पूर्व के राज्यों के कुछ इलाकों में देश के मैदानी प्रांतों से आने वालों को परदेसीया हिंदुस्तान से आया हुआमानने का चलन बाकी है, तो इस स्थिति को निर्मूल किए जाने की बड़ी ज़रूरत है। धर्म, भाषा, जाति, नस्ल और क्षेत्र के आधार पर भारतीयों के बीच किसी भी प्रकार का भेदभाव अस्वीकार्य है - इसका अनुभव ज़मीनी स्तर पर हर भारतीय को करना और करवाना राष्ट्रीयता की पहली शर्त है। इसलिए गृह मंत्री का यह नोटिस करना उत्साहवर्धक कहा जाना चाहिए कि अरुणाचल प्रदेश के सभी निवासी एक दूसरे को जयहिंदकहकर अभिवादन करते हैं और इसी भावना ने अरुणाचल को भारत के साथ रखा है।

यहाँ इस मुद्दे पर भी गंभीरता से सोचने की ज़रूरत है कि अरुणाचल सहित तमाम सीमावर्ती इलाकों से बड़ी संख्या में पलायन क्यों होता है। इसीलिए न कि वहाँ जीवन दुष्कर है और आजीविका दुर्लभ? सरकारों को चाहिए कि इन सीमावर्ती गाँवों के जीवन को सुगम और और उनके लिए आजीविका को सुलभ बनाने के ठोस कार्यक्रम लागू करें। इस लिहाज से वाइब्रेंट विलेज प्रोग्रामसचमुच स्वागतयोग्य है। इस  कार्यक्रम के तहत अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में उत्तरी सीमा से सटे 19 जिलों के 46 ब्लॉकों में व्यापक विकास के लिए 2967 गाँवों की पहचान की गई है।  पर्यटन, स्थानीय संस्कृति और भाषा संरक्षण को बढ़ावा देते हुए इन गाँवों का विकास इस तरह करना होगा कि  वाइब्रेंट विलेजमें रहने वाले सभी लोग इनमें रहने पर गर्व महसूस करें! वैसे भी अरुणाचल प्रदेश भारत भूमि का वह क्षेत्र है, प्रातःकालीन सूर्य की रश्मियाँ प्रतिदिन जिसका सबसे पहले अभिनंदन करती हैं –

 

अरुण यह मधुमय देश हमारा।

जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।।”

              (जयशंकर प्रसाद - चंद्रगुप्त)

 

 


डॉ. ऋषभदेव शर्मा

सेवा निवृत्त प्रोफ़ेसर

दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा

हैदराबाद

 

कविता

 


प्रकृति

रूपल उपाध्याय

पल्लवित है सृष्टि सारी,

वृष्टि का ज़रा ध्यान रख।

परिनिष्ठ है, सम्पूर्ण है बस,

दृष्टि में सम्मान रख।।

नतमस्त हो इस विशद भूगोल पर,

अपना अस्तित्व ज़रा सँवार ले,

अन्यथा सर्वनाश का परिणाम यों स्वीकार ले।।

देवतुल्य प्रकृति की अब न कर क्षति,

वक्त है संभल जा और न भ्रष्ट कर मति।

स्निग्ध से संचित किए,

इस रिश्ते का ख्याल रख,

हम प्रकृति के, प्रकृति है हमारी,

इस नेह का ज़रा मान रख।।

कर विकास है पथ प्रशस्त,

कर न अब यूँ प्रकृति को ध्वस्त।

विकास भी क्या ऐसा जो बने सर्वनाश,

आहतमुक्त समाज की अब हमें है आश ।।

हे मनुष्य! उस मनु के अनुभव की ज़रा थाह ले,

जलप्लावन की उस घटना को अब न दोहराव दे।

इतिहास खोज कर देखेंगे तो ,

मिलेगा यही तथ्य,

प्रकृति मानव अभिन्न हैं,

केवल यही है सत्य ।।

जब-जब हुआ ह्रास प्रकृति का,

मनुज जीवन भी कहाँ टिका,

बना वसुधैव कुटुंबकम् जब बाज़ारवाद,

लोभ की हाट में तब बेतहाशा बिका।

वसुंधरा की सुंदरता को और न करे ध्वस्त,

प्रकृति रक्षा करने से ही बनेगा जीवन स्वस्थ ।।

 


रूपल उपाध्याय

हिंदी विभाग, कला संकाय,

महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय,

बड़ौदा (गुजरात)

ताँका

 


ताँका

डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा

1

हवाओं संग

झूम-झूम गा रही

गेहूँ की बाली

जलकुकड़ी आई

एक बदली काली।

2

काली बदली

छा गई रात पर

चाँद बेबस

जो थे जगमगाते

अब टिमटिमाते ।

3

टिमटिमाते

देखो कितने सारे

नभ में तारे

आँचल में मुस्काते

रजनी के दुलारे ।

4

दुलारे कोई

पलती है चाहत

मिले न मिले

पर दूरी मन की

करती है आहत।

5

आहत मन

धर पाया न धीर

उमड़ी पीर

नैनों से बरसती

बनकरके नीर ।

6

नीर भरा था

टूटे जो तटबंध

रोक न पाए

मन हाथों से छूटा

सपना प्यारा टूटा  ।

7

टूटा बादल

धरा की रह गई

आस अधूरी

व्याकुल मन तू क्या

बैठी अरी मयूरी !

8

अरी मयूरी

नाचता है मयूर

पंख फैलाए

गरजे जो बादल

हो गया है पागल।

9

पागल मन

मस्ती में डूब गया

किसने छेड़ी

यह मधुर तान

सुनाया प्रेमगान ।

10

प्रेमगान से

गुंजायमान धरा

अंकुर फूटा

हरियाली छा गई

खिल उठे सुमन।

11

सुमन खिले

नयनों से नयना

जब भी मिले

बही प्रेम सरिता

हैं क्यों किसी को गिले ?

12

गिले-शिकवे

लगे मन को प्यारे

कोई तो रिश्ता

बाकी है अभी तक

बीच मेरे-तुम्हारे ।

13

तुम्हारे लिए

रख छोड़ा है नाम

निर्घृण! माँगते हो

निष्ठा का मेरी

मुझसे ही क्यों दाम ।

14

दाम चुकाया

वफाओं का हमने

मिटा दी हस्ती

उसको ही हँसाया

जिसने था रुलाया ।

 


डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा

वापी (गुजरात) 

कहानी

 


जिन्दगी बड़ा सच

डॉ. वरुण कुमार

अस्पताल का गमगीन माहौल। सभी के चेहरे बुझे हुए। मृत्यु की घटना के ऩजदीक में होने का अनुभव भी कितना अवसन्नकारी होता है। डेड बॉडी अस्पताल के नियमानुसार तीन कि चार घंटे बाद मिलेगी। तबतक लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं। लेकिन हर कोई दुःख से नहीं, माहौल के असर से या सामाजिक शिष्टाचारवश भी मुँह लटकाए है। लोग लोकाचारवश भी “जिंदगी का कोई भरोसा नहीं”, “सब भगवान की मरजी है”, “काल के आगे किसी की नहीं चलती” जैसी रुटीन बातें कर रहे हैं। 

मगर क्या सचमुच ऐसा हैसचमुच क्या “जिंदगी का कोई भरोसा नहीं?”, “सब भगवान की मरजी है?” “काल के आगे किसी की नहीं चलती?”  

उसका मोबाइल थरथराता हैवाइब्रेट मोड में है। ‘उस’ का एसएमएस आया है, “क्या हुआआर यू ओके?” उसे थोड़ी वितृष्णा हुई। सीधे फोन पर बात नहीं करेगीमगर चिंता भी दिखाना चाहती है। मगर मोह का तंतु इतना कमजोर नहीं कि मौत का वातावरण उसे फिलवक्त भी तोड़ सके। डर है तो बस  लोकाचार का। लोग देखेंगे तो क्या समझेंगेकि वह इस माहौल में भी ‘इश्क लड़ा रहा है?’ उसने संदेश भेज दिया “आय एम ओके। ऐट हॉस्पिटल विद अदर कलीग्स। वेटिंग फॉर रिलीज ऑफ दी बॉडी।” (वह दूसरे सहकर्मियों के साथ अस्पताल में है। लाश के छूटने का इंतजार कर रहा है।) वह अपनी पत्नी की तरफ से सतर्क है। सोच रहा हैबड़ी सजग हैमोबाइल में टाइप करते देख संदेह न करे। उसने मोबाइल को वाइब्रेट मोड में उसी के डर से किया हुआ है।

इतना हँसता खेलता परिवार। पत्नी हद दर्जे की शौकीन। पति की बीमारी के दौरान भी सजती-सँवरती रही। कल्चरल प्रोग्रामों मेंक्लब के फंक्शनों में जाती रही। मातम मनाना उसे आता ही नहीं था। जिंदगी और उत्साह से भरपूर। अन्य स्त्रियाँ आश्चर्य करतीं या मुँह बिचकातीं, “कैसी औरत हैपति का कोई गम नहीउधर पति बीमार है और यह मस्ती मना रही है।” पति उसके विपरीत शांत स्वभाव कामगर सदा मुस्कुराता रहता। पत्नी को खूब ’पैम्पर’ करके रखा था। कलकत्ता तबादला होकर आने से पहले किसी तरह का कोई मामला ही नहीं था। सबकुछ नॉर्मल। यहाँ आने के बाद उसे संदेह हुआ कि पाइल्स है। होमियोपैथी दवा करवाईफिर एलोपैथी भी। फायदा नहीं हुआ तो ससुर ने लखनऊ में दिखलाया। डॉक्टर को गड़बड़ लगीउसकी कोलोनोस्कोपी कराई और तब उसने मौत का भयावह पंजा सामने खड़ा पाया। रेक्टल कैंसर।  पुनः जाँच कराई। नतीजा वही। 

लोग सच ही कहते हैं मृत्यु अटल है। वही सबसे बडा सत्य है। सारा धर्म मृत्यु की अनिवार्यता का चिंतन है। मध्यकाल के सारे कविक्या कबीरक्या तुलसीसभी मृत्यु को अंतिमसबसे बड़ा सच मानते हैं। 

अंतिम तो है पर क्या सबसे बड़ा भी?

मोबाइल का एसएमएस एलर्ट बजता है। वह पूछ रही है, ”what happened, tell me.” वह क्या कहे। एसएमएस  में इतना टाइप करना संभव नहीं।

देश के सबसे बड़े कैंसर अस्पताल बंबई के चक्कर। दवाएँकीमोथेरेपीरेडिएशन। गुदा का ऑपरेशन। ट्यूमरग्रस्त कोशिकाओं को काटकर निकाल दिया गया और मलोत्सर्जन की वैकल्पिक व्यवस्था कर दी गई। लगा कि ठीक हो गया है। एक असुविधा के साथ जिंदगी काटनी होगी पर वह ’मैनेजेबुल’ है। चेहरे पर हँसी और स्वास्थ्य की चमक लौट आई। किन्तु खुशी क्षणिक साबित हुई। कुछ महीनों बाद कैंसर पास की दूसरी जगह उभर गया -- ’मेटास्टैसिस’! 

दूसरे दौर का कैंसर भयावह निकला। दर्द से जान निकल जाती। खिली खिली रहनेवाली पत्नी सामने दिखती तो हँसता चेहरा लिएमगर आँखों की लाली बताती कि छिपकर रोई है। दुबली भी पड़ गई थी।

और फिर “दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना!” आज अंतिम दवा हो गई। सारे कष्टों से मुक्ति की। काल एक अलंघ्य विराट सत्य बनकर सबकी चेतना पर छाया है। मौत कितनी बड़ी है। जिंदगी कितनी भी कमसिनयुवा होउसके आने में कोई रोक नहीं। जब चाहे उठा ले सकती है।

पर क्या सचमुच ऐसा हैमोबाइल पर एसएसएस का आदान-प्रदान जिंदगी और इच्छा से संचालित है। एक दूर बैठी औरत उसके बारे में पूछ रही हैदिलचस्पी ले रही है। औरत-मर्द का आकर्षणनया जीवन रचने की आदिम प्रेरणा। 

नेट पर मिली थी। चैटिंग से दोस्ती का आरंभ। उसी शहर की रहनेवाली। उसके भी पति हैबच्चा है। पर पति से अलग किसी दूसरे पुरुष से जरा ‘स्पाइस अप’ करने के लिए नेट पर आई थी। दोनों को चैटिंग सुखद और ‘प्रॉमिसिंग’ लगी थी। चैटिंग से आगे बढ़कर फोन पर वार्तालाप। धीरे-धीरे हिम्मत करके दोनों ने अपने-अपने जीवनसाथियों से छिपकर मिल भी लिया था। उसकी सुंदरता ने उसे मोहित कर लिया था और वह स्वयं भी उसपर अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व की छाप छोड़ने में सफल रहा था। 

लेकिन उसके बाद जैसे एक सीमारेखा खिंच गई थी। चैटिंगफोन वार्तालापऔर एक बार का मिलनाइससे आगे बढ़ने के लिए वह तैयार ही नहीं होती। तुम्हारा नाम विभा किसने रखाविभा रोशनी को कहते हैं जो प्रकाशित होती हैफैलती है। तुम तो बड़ी सिमटीछिपी रहती हो।  तुम्हारा नाम निशा वगैरह कुछ होना चाहिए था।” 

हालाँकि वह स्वयं भी नहीं चाहता कि पत्नी से विश्वासघात करे लेकिन इतना डरा-डरा रहना उसे पसंद नहीं। जरा खुलना भी चाहिए। विभा का संकोच उसे अखरता है। चैट में भी कुछ ‘चटपटी’ और बोल्ड बातें नहीं करती। नार्मल  के पर्दे के पीछे ही रहकर इच्छाओं को खोलने-छिपाने का खेल खेलती है। “अगली मुलाकात कब होगी?” का उत्तर देती है“हम मिले तो हैं?” फीजिकल होने तक के बारे में पूछता है तो बोलती है क्या सिर्फ दोस्ती तक ही सीमित नहीं रह सकते?

दोस्ती! नेट पर का छद्म परिचय। विभा भी क्या असली नाम होगाइधर उसने भी तो उसे अपना असली नाम नहीं बताया है। किसी अवैध धंधे की तरह सबकुछ छिपाकर किया हुआ। फोन पर जब आवाज सुनी तभी इत्मीनान हुआ कि औरत है और जब मिला तभी उसके उम्र के बारे में यकीन कर पाया. नहीं तो वह कोई बुढ़िया भी हो सकती थी। 

तो ऐसी जगह क्या करने आई हैदोस्त ऐसे नहीं मिले क्या

सब कुछ आकाश में उड़ते बादल की तरह उडता-उड़ताहल्का-फुल्का, जबकि सहकर्मी के सुखद-सुंदर जीवन पर मृत्यु का प्रहार हथौड़े जैसा ठोस है। मृत्यु का साक्षी होने से बढ़कर कोई हिला देनेवाली घटना नहीं। किसी विशेष क्षण में पकड़ में आ जानेवाले सत्य की तरह उसका साक्षात्कार  होता है और सम्पूर्ण चेतना पर छा जाता है। लेकिन उसके बादफिर रोज का जीवन तो वही ’जीवन है’ के  भाव से चलता है,  न कि ’समाप्त हो जाएगा’ के भाव से। उसे लगतामृत्यु को हर समय सच मानकर चलना जीवन की उपेक्षा हैउसका मोल घटाना है। 

अस्पताल के भीतर से कोई संदेश आता हैप्रतीक्षारत लोगों में हरकत होती है। लाश ‘हैण्ड ओवर’ की जा रही है। गाड़ी आती है। सफेद चादर में लिपटी पथरायी काया बाहर आती है और श्मशान ले जानेवाली गाड़ी पर लादी जाती है। उसपर फूलों की मोटे मोटे गोल चक्कों की सजावट। मृत्यु कितनी भी बड़ी होसम्मान तो जीवन को ही दिया जाता है। मृतक को आदर देकर उस व्यक्ति का सम्मान करते हैं जो जीवित थाउसका नहीं जो निर्जीव होकर काठ की तरह पड़ा हुआ है। 

राम नाम सत्य है’ का कोरस गूँजता हैगाड़ी चल पड़ती है। 

वह पूछ रही है क्या हो रहा है। उसे थोड़ी खीझ होती है। जब कुछ मिलना-जुलना ही नहींफोन पर बात भी नहीं करना तो इतनी चिंता किसलिए दिखा रही है। वह मेसेज कर देता है कि वह अन्य लोगों के साथ श्मशान घाट जा रहा है। 

उसका जवाबी मेसेज आता है और वह चौंक पड़ता है। “I want to see you.” ऐसे वक्त में मिलना चाहती है! गाड़ी में साथ बैठे लोगों को देखता है। कुछ लोग दफ्तर और घर की भी बातें करने लगे हैं। उसे लगता है कहीं वह उसे जाँच तो नहीं रही है कि वह कितना ‘गिर’ सकता है। वह अंदाजा लगाता है इस समय वह खाली होगी। बच्ची स्कूल में होगी। उसका पति तो खैर महीने भर से बाहर दौरे पर है। क्या करे वहएक सहकर्मी की मृत्यु की संवेदना और अंतिम यात्रा में आया है। यह अवैध का रोमांस कितना गलत होगा। 

पर जिंदगी नैतिक-अनैतिक का कोई तर्क मानती भी हैगाड़ी में सबके साथ सटकर बैठे हुए उसे मेसेज टाइप करने में असुविधा हो रही है। लोग देख न लें। क्या लिखे वह?

उसे याद आती है मृतक की पत्नी की। अभी वह रो रही है। मगर आम औरतों की तरह चिघाड़ें मारकर नहीं। चुपचाप। शायद मौत की प्रतीक्षा ने उसे मानसिक रूप से इस सदमे के लिए तैयार कर दिया है। 

सदमावह सदमे में है भी या बस गहरे दुःख में। अभी भी रंगीन कपड़ों टी-शर्ट और जीन्स में है। उसके पति ने कहा था मेरे बाद गम न मनाना। बच्चों को वैसे ही खुश रखना। वह स्वयं भी गम मनातीकम से कम बाहर सेनहीं दिखती। उसे लगता है दोनों औरतों में एक तरह की समानता है - मौत या जुदाई रहे तो रहेजिंदा हैं तो जिन्दगी की खुशी ही मनाएँगे। इनके लिए भी मौत नहींजिन्दगी ही बड़ी है। धर्म और दर्शन की तमाम जीवन की निस्सारता के उद्घोष के बावजूद मनुष्य व्यवहार में तो जीवन को ही सत्य मानकर जीता हैनहीं तो मरने को ही उद्यत न हो जाए?

फिर भीसत्य इतना मामूली नहीं होता कि इतने बाहर से ही दिख जाए। अगर जीवन को चलाए रखने की पक्की चाबी हाथ में नहीं हैमृत्यु हर पकड़ से बाहर है तो सबसे बड़ी मृत्यु ही हुई न। मृत्यु का साक्षात जीते-जी तो हो नहीं सकता। जो कुछ बोध मिलता है वह दूसरे की मृत्यु से हीद्रष्टा रूप में। और इस सत्य को बड़े-बड़े ऋषियों ने किसी गहरे एकांतिक आत्म-साक्षात्कार के ही क्षणों में ही पकड़ा है। 

“I want to see you.” पंक्ति उसके दिमाग में घूम रही है। क्या करेयह अचानक की पेशकश। वह हिसाब लगाता है - श्मशान घाट से वह मॉल कितनी दूर है जहाँ वह उससे मिली थी।  टैक्सी से पंद्रह मिनट से ज्यादा नहीं लगेंगे। 

“Where at?” वह पूछता है। भेजते ही उसे लगता है कि अब वह अपनी आतुरता प्रकट कर चुका है।  

गाड़ी चली जा रही है। हिचकोले खाती। ट्रैफिक संकेतों पर रुकती। यह दुनियाँजीवितों की दुनियाकितनी जंजालपूर्ण है। साले, मरने के बाद श्मशान जाने में भी रुकावटें। वह अपनी बात पर खुद ही मुस्कुरा देता है। रास्ते में दुकानों और घरों के दरवाजे। अंदर जीवन की हलचल - कहीं खरीद-फरोख्त कीकहीं अन्य कामों की। यह सारी मानवीय सभ्यता जिंदगी की बुनियाद पर ही तो खड़ी है। जीवन की क्षणभंगुरता और मृत्यु का सत्य तो जानवरोंकीड़ो-मकोड़ों के लिए भी है। लेकिन धरती पर इतनी ऊँची सभ्यता का कर्ता सिर्फ मनुष्य़ है। उसकी जिंदगी को बाकी प्राणियों की तरह मृत्यु के सामने रखकर बराबर कर देना मानव की विशिष्टता का अवमूल्यन है। 

मोबाइल में ‘सेन्ट रिपोर्ट’ चेक करता है। एसएमएस तो चला गया है। क्या सोच रही हैकहाँ मिलेंया फिर इस बारे में ही कि मिला जाए या नहींउत्साह में ‘मिलना चाहती हूँ’ का संदेश भेज दिया होगा। या सचमुच मुझे चेक ही रही थी?   

तभी मोबाइल का परदा चमकता है। संदेश आया है – “सेम प्लेस।’’ 

उसके कलेजे से एक खुशी की साँस निकलती है, लेकिन साथ ही अपनी ’बेशर्मी’ के प्रति धिक्कार भी मन में उठती है। एकदम से श्मशान पहुँचते ही निकल जाना अच्छा लगेगालोग बोलेंगेया सोचेंगेफिर आए किसलिए थे?  

पत्नी ने चलते वक्त पूछा थावहाँ से तो सीधे घर आओगे नाया कि ऑफिस जाओगेउसने ‘देखो कैसा सिचुएशन रहता है’ कहकर आने की समय सीमा खुली रखी थी। देर से जाएगा तो समझेगीश्मशान घाट पर ही देर हुई है। उसे धोखा देना अच्छा लगेगा?

आदमी भी अजीब है। हाँ भी चाहता है और ना भी। 

द्वंद्व में पड़ा वह सोचता हैइस वक्त मृत्यु की गंभीरता को इनकार कर एक छिछले से रोमांच के पीछे पड़ना घटिया बात नहीं होगीभले ही मृतक उसका करीबी नहीं थासहकर्मी ही थावह भी दूसरे विभाग का, वह आया है उसी की संवेदना प्रकट करने के लिए। अब बहाना बनाकर किसी लड़की से छिपकर मिलने जाना?

एक घंटे में?” वह मोबाइल पर पूछता है। जानेवाला तो चला गया। अब खाली केवल विधि-विधान होने हैं। इसमें रहूँ न रहूँक्या फर्क पड़ता है। 

जल्दी ही ‘ओके’ का उत्तर आ जाता है। 

कुछ भी होयह एक अच्छे चरित्र के आदमी की हरकत तो नहीं हो सकतीवह अपने बारे में सोचता है। लेकिन तबशुरू से इस तरह चैट की दोस्ती और छुपाकर मिल लेना ही कौन सी ऊँची हरकत थी। 

लाश उतारी जा रही है। वह सभी के साथ कोई मदद के लिए सामने तैयार  खड़ा रहता है। किसी ने उसे काउंटर से श्राद्ध के जरूरी सामानों की खरीद के लिए रसीद कटाने को कहा है। वह दौड़कर जाता है। काउंटर पर लाइन लगी है। मरने पर भी उसके पीछे जीवितों के लिए चैन कहाँ। 

मिट्टी की हाँड़ीजौ के दानेगाय का घीअगरबत्तियाँदूबगोबरलाल कपड़ा न जाने क्या क्या... हिन्दुओं ने मरने के बाद भी कितना प्रपंच रच रखा है।  

शमशान घाट का पचपच भींगा अव्यवस्थित माहौल। बहुत सारी व्यवस्था के बावजूद अंदर बेतरतीबी। कोई खड़े-खड़े थककर जंगले पर बैठ गया हैकोई जमीन पर। कोई रो रहा हैकोई सबसे विरक्त बातें करने में व्यस्त। इधर पंडितों से दक्षिणा का मोल-भाव चल रहा है । इस सारे प्रकरण में कौन सी गरिमा हैइससे तो बेहतर है किसी स्वच्छ माहौल में किसी सधेसँवरे व्यक्ति से मुलाकात। ‘उस’ की सुंदर काजलरंजित आँखेंसुंदर भौंहेंगोरे सजीले मुख पर स्मित हास्य, बालों की क्यारी में पतली सी सिंदूर रेखाप्रथम संबोधन में ‘हाय’ की मधुर आवाज उसकी स्मृति में तैर जाती हैं।

उसने घड़ी देखी। अभी आधा घंटा है। पंद्रह मिनट अभी और यहाँ रह सकता है। शवदाह की बारी आने में अभी एक घंटे से कम न लगेगा। मृतक के पिता, भाई, चाचा आदि व्यस्त हैं। उनके चेहरों पर गम से ज्यादा फिक्र और विरक्ति के से भाव। मृतक कितना भी अपना हो, उसके चले जाने के बाद उसकी देह को निपटाने का बोझ तो होगा ही। मौत को कबूल कर लेने के सिवा रास्ता क्या है?

अगर निकलने में थोड़ी देर भी हो तो क्या होगा। थोड़ा इंतजार ही कर लेगी। सहकर्मियों से यूँ ही कुछ देर बातचीत करता है।

पत्नी का फोन आया है। वह भी घऱ पहुँच गई  है। यहाँ के बारे में पूछ रही है। वह उसे यहाँ की स्थिति से अवगत करा देता है। कब आओगे पूछ रही है। ‘देर लगेगी’ वह कहता है।

सीधे घर आना, इधर-उधर मत जाना।’ वह चौंकता है, इसे कुछ भनक तो नहीं लग गई?

अपना दुहारापन उसे भारी लगता है। उससे मिलकर मन ही मन प्रफुल्लित घर जाएगा, लेकिन ऊपर-ऊपर पत्नी के सामने मुँह लटकाए रहेगा, ताकि वह समझे कि श्मशान से आ रहा हूँ। कैसा धोखेबाज है वह!

इतना  बोझ मन पर किसलिएइसीलिए न कि वह शवयात्रा के बहाने किसी ऐसे-वैसे काम के लिए नहीं, बल्कि एक औरत से मिलने जाने के लिए जा रहा है। कोई और काम होता तो इतना ज्यादा अपराध-बोध न होता। प्रेम, वफादारी, सब इच्छाओं पर लगी बेड़ियाँ हैं। मरने पर असत आचरण साथ नहीं जाता, तो सत आचरण ही कौन साथ जाता है। जानेवाला सब सही-गलत से शून्य होकर जाता है। मृत्यु एक बड़ा शून्य है - न उसमें अच्छे कामों का प्लस है, न बुरे कामों का माइनस।

मृतक के प्रति मेरी संवेदनाएँ, लेकिन मुझे जाना तो उसके पास है जो जिन्दा, हाड़-मांस की मनुष्य है।

समय हो रहा है। वह जाने की अधीरता में है। अपने साथियों को उसने कह रखा है, एक काम है, निकलना पड़ेगा। वह मौत के परिसर में जीवन की इच्छा का पोषण करेगा, भले ही चुपचाप  रहकर, भले ही अनैतिक होकर।

ठीक है, मैं अब निकलता हूँ। बाय ।

बाय...

वह बाहर निकल जाता है।

टैक्सी…”

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डॉ. वरुण कुमार

निदेशक (राजभाषा)

रेल मंत्रालयनई दिल्ली

 

अप्रैल 2024, अंक 46

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