मंगलवार, 30 मई 2023

मई – 2023, अंक – 34

 


शब्द-सृष्टि  

मई – 2023, अंक – 34


व्याकरण विमर्श – 1) विस्मयादिबोधक तथा संबोधन 2) नकारात्मक वाक्य – डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

सामयिक टिप्पणी – ज़बान सँभाल के! – डॉ. ऋषभदेव शर्मा

ताँका – त्रिलोक सिंह ठकुरेला

हाइकु – गुजरात गौरव – डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा

कविता – जय-जय गरवी गुजरात – डॉ. अनु मेहता

हाइकु – ‘गुज’-गौरव – डॉ. पूर्वा शर्मा

निबंध – सच्चा शिक्षक कौन ? – श्री रामेन्द्र त्रिपाठी

कहानी – नादान दिवानी – कुलदीप कुमार ‘आशकिरण’

कविता – जीवन मार्ग – गोपाल जी त्रिपाठी

माहिया – ज्योत्स्ना शर्मा प्रदीप

परिचय – हिन्दी अंचल के मणि : जयनाथ मणि – इंद्र कुमार दीक्षित

चित्र कविता – डॉ. विनोद शुक्ला

कविता – मातृ दिवस पर दो कविताएँ – डॉ. ऋषभदेव शर्मा

आलेख – राहुल सांकृत्यायन की आँखों से : पाँच बौद्ध दार्शनिक – डॉ. सुपर्णा मुखर्जी

आलेख – हिंदी का सरलीकरण या हिंदी का अंग्रेजीकरण – डॉ. वरुण कुमार

हाइकु

 



गुज’-गौरव

डॉ. पूर्वा शर्मा

 

1

कला संस्कृति

है अद्भुत संगम

गुर्जर भूमि ।

2

सुन गुहार

नरसैंयो’ के द्वार

आए थे श्याम ।

(‘नरसैंयो’ – गुजरात के भक्त कवि - नरसी मेहता)

3

गुर्जर कोख

हर सदी में जन्में

महापुरुष ।

4   

झूम के कहे

गरबा औ’ भवाई

गुज’-गौरव ।

5

हमले कई

सोम’-शिव अडिग

ध्वस्त न हुए ।

6

भारत शिल्पी

कद छुए आकाश

स्टैच्यू’ विशाल ।

7

नल’ में गूँजे 

माइग्रेट’ का स्वर  

शीत सौन्दर्य ।

(‘नल’ – ‘नल सरोवर’ में शीत ऋतु में कई विदेशी पक्षी आते हैं)

8

कहीं कपास,

फैली कहीं रण की

श्वेत चादर ।



 

डॉ. पूर्वा शर्मा

वड़ोदरा

आलेख

 


हिंदी का सरलीकरण या हिंदी का अंग्रेजीकरण?

डॉ. वरुण कुमार

संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्थानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहां आवश्यक या वांछनीय हो वहां उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे।”

(अनुच्छेद 351, भाग-XVII, भारतीय संविधान)

भारतवर्ष ढेर सारी भाषाओं का देश है। आठवीं अनुसूची में दर्ज बाईस बड़ी भाषाओं के अतिरिक्त अन्य कितनी ही बड़ी-छोटी भाषाएँ यहाँ प्रचलित हैं। 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार ऐसे लोग जो 10,000 से ज्यादा एक भाषा को बोलते हैं ऐसी 121 भाषाएँ भारत में बोली और समझी जाती हैं। पूर्वोत्तर भाषा की दृष्टि से सर्वाधिक संख्या वाला प्रदेश है। यहाँ तीन सौ से अधिक भाषाएँ हैं, हालाँकि यह आबादी की दृष्टि से देश की जनसंख्या का केवल पाँच प्रतिशत ठहरता है। इतनी सारी भाषाओं के प्रदेश में कभी यह माँग नहीं उठी कि बंगला भाषा सरल की जाए, असमिया सरल की जाए, मिजो सरल की जाए। या फिर, दक्षिण भारत में तमिल को या तेलुगु को या मलयालम को, कन्नड़ को आसान किया जाए। मराठी, गुजराती, पंजाबी वगैरह के लिए भी यह माँग कभी नहीं उठी। तो फिर अकेली हिंदी के साथ सरलता की माँग क्यों है?

दरअसल इसकी वजह हिंदी को राजभाषा का दायित्व प्रदान करना है। राजभाषा यानी राजकाज की भाषा, सरकार के काम करने की भाषा। हिंदी भारतीय संघ की राजभाषा होगी, ऐसा संविधान में संकल्प लिया गया है। प्रजातंत्र में चूँकि जनता के द्वारा, जनता के लिए, जनता की बनी हुई सरकार होती है इसलिए जनता की सरकार को जनता की भाषा में काम भी करना चाहिए। जब हिंदी राजभाषा बनी तो इसके प्रयोग का एक नया क्षेत्र खुला। चूँकि हमने आजादी के बाद अंग्रेजों की शासन-व्यवस्था को विरासत में ग्रहण किया था इसलिए हमारे पास अंग्रेजी की शब्दावली, अंग्रेजी के अर्थ, अंग्रेजी की अवधारणाएँ, अंग्रेजी का ढाँचा और तौर-तरीके विरासत में मिले थे। इसलिए हिंदी में काम करने के लिए ऐसे शब्दों की जरूरत पड़ी जो हिंदी में दिखें तो सही लेकिन अंग्रेजी का ही अर्थ दें। फलस्वरूप हिंदी को राजभाषा के रूप में व्यवहार करने के लिए अंग्रेजी के समान अर्थ वाले शब्द बनाने पड़े। इन नए गढ़े गए शब्दों से, पूर्वप्रचलित शब्दों के भी अंग्रेजी के अर्थ में प्रयोग से और अंग्रेजी की तर्ज पर बनी वाक्य-रचना से भाषा में कृत्रिमता आनी स्वाभाविक थी। ऐसे में हिंदी पर कठिन होने और हिंदी जैसी नहीं दिखने का आरोप लगने लगे। उसे   ‘महाराजभाषा’, ‘फीलपाँवी हिंदी’ आदि कहकर ताने दिये जाने लगे। इसलिए हिंदी के सरलीकरण की माँग का एक संदर्भ है - यह उस हिंदी से अभिप्रेत है जिसका प्रयोग सरकार में किया जाता है। अन्यथा जनसामान्य की भाषा के रूप में हिंदी वैसे ही प्रचलित और व्यवहृत है जैसे कि कोई भी भाषा होती है। उस हिंदी को सरलीकृत करने का कोई खयाल भी किसी के मन में नहीं आता।

भाषा में कठिनता दो तरह से आती है - अगर अर्थ ऐसा हो जो अमूर्त, गंभीर एवं जटिल हो। धर्म, दर्शन, कानून आदि में ऐसे अमूर्त अवधारणापरक गंभीर अर्थ वाले शब्दों की भरमार होती है। इसलिए ये विषय भी कठिन समझे जाते हैं। दूसरी तरह से जटिलता आती है जब अर्थ तो कठिन या अमूर्त नहीं होता लेकिन उस अर्थ का वाहक शब्द ही अपरिचित या अल्पपरिचित होता है। शब्द अगर जाने हुए हों तो उनका अर्थ-बोध तुरंत होता है। जिन शब्दों को हम बार बार देखते हैं, बार बार सुनते हैं, उनसे परिचय गहरा हो जाता है और वे आसान हो जाते हैं। राजभाषा के रूप में हिंदी के प्रयोग के लगभग छह दशकों में ऐसे कितने ही शब्द हैं जो प्रचलन में आ गए हैं और स्वाभाविक लगने लगे हैं। इनके बारे में याद करना पड़ता है कि ये तो गढ़े हुए कृत्रिम शब्द हैं। जैसे, कार्यालय, परिपत्र, ज्ञापन, आवेदन, अधिकारी, प्रबंधक, सचिव, सहायक, निरीक्षक, विभागाध्यक्ष आदि। इन शब्दों के इनके कठिन होने की शिकायत शायद ही कोई करेगा। लेकिन जो शब्द अप्रचलित हैं या जिन्हें हमने कम व्यवहार किया है उनके बारे में माँग आ जाती है कि उनकी जगह अंग्रेजी शब्दों को ही क्यों न उठा लिया जाए।

एक हद तक तो यह माँग ठीक भी है। लेकिन क्या इसको हम बहुत दूर तक ले जा सकते हैं? अधिकारी, विभागाध्यक्ष, सचिव जैसे कितने ही शब्द, जो आज चल चुके हैं, उनकी तुलना में ऑफिसर, हेडऑव डिपार्टमेंट, सेक्रेटरी वगैरह का प्रयोग अभी भी अधिक होता है। अगर सरलता की तलाश में हम अंग्रेजी शब्दों का ही प्रयोग करने लगें तो फिर क्या हम उसी जगह नहीं पहुँच जाएंगे जहाँ से हमने शुरुआत की थी? हमें फिर से अधिकारी के लिए ऑफिसर ही लिखना पड़ेगा, लिपिक को क्लर्क ही लिखना पड़ेगा, सहायक को असिस्टेंट, शाखा को ब्रांच, प्रबंधक के लिए मैनेजर और शाखा प्रबंधक के लिए ब्रांच मैनेजर ही लिखना पड़ेगा। हमें परिपत्र के लिए सर्कुलर, आदेश के लिए ऑर्डर, पत्र के लिए लेटर ही रखना पड़ेगा। चूँकि अंग्रेजी का प्रयोग बदस्तूर चल रहा है, इसलिए हिंदी के शब्दों का प्रयोग अंग्रेजी की तुलना में कम ही रहेगा। अगर सिर्फ प्रचलन को आधार बना लें तो उसका सीधा सीधा मतलब यह निकलेगा कि हमें हिंदी के शब्दों को छोड़कर अंग्रेजी के ही शब्द व्यवहार करने हैं। हमने हिंदी में काम करने के लिए हिंदी के शब्दों के प्रयोग की जो परंपरा शुरू की थी उन प्रयासों को ही छोड़ देना पड़ेगा। क्या अंग्रेजी के शब्दों से बनी भाषा को हम हिंदी कह सकेंगे? संविधान का अनुच्छेद ३५१ हिंदी भाषा के बारे में सरकार के दायित्वों को परिभाषित करता हुआ कहता है कि हिंदी की मूल प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदी का प्रयोग करना है। क्या हिंदी में अंग्रेजी के शब्द भरकर हिंदी की मूल प्रकृति की रक्षा हो सकेगी? दुर्भाग्य से सरलीकरण के उत्साही पैरोकारों का ध्यान इस अंतर्विरोध की ओर  बहुत कम जाता है। अगर अंग्रेजी के शब्दों को ही हम यथावत लेते रहेंगे तो उसकी सीमा क्या होगी? अगर सचिवालय के लिए सेक्रेटेरिएट, सचिव के लिए सेक्रेटरी, अध्यक्ष के लिए चेयरमैन ही ले लें तो फिर क्या सारे पदनाम और विभागों के नाम भी अंग्रेजी में ही रहेंगे? फिर संज्ञाओं के साथ-साथ क्रियाएं भी अंग्रेजी की लेनी पड़ेंगी। जब अर्थवान शब्द अंग्रेजी के होंगे तो हिंदी के क्या केवल सर्वनाम, कारक चिन्ह, अव्यय, सहायक क्रियाएँ और कालवाचक ही रहेंगे?

सरलीकरण का मामला इतना सरल नहीं है जितना अक्सर समझ लिया जाता है। भाषा सरल होनी चाहिए यह बिल्कुल वाजिब माँग है। यह भी सही है कि भाषा माध्यम है उसे भावों और विचारों को एक व्यक्ति से दूसरे तक ले जाने में समर्थ होना चाहिए। लेकिन यह कोई यांत्रिक वाहन भी नहीं है कि यहाँ से माल उठाकर वहाँ रख दिया। वह अपने आप में एक प्रणाली है, उसकी अपनी एक व्यवस्था है, उसका एक अपना संस्कार है, उसकी एक पूरी दुनिया है। अगर हम किसी बच्चे को कहते हैं कि तुम्हारे पिताजी आए हैं तो उसके पिता के प्रति सम्मान सहित कह रहे हैं। पर अगर हम कहते हैं कि तुम्हारा बाप आया है तो घटना तो एक ही है लेकिन एक में उसके पिता के प्रति सम्मान व्यक्त होता है जबकि दूसरे में अवहेलना। और अंग्रेजी में कहते हैं, Your father has come तो यह स्पष्ट नहीं होता कि हमने फादर के प्रति सम्मान प्रकट किया या अवहेलना। इसकी अंतर की जड़ें इस बात में निहित हैं कि पश्चिम के समाज में उम्र में बड़े होने के आधार पर सम्मान देने की प्रथा नहीं है। वहाँ सभी बराबर समझे जाते हैं। इसलिए भाषा सिर्फ माध्यम है इतना कह देना काफी नहीं है। भाषा माध्यम तो है लेकिन जितना हम समझते हैं उससे बहुत ज्यादा संप्रेषित करती है। इसलिए भाषा के प्रयोग में अगर हम शब्दों का विस्थापन करेंगे तो इसके संस्कारों को ही खंडित करेंगे। इसलिए वह भाषा जो आजकल हिंग्लिश के नाम से जानी जा रही है - अंग्रेजी शब्दों से लदी हुई भाषा - वह सरलता की भाषा होगी, ऐसा तुरंत मान लेना कठिन है।

सरलता होनी चाहिए लेकिन किन शर्तों पर? भाषा कि एक अपनी मर्यादा, एक अपना अनुशासन होता है। अंग्रेजी के साथ इस मर्यादा और अनुशासन का निर्वाह अवश्य किया जाता है लेकिन हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं के साथ नहीं। भारतीय भाषाओं को बोलते समय अंग्रेजी के शब्द जिस तरह मिलाए जाते हैं वैसा अंग्रेजी बोलते समय नहीं किया जाता। हिंदी में तो हम कहते हैं कि आप मेरे रेसिडेंस पर थ्री थर्टी बजे आ जाइए। लेकिन अंग्रेजी में हम कभी ऐसा नहीं कहते, “यू कम ऐट माय निवास एट साढ़े तीन बजे।” अंग्रेजी में हिंदी शब्दों की मिलावट के दो-चार नमूने दिखाकर हिंदी में अंग्रेजी की बेलगाम मिलावट की वकालत करना दरअसल समाज को गुमराह करना है। मीडिया विशेषज्ञों की दलीलों और स्वयं मीडिया की भाषा ने इस संबंध में घोर मिथ्या और भ्रम का वातावरण रच रखा है। मीडिया की भाषा आज घोर प्रदूषण और अपसंस्कृति की शिकार है।

हिंदी की क्लिष्टता का एक अन्य पहलू भी है - उसमें संस्कृत शब्दों का प्रयोग। संस्कृतनिष्ठ हिंदी क्लिष्ट होती है, उससे बचा जाना चाहिए ऐसी माँग लोगों से अक्सर ही सुनने को मिलती है। संस्कृत शब्दों से हिंदी की वैसी प्रीति नहीं है, जैसी अन्य भारतीय भाषाओं की। पंजाबी, जिसमें उर्दू के शब्दों की प्रीति हिंदी के ही समान, बल्कि उससे बढ़कर है, उसको छोड़कर अन्य किसी भी भारतीय भाषा में तत्सम शब्द क्लिष्ठ नहीं होते। बांग्ला, असमिया, ओड़िया, तमिल तेलुगू, कन्नड, मराठी, गुजराती, राजस्थानी आदि में संस्कृत शब्दों के ग्रहण की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। हिंदी में जो तत्सम शब्द भारी-भरकम लगते हैं, वे बंगलाभाषियों के सामान्य व्यवहार के शब्द हैं। इसलिए राजभाषा हिंदी में जब संस्कृत के शब्द आते हैं तो उनसे बंगलाभाषियों को या उड़ियाभाषियों को या तमिलभाषियों को कठिनता का वैसा एहसास नहीं होता जैसा हिंदीभाषियों को होता है। सरकारी कार्यों में हिंदी का प्रयोग करते समय यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि इस हिंदी का प्रयोग उनके द्वारा भी किया जाना है जिनकी मातृभाषा हिंदी नहीं है।

पारिभाषिक शब्दावली के लिए नए शब्दों के निर्माण की आवश्यकता पड़ती है। शब्द-निर्माण के स्रोत और पद्धति उस भाषा की परम्परा से आते हैं। हिंदी की भाषिक परम्परा संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश की है। शब्दावली के निर्माताओं को जब  शब्द-निर्माण की आवश्यकता पड़ी तो स्वाभाविक रूप से उन्हें संस्कृत के स्रोतों की ओर जाना पड़ा। उर्दू की परम्परा अरबी-फारसी की है। उससे हिंदी के लिए व्युत्पन्न शब्द नहीं बनाए जा सकते। राजभाषा हिंदी में उर्दू के उन्हीं शब्दों को लिया जा सकता है जो हिंदी में बिल्कुल आत्मसात हो गए हों और जिनसे फिर नए शब्द बनाने की आवश्यकता नहीं पड़ती हो।

राजभाषा हिंदी की क्लिष्टता और कृत्रिमता का असल कारण कुछ और है। वह है हिंदी में मूल रूप से काम न होना। लोग पहले अंग्रेजी में लिखते या सोचते हैं, बाद में उसका हिंदी में रूपांतर करते हैं। ऐसी हिंदी अनुवाद की भाषा प्रतीत होती है। भाषा अगर मूल रूप में प्रयुक्त हो तो स्वाभाविक लगेगी, लेकिन अगर उसे किसी दूसरी भाषा का प्रतिरूप बनाने की चेष्टा की जा रही हो तो उसका नकली और विद्रूप लगना तय है। राजभाषा हिंदी की शब्द से लेकर वाक्य रचना सब कुछ अंग्रेजी से प्रभावित है। हम हर जगह Work in progress के लिए हिंदी में ‘कार्य प्रगति पर है’ लिखा देखते हैं, जबकि कार्य का प्रगति पर होना हिंदी का मुहावरा है ही नहीं। बोलचाल में तो हम कहते हैं ‘काम चल रहा है’ या ‘काम हो रहा है।’ अंग्रेजी शिक्षितों की बढ़ती संख्या के साथ-साथ हिंदी के शब्द और वाक्य विन्यास को अंग्रेजी की तर्ज पर ढालने की मनोवृत्ति बढ़ती जा रही है। एक सोच लोगों के मन में विकसित हो गई है कि हिंदी ऐसी होनी चाहिए जिसको अंग्रेजी पढ़े लोग समझ लें। इसके संकेत सत्ता के शीर्ष तक में देखने को मिल रहे हैं। उन्हें लगता है कि खालिस हिंदी शब्दों के प्रयोग से वे केवल हिंदी प्रदेशों तक ही सीमित रह जाएंगे, लेकिन अंग्रेजी के शब्दों को मिलाकर पूरे भारत तक पहुँच सकेंगे। इसका परिणाम यह हो रहा है कि अब वह हिंदी भी कठिन और अस्वाभाविक होती जा रही है जिसका प्रयोग सरकारी तंत्र के बाहर स्कूल, कॉलेजों, पत्र-पत्रिकाओं आदि में होता है। मीडिया तो इसका सबसे बड़ा अपराधी है ही। हमें सचमुच हिंदी को कृत्रिमता से बचाने की जरूरत है। उसके अपने शब्द, मुहावरे, विन्यास, रूढ़ियाँ आदि जिंदा रखने होंगे। लेकिन इसके लिए भाषा के प्रति अपनी समझ सही रखनी होगी। यह कोशिश कि हिंदी ऐसी बना दी जाए कि हिंदी के अर्थवान शब्दों को सीखे बिना केवल उसके संरचनात्मक शब्दों - सर्वनाम, कारक चिन्ह, सहायक क्रियाओं आदि - से ही काम चल जाए, अत्यंत दुखद है। क्या केवल ‘ही’, ‘शी’, 'इट', 'दे', ‘यू’, ‘इज’, ‘एम’, ‘आर’, ‘वाज’, 'वेयर' ‘शैल’, ‘विल’ ‘शुड’, ‘वुड’ और प्रिपोजीशनों के बल पर अंग्रेजी का प्रयोग किया जा सकता है? नहीं। लेकिन लगता है सारे देश को यह रोग लग गया है कि अंग्रेजी ही प्रमाण है और इस देश की भाषाओं को उसका अनुकरण करना है। भाषा को जानने-समझने-इस्तेमाल करने के लिए उसके पास जाकर, उसको सीखना होता है। उसमें कोई शॉर्टकट नहीं चल सकता। भाषा के अंदर भी तकनीकी या विशेष क्षेत्र की अपनी अपनी शब्दावली होती है, उसे प्रयास करके सीखना पड़ता है। अंग्रेजी जानते हों तब भी उसमें कानून विज्ञान व्यापार प्रबंधन आदि की विशिष्ट शब्दावली को अलग से सीखना पड़ता है राजभाषा भी प्रयुक्ति का एक विशेष क्षेत्र है, उसे भी सीखना, जानना होगा। सरकारी तंत्र में अंग्रेजी के आदी बाबू हिंदी के शब्दों को सीखने की बजाय हिंदी को ही बदलकर अंग्रेजीमय करने की माँग कर रहे हैं। विडम्बना और अत्यंत दुख की बात है कि ऐसा हो भी रहा है। सरलता की जो गलत अवधारणा पढ़े-लिखे लोगों के मन में बन गई है वह अंततः हिंदी के अस्तित्व पर ही खतरा उपस्थित कर रही है।

***

 


डॉ. वरुण कुमार

निदेशक (राजभाषा)

रेल मंत्रालय, नई दिल्ली

आलेख

 


राहुल सांकृत्यायन की आँखों से : पाँच बौद्ध दार्शनिक

       डॉ. सुपर्णा मुखर्जी

बौद्ध धर्म भारत की श्रमण परंपरा से निकला धर्म और महान दर्शन है। ईसा पूर्व 6वीं शताब्दी में गौतम बुद्ध द्वारा बौद्ध धर्म की स्थापना हुई है। उनके महापरिनिर्वाण की अगली पाँच शताब्दियों में बौद्ध धर्म पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैला और अगले दो हजार वर्षों में मध्य, पूर्वी और दक्षिण पूर्वी जम्बू महाद्वीप में भी फैल गया। आर्य सत्य की संकल्पना बौद्ध दर्शन का मूल सिद्धांत है। इसे संस्कृत में ‘चत्वारि आर्यसत्यानि’ और पालि में ‘चत्तरि अरयसच्चानि’ कहते हैं। वे चार आर्य सत्य है-

1) दुःख – संसार में दुःख है

2) समुदय – दुख के कारण है

3) निरोध – दुख के निवारण है

4) मार्ग – निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग है

बौद्ध धर्म के प्रमुख सम्प्रदाय हैं- हीनयान, धेरवाद, महायान, वज्रयान और नवयान परंतु बौद्ध धर्म एक ही है एवं सभी बौद्ध सम्प्रदाय बुद्ध के सिद्धांत को ही मानते हैं।

ये तो हुई संक्षिप्त जानकारी बौद्ध धर्म की, हिंदी साहित्य और बौद्ध दर्शन का आपस में बहुत गहरा संबंध है, आधुनिक हिंदी साहित्य की विधिवत शुरूआत 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से हुई है और लगभग यही समय भारत में लुप्त प्राय बौद्ध धर्म के पुनर्जागरण काल का भी है। भारत में बौद्ध धर्म के इस पुनर्जागरण का श्रेय पाश्चात्य जगत को देना गलत न होगा। ईसाई धर्म के प्रोटेस्टेंट मतवाले ब्रिटेन ने बौद्ध धर्म के सुधारवादी रूप स्थाविरवाद में अपनी रूची दिखते हुए अपने अधीनस्थ श्रीलंका के स्थाविरवाद बौद्ध ग्रंथों का अनुवाद करवाया तो कैथोलिक मतानुयायी फ्रांस एवं इटली के विद्वानों ने चीन, जापान एवं तिब्बत में उपलब्ध महायान सूत्रों और भाव्यों में अपनी रूची दिखायी। बौद्ध धर्म के इस पुनर्जागरण से हिंदी जनमानस भी प्रभावित हुआ। आधुनिक हिंदी साहित्यकारों में मैथिलीशरण गुप्त, रामचंद्र शुक्ल, जयशंकर प्रसाद, चतुरसेन शास्त्री, राहुल सांकृत्यायन  अज्ञेय आदि की रचनाएँ बौद्ध दर्शन से प्रत्यक्षतः संबंध रखती है। इनमें राहुल सांकृत्यायन  के आँखों से बौद्ध दर्शन को देखना अपने आप में एक रोचक साहित्यिक यात्रा है। उन्होंने बौद्ध दर्शन का विशेषकर उसके न्यायदर्शन का भी गंभीर अध्ययन किया था। सन् 1926-1927 के समय जब पंडितजी श्रीलंका के ‘विद्यालंकार परिवेण’ में अध्यापन और अध्ययन कर रहे थे तब उन्हें पता चला प्राचीन बौद्ध दार्शनिकों के अमूल्य ग्रंथ भारतवर्ष में उपलब्ध नहीं है, वे ग्रंथ तिब्बत के प्राचीन मठो-विहारों में सुरक्षित हैं। पंडित जी ने 1929, 1934, 1936 और 1938 में तिब्बत के दुर्गम भूखंडों कठिन यात्राएँ की उनके इन्हीं यात्राओं का परिणाम था कि भारत के फिर से बौद्ध दार्शनिकों- नागार्जुन, असंग, बसुबंधु, दिङ्नाग और धर्मकीर्ति के विचारों को भारतीय पाठकों तक पहुँचाने तथा उनके विचारों पर शोध कार्य करने का श्रेय राहुल सांकृत्यायन को ही जाता है। प्रस्तुत आलेख में इन पाँच बौद्ध दार्शनिकों के विचारों को संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है –

1) नागार्जुन – नागार्जुन बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। दर्शन में ‘माध्यामिक दर्शन’ उनकी महान देन है। कहा जाता है कि विदर्भ के एक ब्राह्मणकुल में वे पैदा हुए थे। नागार्जुन सातवाहन कुल के अपने समकालीन राजा के संरक्षण में थे। नागार्जुन ने बुद्ध के ‘अनात्म दर्शन’ की 71वीं कारिका में शून्यता की महिमा गाते हुए उन्होंने कहा है

‘‘प्रभवित च शून्यतेयं यस्य प्रभवन्ति तस्य सर्वाथाः।

प्रभवति न तस्य किंचित् न भवति शून्यता यस्य।।’’

अर्थात् ‘‘जो शून्यता को समझ सकता है, वह सभी अर्थों को समझ सकता है। जो शून्यता को नहीं समझता वह कुछ भी नहीं समझ सकता।’’

उक्त उद्धरण से स्पष्ट होता है कि अपने ‘शून्यवाद’’ को उन्होंने बुद्ध के मौलिक सिद्धांत ‘‘प्रतीत्यससखुत्पाद’’ का पर्याय माना है। बुद्ध ने संसार के सभी वस्तुओं को अनित्य अर्थात् क्षणिक ही तो माना था। नागार्जुन ने दृष्टिवाद की सीमा ही नहीं उसकी अयुक्ति-युक्तता को विशद रूप से व्याख्यायित किया है। उनका मानना था कि सत्य या चेतना का कोई सत्-असत् भेद नहीं हो सकता है। सत्य या चेतना अपने आप में ही पूर्ण है।

2) असंग – नागार्जुन के बाद दूसरे महान बौद्ध दार्शनिक आचार्य असंग हुए। असंग गंधार देश की राजधानी पुरुषपुर (आधुनिक पेशावर) में ईसा की चौथी सदी में कौशिक गोत्रीय एक ब्राह्मण कुल में पैदा हुए थे। उन्होंने जहाँ एक ओर ‘अभिधर्मकोश’ और उसके भाष्य के रूप में वैभाषिक दर्शन पर गंभीर ग्रंथ लिखा और दूसरी तरफ ‘बौद्ध न्यायशास्त्र’ की बुनियाद भी उन्होंने ही रखी। असंग ने ही गंधार को महायान के ‘विज्ञानवाद दर्शन’ का गढ़ बन सका। असंग की 31 पुस्तकें चीनी और तिब्बती अनुवादों के रूप में सुरक्षित हैं। अद्वैत विज्ञानवाद से संबंधित उनकी महत्वपूर्ण कृति ‘योगाचार भूमि की प्रतिलिपि राहुल जी तिब्बत से तैयार करके लाए थे। असंग के अद्वैत विज्ञानवाद को छठी शताब्दी के शंकराचार्य ने भी ग्रहण किया था।

3) वसुबन्धु – दार्शनिक वसुबंधु आचार्य असंग के अनुज थे और बौद्धों के विज्ञानवाद एवं योगाचार दर्शन के आचार्य थे। चीनी भाषा के दूसरे महान भारतीय अनुवादक परमार्थ (500-59 ई.) द्वारा लिखित ‘वसुबन्धुचरित’ आज भी चीनी भाषा में (नन्जियो 1463) मौजूद है। वसुबन्धु बहुत अधिक समय तक अयोध्या में ही रहे। वसुबन्धु ने बौद्ध त्रिपिटक के सार रूप में ‘अभिधर्मकोश’ को लिखा। पिछली 16 शताब्दियों में यह सबसे अधिक पढ़ा जानेवाला दार्शनिक ग्रंथ है। आज भी जापान, चीन, तिब्बत और मंगोलिया में यह पाठ्यग्रंथ हैं ‘अभिधर्मकोश’ को उन्होंने आठ स्थानों (परिच्छेदों) में लिखा है जिनके विषय हैं- 1. धातु निदर्श 2. इन्द्रिय निदर्श 3. लोकधातु निदर्श 4. कर्म निदर्श 5. अनुशय 6. आर्यमार्ग 7. ज्ञान 8. ध्यान

4) दिग्नाम – दिग्नाग का जन्म तमिल प्रदेश के कांची (कंजीवरम) के पास सिंहवक् नामक एक गाँव में एक ब्राह्मण घर में हुआ था। दिग्नाग की जीवनी के बारे में हमें तिब्बती परंपरा से इतना ही मालूम है कि वसुबन्धु के शिष्य थे। कालिदास और दिग्नाग दोनों चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (375-495) के समकालीन थे। न्यायमुख के अतिरिक्त दिग्नाग का मुख्य ग्रंथ प्रमाण समुच्चय है जो सिर्फ तिब्बती भाषा में ही मिलता है। दिग्नाग के प्रमाण समुच्चय के सम्मुख तर्कशास्त्र की दृष्टि से ब्राह्मण परंपरा आज भी हतप्रभ हो जाती है लेकिन पंडित जी इस पुस्तक को प्राप्त नहीं कर सके इस बारे में उन्होंने स्वयं कहा है, ‘‘प्रमाण समुच्चय’’ मूल संस्कृत में अभी तक नहीं मिला है, मैंने अपनी चार तिब्बत-यात्राओं में इस ग्रंथ को ढूढँने में बहुत परिश्रम किया परंतु इसमें सफलता नहीं मिली। किंतु मुझे अब भी आशा है कि वह तिब्बत के किसी मठ, स्तूप या मूर्ति के भीतर से जरूर कभी मिलेगा।’’

5) धर्मकीर्ति – धर्मकीर्ति का जन्म चोल प्रांत के तिरूमले नामक ओग्राम में एक ब्राह्मण के घर में हुआ था। धर्मकीर्ति बचपन से ही बड़े प्रतिभाशाली थे। पहले उन्होंने ब्राह्मणों के शास्त्रों और वेद-वेदांगों का अध्ययन किया फिर नालंदा चले गए और अपने समय के महान विज्ञानवादी दार्शनिक तथा नालंदा के संघ स्थविर धर्मपाल के शिष्य बन भिक्षु- संघ में सम्मिलित हुए। धर्मकीर्ति ने अपने ग्रंथ सिर्फ प्रमाण संबंद्ध बौद्ध दर्शन या बौद्ध प्रमाणाशास्त्र पर लिखे हैं।

इन दार्शनिकों के बारे में और राहुल सांस्कृत्यान जी के द्वारा बौद्ध दर्शन के ऊपर किए गए कार्यों को एक आलेख में समेटना नामुमकीन है। यह केवल एक छोटा सा प्रयास है राहुल सांकृत्यायन ’ की आँखों से पाँच बौद्ध दार्शनिकों को देखने का।

सहायक पुस्तक :

राहुल सांकृत्यायन  - पाँच बौद्ध दार्शनिक, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण- 1994


 

डॉ. सुपर्णा मुखर्जी

भवन्स, विवेकानंद कॉलेज

सैनिकपुरी, हैदराबाद

 

 

              

                  

अप्रैल 2024, अंक 46

  शब्द-सृष्टि अप्रैल 202 4, अंक 46 आपके समक्ष कुछ नयेपन के साथ... खण्ड -1 अंबेडकर जयंती के अवसर पर विशेष....... विचार बिंदु – डॉ. अंबेडक...