शनिवार, 14 नवंबर 2020

शब्द सृष्टि, नवम्बर- 2020

 


नवम्बर - 2020, अंक -3   
ज्योति पर्व की विशेष शब्द सौग़ात 


विचार स्तवक – आल्बर्ट आइन्स्टाइन / आ. रामचंद्र शुक्ल / शेक्सपीयर













शब्द संज्ञान


            


प्रश्न 1 – क्या ब्रह्मपुत्र नदी को स्त्रीलिंग के तौर पर वाक्य में प्रयोग करने से वाक्य गलत हो जाता है?

जवाब - नदी यानी किसी पदार्थ का वाक्य में प्रयोग नहीं किया जाता।

वाक्य में किसी पदार्थ के नाम का बोध कराने वाले शब्द का प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न यह होना चाहिए कि क्या ब्रह्मपुत्र शब्द का नदी के अर्थ में स्त्रीलिंग के रूप में प्रयोग करने से वाक्य गलत हो जाएगा?

उत्तर - नहीं होगा।

ब्रह्मपुत्र (नदी) तबाही मचा रही है। (वाक्य सही है।)

प्रश्न 2 – ब्रह्मा के पुत्र नारद थे। पुत्र अंत में होने के कारण नदी को पुल्लिंग के रूप में क्या वाक्य में प्रयोग किया जा सकता है?

जवाब - लिंग शब्द का होता है, उसके अर्थ का नहीं होता।

ब्रह्मपुत्र शब्द का अर्थ अगर हम 'ब्रह्मा का पुत्र' यानी नारद करते हैं, तो ऐसे में ब्रह्मपुत्र 'शब्द' पुल्लिंग होगा।

लेकिन वाक्य में ब्रह्मपुत्र शब्द का प्रयोग जब हम एक नदी के नाम के रूप में - नामवाचक शब्द के रूप में करेंगे, तब वह स्त्रीलिंग में प्रयुक्त होगा।

ब्रह्मपुत्र (नदी) तबाही मचा रही है।

प्रश्न 3 – लघुत्तम अथवा लघुतम - कौनसा सही है ?

एक ही शब्द के ये दो रूप प्रयोग में दिखाई पड़ते हैं।

इनमें पहला यानी 'लघुत्तम' गलत है तथा दूसरा यानी 'लघुतम' सही है।

कैसे?

मूल शब्द 'लघु' के साथ उत्तमावस्था (सुपरलेटिव डिग्री) का 'तमप्' प्रत्यय जुड़ने से 'लघुतम' रूप बनता है।

इसमें किसी प्रकार की शंका की गुंजाइश नहीं है।

फिर प्रश्न उठता है कि इसमें 'त्त' कहाँ से आया

'लघुत्तम' कैसे हुआ?

'लघु' का विलोम 'महत्' शब्द है।

इसमें 'तमप्' प्रत्यय जुड़ने से 'महत्तम' रूप बनता है।

इसकी रचना में ही 'त्त' है। महत् का त् तथा तमप् का त् - दोनों मिलकर त्त बन जाते हैं।

लेकिन लघुतम में ऐसी स्थिति नहीं है।

लघुतम तथा महत्तम दोनों के बीच (विपरीत) साहचर्य का संबंध है।

बोलने में लघुतम पर महत्तम के प्रभाव से लघुतम लघुत्तम बन जाता है। फिर वह लिखने में आ जाता है।

इसे भाषाविज्ञान में सादृश्यमूलक भूल कहा जाता है।

बहुत सारे लोग अनजाने में ऐसी भूल करते हैं। यह पोस्ट उनके लिए है।

यानी लघुत्तम नहीं लघुतम।



डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

भाषाचिन्तक

40, साईं पार्क सोसाइटी

बाकरोल – 388315

जिला आणंद (गुजरात)



आलेख

 

व्रत एवं त्यौहार संबंधी लोकगीत

मनुष्य का जीवन किसी ने किसी रूप में धर्म की परिसीमा में बँधा है। हम देखते हैं और हमारा स्वयं का अनुभव भी है कि प्रातः काल से लेकर रात्रि तक की समयावधि में होने वाले हमारे बहुत से कार्य प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से धर्म से प्रेरित व प्रभावित होते हैं। भारतीय मनुष्य की प्रातः जागरणकाल से लेकर रात्रि शयन तक की सारी गतिविधि धर्म द्वारा परिचालित होती है।”1 अतः भारतीय समाज में अनगिनत धार्मिक अनुष्ठान संपन्न होते रहते हैं। लोकजीवन में इन अनुष्ठानों के अंतर्गत विविध प्रकार के विधि विधान होते हैं। गीतों का गायन भी इन अनुष्ठानों एवं विधि विधानों का ही महत्त्वपूर्ण अंग माना जा सकता है। लोकजीवन में संस्कारों-व्रतों-त्यौहारों एवं देवी-देवताओं की पूजा अर्चना के अवसर पर गाये जाने वाले बहुसंख्य गीत मिलते हैं।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि धर्म भारतीय जीवन की आधारशीला है। अतः हमारी संस्कृति में व्रत आदि का विशेष महत्त्व है। हिन्दू धर्म में व्रत एवं पर्व त्यौहारों की मात्रा इतनी ज्यादा है कि उनके लिए जनता में ‘सात वार और नौ त्यौहार’ की कहावत प्रचलित है। वर्ष भर में मनाये जाने वाले व्रत-त्यौहारों की संख्या की बात करें तो इस कहावत में शत प्रतिशत सच्चाई है। इन व्रत-त्यौहारों में कुछ सांस्कृतिक है तो कुछ किसी देवी देवता या महापुरुष की पुण्य स्मृति में मनाये जाते हैं।

हमारे साहित्य में, चाहे वह शिष्ट साहित्य हो या लोकसाहित्य दोनों में धार्मिक संदर्भों का आना स्वाभाविक है। डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय लिखते है - “हमारी संस्कृति धर्म के ताने-बाने से बुनी गई है। हमारी संस्कृति, हमारे समाज और साहित्य में धर्म का स्वर सबसे ऊँचा है।”2

सिर्फ लोकगीतों में ही नहीं बल्कि लोकसाहित्य की लगभग सभी विधाओं में धार्मिक भावनाएँ भरी पड़ी है। जहाँ तक लोकगीतों का संदर्भ है तो इन लोकगीतों में भारतीय जनता की धर्मनिष्ठा को सहज स्वर प्राप्त है। विभिन्न देवी -देवताओं की स्मृतियाँ तथा व्रत संबंधी गीतों के रूप में स्वर लोकमानस की आस्तिकता का सुन्दर प्रमाण है।”3

प्रस्तुत विषय से जुड़े गीतों में पूजा-पाठ से संबंधी विधिविधान, देवी देवताओं की स्तुति-स्मरण तथा तत्संबंधी कथा-प्रसंगों, वैयक्तिक तथा सामूहिक आकांक्षित फल-प्राप्ति हेतु लोगों की धर्म तथा देवी-देवताओं के प्रति श्रद्धा-आस्था एवं प्रार्थना आदि विषयों को स्थान मिला होता है। जिस तरह से विविध व्रत-त्यौहारों पर तत्संबंधी कथा कहानियाँ कही सुनी जाती है ठीक उसी प्रकार इन अवसरों पर गीत भी गाये जाते हैं। जिसके पीछे लोगों की विविध कामनाएँ होती है। वैसे भी धर्म संबंधी भक्ति मुख्यतः दो कारणों से की जाती है। एक तो निस्वार्थ भाव से, परहित की चिंता, सदाचारी जीवन की प्राप्ति हेतु, और दूसरा धर्म का भय और निजी स्वार्थ जिसके अंतर्गत धर्म विरुद्ध कार्य करने पर जीवन में संकटों के आने का डर और अनेक कामनाओं की पूर्ति हेतु। जैसे पुत्र की प्राप्त, सौभाग्य की प्राप्ति व उसकी दीर्घायु, धन समृद्धि की प्राप्ति, पूर्व जन्मों के पापों का निवारण, विभिन्न प्रकार के रोगों से मुक्ति पाना तथा अन्य अनेकों मनचाहें फलों की प्राप्ति आदि।

जिस तरह कोई विशेष कथा एवं पूजा पाठ संबंधी विधि-विधान प्रत्येक व्रत से जुड़े होते है, ठीक उसी प्रकार विविध व्रतों में गीत गाने की प्रथा भी बहुत पहले से रही है। कुछ विशेष व्रत त्यौहार एवं उससे संबद्ध गीतों का विवरण नीचे दिया जा रहा है –

हरतालिका :

भाद्रपद महीने के शुक्ल पक्ष में तृतीया के दिन यह मनाया जाता है। विशेष तिथि की वजह से इसे सिर्फ तीज भी कहा जाता है। इसमें विवाहिता अपने पति एवं परिवार के लिए सुख-शांति की कामना करती है। “हरतालिका के दिन सुबह गोदावरी जाते है, वहाँ से मिट्टी या रेत लाते हैं। पीठे पर शंकर पार्वती बनाते है। हल्दी, कुंकुम, चावल, शक्कर, सफेद पुष्प, मंगलसूत्र, चूड़ियाँ, कंघी, आईना, सिंदूर लाते हैं। इसी पर्व पर बेसन एवं शर्करा मिलाकर पार्वती के लिए विविध गहने बनाये जाते हैं। बाद में वही प्रसाद स्वरूप बाँटते हैं। पूजा के बाद रतजगा करते है, गीत गाते हैं। बालिकाएँ विविध खेल खेलती हैं। इस दिन निराहार उपवास रखा जाता है। बारह बजे केले खाए जाते हैं।”4  इस व्रत से संबधी लोकगीत की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य है –

“महादेव चलते गंगा नहाये, गउरा के लेली संगा साथ महादेव ।,

एक कोसे गइले, दोसर कोसे गइले, रिमझिम बरसत मेघ महादेव ।”

“कौन बैठी राजा की रानी?

बैठी क्या माँगनी है?

दूध, पूत, सुहाग माँगती है।”

बहुरा :  

भाद्रपद चतुर्थी के दिन यह व्रत किया जाता है। इस व्रत को स्त्रियाँ द्वारा किए जाने का मुख्य हेतु पुत्र की प्राप्ति एवं उसकी मंगल कामना है। अतः इस अवसर पर गाये जाने वाले गीतों में माँ का अपने पुत्र के प्रति प्रेम भाव का निरूपण होता है, साथ ही सास बहू के संबंध में पाई जाने वाली कटुता एवं दाम्पत्य जीवन की मधुरता का भी स्वाभाविक वर्णन मिलता है।

अनंत चतुर्दशी :  

क्त व्रत के संबंध में विशेष जानकारी देते हुए एक विद्वान लिखते है- “भादों शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी अनंत चतुर्दशी कहलाती है। इसमें अनंत (विष्णुजी) की पूजा का विधान है । कट्टर वैष्णवों के लिए इससे बड़ा अन्य पर्व नहीं। व्रत तथा स्नान के अतिरिक्त इस दिन विष्णुपुराण और भागवत का पाठ किया जाता है तथा हल्दी में रंगकर कच्चे सूत का अनंत पहनते हैं।”5

गोधना :

इसका समय है कार्तिक शुक्ल द्वितीया। भोजपुरी क्षेत्र में इसकी महिमा ज्यादा है। इसमें संपादित किए जाने वाले विविध विधानों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विधि के अंतर्गत गोबर से बनाई मानव-प्रतिमा को मूसल से कूटा जाता है। “कार्तिक शुक्ल द्वितीया को गाँव की स्त्रियाँ स्नान आदि करके गोबर की मानव-प्रतिमा बनाकर उसे मूसल से कूटती है। यह मानव प्रतिमा इन्द्र की प्रतीक होती है। इस त्यौहार के साथ इन्द्र और कृष्ण की कथा जुड़ी होती है।”6

इस व्रत का मुख्य उद्देश्य भाई-बहन के बीच का स्वाभाविक प्रेम, इस रिश्ते की अहमियत है। अतः इसका गायन भी इस अवसर के गीतों का विषय बनता है।

पिंडिया :

अन्य व्रतों एवं त्यौहारों की तुलना में पिंडिया व्रत की अवधि लम्बी है। पूरे एक महीने तक चलने वाला यह व्रत कार्तिक शुक्ल प्रतिपद से प्रारंभ होकर अगहन शुक्ल प्रतिपद तक मनाया जाता है। “पिंडिया शब्द पिण्ड से बना है जिसमें लघु अर्थ में ‘इयान’ प्रत्यय लगाकर पिंडिया की निष्पत्ति की गई है। अतः पिंडिया का अर्थ हुआ गोबर से बना हुआ छोटा पिण्ड या गोला। इन गीतों में भी भाई बहन के स्वाभाविक प्रेम का वर्णन उपलब्ध होता है। जो दिव्य और अलौकिक है ।”

छठी माता का व्रत :

कार्तिक शुक्ल षष्ठी के दिन किया जाता है। इस व्रत में मुख्यतः सूर्यदेवता की पूजा की जाती है। भोजपुरी-मिथिला आदि क्षेत्रों में किये जाने वाले इस व्रत का मुख्य प्रयोजन पुत्र प्राप्ति, उसकी क्षेम कुशलता उसका दीर्घायु होना है। अतः इस प्रसग के गीतों में पुत्र जन्म की कामना, पुत्र प्रेम एवं पुत्रहीन स्त्री की व्यथा वर्णित होती है।

“कहेली कवन देई हम छठि करबो,

अपना सामी जी के बान्हें घरबों।

पाँच फरहिरया मइया के अरघ देबों

दोहरी फलसुपवे मइया के अरध देवो।

चारी चौखंडी के पोखरवा, ओमे घीब उतराइ ।

पहिरैनी कवन देई पियरिया, भइले अरघ के जून ।।

पहिरैना कवन राम पिचरिया, चल अरघ दियाउ ।।

सभ केहूँ घरे ए छठीया माता केरा नरियर।

बाँझि तिरियवा ए छठि माता घरे रेंगनी के काँट

सबकर अरधिया ए छठि माता घरे रेंगनी के काँट ।

रोए ले बाँझी हो तिरियवा, पहोरवे पोंछे लोर

चुप होखु चुप हेखू, न बाँझी रे तिरियवा,

तोहरा के देवों बोझिनी गजाधर पूत ।”

जिउतिया (जीवित पुत्रिका) :

“पुत्रवती स्त्रियाँ अपने पुत्र के संकट निवारण के लिए जिउतिया का व्रत रखती है। अश्विन कृष्ण अष्टमी के दिन यह व्रत होता है। यह अत्यतन्त कठिन व्रत है क्योंकि ३६ घण्टे तक इसमें अन्नजल ग्रहण नहीं किया जाता। इस अवसर पर स्त्रियाँ देवी-देवताओं से संबंधित मांगलिक गीत भी गाती है।”7

एकादशीव्रत के गीतः

ब्रज लोकगीत के परिचय के अंतर्गत इस व्रत एवं इससे संबंधी गीतों पर प्रकाश डालते हुए डॉ. कुन्दनलाल उप्रेती लिखते है- ज्येष्ठ में निर्जलाएकादशी होती है। धौंघा धरनी एकादशी अषाढ में होती है, व्रत के गीतों का प्रचलन कम होता जा रहा है। एकादशी व्रत का एक गीत इस प्रकार है

चरतु भरतु लछिमनु-रामु पढौ तौ हरि की एकादशी

झूंठी कहते झूंठी सुन्ते झूंठी आखें जे भरते

अरे इन पापनि सो भये कूकरा घर-घर घूंसत जे फिरते चरतु ।।

करवा चौथ :

कार्तिक कृष्णपक्ष की चतुर्थी को यह व्रत सुहागिनों द्वारा रखा जाता है। दिन भर उपवास करने के पश्चात रात्रि में चन्द्र एवं अपने पति की पूजा करके भोजन किया जाता है। सौभाग्यवती स्त्रियाँ इस व्रत के द्वारा अपने सुहाग के स्वस्थ और दीर्घायु होने की कामना करती है। इस दिन उक्त व्रत से संबंधी कथा कही जाती है साथ ही गीत भी गाए जाते हैं। इस व्रत से संबंधी गीत की कुछ पंक्तियाँ डॉ. गिरीश सिंह पटेल की पुस्तक ‘हिन्दी लोकगीतों का सांकृतिक अध्ययन’ से प्रस्तुत है –

“करूवा ले, करूवा ले

वीर पियारी करुवा ले

बाप भाई की खट्टी खानी

करूवा ले, करूवा ले।”

दीपावली :

दीपावली भारतीय त्यौहारों में सबसे बडा व प्रमुख त्यौहार कहा जा सकता है। यह हमारा राष्ट्रीय पर्व है। राष्ट्र की समस्त जनता इसे अत्यन्त हर्षोल्लास से मनाती है। एक लोकगीत की निम्न पंक्तियों में देख सकते हैं कि इस पर्व को लोग कितने आनंद उल्लास से मनाते हैं

“आई दिवारी क निज अन्हिचरिया

घर घर दिपना लेसान।

नेह भरल बाटे माटी के दिपना

जुग जुग जोतिया पियार।”

दीपावली प्रकाश का पर्व है। गाँव हो या नगर सब जगह दीपों की रोशनी से जगमगा उठते हैं। अमीर-गरीब हर वर्ग-जाति के लोग इस त्यौहार की खुशी में शरिक होते हैं। यह त्यौहार हमारे जीवन में नवजीवन का संदेश लेकर आता है। एक मालवी गीत में दिवाली को स्वर्ग से उतरने वाली राणी के रूप में वर्णित किया गया है –

“सरग थी उतरी राणी दिवाली कोयन घर उतरी राणी दिवाली।

पटल्या पूजारा नां घर उतरी। राणी दिवाली रे राणी दिवाली।

घणा चोखा गुड़ खवाडे । दिवाली थी खांड खवाडे राणी दिवाली।

चणा चोखा गुड़ खांदा। खांड घी बी घणा खांदा राणी दिवाली।”8

होली :

    राष्ट्रीय स्तर पर मनाये जाने वाले हमारे प्रमुख त्यौहारों में से एक त्यौहार होली है। होली के त्यौहार एवं इससे संबंधी गीतों का संबंध फाल्गुन महीने एवं वसंत ऋतु से होने के कारण  इन गीतों को फाग – फगुआ या कहीं-कहीं वसंत गीत नाम देकर इसे ऋतु संबंधी गीतों में भी स्थान दिया गया है।

    इस त्यौहार से संबंधी गीतों की संख्या ज्यादा है।

    राम और सीता के होली खेलने का वर्णन करने वाले निम्न गीत से शायद ही कोई अनजान रहा हो –

“होरी खैलै रधुवीरा अवध में होरी ।

केकरा हाथ कनक पिचकारी, केकरा हाथ अबीरा

राम के हाथ कनक पिचकारी, सीता के साथ अबीरा

होरी खैलै रधुवीरा अवध में होरी ।।”

 

रामनवमी :

प्रतिवर्ष चैत महीने की नवमी को श्रीराम के जन्म दिन को लेकर रामनवमी का त्यौहार मनाया जाता है। उक्त त्यौहार संबंध एक अवध गीत का कुछ अंश दृष्टव्य है –

“बोलें अवध में कागा हो रामनवमी के दिनवा ।

केकरे हुए राम केकरे भैया लछिमन।

केकरे भरत भुआला हो रामनवमी के दिनवा ।

बौले अवध मा कागा हो रामनवमी के दिनवा ।”9

जन्माष्टमी :

इस त्यौहार के अवसर पर गाये जाने वाले गीतों में कृष्ण के जन्म की तिथि, स्थान, जन्म की खुशी, जन्म के पश्चात देवकी और वासुदेव के कारागर का द्वार खुल जाना, वासुदेव के द्वारा कृष्ण को गोकुल पहुँचाना, कृष्ण की बाल लीलाएँ आदि का वर्णन मिलता है। कृष्ण की जगप्रसिद्ध बाल सुलभ क्रिडाओं को दिखाने वाले गीतों में से एक झलक प्रस्तुत है –

“गंगा के तिरवा यमुना के बिचवा कृष्ण चरावै धेनु गाय।

दही बेचे निकरी हैं परमा सुनरिया बंटिया पकडि बलभाय ।।

मचियहि बइठी है रानी यशोधरा ग्वालिन ओरहन देय।

बजेर जसोमति अपना कन्हैया वृन्दावनरारि मचाई।।

दही मोरी खाए मटिक मोरा फोरे गेंरूली बहाए मझधार।”10

नागपंचमी :

    इस अवसर पर गीत भी गाए जाते हैं।

“जवन गलिया हम कह ना देखलीं,

उगलिया देखवलल हो मोरे नाग दुलरुआ।

जे मोरा नाग के गेहूँ भीख दी हें,

लाले-लाले बेटवा बिअइहें हो मोरे नाग दुलरुआ।

जे मोरा नाग के कोदो भीख दी हैं,

करिया करिया मुसरी बिअइहे हो मोरे नाग दुलरुआ।।

जो मोरा नाग के भीखि उठि दीहें,

दुनि बेकति सुखी रहि हैं हो मोरे नाग दुलरूआ॥”11

नवरात्रि :

कुल नौ रात्रियों को यह मनाए जाने वाला पर्व है। इसमें विशेष रूप से दुर्गा, अंबा, महाकाली आदि देवियों की पूजा होती है और गरबा का आयोजन होता है। गरबा खेलना ही इसके केन्द्र में हैं, इसलिए कहा जाता है कि नवरात्री मनाई नहीं जाती खेली जाती है। ब्रज में इसे न्यौरता कहते है। गुजरात में कई ग्रामीण क्षेत्रों में जनभाषा में इसे नोरता कहा जाता है।

रक्षाबंधन :

हर साल सावन मास की पूर्णिमा को यह त्यौहार मनाया जाता है। इसे राखी के नाम से भी जाना जाता है। यह भाई-बहन के पवित्र प्रेम का प्रतीक है। इस अवसर पर गाए जाने वाले गीतों की संख्या कम है

“रखिया बँधा लो भायै सावन आयो रे।

रिमझिम-रिमझिम मेघा बरसे,

भैया को देख मोरा मनु, आऊ हरसे,

मोरो हमारी भैया, भेंटन आयो रे।”12

निम्न मालवी गीत में बहन भाई को रक्षाबंधन का निमंत्रण देती है। इस अवसर पर भाई से मिलने के लिए बहन कितनी उत्सुक है-

“राखि दिवसों आवियो, बेगा आब म्हारावीर।

हूँ कैसे अऊ म्हारी बेनोली, आडी सिपरा पूर ।।

सिपरा चढाऊँ कापड़ों, उतरी आव म्हारा वीर।

चकरी भँवरा दई भेजूं, खेलता आव म्हारा वीर ।।

लाडू ने पेडा दई भेज, जमना आवो म्हारा वीर ।।”13

    

 डॉ. हसमुख परमार

एसोसिएट प्रोफ़ेसर

स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर

जिला- आणंद (गुजरात) – 388120

            संदर्भ –

               1.     विज्ञान, समाज और संस्कृति, डॉ. आर. ऐन. राय, पृ. 82

2.     लोकसाहित्य की भूमिका- कृष्णदेव उपाध्याय, पृ. 290

3.     हिन्दी लोकसाहित्य, गणेशदत्त सारस्वत, पृ. 226

4.     हिन्दी लोकगीतों का सांस्कृतिक अध्ययन, डॉ. गिरीश सिंह पटेल, 196-197

5.     विश्वकोश, खंड-७, सं. रामप्रसाद त्रिपाठी, पृ.160

6.     लोकसाहित्य विमर्श, द्विजराम यादव, पृ. 81

7.     वही, पृ. 58

8.     मालवा के लोकगीत सं. डॉ. आशा पाण्डे, डॉ. दिलीप चौहाण, पृ.129

9.     अवधी और भोजपुरी गीतों का सामाजिक स्वरूप, अनीता उपाध्याय, पृ. 170

10. वही, पृ. 203  

11. लोकसाहित्य, द्विजराम यादव, पृ. 361

12. हिन्दी लोकगीतों का सांस्कृतिक अध्ययन, डॉ. गिरीशसिंह पटेल पृ. 193

13. मालवा के लोकगीत सं. आशा पाण्डे, डॉ. दिलीप चौहाण, पृ. 113 

लघुकथा

 





उजाला

दीपावली की शाम रामधनी बाबू दरवाजे पर बैठ पड़ोस के बच्चों को खुशियाँ मनाते देख कहीं खोए से जा रहे थे। अपने एकलौते बेटे वीरेंद्र का बचपन, उस समय की दिवाली, पूरे परिवार की मौज-मस्ती और आज! ये लगातार दूसरी बार हुआ जब उसने कैरियर का नाम लेकर घर आने से मना कर दिया। अरे ऐसी भी क्या कमाई करनी कि पर्व-त्योहार तक छूट जाएँ! बहू आती, पोते-पोतियाँ आ जाते तो रौनक होती। बचे ही कितने साल होंगे अब इनसब चीजों को देखने के? मन लगातार उद्विग्न हो रहा था। पत्नी सरला लावा-फरही, बुँदिया सब थाली में परोस के रख गयी लेकिन कुछ का जी नहीं कर रहा था कि तभी पास से झगड़े की आवाज सुन वहाँ जाना पड़ गया। कुछ लड़के एक गरीब जैसे दिखने वाले बच्चे को मार रहे थे।

“अरे क्या हुआ? क्यों झगड़ रहे हो बेटा?” उनमें मौजूद एक परिचित किशोर से पूछा

“देखिए न दादाजी, तब से हमारे पटाखे उठा-उठा के रख ले रहा।”

“क्यों जी? कहाँ के रहने वाले हो?” - उन्होंने बच्चे से पूछा।

“पास की बस्ती में रहते हैं साहब, पटाखे चुरा नहीं रहे थे, जो ठीक से जल न पाते बस उनको ले रहे थे कि घर जाकर फिर से जलाने की कोशिश करेंगे” बोलते-बोलते वह रो पड़ा।

रामधनी बाबू ने कुछ क्षण सोचा फिर सीधे अपने घर में रखे पोते-पोतियों के लिए लाकर रखे पटाखों के डब्बे उठा कर उस बच्चे को पकड़ा दिए।

“जाकर चलाओ और हाँ, किसी के पटाखे इस तरह से मत उठाना दुबारा।”

वह उन्हें लेकर आँसू पोंछते हुए मुस्कुरा अपनी बस्ती की ओर दौड़ गया। रामधनी बाबू के मन में भी वापस उजाला होने लगा था।

 


कुमार गौरव अजीतेन्दु

दानापुर (कैन्ट), पटना 



अप्रैल 2024, अंक 46

  शब्द-सृष्टि अप्रैल 202 4, अंक 46 आपके समक्ष कुछ नयेपन के साथ... खण्ड -1 अंबेडकर जयंती के अवसर पर विशेष....... विचार बिंदु – डॉ. अंबेडक...