मंगलवार, 29 दिसंबर 2020

गीत

 

हिन्दी प्यारी है शुभकारी

  

हिन्दी  प्यारी  है शुभकारी ।

सबसे न्यारी मात  हमारी ।। 

इसकी  माता  सुर - भाषा है ।

जीवन की ये  अभिलाषा है ।।

विमल सुहानी,सुभग पुनीता ।

बसती   राधा  इसमे   सीता ।।

बिसरा देती ,  पीड़ा    सारी ।

हिन्दी....

हिन्दी   ध्याते  तुलसी,मीरा ।

पोथी लिखते  सूरकबीरा ।।

विवेकानंद    हिन्दी   बोले ।

जग  की आँखें हिन्दी खोले ।।

जग में जीती   कब  ये  हारी!

हिन्दी.....

ये  जोशीली   सेना- दल में ।

जोश बढ़ाती ये पल- पल में ।।

कवियों  की  येकोमल बोली ।

केसर -खुशबू , मन  में  घोली ।।

पावनता  मन,  दिल  में  धारी ।

 हिन्दी...

भाषा - मोती   कितने सारे ।

हिन्दी- माला  सबको  धारे ।।

सब कुछ जाने गुरुवर माने ।

हिन्दी भाषी   हम  -दीवाने  ।।

भोर- निशा सब,इस पर वारी।

हिन्दी......

जनम लिया या तन को तजते ।

इस  भाषा से,हर पल सजते ।।

आँखें   जागी    चाहे   सोती  

भाषा तो बस   हिन्दी   होती ।।

कोमल शिशु की,ये किलकारी ।

हिन्दी....

भारत  वासी   इस  पर  वारे ।

जनम -जनम हैं मात सहारे ।।

छंद   - तराने    राग - सुहाने ।

सबको  भाते  मोहक   गाने ।।

भाषा अपनी,  हैं   हितकारी ।

हिन्दी....

मान   बढ़ाती,   नाम   बढ़ाती।

हिन्दी जग यश- गान बढ़ाती।।

इसके बिन तोसब कुछ रीता।

हिन्दी ने इसजग को  जीता ।।

पलकें करें न,  इसकी   भारी ।

हिन्दी...

 


 

ज्योत्स्ना प्रदीप

 जालंधर

पंजाब 14403


गुरुवार, 17 दिसंबर 2020

शब्द सृष्टि, दिसंबर- 2020

 




शब्द सृष्टि, दिसंबर- 2020, अंक -4

वर्षांत की सप्रेम भेंट



























कविता,

 


दास्तान कहे दिसंबर......

 

सुना रहा दिसम्बर

बीते दिनों की दास्तान

वर्ष भर की तारीखें

केलेंडर में कुछ निशान

अनगिनत किस्से-बातें  

मुक्कमल हुए कुछ वादे

और थोड़ी-सी भूल-चूक

पीने पड़े कुछ कड़वे घूँट

टूट के चूर हुए कई सपने

कोरोना ले उड़ा कुछ मेरे अपने

मास्क-सेनिटाइज़र का साया

पूरे विश्व में नज़र आया

‘वर्क फ्रॉम होम’ ने बदल दिया जीवन व्यवहार

बरसों बाद एक साथ बैठा पूरा परिवार 

खाली पड़े खेल के मैदान

घर में ही दौड़ते नन्हे शैतान

ऑनलाइन सेशन, वेबिनार की आई बहार

हर कोई बन गया इन्टरनेट सुपरस्टार

त्योहारों में बाज़ारों की रौनक हुई कम

कार्यक्रमों में अतिथि संख्या गई थम

माना बड़ी मुश्किल की ये घड़ी है

हार न मानने की राह ही चुनी है 

नववर्ष जगा रहा उम्मीद की किरण 

काश! जल्दी ही सफल हो वैक्सीनेशन

दो हज़ार बीस का लेखा-जोखा दे रहा दिसंबर

नववर्ष! अब तो दे दो कोरोना फ्री केलेंडर ।

डॉ. पूर्वा शर्मा

वड़ोदरा

शब्द संज्ञान

 

आलय, वास, गृह, गेह : Dwelling / घर : Home / धाम, निकेतन, निवास : Residence / प्रवास: Domicile/ बसेरा : Abode / मकान : House

उपर्युक्त समस्त शब्द ऐसी वास्तु-रचनाओं के द्योतक हैं जो लोगों के रहने और बसने के लिए बनायी जाती हैं। यह भव्य और विशाल भी हो सकती हैं, छोटी और सीधी-सादी भी। यह मनुष्य के स्थायी रूप से रहने के काम भी आ सकती है, अस्थायी रूप से भी।

इनमें सबसे सामान्य शब्द मकान है  जिसका अर्थ है – रहने का स्थान । स्थान कच्चा हो, पक्का हो; स्थायी हो, अस्थायी हो, अपना हो, किराये का हो – हर प्रकार से उसे मकान ही कहते हैं। जहाँ कोई व्यक्ति सामान्य रूप से रहता हो, वह उसका मकान है।

घर अधिक व्यापक शब्द है। घर में स्थायित्व का भाव रहता है। कभी हम कहते हैं कि ‘हम पिछले बीस वर्ष से बनारस में रहते हैं किन्तु हमारा घर मुरादाबाद में है।’ यहाँ पर घर से मतलब है जन्म स्थान का । इसमें एक विवक्षा यह भी है कि हम स्वयं तो बनारस में रह रहे हैं किन्तु हमारे कुटुम्ब के कुछ अन्य प्राणी – भाई, भतीजे –  अब भी मुरादाबाद में ही रहते हैं। यह आवश्यक नहीं है कि  मुरादाबाद में हमारा निजी मकान हो ही, किन्तु यह आवश्यक है कि अपने कुल के कुछ सदस्य अभी भी वहाँ विद्यमान हो ।

घर के कुछ व्युत्पन्न अर्थ भी हैं। कभी यह उस स्थान का द्योतक होता है जहाँ कोई कार्य होता है, जैसे – तारघर, डाकघर, पुतलीघर, रसोईघर।

घर का एक अर्थ डिब्बा या चोंगा भी होता है, जैसे-चश्मों का घर, चूड़ियों का घर।

आड़ी, बेड़ी, तिरछी रेखाओं से घिरा हुआ स्थान भी घर कहलाता है, जैसे शतरंज की बिसात में चौंसठ घर होते हैं।

घर उस स्थान को भी कहते हैं जहाँ कोई वस्तु प्रचुरता से पायी जाती है, जैसे-दरभंगा आम का घर है। इसी से मिलता-जुलता अर्थ इस वाक्य में है – यह गली बदमाशों का घर है।

घर उत्पत्ति-स्थान अथवा उद्गम को भी कहते हैं, जैसे – ‘खाँसी सब रोगों की जड़ है, और हँसी लड़ाई का घर है।’

घर कभी-कभी किसी घर के सब प्राणियों को भी इंगित करता है, –  जैसे प्लेग में घर-का-घर तबाह हो गया।

इससे भी व्यापक अर्थ तब होता है जब घर किसी पूरे कुटुम्ब अथवा घराने को सूचित करता है, जैसे- लड़की अच्छे घर में देना।

मनुष्यों के निवास स्थान के अतिरिक्त कभी-कभी घर पशु-पक्षियों के रहने की जगह का भी द्योतन करता है, जैसे – चूहे जमीन में अपना घर बनाते हैं और चिड़ियाँ पेड़ों पर ।

सीख वाको दीजिए, जाको सीख सुहाय

सीख न दीजै बाँदरा, कि घर बए का जाय ।।

अर्थ तो आलय का भी घर ही है किन्तु यह शब्द किसी ऐसे भवन अथवा स्थान के लिए प्रयुक्त होता है जहाँ किसी विशिष्ट कार्य का सम्पादन होता हो अथवा विशिष्ट प्रकार के व्यक्ति रहते हों अथवा विशिष्ट प्रकार का वस्तु भण्डार हो, जैसे –चिकित्सालय, औषधालय, छात्रालय, अनाथालय, हिमालय, मेघालय।

बहुधा आलय का प्रयोग ऐसे मंदिरों के लिए होता है जहाँ कोई देवता प्रतिष्ठित हो, जैसे –शिवालय, देवालय।

प्रवास में अस्थायित्व का भाव है, निवास में स्थायित्व का । कुछ लोग अपना जन्मस्थान छोड़कर कुछ दिन के लिए सामान्यतः जीविकोपार्जन के लिए, दूसरे नगर, प्रदेश अथवा देश चले जाते हैं। ऐसे लोग प्रवासी कहलाते हैं।

गृह संस्कृत का शब्द है। इससे ही गेह व्युत्पन्न हुआ है। इन दोनों का अर्थ घर ही है, और घर शब्द भी गृह का ही तद्भव रूप है। आवास का भी यही अर्थ है, किन्तु गेह और आवास का प्रयोग कम होता है।

धाम और निकेतन का भी अर्थ तो घर अथवा मकान ही है, किन्तु प्रयोग में निकेतन कवित्व-मय भाषा में आता है। धाम बड़े देवस्थान अथवा तीर्वस्थान के लिए प्रयुक्त होता है। भारत देश के चार धाम प्रसिद्ध हैं – बदरीनाथ, द्वारका, रामेश्वरम्, जगन्नाथ पुरी। परम धाम का प्रयोग स्वर्ग के लिए होता है।

बसेरा का अर्थ है- मार्ग में टिकने का स्थान । पुराने समय में दूर की यात्रा भी बैलगाड़ियों से ही होती थी, जिसमें कई दिन लगते थे। दिन-भर चलते थे, रात को कहीं पर बसेरा करते थे जब बरातें जाया करती थीं, जाने और लौटने में कई-कई सप्ताह लग जाते थे। भोजन की सामान्य वस्तुएँ इतने दिन टिक नहीं सकती थीं। इसीलिए पकवान बनाने की प्रथा चली जो बहुत दिन तक खाने योग्य रहता है।

बड़े-बड़े नगरों में कुछ स्थान ऐसे बनाये जा रहे हैं, जहाँ गरीब लोग निःशुल्क रात बिता सकें। ऐसे स्थानों को रेन बसेरा कहते हैं।

चिड़ियाँ रात को अपने-अपने घोंसलों में बसेरा करती हैं । बहुधा हमारी कविता में मनुष्य-जीवन की तुलना पक्षियों के बसेरे से की जाती है, यथा –

ना घर तेरा, ना घर मेरा, पंछी रैन बसेरा रे!

'शब्द चर्चा'  पुस्तक से (लेखक – ब्रजमोहन) 

कविता


बाबूजी

रचना श्रीवास्तव


अमरईया की छाँव से

पूरब के एक गाँव से

सोन्धे शीतल बाबूजी,

जेठ में लूह की धार से

सावन की पड़ती फुहार से

नरम गरम  बाबूजी,

दरवाजे पर लटके ताले से

आँगन में लगे जाल से

सुरक्षा की मजबूत कड़ी बाबूजी,

गीतों में लोक गीत से

सदियों से चली आ रही रीत से

कभी न बदले बाबूजी,

परीक्षा के प्रश्न पत्र से

विद्यालय के नए सत्र से

सदा डराते बाबूजी,

उबलते पानी पर रखे ढ़क्कन से

भाड़ में भुनते मकई के दानो से

बड़-बड़ करते बाबूजी,

गर्म तावे पर मक्खन से

मुट्ठी में बर्फ के टुकड़े से

पिघल जाते बाबूजी,

जर-जर पात से

अपनों की घात से

टूट गए बाबूजी,

बेटे की उपेक्षा से 

बटवारे की समस्या से

बिखर गए बाबू जी,

वृद्धा आश्रम की गलियों में

गुजर गए बाबूजी ।


रचना श्रीवास्तव

केलिफोर्निया

यू.एस. ए.


आलेख

             

       प्राकृतिक साहचर्य और COVID 19

प्रो. शिव प्रसाद शुक्ल

    विश्व में भारतीय जीवन शैली अपने आप में अद्वितीय है जिसके चलते हम लोग कोरोना 2019 से डटकर मुकाबला कर रहे हैं। पहले हमें अपनी पहचान हर स्तर पर सुनिश्चित करनी होगी। भारतीय जीवनशैली की विश्व के तमाम देश आलोचना कर रहे थे, एकाएक प्रशंसक क्यों हो गये? गोस्वामी तुलसीदास ने इस (covid 19) महामारी के मूल स्रोत चमगादड़ के विषय में उत्तरकांड में वर्षों पहले बता गये थे जिससे समग्र विश्व दुःखी है:

"सब कै निंदा जे जड़ करहीं । ते चमगादुर होइ अवतरहीं

सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुःख पावहिं सब लोगा ।"

    भारतीय संस्कृति की विशिष्ट पहचान श्रेय के कारण है परंतु वर्षों की गुलामी से मुक्ति मिलते ही अपने आत्मिक/ आध्यात्मिक विकास के बजाय प्रेय को विशेष महत्व देने लगे। covid 19 के बारे में भारत सरकार को सूचना मिलते ही उसने प्रशंसनीय कदम उठाने लगे। यह बात अलग है कि लोगों ने सरकार एवं स्वास्थ्य मंत्रालय की सूचनाओं का अक्षरशः अनुपालन नहीं कर रहे हैं। कोरोना संक्रमण बीमारी से बचने के लिए सरकार के दिशा निर्देशों का पालन करवाने के लिए कठोर नियमों का प्राविधान भी करना पड़ रहा है। परंतु सरकार चतुर्दिक स्तर पर लोगों की समस्याओं को सुलझा रही है। सरकार ने देशी विदेशी लोग जो जहाँ फँसे हैं, उनको वहीं पर भोजन एवं उनके गंतव्य तक ले जाने की भी व्यवस्था कर रही है। केन्द्र एवं राज्य सरकारों के इस सकारात्मक दृष्टिकोण की काफी प्रशंसा हो रही है भारत सरकार, चिकित्सक, नर्स, कर्मचारी, सुरक्षा अधिकारियों का मनोबल देखते बन रहा है। अब तक के विश्व के आँकड़े देखे जायँ तो मार्च 2020 से लेकर भारत में लोगों की मृत्यु किसी न किसी लापरवाही (मरकज) के चलते बढ़ रही है

    प्रधानमंत्री सतत् राज्य सरकारों के रचनात्मक सकारात्मक पहलूओं की निगरानी कर रहे हैं। गाँधी, नेहरु, अम्बेडकर एवं पटेल के विकास मॉडल के अन्तर्विरोध सर्वविदित हैं। फिलहाल हमें प्रकृति एवं पुरुष के समन्वय के सार्वभौमिक माडल को अपनाना होगा भारत सरकार ने अपनी 'वसुधैवकुटुम्बकम्' की भावना को बरकरार रखते हुए तमाम आवश्यक वस्तुओं एवं दवाओं को विश्व को समर्पित कर रहा है। तुलसी की काव्य पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं:

"एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहुब्याधि।

पीडहिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि ।।"

    किसी भी बीमारी से निजात पाने के लिए आद्यंत जीवन चया को सुनिश्चित करनाहो गा तुलसीदास की काव्य पंक्तियाँ बहुत कुछ कह जाती है:

"नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान।

भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान ।। "

    तुलसी राम के अनन्य भक्त हैं। इसीलिए "दैहिक, दैविक, भौतिक तापा/रामराज काहू नहिं ब्यापा" लिखते हैं और इसके आगे की काव्य पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं:

"रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनुपान श्रद्धा मति पूरी

एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं"

    किसी भी महामारी के उपाय हमारी जीवन शैली में ही हैं। इसलिए धार्मिक ईर्ष्या द्वेष को छोड़कर भारतीय जीवन पद्धति को स्वीकार किया जायः

"राम कृपा नासहिं सब रोगा।

जौं एहिं भाँति बनै संजोगा।

सद्गुरु बैद बचन बिश्वासा।

संजम यह न विषय कै आसा।।"

    कोरोना 19' महामारी के कारण हमी लोग हैं इसलिए राम को जो लोग नहीं मानते हैं वे लोग भी अपनी-अपनी जीवन चर्या को ज्यादा से ज्यादा प्राकृतिक बनायेंगे तो कोई भी महामारी कभी भी नहीं सतायेगी। फ्रीज, एसी हाईब्रीड फल / फसल / गाय / भैंस के उत्पादन से मानव मात्र के लिए नुकसान देय हैं। आदिवासी संस्कृति एवं रहन-सहन किसी भी बीमारी से मुक्ति दिला सकता है। साहित्य में किसी भी बीमारी के लिए दवा नहीं आविष्कृत है परंतु जो लोग अपनी जीवन शैली को प्राकृतिक परिक्षेत्र को नुकसान पहुँचाए बिना रहेंगे, उन्हें निश्चित रूप से लाभ मिलेगा जैविक खेती के साथ देसी फल-फूल, साग- सब्जी, मधु आदि के उत्पादन से निश्चित रूप से नाना प्रकार की बीमारियों से मुक्ति मिल सकती है। हर सौ वर्ष के बाद महामारियों का जिक्र साहित्यकार लोग करते हैं रेणु ने भी कालाजार का चित्रण किया है या चेचक या प्लेग या कोविड 19 या मलेरिया या टी.बी. आदि का प्रकोप मानव मात्र के लिए खतरनाक हैं। समग्र जैविक तरीके को समझा जाय तो मनुष्य जंगली पशु प्राणियों या चौरासी लाख जीवों पर कोई रहम नहीं दिखाता है इसलिए चिकित्सा या विज्ञान या तकनीकी मनुष्य मात्र के विकास के पायदान के रूप में इस्तेमाल होते हैं भया कबीर उदास में कैन्सर लाइलाज बीमारी का जिक्र है, थेलेसेमिया जैसी बीमारी भारत में बढ़ती जा रही है। आबादी बढ़ने के कारण या जैविक सिस्टम को क्षति पहुंचाने के कारण ऐसा हो रहा है। ब्लड प्रेशर, सुगर के मरीज क्यों बढ़ रहे हैं क्योंकि हमने जैविक सिस्टम को बुरी तरह से नुकसान देय बना दिया है। महानगरों की बढ़ती जन संख्या उदय प्रकाश की कहानी मैंगोसिल के मारफत बढ़ती जा रही है। चिकित्सा, तकनीकी एवं विज्ञान की शिक्षा महँगी होने के कारण लोगों के नैतिक मूल्यों में भी गिरावट आयी है।

मनुष्य को चालाकी उतनी ही करनी चाहिए जिससे जैविक सिस्टम को कोई हानि न हो। साहित्य कोविड 19 की दवा खोजेगा, इस भ्रम में रहना भी नहीं चाहिए। योग्य चिकित्सक एवं प्राकृतिक जीवन शैली किसी भी बीमारी से मुक्ति दिला सकते हैं। भारत में जाँता, चक्की,चकरा, गोपालन, कोल्हू, पशु पालन करने वालों को कभी भी सामान्यतया कोई बीमारी नहीं होती थी, यदि होती थी तो चरक, सुश्रुत की आयुर्वेदिक चिकित्सा का सहारा लिया जाता था स्ववित्तपोषी कोई भी शिक्षा नैतिक मूल्यों का जतन नहीं कर सकती है। निराला की पुत्री, सरोज या पत्नी मनोहरा देवी की असामयिक मृत्यु की बात लोग करते हैं। निश्चित रूप से उस समय पर आधुनिक शिक्षा चिकित्सा की व्यवस्था नहीं थी आज समसामयिक चिकित्सा व्यवस्था होने पर भी योग्य चिकित्सकों का अभाव सतत् सता रहा है मूल्य अव्यक्त होते हैं 

    परंतु मानव जाति अपने जीवन में उन मूल्यों को उतारती है तो वे मूल्य जीवन शैली का अंग बन जाते हैं। नरेन्द्र मोदी या रामदेव बाबा या अन्य लोगों को कोरोना क्यों नहीं हो रहा है? यानी उन लोगों की जीवनशैली या पद्धति का भी आकलन किया जाना चाहिए प्रवासी मजदूरों को भी सामान्यतया कोरोना क्यों नहीं हो रहा है? इस पर भी गम्भीरता से विचार करना होगा। महात्मा गाँधी के अनुयायी श्रीमन्नारायण के स्वदेशी एवं ग्राम स्वराज के मॉडल को चतुर्दिक विकास के लिए स्वीकार करना होगा देश के 73 वर्षों में ग्राम स्वराज का विकास न होने के कारण लोकतांत्रिक असफलता एवं इच्छाशक्ति का पता चलता है। किसी भी प्रकार का पर्यावरणिक नुकसान समग्र विश्व को भारी पड़ेगा फास्ट फूड, सॉफ्ट ड्रिंक आदि को अलविदा करना होगा जिस तरह से एड्स की कोई भी दवा कामयाब नहीं है उसी प्रकार से कोरोना जैसी बीमारी का भी कोई इलाज नहीं मिलेगा, सिर्फ एक ही इलाज प्राकृतिक जीवन शैली एवं पर्यावरण सम्पन्न वातावरण लोगों के जीवन रक्षक हैं साहित्यकार लोग बकवास बहुत करते हैं। मैथिली शरण गुप्त की कई पत्नियों का देहांत हो गया, उन्होंने राम पर लिखा परंतु बीमारी की किसी भी दवा पर कोई दावा नहीं किया आज के रचनाकार प्रेमचंद की तरह नौकरी छोड़कर आमफहम भाषा में नहीं लिख रहे हैं, इसीलिए उनके साहित्य को कोई पढ़ नहीं रहा है। ई संगोष्ठी या वेबीनार या दूरदर्शन पर बकवास करने से कुछ मिलने वाला नहीं हैं कोई भी किसी भी जाति, धर्म एवं देश विशेष का क्यों न हो? भौगोलिक. धार्मिक, जातिगत बाड़ेबंदी को छोड़कर प्राकृतिक साहजिक जीवनचर्या पर विशेष ध्यान दे।

    हम लोगों को क्षिति, जल, पावक, गगन एवं समीर को शुद्ध रखना होगा। साधन साध्य पर ध्यान नहीं देगे तो इससे भयंकर बीमारी का सामना करना होगा देश के स्वतंत्र होने के 73 वर्षों में हम लोगों ने भेड़िए जैसी शिक्षा एवं मदारी की भाषा बोलना सिखाया इसलिए बौद्धिक राजनीतिक, धार्मिक एवं धन पशुओं या प्राणियों को गहराई से विचार करना होगा। उम्मेद सिंह बैद की कविता वैचारिक प्रदूषण की चंद पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं: "जो कविता आप पढ़ रहे हैं/ वह पेड़ की लुगदी करके/ बने कागज पर लिखी गई है / जो हाथ इसे लिख रहा है/उसमें /कारखानों में बना/प्लास्टिक का पेन है / कृत्रिम धागों से निर्मित / बड़ी बड़ी मीलों का/फैशनेबल वस्त्र पहनता है/ यह व्यक्ति/लकड़ी के शानदार सोफे पर / बिजली से चलते पंखे की हवा में/आराम से बन रही है कविता / बिकेगी पुस्तक सौ रूपयों में / तो निश्चय ही/वातानुकूलित कमरे में पढ़ी जायेगी/लेखक, पाठक, समीक्षक या प्रकाशक/ या फिर कोई पर्यावरण कार्यकर्ता/ सभी तो उसी व्यवस्था के निर्माता / और उसके अंगभूत हैं / जो व्यवस्था सम्पूर्णतः/ पृथ्वी की छाती पर/ मूँग दल रही है / प्रकृति को माता मानकर/उसके स्तन के दुग्धपान नहीं / बल्कि उसे भोग्य मानकर/इसके साथ व्यभिचार कर रही है / खुले आम समझ बूझकर!/और भी गहरी है/वैचारिक प्रदूषण की जड़े" कोरोना भी धीरे-धीरे मानसिक रोग बनता जा रहा है कोरोना के नाम आबंटित धन राशियों की बंदर बॉट देखते बन रही है: "बातों के/ बन रहे बताशे/बातों के अब लच्छे होंगे/बातों ही बातों में /दिन अब/आने वाले अच्छे होंगे/..........खुली तिजोरी/होगी उन पर/जिनके मुंह पर होंगे ताले/रेवड़ियां/ अंधे बॉटेंगे/खायेंगे सालों के साले / राजमार्ग पर/हम जैसे सब/ खाते दिन भर गच्चे होंगे" रविशंकर पांडेय की कविता बहुत कुछ कह जाती है। कोरोना हमें पुनर्विचार करने को मजबूर कर रहा है परंतु हम जानते हुए भी विचार करने को तैयार नहीं हैं। धूमिल की पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं: वे सब तिजोरियो के दुभाषिये हैं /वे वकील हैं वैज्ञानिक हैं / अध्यापक हैं नेता हैं दार्शनिक हैं /लेखक हैं कवि हैं कलाकार हैं/ यानि कि कानून की भाषा बोलता हुआ/ अपराधियों का एक संयुक्त परिवार हैं।" हम लोगों को सुनिश्चित करना होगा कि हम कहाँ पर हैं? श्रेय एवं प्रेय में से श्रेय का वरण करना होगा। झूठी बकवास जो करेगा, इतिहास उसे सबक सिखाएगा। साहित्यकारों को स्पार्टा देश के कवियों की तरह दम भरने के बजाय जमीनी स्तर की बात करें वरना जैसे विश्व के नक्शे से स्पार्टा नामक देश गायब हुआ, उसी तरह से और भी देश कोरोना के चलते अपना अस्तित्व न खो बैंठे। कोरोना एवं साहित्य के अन्तः सम्बंध को खोजें परन्तु यूटोपियाई शैली काम नहीं आएगी। समग्र पर्यावरण का ध्यान रखते हुए आगे बढ़ा जाय तो निश्चित रूप से विश्व कल्याण होगा।

 


       

प्रो. शिव प्रसाद शुक्ल

आचार्य,

हिन्दी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग,

इलाहाबाद विश्वविद्यालयप्रयागराज 211002

 

 


 




अप्रैल 2024, अंक 46

  शब्द-सृष्टि अप्रैल 202 4, अंक 46 आपके समक्ष कुछ नयेपन के साथ... खण्ड -1 अंबेडकर जयंती के अवसर पर विशेष....... विचार बिंदु – डॉ. अंबेडक...