मंगलवार, 2 नवंबर 2021

नवम्बर - 2021, अंक – 16

 


शब्द सृष्टि,  नवम्बर - 2021, अंक – 16

प्रकाशोत्सवीय विशेषांक

प्रकाश पर्व की पावन वेला में आप सभी के मंगल की कामनाओं के साथ......


शब्द संज्ञान – डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

आलेख – कार्तिक मास और दीपावली – डॉ. पूर्वा शर्मा

मुकरियाँ – डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा

लघुकथा – उजाले बेचने वाले लोग – वाणी दवे

कविता – दीये लगते हैं प्यारे से – डॉ. जयंतिलाल बी. बारीस

निबंध पर बात – अन्धकार से जूझना है ! (हजारीप्रसाद द्विवेदी) – डॉ. हसमुख परमार

कविता – माँ तू नाराज मत होना..... – डॉ. विमुख पटेल

कहानी – करमजली – डॉ. शिवजी श्रीवास्तव

कविता – भाई दूज – डॉ. अनु मेहता

लघुकथा – दिवाली का उपहार – प्रीति अग्रवाल

कविता – एक दीया… – गौतम कुमार सागर

कहानी – करवा का व्रत – यशपाल

निबंध पर बात

 

अन्धकार से जूझना है !

(हजारीप्रसाद द्विवेदी)

डॉ. हसमुख परमार

किसी से भी न डरना,

गुरु से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं,

लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं।

- हजारीप्रसाद द्विवेदी

एक विराट और बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी (1907-1979) की साहित्यिक साधना का क्षेत्र प्रमुखतः सर्जन, समीक्षा व शोध तक फैला है। हिन्दी उपन्यास तथा निबंध को एक विशेष पहचान देने वाले, समीक्षा व शोध को एक नई ऊँचाई प्रदान करने वाले हिन्दी के इस उद्भट विद्वान का योगदान हिन्दी साहित्य संसार में चिर-स्मरणीय रहेगा। भारतीय संस्कृति से ओतप्रोत मूर्धन्य सर्जक और विलक्षण प्रतिभा व पांडित्य से संपन्न आलोचक और शोधकर्ता पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी की लेखनी हम पाठकों को हमारी संस्कृति और परंपरा का बखूबी बोध कराती है।

हिन्दी निबंध के प्रमुख हस्ताक्षर हजारीप्रसाद द्विवेदी के निबंधों में भारतीय संस्कृति, धर्म, प्रकृति, दर्शन, लोक प्रभृति विषयों की विशद व्याख्या, विवेचन व विश्लेषण है। विषय-वैविध्य तो वैसे भी द्विवेदी जी के निबंधों की प्रधान विशेषता रही है। विषय के वितान व वैविध्य से समृद्ध इनके निबंधों में संस्कृति, प्रकृति, साहित्य, कला, धर्म, ऋतु-उत्सव, मनोविनोद, पर्व-त्यौहार, ज्योतिष आदि बराबर निरूपित है। द्विवेदी जी के निबंधों के वैशिष्ट्‌य पर विचार करते हुए डॉ. द्वारिकाप्रसाद सक्सेना लिखते हैं – “आपके निबंध चिंतन एवं मनन से परिपूर्ण भारतीय संस्कृति एवं भारतीय सभ्यता पर आधारित है तथा जीवन एवं जगत की गहन अनुभूतियों के भंडार हैं। उनमें प्राचीनता एवं नवीनता का विलक्षण सामंजस्य दृष्टिगोचर होता है।” द्विवेदी जी के विचारात्मक एवं ललित दोनों कोटी के निबंध हमें इनकी सर्जनात्मक प्रतिभा, विस्तृत-व्यापक अध्ययन तथा गंभीर चिंतन-मनन से परिचित कराते हैं।  

हजारीप्रसाद द्विवेदी के निबंध संग्रह –

·         विचार और वितर्क

·         अशोक के फूल

·         कल्पलता

·         विचार प्रवाह

·         कुटज

·         आलोक पर्व

साहित्य अकादमी से पुरस्कृत ‘आलोक पर्व’ (1972) निबंध संग्रह में कुल सत्ताईस निबंध है। “आलोक पर्व के निबंध द्विवेदी जी के प्रगाढ़ अध्ययन और प्रखर चिन्तन से प्रसूत हैं। इन निबंधों में उन्होंने एक ओर संस्कृत काव्य की भाव-गरिमा की एक झलक पाठकों के सामने प्रस्तुत की है तो दूसरी ओर अपभ्रंश तथा प्राकृत के साथ हिन्दी के सम्बन्ध का निरूपण करते हुए लोकभाषा में हमारे सांस्कृतिक इतिहास की भूली कड़ियाँ खोजने का प्रयास किया है।....... निबंधों में आचार्य द्विवेदीजी ने भारतीय धर्म, दर्शन और संस्कृति के प्रति अपनी सम्मान- भावना को संकोचहीन अभिव्यक्ति दी है, किन्तु उनकी यह सम्मान भावना विवेकजन्य है और इसीलिए नयी अनुसन्धित्सा का भी इनमें निरादर नहीं है।”  (आलोक पर्व, फ्लैप से)

प्रस्तुत संग्रह का प्रथम निबंध है – ‘अन्धकार से जूझना है !’ महज दो पृष्ठ का यह निबंध द्विवेदी जी के विशद अध्ययन, प्रखर चिंतन तथा भारतीय संस्कृति संबंधी इनके ज्ञान का परिचायक है। लेखक ने अपने इस निबंध में मनुष्य की जिज्ञासा वृत्ति, इसकी चेतना का विकास व विवेक की चर्चा करते हुए प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति के केन्द्र में रहे ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय' सूत्र के परिप्रेक्ष्य में हमारे प्रमुख त्यौहार दिवाली के महत्त्व व संदेश को स्पष्ट करते हुए ज्ञान रूपी प्रकाश की प्राप्ति हेतु अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करने, इससे लड़ने, जूझने की बात बताई है।

जड़ और चेतन, इन दो तत्त्वों से बने इस जगत में हम देखते हैं कि चेतन तत्त्व से जुड़े प्राणीलोक में हजारों- हजारों प्रकार के प्राणियों में मनुष्य सबसे अलग है, विशेष है क्योंकि इसने अपनी चेतना का निरंतर विकास किया है, यही इसकी खास बात है, यही जगत-जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई है। और मनुष्य के अंदर रही जिज्ञासा ने इसकी इस चेतना को उर्ध्वगामी बनाया है। प्रस्तुत निबंध में इस बात को स्पष्टत: हम देख सकते हैं ।

एक तरफ ज्ञान है यानी प्रकाश और दूसरी तरफ अज्ञान यानी अंधकार। अंधकार एक ऐसा आवरण है जो सारी चीजों को ढँक देता है और प्रकाश आते ही सारी चीजें स्पष्ट दिखाई देती है। यही काम अज्ञान और ज्ञान का है। मनुष्य अनादि काल से ही जानने के लिए उत्सुक है और इसी कोशिश में वह लगा रहता है। यही उसका विकास है।

हजारों वर्षों से मनुष्य के मन की गहराई से ये करुण-पुकार उठती रही है – तमसो मा ज्योतिर्गमय! दुःख इस बात का है कि अंधकार कुछ जानने नहीं देता अतः ज्ञान की रोशनी के लिए परमात्मा से, परमतत्त्व से या कहें कि किसी परमशक्ति से दिनरात यह प्रार्थना की जा रही है पर न जाने कितना समय बीत गया आज, फिर भी यह सुनी नहीं गई। हमें उस परमतत्त्व से मदद मिल नहीं रही है – “परन्तु यह पुकार शायद सुनी नहीं गई – ‘होत न श्याम सहाय! प्रकाश और अंधकार की आँखमिचौनी चलती ही रही, चलती ही रहेगी। यह तो विधि-विधान है। कौन टाल सकता है इसे!” (आलोक पर्व, पृ.09)

दरअसल अंधकार और प्रकाश दोनों का अस्तित्व है अत: अंधकार भी रहेगा और प्रकाश भी। अंधकार पूरी तरह से मिट नहीं सकता, हाँ इसे कम अवश्य किया जा सकता है, छोटा जरूर किया जा सकता है। हम यह भी न भूले कि अंधकार तो है ही, वो आता नहीं, इसे लाया नहीं जा सकता, हम लाते हैं प्रकाश को और इस प्रकाश को लाने हेतु मनुष्य तरह-तरह के उद्यम करता है, अतः प्रकाश और अंधकार का संघर्ष निरंतर चलता रहता है।

मनुष्य युगों-युगों से प्रकाश लाने हेतु अंधकार से लड़ता रहा है और यह भी सत्य है कि उसने अंधकार से हार नहीं मानी। “मनुष्य के अन्तर्यामी निष्क्रिय नहीं है। वे थकते नहीं, रूकते नहीं, झुकते नहीं। वे अधीर भी नहीं होते। वैज्ञानिक का विश्वास है कि अनंत रूपों में विकसित होते-होते वे मनुष्य के विवेक रूप में प्रत्यक्ष हुए हैं।” (पृ.09) अन्तर्यामी से आशय है – चेतना। मनुष्य की यही चेतना हार नहीं मानती। अंधकार और प्रकाश को लेकर होते रहे संघर्ष से मनुष्य को प्राप्त हुआ है – विवेक। इसी चेतना और इससे प्राप्त विवेक के लिए कई वर्ष लगे हैं। इस अवस्था तक पहुँचते हुए मनुष्य ने अपनी ज्ञानेन्द्रियों को क्रमशः विकसित किया। अपने विवेक से इसने इंद्रिय बोध को ज्यादा प्रबल, सूक्ष्म व बारीक किया। “स्पर्शेन्द्रिय से स्वादेन्द्रिय और घ्राणेन्द्रिय की ओर और फिर चक्षुरिन्द्रिय और श्रोत्रियेन्द्रिय की ओर अपने आप को अभिव्यक्त करते हुए मन और बुद्धि के रूप में आविर्भूत हुए हैं।” (पृ.09)

निबंधकार आगे बताते हैं कि मनुष्य ने अपनी चेतना व विवेक के बल पर बहुत कुछ जान लिया यहाँ तक कि प्रकृतिकृत संसार - प्राकृतिक सृष्टि को देखकर, अनुभव करके अपनी प्रतिभा, कल्पना तथा दृढ़ संकल्प से एक और संसार – मनुष्यकृत संसार निर्मित-विकसित किया। बावजूद इसके मनुष्य की यह यात्रा यहाँ पूरी नहीं होती, इसकी जिज्ञासा अभी भी बनी रही है, अभी भी वह अंधकार के आवरण में ढँकी चीजों का, रहस्यों का उद् घाटन करना चाहता है, अत: अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने की पुकार अब भी जारी है।

मनुष्य की उन्नति की यात्रा के संबंध में लेखक का विचार है कि प्रारंभ में अंधकार को दूर करने का, अंधकार से जीतने का मनुष्य ने जो विचार किया, उस विचार को, मनुष्य के उस प्रयास को, मनुष्य के उस संकल्प को भुलाया नहीं जा सकता। “किस दिन एक शुभ मुहूर्त में मनुष्य ने मिट्टी के दीये, रुई की बाती, चकमक की चिनगारी और बीजों से निकलने वाले स्रोत का संयोग देखा। अन्धकार को जीता जा सकता है। दीया जलाया जा सकता है। घने अंधकार में डूबी धरती को आंशिक रूप में आलोकित किया जा सकता है। अंधकार से जुझने के संकल्प की जीत हुई। तब से मनुष्य ने इस दिशा में बड़ी प्रगति की है, पर वह आदिम प्रयास क्या भूलने की चीज है ? वह मनुष्य की दीर्घकालीन कातर प्रार्थना का उज्ज्वल फल था।” (पृ.10)

निबंध में कहा गया है कि हर वर्ष मनाया जाने वाला दीवाली का त्यौहार यानी दीयों का, प्रकाश का यह पर्व आज भी हमें उस क्षण का, उस समय का स्मरण कराता है जिसमें हमारे पूर्वजों के मन-मस्तिष्क में अंधकार को दूर करने का विचार आया था, अंधकार से जूझने का दृढ़ संकल्प उनके मन में जगा था। “दीवाली याद दिला जाती है उस ज्ञान लोक के अभिनव अंकुर की, जिसने मनुष्य की कातर प्रार्थना को दृढ़ संकल्प का रूप दिया था – अंधकार से जूझना है, विघ्न-बाधाओं की उपेक्षा करके, संकटों का सामना करके! (पृ.10)

दीवाली की महत्ता व इसके संदेश से संबंधी निबंध के आखिर के कथन भी देखिए – “दीवाली आकर कह जाती है, कि अन्धकार से जूझने का संकल्प ही सही यथार्थ है। मृगमरीचिका में मत भटको। अंधकार के सैकड़ों परत हैं। उससे जूझना ही मनुष्य का मनुष्यत्व है। जूझने का संकल्प ही महादेवता है। उसी को प्रत्यक्ष करने की क्रिया को लक्ष्मी की पूजा कहते हैं।” (पृ.10)  


 

  डॉ. हसमुख परमार

एसोसिएट प्रोफ़ेसर

स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर

जिला- आणंद (गुजरात) – 388120

 

आलेख

 



कार्तिक मास और दीपावली

डॉ. पूर्वा शर्मा

सजाता चला

त्यौहारों की लड़ियाँ

बारहमासा।

भारत त्यौहारों का देश है। भारतीय परंपरा-संस्कृति में तीज-त्यौहारों का विशेष स्थान है। हर दूसरे-चौथे दिन यहाँ कोई न कोई त्यौहार मनाया जाता है। गली-गली में त्यौहारों की रौनक देखी जा सकती है। त्यौहारों का हमारे जीवन में बहुत महत्त्व है। इसके बिना हमारे जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती, इसके बिना जीवन बेरंग एवं बेस्वाद हो जाएगा। भारत में बारह मास और छ ऋतुएँ और मानी गई है। यूँ तो प्रत्येक मास एवं ऋतु का अपना अलग ही महत्त्व है लेकिन ‘स्कंदपुराण’ के अनुसार कार्तिक मास को श्रेष्ठ एवं दुर्लभ माना गया है –

मासानां कार्तिक: श्रेष्ठो देवानां मधुसूदन।

तीर्थं नारायणाख्यं हि त्रितयं दुर्लभं कलौ।।

(स्कंदपुराण, वै. खं. कां. मा. 1/14)

प्रत्येक मास-ऋतु कोई न कोई त्यौहार-उत्सव की सौगात ले ही आती है। कार्तिक के पावन मास में शरद पूर्णिमा से लेकर देवउठनी एकादशी तक अनेक व्रत-त्यौहार मनाए जाते हैं। जैसा कि हम जानते हैं, इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण त्यौहार दीपावली है।

कार्तिक में मनाए जाने वाले कुछ विशेष पर्व-त्यौहार इस प्रकार है –


शरद पूर्णिमा  

जब पूर्णिमा का चाँद अपनी दूधिया रोशनी से शरद ऋतु के सौन्दर्य में वृद्धि करता है, तभी से कार्तिक का आरंभ होता है। पौराणिक मान्यता है कि ‘शरद पूर्णिमा’ के दिन मनोहारी कृष्ण भगवान ने अपने स्वरूप को विस्तृत करके गोकुल की गोपियों के संग रास लीला रचाई थी। इस कारण से इसे ‘रास पूर्णिमा’ भी कहा जाता है। तब से इस दिन का विशेष महत्त्व है।

शरद पूर्णिमा के दिन चंद्रमा पृथ्वी के अधिक निकट अर्थात् कोजागर पर्वत के निकट आता है और वह आकार में बड़ा दिखाई देता है। अतः इसे ‘कोजागरी पूर्णिमा’ भी कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि उस दिन चंद्रमा अपनी सोलह कलाओं के साथ प्रकाशित होता है। उस दिन दूध का नैवेद्य चंद्रमा को अर्पण किया जाता है, यह आरोग्य दायी माना जाता है। फिर इस नैवेद्य को प्रसाद रूप में ग्रहण किया जाता है। इस दिन के उत्सव को ‘कौमुदी महोत्सव’ भी कहा जाता है।  


करवा चौथ

इस दिन सुहागन स्त्रियाँ अपने सुहाग की लम्बी उम्र के लिए दिनभर निर्जल व्रत रखती हैं और रात को चंद्रमा को अरघ देकर ही भोजन करती हैं। यह त्यौहार भारत के अनेक राज्यों में मनाया जाता है।


श्याम कुंड एवं राधा कुंड का प्राकट्य अथवा बहुला अष्टमी

श्रीकृष्ण की अनेक लीलाओं में से एक है अरिष्टासुर का वध। पौराणिक कथा के अनुसार जब कान्हा ने  गाय के बछड़े के रूप में प्रकट हुए अरिष्टासुर का वध किया तो गौवंश हत्या के पाप का प्रायश्चित करने के लिए राधा रानी और गोपियों ने उन्हें तीर्थों में स्नान करने को कहा। लीलाधर कृष्ण ने अपनी एड़ी से एक गड्ढा खोदा और उस कुंड में सभी तीर्थों को निवास के लिए आह्वान किया, फिर उसमें स्नान किया। राधा रानी एवं गोपियों ने भी ठीक उसके बगल में अपने कंगन से एक दूसरा कुंड खोदा और उसमें स्नान किया। श्रीकृष्ण एवं राधा जी द्वारा खोदे गए कुंड क्रमशः ‘श्याम कुंड’ एवं ‘राधा कुंड’ कहालाए । इस दिन को  बहुला अष्टमी के नाम से भी जाना जाता है।


धनतेरस  

इस दिन विष्णु के विशेष अवतार, आयुर्वेद के जन्मदाता और देवताओं के चिकित्सक धनवंतरी भगवान का अवतरण हुआ।  समुद्र मंथन के समय धनवंतरी भगवान अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे। इसलिए इस दिन इनकी पूजा की जाती है। धनतेरस के दिन से ही पाँच दिवसीय दीपावली पर्व का आरंभ माना जाता है।  


नरक चतुर्दशी (रूप चौदस अथवा काली चौदस)   

श्रीकृष्ण की लीलाओं में कई असुरों के वध का वर्णन मिलता है। लेकिन ऐसी मान्यता है कि कार्तिक की चतुर्दशी के दिन भगवान कृष्ण ने अपने ही पुत्र नरकासुर का वध अपनी पत्नी सत्यभामा की सहायता से किया। उसके पश्चात् उन्होंने तेल और उबटन से स्नान किया था। इसलिए माना जाता है इस दिन इस तरह से स्नान करने से नरक से मुक्ति मिलती है और स्वर्ग तथा सौन्दर्य की प्राप्ति होती है।

एक अन्य कथा के अनुसार ऐसा माना जाता है कि उस दिन माँ काली ने असुरों का संहार किया था। इसलिए उस दिन माँ काली की आराधना का विशेष महत्त्व माना जाता है। ‘काली चौदस’ को ‘भूत पूजा’ के नाम से भी जाना जाता है। यह पूजा अधिकतर पश्चिमी राज्यों विशेषकर गुजरात में देखी जाती है।


दीपावली 

भारत के प्रमुख त्यौहारों में दीपावली  का विशेष स्थान है। कार्तिक की अमावस्या को मनाया जाने वाला यह त्यौहार भारतीय संस्कृति का सबसे बड़ा पर्व माना जाता है। धनतेरस से लेकर भाई-दूज तक यानी पाँच दिनों तक यह मनाया जाता है।

दीपावली उत्सव को लेकर चार-पाँच कथाएँ प्रचलित है।


    पहली कथा मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र जी के चौदह वर्ष के वनवास के पश्चात् अयोध्या लौटने को लेकर है जो सबसे ज्यादा प्रचलित है। यह सर्वविदित है कि रावण का वध करने के बीस दिन पश्चात् उस दिन श्री राम अपनी पत्नी जानकी और भाई लक्ष्मण जी के साथ अयोध्या लौटे। उस दिन नगर वासियों ने घी के दीये जलाकर करके उनका भव्य स्वागत किया। दीपों की माला से संपूर्ण अयोध्या नगरी जगमगा उठी थी। असत्य पर सत्य की विजय को प्रदर्शित करने वाला यह पर्व ‘दीपोत्सव’, ‘ज्योति पर्व’ अथवा ‘प्रकाश पर्व’ भी कहलाता है।


दामोदर लीला  

श्रीकृष्ण की लीलाओं की महिमा अपरंपार है। उनके द्वारा की गई अनेक लीलाओं में से एक ‘दामोदर लीला’ है। जो कार्तिक की अमावस्या के दिन ही हुई थी। इस लीला के अनुसार कान्हा क्रोध में आकर माँ यशोदा के द्वारा संभाल कर रखी गई दूध और माखन की हांडियों को तोड़ देते हैं और स्वयं ने तो माखन खाया ही है साथ में वानरों को भी खिलाया। मैया यशोदा कान्हा को दण्डित करने के लिए उन्हें ओखल से बाँध देती हैं। चूँकि इस लीला में कान्हा के उदर पर रस्सी बाँधी गई इसलिए इसका नाम ‘दामोदर लीला’ पड़ा। इसी कारण कार्तिक मास को ‘दामोदर मास’ भी कहा जाता है।


निर्वाणोत्सव 

इसका संबंध जैन धर्म के महावीर स्वामी से है। जैन धर्म ग्रंथों के अनुसार कार्तिक मास की अमावस्या के दिन ही महवीर स्वामी ने सांसारिक जीवन से मुक्ति पाकर मोक्ष प्राप्त किया था। उस समय इंद्र आदि देवताओं ने महावीर स्वामी के शरीर की पूजा की एवं उनकी पावानगरी को दीपमालाओं से प्रकाशवान किया। तभी से इस दिन को जैन समाज में महावीर स्वामी के  ‘निर्वाणोत्सव’ के रूप में मनाया जाता है। उसी दिन गौतम स्वामी को कवैल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी और देवताओं ने गंधकुटी की रचना की थी। इस दिन जैन लोग संध्या के समय दीप जलाकर गणेश एवं लक्ष्मी की पूजा करने के साथ-साथ नये बही खातों का मुहूर्त भी करते हैं।

इन सभी प्रचलित कथाओं के अतिरक्त एक कथा के अनुसार ऐसा भी माना जाता है कि लक्ष्मी जी ने दीपावली की रात को विष्णु भगवान को अपने पति के रूप में चुना और उनसे विवाह किया। इस सन्दर्भ में कथाएँ चाहे कितनी भी हो लेकिन सबका एक ही निचोड़ है कि यह दिन हर्षोंल्लास का है, यह पर्व अंधकार से प्रकाश की ओर जाना का संदेश देता है।


गोवर्धन पूजा / अन्नकूट 

दीपावली के अगले दिन गोवर्धन पूजा की जाती है। कहा जाता है कि इंद्र ने क्रोध में आकर मूसलाधार वर्षा की जिसके कारण पूरे ब्रज में बाढ़ आ गई, उस समय पाँच वर्ष के कान्हा ने सात दिन और सात रात तक गोवर्धन पर्वत को अपने कनिष्ठिका पर उठाकर ब्रजवासियों की रक्षा की थी। तभी से गोवर्धन पूजा की जाती है और भगवान कृष्ण को अन्नकूट का भोग अर्पित किया जाता है।  


नव वर्ष  

दीपावली के अगले यानी गोवर्धन पूजा वाले दिन ही कार्तिक की प्रतिप्रदा को गुजरात राज्य में नव वर्ष के रूप में मनाया जाता है।  इस दिन लक्ष्मी पूजन करके पुराने खाता-बही को बंद करके नये खाते का आरंभ किया जाता है। इसे ‘चौपड़ा पूजन’ भी कहा जाता है।


भाई दूज 

यह त्यौहार कार्तिक शुक्ल पक्ष की द्वितीया को मनाया जाता है। दीपावली के दो दिन बाद आने वाला यह त्यौहार भाई-बहन के स्नेह को अभिव्यक्त करता है। एक प्रचलित कथा के अनुसार इस दिन यमुना ने अपने भाई यम को अपने घर भोजन कराया था, तभी से भाई-दूज का यह त्यौहार मनाया जाता है लेकिन इस भैया दूज का वर्णन शास्त्रों में नहीं मिलता है। इसे ‘भ्रात द्वितीया’ अथवा ‘यम द्वितीया’ भी कहते हैं। इसी दिन कायस्थ समाज के लोग अपने आराध्य देव चित्रगुप्त की पूजा करते हैं ।


लाभ पंचमी   

कार्तिक के शुक्ल पक्ष के पाँचवें दिन (पंचमी) को लाभ पंचमी कहा जाता है। गुजरात में इसे ‘लाभ पंचम’ कहते हैं । इस दिन लोग अपने व्यावसायिक प्रतिष्ठानों और दुकानों को खोलते है और नया बहीखाता शुरू करते हैं। लाभ पंचमी के लिए ‘लखेनी पंचमी’, ‘ज्ञान पंचमी’ यासौभाग्य पंचमी’  आदि नाम भी प्रचलित है।


छठ पूजा 

सूर्य देव की उपासना का यह त्यौहार भारत के कई राज्यों विशेषतः बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं नेपाल आदि में मनाया जाता है। इस पर्व को लेकर कई कथाएँ प्रचलित है। मान्यता है कि जब प्रथम देवासुर संग्राम में देवता हार गए तब देव माता अदिति ने तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए देवारण्य के देव सूर्य मंदिर में छठ मैया की आराधना की और इसके बाद अदिति के पुत्र त्रिदेव रूप आदित्य भगवान ने असुरों से लड़कर विजय प्राप्त की। लोक परम्परा के अनुसार सूर्यदेव एवं छठ मैया का सम्बन्ध भाई-बहन का है और लोक मान्यता के अनुसार षष्ठी की पहली पूजा सूर्य ने ही की थी।

एक अन्य कथा के अनुसार पांडवों के राजपाट हार जाने के बाद श्रीकृष्ण द्वारा बताए जाने पर द्रौपदी ने भी छठ व्रत रखा। इस सन्दर्भ में एक और कथा प्रचलित है जिसके अनुसार राजा प्रियवद ने पुत्र प्राप्ति के लिए महर्षि कश्यप से पुत्रेष्टि यज्ञ करवाया लेकिन उनकी पत्नी मालिनी को मृत पुत्र पैदा हुआ। उसके पश्चात् सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न हुई षष्ठी कहलाने वाली ब्रह्माजी की मानस कन्या देवसेना के व्रत-उपासना पूजा करने से उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।


गोपाष्टमी  

ऐसा माना जाता है कि इस दिन से श्रीकृष्ण ने गौचारण का आरंभ किया था। इस दिन से पहले कान्हा सिर्फ बछड़ों को चराया करते थे लेकिन कार्तिक की अष्टमी के दिन से ही कृष्ण ने अपने बड़े भाई बलराम के साथ गायों को चराने के लिए वन में जाना आरंभ किया। इसलिए इसे गोपाष्टमी के नाम से जाना जाता है।


देवउठनी एकादशी (देव प्रबोधनी एकादशी) 

विष्णु पुराण के अनुसार भगवान विष्णु ने शंखासुर का वध करने के पश्चात् आषाढ़ शुक्ल पक्ष की हरिशयनी एकादशी से लेकर कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी तक क्षीर सागर में शेषनाग की शैया पर शयन किया। चार मास की योग निद्रा त्यागने के बाद विष्णु जी इस दिन जगे थे। इसलिए इसका नाम देवउठनी एकादशी पड़ा।


तुलसी विवाह 

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार देवउठनी एकादशी के दिन ही तुलसी और शालिग्राम का विवाह संपन्न हुआ था। मान्यता है कि जब जलंधर नामक पराक्रमी असुर ने स्वर्ग पर आक्रमण कर स्वर्ग को अपने अधिकार में ले लिया तब विष्णु भगवान ने अपनी माया से जलंधर का रूप लेकर जलंधर की पत्नी वृंदा का सतीत्व भंग किया। जिसके कारण जलंधर की शक्ति क्षीण हुई और वह युद्ध में मारा गया। वृंदा को जब यह ज्ञात हुआ तब उसने भगवान विष्णु को पाषाण होने का शाप दिया और विष्णु शालिग्राम बन गए। देवताओं की प्रार्थना से वृंदा ने अपना शाप वापस लिया और वह जलंधर के साथ सती हो गई। उसकी राख से एक पौधा निकला जिसे तुलसी का नाम दिया गया। देवताओं ने वृंदा की मर्यादा और पवित्रता को बनाए रखने के लिए भगवान विष्णु के शालिग्राम रूप का विवाह तुलसी के साथ संपन्न कराया। तब से ही कार्तिक शुक्ल एकादशी अथवा देव प्रबोधनी एकादशी के दिन तुलसी का विवाह शालिग्राम के साथ कराने की प्रथा चली आ रही है।

हम देख सकते हैं कि संपूर्ण कार्तिक मास में अनेक व्रत-त्यौहार मनाए जाते हैं लेकिन दीपावली का पौराणिक-सामाजिक-आर्थिक हर दृष्टि से विशेष महत्त्व है। दीपावली एक ऐसा उत्सव एक ऐसा त्यौहार है जिसकी प्रतीक्षा संपूर्ण वर्षभर सभी भारतवासियों को रहती है। यह त्यौहार प्रकाश का उत्सव है, आनंद-उल्लास का पर्व है। बाज़ारों की रौनक एवं जन-जन के चहेरे की ख़ुशी दीपावली  उत्सव की सूचना दे देती है।

हम जानते हैं कि दीपावली का दिन कार्तिक की अमावस का दिन होता है। यह एक ऐसा दिन है जिस दिन आकाश में चंद्रमा नहीं होता लेकिन अनगिनत तारे और धरती पर प्रज्वलित असंख्य दीप मिलकर संपूर्ण धरा को इतना प्रकाशवान कर देते हैं कि उसकी दीप्ति से अंधकार का नामो-निशान मिट जाता है। यह पर्व हमें यही संदेश देता है कि इस संसार से यदि अंधकार को दूर भगाना है तो हमें सत्य, अहिंसा,  ईमानदारी, धर्म, दया, कर्तव्यनिष्ठा, परोपकार, सज्जनता, मानवता आदि रूपी अनेक दीयों को अपने जीवन में प्रज्वलित करना होगा, तभी असल में हम दीपावली  के इस पावन त्यौहार को सही मायने में मना सकेंगे। हमारी संस्कृति हमें दीये की लौ की भाँति ऊपर उठने का संदेश देती है। यदि हम स्वयं को मिट्टी का दीपक समझ लें तो उसकी ज्योति को हमारी आत्मा तो यह ज्योति हमें उर्ध्वगामी  होने का संदेश देती है। यदि जीवन में यह उर्ध्वगमन बंद हो जाए तो यह जीवन, जीवन नहीं रह जाएगा। ऋग्वेद के सूत्र – ‘ॐ असतो मा सद्गमय।/ तमसो मा ज्योतिर्गम।/ मृत्योर्मा अमृतं गमय।’ का पालन करते प्रत्येक वर्ष हम दीपावली  उत्सव को इसी उत्साह के साथ मनाते रहे ऐसी कामना ..... अस्तु !

 



डॉ. पूर्वा शर्मा

वड़ोदरा

 

सोमवार, 1 नवंबर 2021

कहानी

 


करमजली

डॉ. शिवजी श्रीवास्तव

काजल ने छत की मुंडेर पर दीपक रखने के बाद नजरें उठाकर देखा, चारों ओर जगर-मगर करती विद्युत झालरें, इंद्रधनुषी आभा बिखेरती कंदीले, आसपास की छतों की मुंडेरों के ऊपर झिलमिलाते दीपक... सर्र से छूटते हुए आतिशबाजी के वाणों का आसमान में पहुँच कर अनेक रंगों की रोशनियों के फूल बिखेरना, बड़ा अद्भुत एवं रोमांचक लगा। उसे लगा जैसे वह इंद्रलोक में आ गई हो। ससुराल में पहली दीवाली थी उसकी... घनी काली अमावस की रात्रि में रोशनी के ये झरने कितना रोमांच भरते है ये उससे बेहतर कौन समझ सकता है। नीचे आँगन में अमित जी बच्चों के साथ बच्चे बने फुलझड़ियाँ चला रहे हैं...कोई उसकी सास से कह रहा है ..तुम्हारी बहू तो साक्षात लक्ष्मी है... कैसे सारा घर जगर मगर कर रहा है...

हाँ...जी’. सास की आवाज थी..,  ‘बड़े भागों वाली है बहू.. मेरे घर मे उसके कदम बहुत शुभ सिद्ध हुए..

...बड़े भागों वाली...शुभ कदम... ये शब्द उसके कानों में अमृत सा घोल गए..वरना अपने मायके में तो वह अपशकुनी और करमजली ही कही जाती रही हमेशा..मायके की याद आते ही उसके मन मे विषाद घुल गया। ..अतीत के पृष्ठ खुलते चले गए..

...पिछले वर्ष दीवाली में दिए रखते वक्त एक दिया हाथ से छूट कर गिर कर बुझ गया था.... मम्मी फट पड़ी थीं...कर दिया न अपशकुन... इस करमजली से कोई काम ढंग से नहीं होता...ससुराल जाकर नाक कटाएगी हम लोगों की..

ससुराल मिले भी तो’...भाभी ने मुँह बिचका कर व्यंग्य किया था....हमें तो लगता है ये लोगों की छाती पे ही मूँग दलेंगी जिंदगी भर...उसने चुपचाप अपने आँसुओं को पी लिया था।

ऐसी बातें सुनने की उसे आदत पड़ चुकी थी, उसे अपना जीवन लंबी काली मावस की रात के समान लगता था, जिसमें सुख के प्रकाश की कोई किरण सपने में भी नहीं दिखती थी..

..डाँट-फटकार, ताने-बंदिशें... यही था उसके जीवन मे बस..उसे अपनी किस्मत पर हमेशा रोना आता था...लगता है परमात्मा ने कुछ ज्यादा ही काली स्याही से उसकी किस्मत की लकीरें खींची थीं, इसीलिए हर वक्त दुःख के गहरे साए उसे घेरे रहते हैं। माँ की फटकार, पिता की लादी गई बन्दिशें भाई भाभी की वक्र दृष्टि..उसे खुल कर साँस भी नहीं लेने देते...सबकी नजरों में वह करमजली थी, अभागी थी...पता नहीं क्यों? उसे बस इतना पता था कि उसके साथ ही एक जुड़वाँ भाई भी पैदा हुआ था जो जन्मते ही मर गया था, पर इसमें उसका तो कोई दोष नहीं था फिर भी उसे होश सम्हालते ही हर वक्त यही ताने मिलते थे... करमजली है पैदा होते ही भाई को खा गई... उसे जन्म भी ऐसे घर मे मिला था जहाँ लड़कों पर गर्व किया जाता था और लड़कियों को तिरस्कृत...मोहल्ला भी ऐसा जहाँ घरों से ज्यादा लोगों की सोच छोटी थीं..लोग कहते अरे लड़के तो हुंडी होते हैं हुंडी जब चाहे भुगतान करा लो और लड़कियाँ तो कर्जा होती हैं, कर्जा...जिंदगी भर चुकाते रहो तो भी नहीं चुकता...गली के लड़के दिन भर मटरगश्ती करते, आवारागर्दी करते फिर भी उनके माँ बाप सीना फुला कर चलते और लड़कियों के बाप गर्दन झुकाकर... इसी वातावरण में रहना और दिन-रात ताने सुनना उसने अपनी नियति मान लिया था।जब वह स्कूल या बाहर कहीं जाती थी तो ढेर बंदिशों और नसीहतों के साथ ही भेजी जाती थी... पिता और भैया उसकी पहरेदारी सी करते रहते थे, भाभी आई तो वह भी उसे किसी न किसी बहाने ताने देती रहती...बी.ए. के बाद उसकी पढ़ाई भी बन्द कर दी गई कि ज्यादा पढ़कर क्या कलेक्टर बनना है, घर मे कोई भी तो नहीं था जिससे वह अपने दुःख बाँटती। दुःख की एक छाया हमेशा उसके चेहरे पर मंडराती रहती थी।

भाभी के व्यंग्य ने उसे गहरे आहत किया था। आजकल उसके लिये लड़के की तलाश जोरों पर थी। हर दस पन्द्रह दिनों बाद उसे देखने वाले आते...उसे नुमाइश की तरह प्रदर्शित किया जाता..फिर दो तीन दिनों बाद पापा मुँह लटका कर बैठ जाते बड़बड़ाते।... इन लोगों ने भी मना कर दिया ...सारे लड़के अब गोरी हीरोइन सी लड़की चाहते हैं...दहेज भी ससुरों को भरपूर चाहिये...अब न तो इतना रुपया ही है कि दहेज से मुँह भर दूँ... और न ही लड़की इतनी खूबसूरत’...इसके आगे...माँ नश्तर चुभो देतीं ... ‘एक तो भगवान ने रंग रूप नहीं दिया ऊपर से किसी के सामने ऐसे मुँह लटका कर बैठ जाती है जैसे फाँसी पे चढ़ाया जा रहा हो...ये नहीं जरा मुस्करा के जवाब दिया करे सबको..हमारे तो भाग ही खोटे थे जो ये करमजली जिंदा रह गई और हीरे जैसा बेटा चला गया’....वह अंदर तक घायल हो जाती...पापा भी उनकी हाँ में हाँ मिलाते... ‘सच है ये करमजली न होती तो हमें किसी के सामने हाथ नहीं जोड़ने पड़ते...वह शीशे में अपना चेहरा देखती...क्या सचमुच ही वह बदसूरत है...उसे लगता दुःखों ने उसके चेहरे की रंगत सचमुच छीन ली है, खुशी तो उसके जीवन से ही रूठी है तो चेहरे पर भला कहाँ से आए...पापा बड़बड़ाए जा रहे थे.... ‘अरे, आजकल लड़कियाँ तरह-तरह के मेकअप...करके सुंदर बन जाती हैं.. तरह-तरह की गोरी बनाने की क्रीम बाज़ार में आ रही हैं, ये नहीं कि वही लगाया करे..अब ये सब भी मैं ही बताऊँ?’

‘....परसों अलीगढ़ वाले आ रहे हैं’...एक दिन पापा ने उसे सुनाते हुए मम्मी से कहा था....

अबकी बात बन सकती है... इससे कहो जरा ठीक से तैयार हो...और लड़के वाले कुछ पूछें तो मुँह बनाके न बैठ जाये, कायदे से बात करे। और हाँ कोई क्रीम-व्रीम ढंग की लगवा देना या किसी पार्लर ले जाके तैयार करवा देना।’..

अंदर कमरे से भाभी की जहर बुझी आवाज आई-पार्लर कोई सस्ते होते हैं क्या?इन्हें तो रोज ही देखने वाले आ रहे हैं,रोज रोजपार्लर जाने लगीं तो घर की आधी तनखाह इसी में उड़ जाएगी..

उस वक्त काजल चुप ही रही पर अगले ही दिन एक छोटी सी जनरल स्टोर वाली दुकान पहुँच गई, ‘सुनिये कोई ऐसी क्रीम नहीं है जिससे जल्दी से जल्दी गोरे हो जायें..

दुकानदार युवा था उसकी हड़बड़ाहट देख हँस कर बोला, ‘कितनी जल्दी से जल्दी गोरी होना चाहती हैं आप?’

काजल कुछ लजा गई उसे अपनी गलती का एहसास हुआ, कुछ बोल नहीं सकी,दुकानदार कुछ ज्यादा ही बातूनी था,बोला, “ऐसा है मैडम क्रीम तो बहुत-सी है,पर सबमें केमिकल हैं, उनसे स्किन खराब ही होती है, वैसे आप गोरी क्यों होना चाहती हैं, आप साँवली जरूर हैं, पर आपके फीचर्स कितने शार्प है... आप तो वैसे ही सुंदर लगती हैं”

किसी से पहली बार काजल ने अपनी प्रशंसा सुनी थी,अजीब सा लगा उसने ध्यान से देखा युवक की आँखों में ईमानदारी दिखी। दुकानदार बोला, ‘ओह, मैं कुछ ज्यादा ही बोल गया, समझ गया कोई देखने-वेखने का चक्कर होगा...एक मिनट रुकिए मैं देता हूँ बढ़िया-सी क्रीम आपको..

थैंक्यू लेनी नहीं है क्रीम’ ...कहती हुई वह तेजी से दुकान से बाहर आ गई। दुकानदार उसे आवाज देता रह गया उसने पलट कर नहीं देखा, उसने कोई क्रीम तो नहीं ली, पर उस दुकानदार की छवि अपने दिल मे ले आई, घर मे आकर बहुत देर खुद को दर्पण में देखती रही, कानों में वे शब्द गूँजते रहे.आप साँवली जरूर है....आप तो वैसे ही सुंदर लगती हैं....’ 

अलीगढ़ वाले आए भी चले भी गए,नतीजा वही रहा..उसे पसन्द किया भी गया,नहीं भी किया गया...बात दहेज़ पर अटक गई थी..फिर ढेर से ताने  मिले उसे,अब उसने फैसला किया कि वह आगे पढ़ेगी, अपनी पढ़ाई के खर्च के लिए उसने दो बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना भी शुरू कर दिया, इसका भी घर मे विरोध हुआ पर उसे विरोध सहने की आदत सी हो गई थी।

      जब भी वह ट्यूशन के लिए निकलती, उस जनरल स्टोर की ओर उसकी आँखे उठ जातीं, कभी-कभी वह युवक दिखता और मुस्करा देता,वह भी नजरें झुका कर आगे बढ़ जाती बस।कभी कभी किसी सामान लेने के बहाने वह उस जनरल स्टोर पर ही रुकती, उस युवक का नाम अमित था..बातों बातों में कब उसने अमित के सामने अपने सुख-दुख उड़ेल दिए, और अमित ने भी कब अपने घर परिवार के बारे में बता दिया उसे पता ही नहीं चला....दोनो कब एक दूसरे की भावनात्मक जरूरत बन गए वे लोग स्वयं नहीं जान पाए ,फिर व्हाट्सएप पर संदेशों का आदान-प्रदान शुरू हो गया,काजल जब भी कोई दुःख भरी बात करती  अमित का  प्रेरक सन्देश उसका हौसला बढ़ा देता, अमित के  सन्देशों से वह जीवन जीना सीखने लगी, उसके अनेक सन्देश उसे याद हो गए थे जैसे – ‘अपनी लड़ाई खुद लड़ना सीखिए...

सौभाग्य आता नहीं लाया जाता है,’

दीपावली पर दीये अपने आप नहीं जलते, उन्हें जलाया जाता है तब अंधेरा दूर होता है

भाग्य के भरोसे अपना जीवन मत लुटाइये, संघर्ष करके दुर्भाग्य को दूर करिए...

आप घर से ही बाहर नहीं निकलिए, अपने अंधेरों से भी बाहर निकलिए।’....

आप कहीं सर्विस कर लीजिए, आर्थिक ताकत आपमें आत्मविश्वास भरेगा।’....

अपनी जिंदगी खुद बनाइये...किसी की परवाह मत करिए।’...

केवल ज्ञान ही है जो सदा साथ देता है’...

....ऐसे ही न जाने कितने सन्देश रोज आते और उसके अंतस में उत्साह भर जाते, अब वह घर वालों की गलत बातों का प्रतिरोध भी करने लगी थी, शीघ्र ही उसे एक प्राइवेट स्कूल में सर्विस मिल गई, छह महीनों में ही वह आत्मविश्वास से भरने लगी... उसे लगने लगा सचमुच प्रेम में बड़ी ताकत होती है, अमित ने उसके जीवन की दिशा ही बदल दी थी...उसके सपनों को पंख लगने लगे थे वह अमित के साथ जीवन के नए सपने बुनने लगी थी.....पर एक दिन फिर घर मे कोहराम मच गया।

वह स्कूल से आकर बाथरूम मुँह धोने चली गई, तभी व्हाट्सएप पर अमित का मैसेज चमका... आज मैं बहुत बिजी था आपको स्माइल भी नहीं दे सका सॉरी.. पर आप पिंक सूट में बहुत अच्छी लग रही थीं...उसके नीचे प्रेम वाली इमोजी थीं...भाभी वहीं बैठी थीं,बस फिर क्या था उसे कठघरे में खड़ा कर दिया गया,ढेर से प्रश्नों ने उसे घेर लिया..अंततःउसने चीख कर कहा – ‘हाँ, मैं अमित से प्रेम करती हूँ उसी से शादी करूँगी...

...फिर क्या था घर मे भूचाल आ गया... एक बार फिर महाभारत शुरू हुआ। जाति के झगड़े, परिवार की मर्यादा, ऊँच-नीच के प्रश्न, नैतिकता-धर्म की दुहाई भाँति-भाँति से काजल को समझाया गया, धमकाया गया...जब उस पर किसी अस्त्र का प्रभाव नहीं हुआ, तो उसे बाहर न जाने की सख्त हिदायत दे दी गई...काजल ने तिक्त स्वर में कहा-मैं तो करमजली हूँ, सब पर बोझ हूँ,फिर क्यों आप सब परेशान हो रहे हैं,आप लोग तो मेरी शादी कर नहीं पाए, मैं कर रही हूँ तो आपको कुल मर्यादाएँ ध्यान आ रही हैं...और हाँ, आप लोग समझ लीजिए मैं बालिग हूँ कानूनन आप मुझे नहीं रोक सकते...

कई दिनों तक घर मे तनातनी चलती रही,आखिर घर वालों ने हथियार डाल दिए

काजल को अमित की संगिनी बनने से कोई नहीं रोक पाया...

...अब वह करमजली नहीं, अपशकुनी नहीं किसी घर की भाग्यलक्ष्मी है...

अचानक उसके ठीक पीछे कोई पटाखा फटा वह चौंक गई देखा अमित खड़े मुस्करा रहे थे उन्होंने ही पटाखा चला कर उसका ध्यान भंग किया था...किसके  सपनों में खोई हो काजल..वे मुस्करा रहे थे ...सब नीचे तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं।..कहते हुए अमित ने उसकी हथेली अपने हाथों में ले ली और नीचे की ओर बढ़ने लगे.... ‘सोच रही हूँ आज मम्मी पापा अपनी इस करमजली के भाग्य को देखते...’ उसने ठंडी साँस भरी।

अमित मुस्कराए, उन्होंने कुछ कहा, पर क्या कहा पटाखों के शोर में काजल ने कुछ नहीं सुना, वे उसी प्रकार हाथ थामें हुए उसे नीचे आँगन तक ले आए, अचानक कॉल बेल बजी, अमित ने द्वार खोले तो काजल हतप्रभ रह गई, सामने  दीपावली के उपहारों को लिए हुए मम्मी-पापा, भैया-भाभी खड़े मुस्करा रहे थे, वह कुछ क्षणों उन्हें देखती रही फिर दौड़ कर उन लोगों से लिपट गई, तभी अमित ने दो फुलझड़ियाँ जला दीं, सारा वातावरण रोशनी के फूलों से भर गया, काजल को लगा आज उससे अधिक सौभाग्यवाली और कोई नहीं है।



 

डॉ. शिवजी श्रीवास्तव

सेवानिवृत्त एसोशिएट प्रोफेसर

श्री चित्रगुप्त पी.जी.कॉलेज

मैनपुरी(उ.प्र.)-205001

अप्रैल 2024, अंक 46

  शब्द-सृष्टि अप्रैल 202 4, अंक 46 आपके समक्ष कुछ नयेपन के साथ... खण्ड -1 अंबेडकर जयंती के अवसर पर विशेष....... विचार बिंदु – डॉ. अंबेडक...