सोमवार, 31 जुलाई 2023

जुलाई – 2023, अंक – 37

 


शब्द-सृष्टि  

जुलाई – 2023, अंक – 37

प्रेमचंद जयंती के अवसर पर....

प्रेमचंद विशेषांक


परामर्शक की कलम से.... – प्रो. हसमुख परमार

एक पत्र प्रेमचंद के नाम – डॉ. पूर्वा शर्मा

विचारोक्तियाँ –‘गोदान’ से.. – डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा

आलेख – इक्कीसवीं सदी में प्रेमचंद की ज़रूरत – प्रो. पुनीत बिसारिया

बाल कविता – दो बैलों की कथा(काव्य रूपांतर) – डॉ. ऋषभदेव शर्मा

आलेख – प्रेमचंद का शिक्षा विमर्श – डॉ. मंजु शर्मा

संस्मरण – प्रेमचंद : एक संस्मरण – हरिवंश राय बच्चन

कविता – हिंदी का हिमालय (मुंशी प्रेमचंद) – गोपाल जी त्रिपाठी

लघुकथा – असली हामिद – डॉ. ऋषभदेव शर्मा

आलेख – प्रेमचंद की स्त्री दृष्टि – डॉ. सुषमा देवी

कविता – मालिनी त्रिवेदी पाठक

आलेख – प्रेमचंद की कहानियों में अभिव्यक्त सामाजिक चेतना – डॉ. बिनु डी.

कविता – प्रेमचंद... – कवि योगेन्द्र पांडेय

आलेख – प्रेमचंद के साहित्य से गुजरते हुए...... – अनिता मंडा

कविता – प्रेम की कलम – रूपल उपाध्याय

छाया चित्र – प्रेमचंद और उनकी लमही


पत्र

एक पत्र प्रेमचंद के नाम....

डॉ. पूर्वा शर्मा

सम्माननीय प्रेमचंद जी,

जय हिन्द! जय हिन्दी!

कुशल हूँ! कुशल ही होंगे!

आई है आज मंगल घड़ी, सम्पूर्ण साहित्य जगत झूमकर गुनगुनाने लगा – सोहर।

हृदयतल से आपको जन्मदिवस की अशेष शुभकामनाएँ!

भारत की इस पावन भूमि पर आपको अवतरित हुए आज पूरे एक सौ तैंतालीस वर्षों की दीर्घावधि पूर्ण हुई और आपको इस लोक को अलविदा कह ब्रह्मलीन हुए पूरे सत्तासी साल। मुझे लगता है कि आप लोगों के लिए सम्मानीय तो है ही लेकिन उससे कहीं ज्यादा आप लोगों के चहीते हैं, जिसे हर-दिल-अज़ीज़ भी कहा जाता है। इतने वर्षों के बाद भी बच्चे-बूढ़े सभी आपके नाम से न सिर्फ़ परिचित हैं बल्कि आपके साहित्य के दीवाने हैं। मैं भली-भाँति जानती हूँ कि आपके अवतरण एवं आपके निर्वाण के समय की प्रत्यक्षदर्शी होना तो मेरे बस की बात नहीं है किंतु आपको पढ़ना, आपको गुनना और आपको जीना तो पूरी तरह से मेरे बस में है। वैसे देखा जाए तो यह कार्य एक तरफ जहाँ मेरी आवश्यकता है, मेरा दायित्व है वहाँ दूसरी ओर मेरा शौक भी। मेरे लिए आप जितने पूजनीय है, उससे कहीं ज्यादा पठनीय है। ‘साहित्यकार को पूजने से ज्यादा पढ़ना है’ – में मेरा विश्वास है।

आपका लेखन_ आपके समकाल को, उस समय के समाज को, उस समाज की स्थितियों को बिल्कुल साफ-सुथरे रूप में प्रतिबिंबित करता है। यह कहा जाता है कि कोई भी सर्जक एवं उसका सृजन अंततोगत्वा उसके युग की ही उपज होता है। इस लिहाज़ से आप पूर्ण रूप से सफल रहे। इस सच्चाई के साथ इस सत्य को कैसे भूलूँ कि कतिपय ऐसे विरले साहित्यकार भी होते हैं जो अपनी सोच, संवेदना, मूल्यनिष्ठता, आदर्शवादिता, मनुष्यता, दूरदर्शिता आदि के चलते आने वाले समय में, वर्षों तक.... सदियों तक.... अपनी प्रासंगिकता को बनाये रखते हैं। ऐसे सर्जकों की सूची में आपका नाम आज पहले लिया जाता है।

आठ-नौ दशकों के बाद, आज प्रेमचंद जी आप कहाँ तक और किस रूप में प्रासंगिक है? इस प्रश्न पर जब मैं विचार करती हूँ, साथ ही इस विषय में अन्य अध्येताओं के विचारों से गुजरती हूँ तो अनेकानेक संदर्भ स्पष्ट होते दिखाई देते हैं। मसलन, प्रेमचंद साहित्य में वर्णित समाज की अनेकों सच्चाइयाँ सांप्रत समय-समाज में भी उपस्थित है; कहते हैं कि साहित्य हमारे जीवन को माँजता है, जीवन को उजला करता है, दुःख-दर्द-पीड़ा में बल देता है, संघर्ष हेतु हमें हिम्मत देता है, शोषण के सामने आवाज उठाने की ताकत देता है – यही तो साहित्य की सामाजिक उपादेयता है – प्रेमचंद जी आप इस मामले में हमारे साथ खड़े हैं, इक्कीसवीं सदी के हमारे हिन्दी कथासाहित्य की अनेक प्रवृत्तियों व प्रयोगों में, विविध विमर्शो की व्याख्या व विवेचन में भी प्रेमचंद जी आपकी छाया दिखाई देती है; साहित्यिक पत्रकारिता के विकास के वर्तमान दौर में पत्रकारिता के प्रति आपकी प्रतिबद्धता व समर्पिता कई लोगों का आदर्श बना हुआ है ; (आपका नीर-क्षीर विवेकी हंसआज भी बड़ी सहजता से साहित्य सरोवर में विहार कर रहा है) आज  शोध-समीक्षा में सर्जक, सृजन, विधाएँ, विमर्श, प्रवृत्तियाँ प्रभृति की दृष्टि से आज के संपन्न व समृद्ध हिन्दी कथा साहित्य के बावजूद  प्रेमचंद जी आपका स्थान और महत्व पूर्ववत बना रहा है; प्रेमचंद के पथ पर, उनके पद‌चिह्नों पर चलना आज असंख्य कथाकारों के लिए गौरव एवं सौभाग्य की बात है।

मेरे कहने का आशय है कि आप आज भी हमारे हमसफर बने रहे हैं और आने वाले समय में भी यह संभव है। परंतु मैं इस तथ्य से भी अनभिज्ञ नहीं हूँ, और पत्र में पहले बताया भी है कि सर्जक विशेषत: अपने युग की उपज होता है, अत: बीते हुए समय के किसी साहित्यकार का वर्तमान में शत-प्रतिशत प्रासंगिक होना संभव नहीं। समय की गति बड़ी तेज होती है। परिवर्तन के प्रभाव से कुछ भी अछूता नहीं है। ऐसे में अतीत के किसी सर्जक का तथा उनकी साहित्यिक रचनाओं का मौजूदा वक्त के बिल्कुल अनुकूल होना, परिवेश से पूरी तरह संबद्ध होना, मुश्किल है। ऐसे में आपकी प्रासंगिकता को देखते हुए, मानते हुए भी यह कहना अनुचित नहीं होगा कि आप जिस सोच, संवेदना व सरोकारों के सर्जक थे, वह साहित्यिक व्यक्तित्व यदि आज होता तो निश्चित रूप से आपकी लेखनी की धार, उसके तेवर, उसकी प्रकृति कुछ और ही होती क्योंकि आज 20 वीं शताब्दी के प्रारंभिक तीन-चार दशकों का भारत नहीं है, आज़ादी पूर्व का परतंत्र भारत नहीं है। आज 21 वीं शताब्दी के प्रारंभिक दशकों का भारत है, स्वतंत्र भारत है।

आज जिस समय को हम जी रहे हैं, जिस समाज में हम रह रहे हैं, इसमें हमारे साथ यदि आप होते तो इस बात को लेकर मेरे मन में रह-रहे कर कुछ जिज्ञासाएँ-कुछ प्रश्न उठते हैं। अनेक विचार बिंदु मेरे मन को मथ रहे हैं। परिणामत: अनेकों प्रश्नों-जिज्ञासाओं-अनुमानों-कल्पनाओं अमूर्त विषयों के संग इस समय मैं आपको देख रही हूँ। इस पत्र के ज़रिए तत्संबंधी कुछेक बातें आपसे साझा कर रही हूँ –

·      इक्कीसवीं सदी का भारत मतलब कि भूमंडलीकरण से प्रभावित भारत। हमारे कई तरह के व्यवहार में- आचरण में कम-ज्यादा मात्रा में इस वैश्विकरण के प्रभाव-कुप्रभाव को बखूबी देखा जा सकता है। बेशक इस स्थिति में आपके लेखन की विषय वस्तु में विस्तार व वैविध्य होता।

·      गाँव, शहर, किसान, मजदूर, स्त्री, दलित, बाल जीवन, भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता आदि में आपके समय की तुलना में आज काफी कुछ परिवर्तन परिलक्षित होता है। ऐसे में प्रेमचंद जी आपकी कलम से होरी, धनिया, निर्मला, ठाकुर का कुआँ, हामिद, घीसु , माधव, सिलिया चमारिन, सूरदास, कर्मभूमि, सेवासदन आदि-आदि के नये संशोधित संस्करण अवश्यंभावी है।

·      आप ठहरे समाज का सिंहावलोकन करने वाले लेखक सो आपकी यथार्थधर्मिता में समाज के, जीवन के न जाने कितने आयाम, कितनी गहराई से, कितनी संजीदगी से आते, जिसकी कल्पना करना भी  मुश्किल है।

·      जिज्ञासा यह भी कि आज साहित्य जगत में स्त्री-दलित-कृषक-आदिवासी-अल्पसंख्यक-किन्नर-बाल-वृद्ध इत्यादि से संबंधित विमर्श केंद्र में रहे हैं। अनेक साहित्यकार आज इन विमर्शों में से किसी न किसी विमर्श से जुड़कर लेखन में सक्रिय है। इस तरह के माहौल में यदि आप होते तो क्या किसी विमर्श विशेष से जुड़ जाते ? जबकि आप अपने कथासाहित्य में ये विमर्श जिन विषयों से संबद्ध है, उस पर लिख चुके हैं। सवाल पुन: क्या आप विमर्शो से बंध जाते? अपने ऊपर किसी विशेष विमर्श का लेबल लगा लेते ? या फिर इन विमर्शो के खानों में बंद हुए बगैर एक समाजशास्त्री की तरह, एक समाजसुधारक की भाँति, एक जिम्मेदार लेखक की हैसियत से इन विमर्शो को कैसे देखते ?

·      एक लेखक के रूप में आपकी और आपके लेखन की जो प्रकृति रही और इसी वजह से आप अपने समय के हिन्दी कथासाहित्य के पुरोधा थे और आज भी हिन्दी कथासाहित्य पुरोधा ही है और यदि आज पुनः आपके लेखक का जन्म होता है तो आपकी केन्द्रीयता पूर्ववत् ही रहती।

·      मुझे लगता है कि प्रेमचंद जी आपकी जरूरत जितनी आपके समय में थी उससे कहीं ज्यादा जरूरत आज है। क्योंकि समाज के जिस कटु  सत्य को आपने बताया, मनुष्य जीवन के जिन प्राण प्रश्नों को उकेरा, ऐसे लेखक हमें आज भी चाहिए। वैसे भी लगता है कि सदी बदली है, समय बदला है, पर स्थितियाँ, समस्याएँ, शोषण, शोषण के आयाम, शोषण के साधन ने तो महज रूप बदला है। ऐसे में प्रेमचंद जी आपकी जरूरत  आज भी है।

·      प्रेमचंद जी, हम सिर्फ आपको ही नहीं परंतु आपके साथ शिवराजी देवी को भी चाहते हैं क्योंकि  आपके लेखन से तो आपके साहित्यिक व्यक्तित्व से ज्ञात होंगे ही पर आप घर-परिवार, निजी जीवन में क्या है? कैसे है? ये तो हमें शिवरानी देवी ही ‘प्रेमचंद घर में’ के माध्यम से बताएँगी।

·      माना कि यह महज एक कल्पना है, अनुमान है, अमूर्त है पर सच्चाई यह है कि मानवतावादी, प्रगतिवादी, यथार्थवादी साथ ही साहित्यकार की ईमानदारी-निष्ठा व प्रतिबद्धता वाले प्रेमचंद जैसे लेखक  हर देशकाल की माँग हो सकते हैं। जानती हूँ हिन्दी जगत में पुनः प्रेमचंद जी आपका आगमन संभव नहीं है – पर प्रेमचंद लेवल के लेखक की कामना हिन्दी जगत सदैव करेगा।

 

धन्यवाद!

आपकी पाठक

पूर्वा


डॉ. पूर्वा शर्मा

वड़ोदरा 






आलेख

 



इक्कीसवीं सदी में प्रेमचंद की ज़रूरत

प्रो. पुनीत बिसारिया

            प्रेमचंद को पढ़ना उन चुनौतियों को प्रत्यक्ष अनुभूत करना है, जिन्हें भारतीय समाज बीते काफी समय से झेलता आया है और आज भी उन चुनौतियों का हल नहीं ढूँढ पाया है। दलित, स्त्री, मजदूर, किसान, ऋणग्रस्तता, रिश्वतखोरी, विधवाएँ, बेमेल विवाह, धार्मिक पाखण्ड, मानव मूल्यों की दरकन, जेनरेशन गैप, ग्रामीण जीवन की सहजता के मुकाबले नगरीय जीवन की स्वार्थ लोलुपता आदि ऐसे ही यक्षप्रश्न हैं। आज प्रेमचंद को गए पूरे सत्तासी वर्ष बीत गए हैं, लेकिन उनके द्वारा साहित्य में वर्णित चुनौतियाँ इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के पूर्वार्द्ध में अपना चोला बदलकर और अधिक गम्भीर चुनौतियों के साथ हमसे रूबरू हैं। उदाहरण के लिए – गोदान के गोबर और पण्डित मातादीन आज भी आपको गाँवों में घूमते मिल जाएँगे। यदि हम उनकी अमर कहानी कफन को ध्यानपूर्वक देखें तो पाएँगे कि यह कथा मात्र घीसू-माधव की काहिलता को ही बयान नहीं करती, अपितु इसमें स्त्री शोषण, पेट की आग शान्त करने के लिए आदमी का रिश्तों को तार-तार कर देना तथा गरीब का दुख में भी सुख की खोज करने का प्रयत्न जैसे आयाम स्वतः ही देखे जा सकते हैं। इसी प्रकार मंत्र कहानी में डॉक्टर साहब की संवेदनहीनता और बूढ़े अपढ़ ग्रामीण की निश्छल परोपकारिता सहज ही मन को रससिक्त कर देती है|

            अब प्रश्न यह उठता है कि क्या आज इक्कीसवीं सदी में प्रेमचंद की वाकई हमें ज़रूरत है? ऐसे ही प्रश्न गाँधीजी की प्रासंगिकता को लेकर भी अक्सर उठाए जाते रहे हैं| आज कुछ लोग प्रेमचंद की प्रासंगिकता को सवालों के घेरे में खड़ा करने लगे हैं और उन पर तथा उनकी रचनाओं पर मिथ्या दोषारोपण करने लगे हैं।

            प्रेमचंद को समझने के लिए हमें देश के सामाजिक तन्तुओं की जटिलता का अवलोकन करना होगा, जिनके आसपास से उन्होंने अपनी कहानियाँ बुनी हैं। इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के बीत जाने के बावजूद ये जटिलताएँ कम नहीं हुई हैं, बल्कि इनमें हो रहे उभार का प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है। प्रेमचंद सन् 1910 से 1936 के बीच के अपने रचनाकाल में भारतीय समाज में किसानी को दोयम दर्जे का काम समझे जाने को रेखांकित कर रहे थे और मजदूरी को उससे बेहतर समझे जाने की मानसिकता दिखा रहे थे। पूस की रात का हल्कू तथा गोदान का गोबर इसी मानसिकता में डूब-उतरा रहे थे। क्या आज भी गोबर जैसे युवा नहीं हैं, जो किसानी को हेय समझते हुए घर-बार, गाँव जवार यहाँ तक कि अपना देस तक छोड़कर मोटे पैकेज के लालच में फ़ैक्ट्री (इक्कीसवीं सदी में इसे बहुराष्ट्रीय कम्पनी पढ़ें) में काम करना नहीं पसंद कर रहे हैं? क्या आज भी युवाओं का इन तथाकथित फ़ैक्ट्रियों में शोषण नहीं हो रहा है? क्या क्रेडिट कार्ड और प्लास्टिक मनी के इस युग में गबन का नायक अपनी पत्नी जालपा के मोह में पड़़कर आज भी ऋण जाल में फँसने को अभिशप्त नहीं है? ‘महाजनी सभ्यता‘ निबन्ध में भी वे इस ओर बार-बार संकेत करते हैं। मंत्र के स्वार्थी और संवेदनहीन डॉक्टर साहब आपको हर गली-कूचे में मिल जाएँगे। आज भी दलित ‘सद्गति‘ के लिए अभिशप्त हैं और आज दलित कितने ही महत्त्वपूर्ण क्यों न हो गए हों, ‘ठाकुर का कुआँ’ आज भी उनके लिए ‘मृगतृष्णा‘ ही है। आज जिस प्रकार विदर्भ और बुंदेलखण्ड के किसान आत्महत्या करने को विवश हैं, उसकी बानगी वे ‘बलिदान’ कहानी में दे चुके थे। उस समय भूमाफिया आज की भाँति सशक्त भले न रहा हो, लेकिन इस कहानी के तुलसी और मंगल आज के भूमाफियाओं का स्मरण कराने के लिए पर्याप्त हैं। क्या ‘जिहाद’ कहानी आज तक लगातार घटित नहीं हो रही है? यदि ये नगर की तुलना में ग्रामों के निश्छल जीवन की झाँकी प्रेमचंद ने प्रायः अधिकांश रचनाओं में दिखाई है। वास्तव में ग्रामों का चित्रण करने में उनका मन अधिक रमा है। इक्कीसवीं सदी में आज गाँव कितने ही बदल गए हों, लेकिन गाँवों की यह निश्छलता आज भी कहीं न कहीं बरकरार है।

            प्रेमचंद को भारतीय समाज के दाम्पत्य जीवन की विविधताओं की गहरी परख थी। होरी-धनिया के बहाने वे अभावग्रस्त दाम्पत्य में निहित प्रेमांकुरों का सुन्दर वर्णन कर जाते हैं। होरी धनिया को गुस्से में आकर मारता-पीटता है, तो थोड़ी देर बाद ही उसे पश्चाताप का भी अनुभव होता है। यहीं आकर पुनः प्रेम सम्बन्ध ऊष्मायित हो जाते हैं। इसके ठीक विपरीत वे ‘कफन’ कहानी में स्वार्थ की पराकाष्ठा का वर्णन उतनी ही सहजता से कर जाते हैं।घीसू और माधव का प्रसव के दर्द से कराहती बुधिया के पास इस कारण से न जाना कि एक यदि चला गया तो दूसरा उसके आलुओं पर हाथ साफ कर जाएगा, अपने पेट की आग शान्त करने के लिए मनुष्यता को भूल जाने की हद तक चले जाने का परिचायक है। उल्लेखनीय बात यह है कि प्रेमचंद ने कफन और गोदान दोनों को अपने जीवन के अन्तिम वर्ष अर्थात् सन् 1936 में लिखा था। ये दोनों रचनाएँ उनकी समाज पर पैनी नज़र की परिचायक हैं।

आज प्रेमचंद को गए पूरे सत्तासी वर्ष बीत जाने के बावजूद भारतीय समाज की समस्याओं में परिवर्तन न आना या तो प्रेमचंद की सामाजिक संवेदनाओं की नब्ज़् पर गहरी पकड़ का परिचायक है या फिर विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाने के बावजूद भारत के कर्णधारों द्वारा देश की वास्तविक समस्याओं के प्रति संवेदनहीनता का परिचायक है। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम प्रेमचंद के पात्रों की समस्याओं को अपने समाज से विमुक्त करने का प्रयास करें और तब शायद हम सिर उठाकर कह सकेंगे कि हमने वास्तविक आज़ादी हासिल कर ली है।

 


प्रो. पुनीत बिसारिया

आचार्य एवं पूर्व अध्यक्ष-हिन्दी विभाग,

बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय

झाँसी (उत्तर प्रदेश)

आलेख

 


प्रेमचंद का शिक्षा विमर्श

डॉ. मंजु शर्मा

समाज को व्यवस्थित,  सुचारु रूप से चलाने तथा उसके विकास के लिए शिक्षा सशक्त साधन है। शिक्षा छुआछूत से दूर, जात-पाँत का खंडन करती है । इसके अभाव में मानवीय मूल्यों की कल्पना भी नहीं की जा सकती। अर्थात् समाज एवं देश की रीढ़ होती है, शिक्षा ।

प्रेमचंद जी ने शिक्षा व्यवस्था को बहुत करीब से जाना था, और उसके नकारात्मक  रूप पर टिप्पणियाँ की। वे शिक्षक, हेडमास्टर तथा डिप्टी थे। उन्होंने केवल कक्षा-कक्ष की परिधि में दी जाने वाली शिक्षा को, शिक्षा का संकीर्ण रूप माना। उनका मानना था कि शिक्षा वही है जो ‘समझ’ को विकसित करे। प्रेमचंद की कहानियों में वर्ग संघर्ष पर कुठाराघात किया गया है।

वे एक आदर्श अध्यापक थे ।

उनकी कहानी ‘बड़े भाई साहब’ 1934 में लिखी गई थी । इसमें पश्चिमी शिक्षा नीति पर व्यंग्य किया गया है। विद्यार्थियों पर पढ़ाई के अनावश्यक बोझ पर भी चोट की है। प्रेमचंद बोझ बनती शिक्षा के विरुद्ध थे। उनकी दृष्टि में शिक्षा जीवन को सँवारने, सामाजिक कुरितियों को दूर करने वाली होनी चाहिए। यहाँ शिक्षा पद्धति के दोषों का पर्दाफाश किया गया है जो बच्चों को किताबी कीड़ा बना देती है। किताबी ज्ञान जहाँ कूप मंडूक बनाता है वहाँ अनुभवी और व्यवहारिक ज्ञान जीवन की हर परिस्थिति का सामना करने में सक्षम बनाता है। लेखक कहते हैं जीवन की समझ ‘अनुभवी ज्ञान’ से आती है।

आज ‘नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ में शिक्षा व्यवस्था में जिन सुधारों पर बल दिया गया है, प्रेमचंद  साहित्य में इनकी\पहले ही दलील दी जा चुकी है। रटन पद्धति, मानवीय कुशलता, जीव-जंतु प्रेम, नैतिक शिक्षा आदि को महत्व दिया गया है। शिक्षा में खेल को स्थान देने से ही बालक का सर्वांगीण विकास होता है। यह भी बड़े भाई साहब कहानी में रेखांकित किया गया है। उन्होंने कहा था “बागवानी, खेलकूद, क्ले-मॉडलिंग, कसरत, वाद-विवाद जैसे विषयों की  भी परीक्षा की वेदी पर बलि चढ़ा दी गई है।” आज वर्तमान शिक्षा प्रणाली में जिस सुधार की बातें हो रही है, इसकी पहल प्रेमचंद जी ने सौ साल पहले ही कर  दी थी । शिक्षा मानव जीवन की महत्वपूर्ण इकाई है। शिक्षण में छात्रों पर पड़ने वाले अनावश्यक बोझ, रट्टन पद्धति उन्हें कतई पसंद नहीं थी ।

“बादशाहों के नाम याद रखना आसान नहीं। आठ-आठ हेनरी ही गुज़रे हैं। कौन-सा कांड किस हेनरी के समय हुआ, क्या यह याद कर लेना आसान समझते हो? हेनरी सातवें की जगह हेनरी आठवाँ लिखा और सब नंबर ग़ायब! सफाचट। सिफ़र भी न मिलेगा, सिफ़र भी! हो किस ख़याल में! दरजनों तो जेम्स हुए हैं, दरजनों विलियम, कोड़ियों चार्ल्स! दिमाग़ चक्कर खाने लगता है। आँधी रोग हो जाता है। इन अभागों को नाम भी न जुड़ते थे। एक ही नाम के पीछे दोयम, सोयम, चहारुम, पंजुम लगाते चले गए। मुझसे पूछते, तो दस लाख नाम बता देता। और जामेट्री तो बस ख़ुदा की पनाह! अ ब ज की जगह अ ज ब लिख दिया और सारे नंबर कट गए। कोई इन निर्दयी मुम्तहिनों से नहीं पूछता कि आख़िर अ ब ज और अ ज ब में क्या फ़र्क़ है और व्यर्थ की बात के लिए क्यों छात्रों का ख़ून करते हो। दाल-भात-रोटी खार्इ या भात-दाल-रोटी खाई, इसमें क्या रखा है; मगर इन परीक्षकों को क्या परवाह! वह तो वही देखते हैं, जो पुस्तक में लिखा है। चाहते हैं कि लड़के अक्षर-अक्षर रट डालें। और इसी रटंत का नाम शिक्षा रख छोड़ा है और आख़िर इन बे-सिर-पैर की बातों के पढ़ने से क्या फ़ायदा।”

छात्रों की स्थिति को लेकर प्रेमचंद जी ने शिक्षा प्रणाली तथा अध्यापकों को जिम्मेदार ठहराया । ‘परीक्षा’ कहानी शिक्षा केवल  डिग्रियों की संख्या बढ़ाने में विश्वास रखने  वालों की पोल खोलती है। इस कहानी के माध्यम से प्रेमचंद जी कहना चाहते हैं कि मनुष्य की असली पहचान व्यक्ति में निहित परोपकारी भाव, उदार एवं उच्च चरित्र से होती है। तभी समाज में पृथक पहचान बन सकती है।  किताबों तथा कक्षा-कक्ष की चारदीवारी से बाहर जीव-जंतुओं के प्रति प्रेम और संवेदनाएँ उत्पन्न करे, वह शिक्षा होती है।

एक तरफ ‘दो बैलों की कथा’ कहानी  मुक्ति के लिए संघर्ष आवश्यक है लेकिन संघर्ष में विचलित हुए बिना नैतिक धर्म पर अडिग रहना सिखाती है । जैव-विविधता को साकार करने के लिए ऐसी रचनाएँ प्राण फूँकती है । दूसरी तरफ स्वाधीनता में बाधक बनने वाली स्थितियों एवं व्यक्तियों के प्रति आक्रोश व्यक्त करती है। इसमें पशुओं के प्रति आत्मीयता और मित्रता का चित्रण है।

प्रेमचंद साहित्यकार और पत्रकार होने से पहले एक सजग अध्यापक थे। यही कारण है कि संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था की रग-रग से वाकिफ़ थे। शिक्षा का अभाव समाज से दूर ले जाता है। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो व्यक्ति को उसके परिवेश से जोड़े । समाज की व्यवस्था में सुधार लाने के लिए अध्यापक, हमेशा तत्पर रहता है। मानवतावादी दृष्टिकोण  के कारण प्रेमचंद साहित्य में समाज का हर वर्ग संवेदनाओं के साथ खड़ा है।

आधुनिक युग में मनुष्य विकास तो कर रहा है किंतु अपनत्व पीछे छूट रहा है। ‘मंत्र’ कहानी शिक्षित और साक्षर के भेद को स्पष्ट करती है। ‘बोध’ कहानी में प्रेमचंद  की आर्थिक जर्जरता , जो सामान्य रूप से  एक अध्यापक की होती है दर्शाया है,  किंतु जीत मूल्यों की होती है यह भी रेखांकित किया है ।

उपन्यास सम्राट  प्रेमचंद बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे।  कलम के सिपाही  ‘प्रेमचंद’ ने  ‘कलम’ की ताकत से समाज को नई दिशा दी। समाज में व्याप्त  कुप्रथाओं, रूढ़ियों, दलित, जातिगत भेद आदि समस्याओं पर कुठाराघात किया। देश परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा था उसी समय प्रेमचंद ने न केवल ब्रिटिश सत्ता का विरोध  किया बल्कि  समाज को खोखला करती  परंपराओं को भी   खत्म करने का  बीड़ा उठाया। प्रेमचंद का अध्यापकीय  मन  रूढ़ियों का खंडन करने के पक्ष में होने के बावजूद आदर्श की चौकठ  नहीं लाँघता।  ब्रिटिश सत्ता के दमन और अत्याचार से त्रस्त समाज में प्रेमचंद ने लोगों को यथार्थ बोध करवाया किंतु आदर्श को नहीं छोड़ा यह भारतीय संस्कार हैं।

राष्ट्र भक्ति की मशाल लिए युवाओं का मार्गदर्शन किया। उनके कथानक की जमीन पर चाहे  मालती मेहता (गोदान) हो, कर्मभूमि के अमरकांत- सुखदा हो,सभी राष्ट्रीय जागरण लाने की कोशिश करते हैं।

किसानों और स्त्रियों के प्रति हुए अन्याय को उपन्यास सम्राट प्रेमचंद ने अभिव्यक्ति दी। सामाजिक समस्याओं और रुढियों के विरुद्ध आवाज़  उठाकर समाज का मार्गदर्शन किया।

वे  देशभक्त थे, स्वदेशी आंदोलन से प्रभावित होकर इन्होंने सरकारी नौकरी तक छोड़ दी थी | कथाकार मुंशी प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में आम आदमी की व्यथा को अभिव्यक्त किया। यही कारण है कि  प्रेमचंद के विचारों की प्रासंगिकता 21 वीं सदी के आधुनिक समाज में भी बरकरार है ।

उनकी  कृतियाँ  भारत के सर्वाधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की कृतियाँ  हैं । उन्हें अपने जीवनकाल में ही  ‘उपन्यास सम्राट’ की पदवी मिल गई थी। सत्याग्रह आंदोलन जमींदारों, साहूकारों एवं पदाधिकारियों की समस्याओं के बारे में प्रेमचंद ने कई कहानियों में लिखा था। प्रेमचंद नाम से उनकी पहली कहानी ‘ बड़े घर की  बेटी’ ज़माना पत्रिका में छपी थी।  इस कहानी  में ‘आनंदी’ पात्र घर को बिखरने से बचाती है । यह वर्तमान पीढ़ी के लिए बड़ी सीख है। उन्होंने पारंपरिक मूल्य जो समाज की सेहत के लिए लाभकारी हों उसका बहिष्कार नहीं होने दिया।

प्रेमचंद  वर्तमान से कभी दूर नहीं गए। वे आजीवन ईमानदारी के साथ वर्तमान काल की अपनी वर्तमान अवस्था का विश्लेषण करते रहे। उन्होंने देखा कि बंधन समाज के भीतर है बाहर नहीं| प्रेमचंद का मानना था कि एक बार अगर किसान तथा गरीब यह अनुभव कर सकें कि संसार की कोई भी शक्ति उनको दबा नहीं सकती, तो वे निश्चय ही अजय हो जाएँगे ।

‘गोदान’ के अपने मौजी पात्र (मेहता ) से कहलवाते हैं, "मैं भूत की चिंता नहीं करता, भविष्य की परवाह नहीं करता; भविष्य की चिंता हमें कायर  बना देती है।  भूत का भार हमारी कमर तोड़ देता है ।  हम व्यर्थ का भार अपने ऊपर लादकर रूढ़ियों और विश्वासों तथा  इतिहासों के मलबे के नीचे दबे पड़े हैं। उठने का नाम ही नहीं लेते।" यह तार्किक सोच थी प्रेमचंद की।  इसी दृष्टिकोण से प्रेमचंद ने समाज को नई दिशा दी। प्रेमचंद सेवासदन से ही शिक्षा पर बल देते हैं ।

 

प्रेमचंद स्वदेशी आंदोलन से बहुत प्रभावित थे। इसका प्रभाव उनकी रचनाओं पर पड़ा। इन्होंने समाज को नया दृष्टिकोण दिया। 'सुभागी' कहानी में बेटी द्वारा पिता का अंतिम संस्कार करवा कर सदियों से चली आ रही परंपरा को तोड़ा और यह स्पष्ट किया कि ‘लड़की’ लड़कों से कम नहीं है। इस प्रकार प्रेमचंद जी ने समाज में रहकर समाज की बुराइयों पर कुठाराघात किया। गबन, सेवासदन, निर्मला आदि उपन्यासों में स्त्रियों की समस्याओं को न केवल उठाया बल्कि उनके जीवन को एक नई दिशा भी प्रदान की।

भारतीय समाज की आत्मा में बसे  इस मनीषी को भूलते जाना  साहित्य और समाज दोनों के लिए क्षति है ।

 

 


डॉ. मंजु शर्मा

अध्यक्ष , हिंदी विभाग

चिरेक इंटरनेशनल स्कूल

हैदराबाद

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

कविता




हिंदी का हिमालय (मुंशी प्रेमचंद)

गोपाल जी त्रिपाठी

यह दुनिया है ‘कर्मभूमि’ तुम ‘रंगभूमि’ ही समझ रहे ,

 ‘सवासेर गेंहूँ’ हराम था, किस ‘सद्गति’ में उलझ रहे!

 यह जीवन एक ‘प्रेमाश्रम’ है  ‘सेवा सदन’ न बन जाये,

‘प्रेम की वेदी’ पर कुर्बानी सिर पर पहन ‘कफन’ आये ।

 कितने भी ‘गोदान’ करो तुम, ‘कायाकल्प’ नहीं होगा;

 धनिया रो-रो मर जायेगी, साधन स्वल्प नहीं होगा ।

‘पूस की रात’ में होरी-झबरा ठिठुर -ठिठुर मर जायेंगे,

 गऊदान होगा जरूर पर कम्बल एक न पायेंगे ।

 ‘ठाकुर के कुएँ’ पर घुरहू का मुहाल पानी भरना,

 किये अगर विद्रोह नियत है ठाकुर के हाथों मरना ।

 ‘होनहार विरवान नहीं तो पात हुए कैसे चिकने’,

सामंतों के हाथ में अब तो ‘मिल मजदूर’ लगे बिकने !

‘परमेश्वर है पंच’ अगर तो ‘गबन’ नहीं हो पायेगा,

 छः पैसे लेकर हामिद भी ‘ईदगाह’ को जायेगा ।

 कामरान कादिर कल्लू कासिम मेले में जायेंगे,

 खेल-खिलौने और मिठाई लेकर मौज मनाएँगे ।

 दादी की आँखों का तारा चिमटा लेकर आयेगा,

 जलते हाथों प्यार मिलेगा खूब दुआएँ पायेगा ।

 ‘धनपत राय’ नवाब हो गया ‘चंद प्रेम’ की गाथा है,

 उर्दू का सिरमौर वही हिंदी का सागर माथा है ।

 जैसे पति परमेश्वर के बिन ‘मंगलसूत्र’अधूरा है,

 वैसे ही साहित्य गगन भी ‘मुंशी’ बिना न पूरा है ।।

              


गोपाल जी त्रिपाठी

हिंदी प्रवक्ता कवि और

साहित्यकार,सेंट जेवियर्स

स्कूल सलेमपुर ग्राम पोस्ट-

नूनखार,देवरिया उ०प्र०

अप्रैल 2024, अंक 46

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