शनिवार, 30 दिसंबर 2023

दिसंबर 2023, अंक 42

 शब्द-सृष्टि

दिसंबर 2023, अंक 42

स्मरणांजलि.... शब्दांजलि....

डॉ. सुधा गुप्ता विशेष


संपादकीय – एक साहित्यकार का जाना.... – डॉ. पूर्वा शर्मा

शब्दांजलि – शब्ददेह - यशः काय -‘न ममार न जीर्यति’ – प्रो. हसमुख परमार

आइए मिलते हैं...... – डॉ. सुधा गुप्ता (1934-2023) - एक नज़र : सफ़र-ए-ज़िंदगी

यादों के झरोखे से – कैसे भूलूँ वे स्नेहिल पल! – रमेश कुमार सोनी

सृजन के स्वर 

1. डॉ. सुधा गुप्ता - साहित्य जगत की एक सफल साधिका – ज्योत्स्ना प्रदीप

2. डॉ. सुधा गुप्ता और स्नेहरश्मि – साईनबानुं मोरावाला

कृति से गुजरते हुए

1. हाइगा आनंदिका (हाइगा-संग्रह) – डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा

2. एक पाती : सूरज के नाम (आत्मकथा)– डॉ. पूर्वा शर्मा

3. बीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और हिन्दी कविता– कुलदीप ‘आशकिरण’

4. खुशबू का सफ़र (हाइकु-संग्रह) – साईनबानुं मोरावाला

काव्यास्वादन

1. पत्थर – विमलकुमार चौधरी

2. ‘मनपसंद मौसम’ से ‘रिहाई’ – डॉ. पूर्वा शर्मा

सान्निध्य की फलश्रुति – डॉ. सुधा गुप्ता से पूर्वा शर्मा की बातचीत

सृजन स्मरण – डॉ. सुधा गुप्ता का रचना संसार – कुछेक अंश 

1. आत्मकथा-अंश (एक पाती : सूरज के नाम) 2. हाइबन (कर्मयोगी)

3.हाइकु, ताँका, सेदोका, चोका (1. बाती बोली यूँ 2. मावस भोली) और माहिया

4.क्षणिकाएँ, कविता (यात्रा)

5. आलोचना से.... 1.बीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और हिन्दी कविता 2. हिन्दी हाइकु, ताँका, सेदोका की विकास-यात्रा : एक परिशीलन

धरोहर 

• छायाचित्र

• हस्तलेख

• चिट्ठी-पत्री

• प्रकाशित ग्रंथ

काव्यांजलि – 1. चोका (उन्हें प्रणाम!) 2. हाइकु – डॉ. पूर्वा शर्मा






आइए मिलते हैं......

 


डॉ. सुधा गुप्ता

(1934-2023)

एक नज़र : सफ़र-ए-ज़िंदगी 

Ø     डॉ. सुधा गुप्ता का जन्म उत्तर प्रदेश के मेरठ नगर में, एक आर्य समाजी परिवार में अठारह मई, उन्नीस सौ चौंतीस को हुआ था। डॉ. सुधा गुप्ता की माता श्रीमती सुमति देवी तथा पिता का नाम श्री विश्वम्भर नाथ चल आनन्द था।

Ø     डॉ. सुधा गुप्ता के परिवार में –  पति डॉ. बी.बी. अग्रवाल (जो सुधा जी से पहले चल बसे) तीन पुत्र एवं पुत्रवधुएँ क्रमशः – अमित-अन्विता अग्रवाल, आशीष-अर्पिता अग्रवाल व विपुल-माशा अग्रवाल तथा पौत्र-पौत्रियाँ – अतिसी, अदिति, कार्तिक, कुशिक और वरिमा 

Ø     डॉ. सुधा गुप्ता ने एम.ए. (1955), पी-एच. डी. (1961) और डी. लिट् (1988) की उपाधि प्राप्त की थी।

Ø     डॉ. सुधा गुप्ता ने आगरा विश्वविद्यालय एवं मेरठ विश्वविद्यालय से संबद्ध प्रतिष्ठित महाविद्यालयों में कुल चौंतीस वर्ष अध्यापन, सात वर्ष पी.जी. विभागाध्यक्षा तथा बाईस वर्ष प्राचार्या पद पर कार्य किया। जून 1994 में सेवा निवृत्त ।

Ø     सृजन-लेखन का क्षेत्र – 1. भाषा एवं संवेदना के लिहाज़ से भरतीयता से भरपूर हाइकु, ताँका, चोका, सेदोका, हाइबन आदि जापानी काव्य-शैलियाँ 2. कविता एवं गीत 3. आत्मकथा 4. शोध-समीक्षा

Ø     प्रकाशित पुस्तकें :

1)        जापानी विधाएँ

(क)     15 हाइकु संग्रह     

(ख)     6 ताँका, चोका, सेदोका, हाइबन, हाइगा संग्रह

2)        16 कविता संग्रह

3)        4 बाल-गीत संग्रह 

4)        2 पूजा-गीत संग्रह       

5)        3 शोध ग्रंथ          

6)        1 समीक्षात्मक ग्रन्थ

7)        आत्मकथा

8)        2  सह-सम्पादित हाइकु संग्रह

9)        पंचाशत् : सतत् साहित्य सृजन साधना के सत्तर साल (प्रकाशित 50 पुस्तकों की भूमिकाएँ एवं मुखपृष्ठ, 2021)

कुल प्रकाशित पुस्तकें – 50

Ø     एक बहुमुखी साहित्यिक एवं सामाजिक व्यक्तित्व की धनी डॉ. सुधा गुप्ता अपने लंबे जीवन सफ़र में सृजन-लेखन, अध्यापन एवं अन्य सामाजिक सेवाओं से संबद्ध गतिविधियों में अपनी कर्मठता एवं समर्पित भाव के एवज में विविध संस्थाओं की ओर से, अलग-अलग अवसरों पर, अलग-अलग मंचों से –आदर्श शिक्षक(1988, 2000) दिव्याउपाधि से अलंकृत (1990, 1994), वरिष्ठ कवयित्री लेखिका’ (2000), कवियत्री महादेवी वर्मा(2000), राष्ट्र भाषा आचार्य सम्मान(2001), ताज मुगलिनी सम्मान(2001), महिला रत्न(2001), बाबा पुरुषोत्तम दास सहस्त्राब्दि प्रतिभा सम्मान(2001), महाकवि शेक्सपियर अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान (2002), मीराबाई सम्मान(2002), राष्ट्र भाषा रत्न(2003), वरिष्ठ साहित्य सेवी(2003), सरिता लोक-भारती सम्मान(2003),साहित्य शिरोमणि(2003),ऋतम्भरा अलंकरण(2005-2006), हिन्दी गौरव सम्मान(2006) प्रभृति मान-सम्मानों से समय-समय पर सम्मानित होती रही।

मनुष्यों के, मनुष्यतर जीवों के, यहाँ तक की अनेकानेक चीज-वस्तुओं के स्थूल व प्रत्यक्ष यानी दृश्यामन अस्तित्व की लंबाई-चौड़ाई को हम यहाँ कलेंडर के पन्नों के हिसाब से नापते रहते हैं। 18 मई, 1934 से शुरू हुआ ‘सुधा सफ़र’ अनेकों उतार-चढ़ावों को, कई मुकामों को पीछे छोड़ता हुआ तो कहीं साथ लेते हुए पूरे 89 वर्ष 7 महीने एवं 10 दिन की दीर्घावधि को प्राप्त करते हुए अंततः पहुँचता है 18 नवंबर, 2023 तक।  यानी यह तिथि है डॉ. सुधा गुप्ता के सफ़र-ए-ज़िंदगी का आखरी बिन्दु।

सुधा जी अब पार्थिव रूप में हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनके शब्द, उनकी स्मृतियाँ तो हमारे साथ ही है। असंख्य साहित्यतिकों एवं समाजिकों को अपने आलोक से आलोकित करने, प्रेरित-प्रोत्साहित करने, साहित्य की एक ठोस ज़मीन एवं मजबूत पीढ़ी को तैयार करने वाली इस महियसी का प्रभाव एवं अहसास तो चिरकाल तक जारी रहेगा!!

 


संपादकीय


एक साहित्यकार का जाना....

डॉ. पूर्वा शर्मा

साहित्य जगत में अपने बहुआयामी सर्जनात्मक कौशल तथा सुधी समीक्षा व शोध दृष्टि के बल पर अपनी एक विशेष पहचान कायम करने वाले सर्जक के विशाल सृजन-संसार से गुजरना मतलब एक विस्तृत एवं वैविध्यपूर्ण अनुभवजगत से रूबरू होना, एक बहुरंगी व गहन-गंभीर संवेदना से जुड़ना, सचराचर के अनेकों सरोकारों से अवगत होना, भाषा-भाव के मणिकांचन संयोग से प्रभावित होना, सृजन-समीक्षा के अनुशासन और इसके कर्ता के दायित्वों-कर्तव्यों से परिचित होना आदि...आदि। ऐसे किसी महान साहित्य सेवी का इस दुनिया से जाना कोई महज एक व्यक्ति का जाना भर नहीं है, बल्कि साहित्यजगत की कितनी बड़ी क्षति...... इस सच्चाई को हम  बखूबी जान सकते हैं, समझ सकते हैं।

18 नवम्बर, 2023 को हिन्दी जगत की एक बड़ी शख्सियत डॉ. सुधा गुप्ता का हमारे बीच से जाना हिन्दी साहित्य की जितनी बड़ी क्षति और कितनी बड़ी रिक्ति है, जिसका अनुभव और एहसास सुधा जी के लेखकीय अवदान से परिचित प्रत्येक पाठक-सर्जक कर सकता है।

डॉ. सुधा गुप्ता यानी जिनका जीवन ही साहित्य का पर्याय। साहित्य के प्रति, कविता के प्रति इतना अनुराग कि ‘तुम’ के बहाने ‘स्वयं’ की ही एक मात्र इच्छा व्यक्त करते हुए कहती रहीं – और इस भूतल पर ही नहीं.... पर मानो अनंत यात्रा में भी साथ तो कविता का ही.... प्रेम तो कविता से ही....

 

तुम ले जाना

कविता-अनुराग

अपने साथ।

-       डॉ. सुधा गुप्ता

अब चल पड़ी हैं उस राह पर तब.....  

 

अनंतयात्रा

हमसफ़र कौन ?

साहित्य राग

मातृभाषा हिन्दी तथा कविता से अगाध प्रेम करने वाली एक सहृदय एवं सौन्दर्य प्रिय सर्जक, एक विदुषी, हिन्दी हाइकु की शीर्षस्थ हाइकुकार एवं सरलमना व्यक्तित्व वाली डॉ. सुधा गुप्ता का अपने शैशव काल से ही कविता के प्रति जो अगाध प्रेम-आकर्षण रहा वह उनके नश्वर शरीर के छूटने तक बना ही रहा। अपने जीवन के लगभग सत्तर वर्षों तक वह पूर्ण समर्पित भाव से काव्य-सृजन से जुड़ी रही। अति अध्ययन-प्रिय, अध्ययन-शील सुधा जी ने अपने जीवन में पढ़ाई को ही सबसे ज्यादा तवज्जो दिया। उन्होंने बीमारी में, अवसाद में, अनिंद्रा में, तनाव में, आर्थिक कष्टों में, संपन्नता में, खुशहाली मेंहर परिस्थिति में बस पढ़ा ही पढ़ा। और उसी का परिणाम उनके साहित्य में झलकता है। सुधा जी की रुचियों को उन्होंने स्वयं कुल तीन शब्दों में रेखांकित किया है, वे हैं – ‘कविता, बच्चे, फूल।’

डॉ. सुधा गुप्ता की पचास पुस्तकों का प्रकाशन इस बात का प्रमाण है कि उनका रचना संसार कितना व्यापक है। कविता से विशेष प्रेम करने वाली इस कवयित्री ने जापानी काव्य विधा ‘हाइकु’ के क्षेत्र में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। सुधा जी के हिन्दी हाइकु के कुल 15 संग्रह और जापानी विधाओं ताँका, चोका, सेदोका, हाइबन, यात्रा-काव्य एवं हाइगा के 6 संग्रह यानी जापानी विधाओं में कुल 21 संग्रह प्रकाशित हो चुके। 

जापानी विधाओं के अतिरिक्त डॉ. सुधा गुप्ता के द्वारा लिखित उनके सभी कविता संग्रह बेजोड़ है और गहन अर्थ की अनुभूति देते हैं। उनकी आत्मकथा(एक पाती : सूरज के नाम) में भी कलात्मकता एवं कवितापन नज़र आता है। उनके सभी शोध-समीक्षात्मक ग्रंथ ज्ञानवर्धक तो है ही, और इसमें उनका आलोचकीय विवेक एवं परिश्रम भी झलकता है। उनका सम्पूर्ण साहित्य शोधार्थियों, साहित्य-प्रेमियों एवं पाठकों के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।

मृत्यु के पश्चात भी हजारों-लाखों लोगों की स्मृति में चिरकाल तक जीवित रहने वाले और उन्हें सुख-सुकून एवं मानसिक ऊर्जा प्रदान करते रहने वाले व्यक्तित्व बहुत विरले होते हैं। 18 नवंबर, 2023 को इस चल जगत, इस फ़ानी दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह डॉ. सुधा गुप्ता अपनी अगली यात्रा पर निकल गई। उन्हीं के शब्दों में –

“मैं / अपने सूरज को ढूँढने / अगली यात्रा पर / निकल पड़ी ।”

 उनका जाना यानी एक अनुभव जगत का चले जाना। उनका जाना यानी हाइकु की एक भरीपूरी दुनिया का जाना। उनका जाना यानी एक बहुरंगी एवं बड़े आशयों से पूरित एक रचनात्मक स्त्री-संवेदना का जाना। उनके जाने से हाइकु जगत एवं स्त्री लेखन को गहरी क्षति पहुँची है।

कहते हैं कि साहित्यकार कभी मरते नहीं वे तो अमर होते हैं। वे प्रतिपल अपने जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को अपने साहित्य में सहेजकर बड़ी सरलता से पाठकों को जीवन का फलसफ़ा सीखा जाते हैं। सुधा जी अब पार्थिव रूप में हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनके शब्द, उनकी स्मृतियाँ तो हमारे साथ ही है। अपने लेखन से साहित्य सागर में वृद्धि करने वाली डॉ. सुधा गुप्ता साहित्यानुरागियों के स्मरण में सदैव अपना वजूद बनाए रखेंगी। उनकी स्मृति को मेरा नमन – 

लो रिक्त हुआ

अमृत से भरा वो

‘सुधा’ कलश।

 

डॉ. पूर्वा शर्मा

वड़ोदरा

 

 

 

 

 


सान्निध्य की फलश्रुति

 

 डॉ. सुधा गुप्ता से पूर्वा शर्मा की बातचीत

 

१.  हिन्दी हाइकु के प्रमुख हस्ताक्षरों में आपका नाम शामिल है, इस सन्दर्भ में आप क्या कहेंगे ?

सुधा जी : पूर्वा जी, इस सन्दर्भ में, मैं केवल यह कहना चाहूँगी कि मैं प्रमुख हस्ताक्षर में गिनी जाती हूँ ये मुझे पता ही नहीं है ।  मैंने हाइकु सन् ७८-७९ से लिखना आरंभ किया था और मेरे हाइकु-काव्य गुरु डॉ.सत्यभूषण वर्मा है ।  उनका अंतर्देशीय पत्र निकलता था, वो उन्होंने मुझे भेजा ।  मैंने पढ़ा, तो नई विधा थी मुझे attraction हुआ, आकर्षण हुआ और मैंने उस पर दो-चार हाइकु लिखे ।  ये मेरा सौभाग्य था कि मेरा पहला ही हाइकु उन्होंने छापा ।  वो हाइकु मुझे आज भी याद है –

कोयल गाती

हरी आम की शाख

आग लगाती।

उन्होंने इसकी बहुत प्रशंसा की ।  उन्होंने ‘आग लगाती’ के विषय में कम से कम आधा पेज लिखकर भेजा ।  बोले, व्यंजना हाइकु का सबसे बड़ा गुण है ।  हाइकु में कुछ कहा जाता है और कुछ अनकहा छोड़ दिया जाता है ।  वो आपने कमाल कर दिया, ‘हरी आम की शाख’ विपर्यय हो गया ।  हाइकु में विपर्यय होना  चाहिए ।  हरी चीज़ तो जलती नहीं, हरी लकड़ी कहाँ जलती है ? ‘आग लगाती’ - ये व्यंजना करता है कि मनुष्य में प्रेम भावना उद्दीप्त होती है ।   उन्होंने इतनी सुन्दरता से उसको समझाया की शायद मैंने लिखते स्वयं भी नहीं सोचा होगा ।  उसके बाद मेरी रूचि बहुत बढ़ गई और मैंने हाइकु लिखने शुरू किए ।  मेरी सन् ८५ में पांडु लिपि इंडोविज़न गाज़ियाबाद में गई ।  दुर्भाग्य से वो प्रति खो गई ।  एक साल वो प्रति खोई रही, फिर मैंने दूसरी प्रति तैयार करके भेजी तब वो फ़रवरी १९८६ में आई – “ख़ुशबू का सफ़र” ।  ख़ुशबू का सफ़र की इतनी प्रेरणास्पद प्रतिक्रिया मिली और इतने अच्छे पत्र मिले और दो व्यक्ति मुझसे और जुड़ गए – डॉ. भगवतशरण अग्रवाल और मध्यप्रदेश रीवा के आदित्य प्रताप सिंह ।  ये तो बात रही मेरे हाइकु के सफ़र के ।   

मैं पूर्वा जी आपसे यह कहना चाहती हूँ कि अपने विषय में स्वयं कहने से कुछ नहीं होता ।  कुछ लोग ऐसे होते हैं जो कहते हैं कि हमने ही बस सबसे अच्छा लिखा, उससे कुछ नहीं होगा ।  पाठक अगर पढ़कर और अपने हृदय में उसको अनुभव करता है ।  जो कुछ पाठक लिखता है वो सच है ।  अगर हाइकुकार मुझे पसंद करते हैं, मानते हैं कि मेरे हाइकु में कुछ अच्छाई है, तो है।  अन्यथा मैं प्रमुख या अप्रमुख इस विषय में कुछ नहीं कहना चाहूँगी ।   

२. हाइकु काव्य की समीक्षा में आपकी भूमिका क्या है ?

सुधा जी : समीक्षा में मेरी कोई रुचि नहीं है और जो कुछ भी मैंने लिखा है हाइकु पुस्तकों के विषय में, वो समीक्षा के लिहाज़ से लिखा भी नहीं था ।  हुआ ये कि लोग जब किताबें मुझे भेजते हैं, तब मैं कई किताबें पढ़ती हूँ और कई पलट के रख देती हूँ ।  जरूरी नहीं कि अच्छी लगे और मैं सब पढूँ ।  जो किताबें शुरू में अच्छी लगती हैं उनको मैंने आद्यंत पढ़ा और फिर उस पर जो मेरा विचार बना वो मैंने लिखकर उन्हें भेज दिया (हाथ से) ।  वो अक्सर छपते भी रहे और मेरे पास उनका कलेक्शन रहा ।  ये बहुत बड़ी बात है और मैंने संभाल  के रखा ।  सितम्बर-१६ में, मैं अचानक बहुत बीमार हो गई, उससे पहले यह (हिन्दी हाइकु ताँक,सेदोका की विकास यात्रा : एक परिशीलन पुस्तक की ) पांडु लिपि तैयार हो चुकी थी ।  उसके तैयार होने में ८५ लेख थे ।  कविता के भी थे, गज़ल के भी थे।  जब संयोजन किया काम्बोज जी ने, तो उन्होंने वो २०-२५ लेख अलग कर दिए और उन्होंने कहा कि हम इसको केन्द्रित जापानी विधाओं पर ही रखेंगे इसलिए इसमें ५९ या कुछ लेख छपे ।  जहाँ तक मेरी पसंद का सवाल है डॉ. भगवतशरण अग्रवाल और डॉ. उर्मिला कौल (आरा बिहार) उनके कुछ हाइकु बहुत ही अच्छे लगते हैं ।

३. हाइकु के वर्ण्य-विषय को लेकर आपकी धारणा क्या है ? आप के अनुसार कौन-सा विषय हाइकु के लिए सर्वथा उपयुक्त है ?

सुधा जी : इसके लिए मैं आपको यह कहना चाहूँगी - बाशो ने ये लिखा है कि हर विषय हाइकु के लिए उपयुक्त है ।  मैं इस कथन से सर्वथा सहमत हूँ, हाइकु के लिए कोई विषय निर्धारित नहीं किया जा सकता है ।  मैं अपना एक हाइकु आपके सामने रखना चाहती हूँ –

उगाई मैंने

गुलाब की फसल

हाथ घायल ।

अब आप इसको किस वर्ग में रखेंगे ? – प्रकृति में नहीं आता, राजनीति में नहीं आता, धर्म में नहीं आता, आध्यात्म में नहीं आता । लेकिन अगर प्रतीक को समझों ..... तो आप समझ ही गई ना.. नई फसल जो हमने उगाई है वो आज काँटे चुभों रही है और कुछ नहीं ।  और गुलाब को जो बोएगा कटिंग करेगा, छाँटेगा तो उसके हाथ में तो काँटे तो लगेंगे। आप इसका कोई विषय या वर्ग तय नहीं कर सकती है। इसलिए मैं कहती हूँ कि हाइकु का कोई विषय निर्धारित नहीं हो सकता है और प्रत्येक विषय हाइकु के लिए सर्वथा उपयुक्त है ।  हाइकु कहाँ है ? हाइकु उस ट्रीटमेंट में है, कि आपने कैसे पेश किया -

ज़ख्म हरे हैं

अपनों ने दिए थे

नहीं भरे हैं ।

ये मेरा हाइकु है इसे मैंने मंच पर शायद ५० बार से ज्यादा पढ़ा है और बड़ी-बड़ी कांफ्रेंस में ।  हजारों महिलाओं के या तो आँसू निकल आए या तो तालियाँ बज गई ।  इसकी सारी व्यंजना केवल ‘अपनों’ शब्द पर टिक जाती है, अगर वो निकाल दो शब्द तो यदि ‘ज़ख्म हरे हैं’ तो ठीक है, कोई बात नहीं ।  हर ज़ख्म भर जाता है लेकिन अपने जो ज़ख्म देते हैं वो कभी नहीं भरते, हैं ना ? तो हाइकु की सारी कला प्रस्तुतीकरण की है ।  उसमें हमें याद रखना होगा कि जो विषय है वो पूरा का पूरा अभिधा से बहुत दूर हो ।  अभिधा काव्य में अधम विधा मानी गई है और लक्षणा मध्यमा है, और व्यंजना उत्तम है ।  हाइकु काव्य व्यंजना काव्य है ।  मात्र ५-७-५ सत्रह वर्ण में एक बहुत बड़ी बात कह जाना, वो बात ऐसी हो कि उसे पढ़ने वाला कुछ देर तक सोचता रहे, फिर उसकी समझ में आया और जब समझ में आए तो आह्लादित हो जाए ।    

४. हिन्दी-हाइकु के प्रेरणा स्रोत डॉ. सत्यभूषण वर्मा को माना गया है, तो इनके पश्चात् इस विधा में किस रचनाकार का योगदान अत्यधिक महत्त्वपूर्ण कहा जाएगा?

सुधा जी : मैं सत्यभूषण वर्मा का बहुत आदर करती हूँ। वो मेरे काव्य-गुरु रहे हैं, किन्तु उन्होंने रचना के रूप में कुछ विशेष कार्य किया ही नहीं, तो उन्हें हिन्दी हाइकु के रचनाकार के रूप में उनका काम नहीं है ।  उन्होंने केवल introduce किया manage किया और एक पत्र निकालकर बहुत सारे लोगों को एक मंच पर लाए ।  

उनके बाद कौन ? उसमें मैं आपसे क्षमा चाहूँगी ।  मैं किसी एक, दो या पाँच व्यक्तियों के नाम नहीं दूँगी।  ये तय करना बहुत मुश्किल है कि उनके बाद कौन ? कोई पंक्ति नहीं बनाई जा सकती, सबका काम अपनी-अपनी जगह है और जिसने लोकप्रियता हासिल कर ली वो अपनी सक्षमता स्वयं बता देता है ।   

५. आपके हाइकु पढ़ने से पता चलता है कि आपका प्रकृति के प्रति बहुत अनुराग है। आप इसका कोई विशेष कारण बताएँगी?

सुधा जी : पूर्वा, प्रकृति से मेरा जो जुड़ाव है उसका मुख्य कारण मेरा बचपन है। मेरे पिताजी का घर बहुत बड़ा था और उसके बाहर ५०० वर्ग मीटर में एक बगिया थी। उस बगिया में मेरी दादी ने उसमें अनेक प्रकार के पेड़ लगाए, कुछ फलों के पेड़ लगे और फूलों की क्यारियाँ बनी। मेरा परमानेंट एक झूला गुलमोहर पर पड़ा रहता था। मैं स्कूल से आते ही झूले पर बैठती थी ।  हमारे घर में दुधारू गाय रहती थी, तो मैंने दूध काढ़ना (निकालना) भी सीख लिया था। तो मैं एक तरह से प्रकृति की गोद में ही रही ।  हरसिंगार, बेला ये सारे फूल हमारे बाग़ में थे, उनसे मुझे सहज लगाव है ।  एक कारण तो यह है और दूसरा मुख्य कारण यह है कि जब मैं नौकरी के सिलसिले में १० वर्ष तक मेरठ से बाहर रही तो किराये के मकानों में, तंग छोटे-छोटे घरों में जब मैं रही तो तो मुझे प्रकृति का इतना अभाव महसूस होता था कि मैं तुलसी का एक पौधा रखने तक को तरस गई ।   आज भी जो मेरा एकांत है वो प्रकृति के सहारे ही कटता है ।  प्रकृति से मुझे बचपन से लगाव है और आज भी बढ़ता ही जाता, कम नहीं होता ।   

६. अपने हाइकु सृजन के अनुभव के आधार पर यह बताइए कि आज के दौर में हाइकुकारों के सामने कौन-सी चुनौतियाँ है ?

सुधा जी : आज हाइकु के सामने, हिन्दी हाइकु के सामने बहुत बड़ी चुनौती है और वो चुनौती है - हाइकु के अस्तित्व की चुनौती ।  हाइकु के साथ बहुत अत्याचार हो रहा है ।  हाइकु को कोई न समझना चाहता है और सही लिखने की तो बात ही छोड़ दीजिए। ये आप सामान्य वातावरण को देखिए तो लोग चाहते हैं कि बस किताब छपे उसकी टिप्पणी बढ़िया लिखी जाए, तारीफ़ हो और हम बहुत बड़े हाइकुकार बन जाए ।  ऐसे हाइकुकार नहीं बना जा सकता। हाइकु साधना है।  अगर आप अपने आप को उसमें डूबों दोगे तो तब अगर सौ-पचास अच्छे हाइकु लिख दो तो अपने आप को बड़ा हाइकुकार समझो ।  बाशो ने कहा था जिसने पाँच हाइकु लिख दिए वो हाइकु कवि और जिसने दस लिख दिए वो महाकवि ।  मैं यह कहती हूँ दस से भी आगे बढ़ाती हूँ ।  अगर मैंने पाँच या छह  हज़ार हाइकु लिखे हैं उनमें सौ हाइकु अगर आप ऐसे हाइकु छाँट दो, जो आप ये कहो कि हाँ कि ये वास्तव में हाइकु हैं।  हाइकु के निकष पर ये पूरे उतर रहे हैं, तब वे हाइकु हैं। हाइकु में डूबता तो कोई है नहीं। आज तो केवल ५-७-५ को क्रम में बनाकर उल्टा-सीधा...।  अब मैं कोई नाम लूँगी तो वो नाम विवाद का विषय हो सकता है। लेकिन बहुत दिन बाद मौलिक सृजन,  मैं बिलकुल ये सोच समझकर ये बात मैं आपको कह रही हूँ, मैं छिपा नहीं रही कि एक व्यक्ति के हाइकु पढ़कर मुझे ये लगा कि अभी हिन्दी में जान है, हाइकु में भविष्य है और ऐसे दो चार हाइकुकार भी अगर और जुड़ जाए तो हाइकु का कुछ भला हो सकता है ।  

वरना आप ये देखिए, आप इन्टरनेट पर हिन्दी हाइकु तो पढ़ती होंगी। काम्बोज जी ने बहुत काम किया है, हाइकु के प्रचार और प्रसार के लिए।  और उन्होंने रचना भी की है। विदेश में बहुत अच्छी लडकियाँ काम कर रही हैं ।  आपके नामों से भी मैं सहमत हूँ – डॉ. भावना कुँअर, रचना श्रीवास्तव, हरदीप सन्धु एक और एक और नाम रह गया .. चार नाम थे ना उसमें ...

पूर्वा – कृष्णा वर्मा

सुधा जी - हाँ ।  वो मुख्य रूप से, अगर कम काम करके भी यदि qualitywise अच्छा काम किया है तो वो रचना श्रीवास्तव ने किया है ।  आपने पढ़ी हैं उनकी कोई किताब ?

 पूर्वा – हाँ पढ़ी है – भोर की मुस्कान।  

सुधा जी – वो साधारण विषय को भी इतना सुन्दर बना देती है ।  एक उनका हाइकु बूँदों वर्षा पहने ... मुड़ा पड़ा  था ... ये अमर हाइकु है, वक्त की धूल इन्हें नहीं ढँक सकेगी।  

वो नाम में आपको बताती हूँ – हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला का कुँवर दिनेश सिंह ... वो रचनाकार भी बड़ा है और अनुवादक भी बहुत बड़ा है ।  उस व्यक्ति की कितनी तारीफ़ की जाए.... मैंने उनके दो ग्रंथो पर समीक्षा लिखी, उन्होंने मुझे भेजी ।  मुझे स्वतः अन्दर से इच्छा हुई की मैं इस पर लिखूँ। और अनुवाद जो उन्होंने किए है, इतने सुन्दर अनुवाद... पूरे हाइकु फ्रेम में। जो उनका बारहमासा है ना उसको पढ़कर में गद-गद हो गई, इतनी प्यारी उपमाएँ देते हैं..... वो पत्ते रहित पेड़ हो गंजा कहना, कितनी मौलिक कल्पना है। मैं दिनेश सिंह को वास्तव में हाइकुकार मानती हूँ ।  

७. कुछ लोगों का मानना है कि हाइकु का कलेवर संक्षिप्त है इसलिए ये आसानी से रचा जा सकता है - आप इस बात पर कहाँ तक सहमत है ?

सुधा जी : हाइकु संक्षिप्त अवश्य है किन्तु इसकी रचना बहुत कठिन ।  हाइकु को जो लोग खेल समझते हैं , गुजराती या मराठी में हाइकु बाएँ हाथ का खेल – किसी ने एक किताब निकली थी उस पर बहुत विवाद हुआ था और मेरा यह मानना है कि हाइकु में ५-७-५ इन वर्णों को क्रम देने में और अर्थवत्ता देने में बहुत परिश्रम की आवश्यकता है ।  हाइकु रचना सरल नहीं है, जो लोग हाइकु को सरल रचना मानते हैं वो मेरे विचार से तो कभी भी सफल और अर्थवान हाइकु नहीं रच सकते क्योंकि कुछ भी कह देना हाइकु नहीं  है ।  हाइकु की रचना बड़ी जटिल है, एक-एक वर्ण एक-एक मात्रा को, हमें सोचना पड़ता है कि इस मात्रा को हटा के इसकी जगह अगर ये कर दूँ ।  एक शब्द क्या एक वर्ण की बचत अगर मैं कर सकूँ ।  एक हाइकु पर दस बार बीस बार मेहनत करके बनता है ।  हाइकु ऐसे नहीं बनता कि लिखा और बस उठाकर भेज दिया। आपने पढ़ा होगा कि जापान में प्रति वर्ष दस लाख हाइकु छपते हैं। हमारे यहाँ भी अनेक हाइकुकार काम कर रहे हैं लेकिन उसमें कितने हाइकु ऐसे हैं जो समय की छलनी में छनकर ऊपर आ जाएँगे और कचरा नीचे रह जाएगा, ये तो वक्त तय करेगा ।  

८. हाइकु को आध्यात्म एवं दर्शन से जोड़ना कहाँ तक उचित है ?

सुधा जी : इस का बहुत सीधा जवाब है – बात ये है कि जो शुरू के हाइकुकार है वो सब घूमने फिरने वाले संत थे जैसे बाशो जी - संत थे, तो अध्यात्म तो उनके हाइकु में स्वतः आया था वो सप्रयास नहीं था   आज भी मैं यह कहती हूँ आध्यात्म या  दर्शन, कोई भी विषय निषिद्ध विषय नहीं है ,बशर्त है कि उसकी प्रस्तुति काव्यात्मक हो, बस इतना ही मुझे कहना है इससे अधिक नहीं कहना ।  जोड़ना क्या ?, हर विषय हाइकु के लिए उपयुक्त है ।

अप्रैल 2024, अंक 46

  शब्द-सृष्टि अप्रैल 202 4, अंक 46 आपके समक्ष कुछ नयेपन के साथ... खण्ड -1 अंबेडकर जयंती के अवसर पर विशेष....... विचार बिंदु – डॉ. अंबेडक...