शनिवार, 27 मार्च 2021

अंक – 8

 


शब्द सृष्टि, मार्च- 2021, अंक – 8 

बरसे प्रेम के रंग

सजन के संग  

भीजे सब अंग

पा र्व होली की पुनी कानाओं हि .....


विचार स्तवक – डॉ. एस. पी. उपाध्याय / डॉ. मदन मोहन शर्मा / डॉ. पूर्वा शर्मा


शब्द संज्ञान – डॉ. हसमुख परमार


आलेख – होली विषयक हिन्दी फ़िल्मी गीत – रवि शर्मा


कविता – आई होली! – डॉ. सुरंगमा यादव


निबंध – होली – डॉ. अनिला मिश्रा


कविता / हाइकु – रंग / फगुआ – डॉ. जेन्नी शबनम


लघुकथा – रंग – अशोक भाटिया


कविता – इस बार यूँ होली – सत्या शर्मा ‘कीर्ति’


कहानी – प्रेम की होली – प्रेमचंद


कविता/ हाइकु – होली है भाई होली है – रमेश कुमार सोनी


उपन्यास का अंश – गोदान – प्रेमचंद


कविता – होली में हुडदंग – पुरुषोत्तम कड़ेल


लघुकथा – होली – डॉ. आशा पथिक


शब्द संज्ञान

 


v संवत् गाढ़नाः वसंत पंचमी के दिन एक लम्बा पतला बाँस लिया जाता है, जिसके ऊपर के छोर पर गेहूँ, चना आदि को एक कपड़े में बाँध दिया जाता है और उसी दिन उस बाँस को जमीन में गाढ़ा जाता है इसको ‘सम्मत गाढ़ना’ (संवत् गाढ़ना) कहते हैं। इसी बाँस के आस-पास घास, लकड़ी, उपले आदि का ढेर किया जाता है और इसी को फाल्गुन की पूर्णिमा के दिन जलाया जाता है, जिसे होलिका दहन कहते हैं।

v संवत् जलानाः होली का त्यौहार मनाया जाता है फाल्गुन महीने की पूर्णिमा के दिन। इस त्यौहार के संबंध में मुख्यतः भक्त प्रहलाद और उनकी बुआ होलिका की कथा प्रचलित है। होलिका दहन इस पर्व की मुख्य घटना है। इस होलिका दहन प्रसंग को भोजपुरी आदि भाषाओं में संवत् जलाना भी कहते है। भोजपुरी लोकसाहित्य के प्रमुख अध्येता डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय के मतानुसार ‘‘जिस दिन होली मनाई जाती है उसकी पूर्व रात्रि को होलिका जलायी जाती है, जिसे भोजपुरी में संवत् जलाना कहते है। संवत जलाने के लिए गाँव का कोई चौराहा अथवा मुख्य स्थान चुन लिया जाता है। वहाँ गाँव के लड़के अनेक दिनों से लकड़ी, उपला, पत्ते, सूखी घास ला-लाकर एकत्र करते रहते हैं। शुभ मुहूर्त में इनमें आग लगा दी जाती है जो थोड़ी ही देर में जल कर राख की राशि बन जाती है। होली जलाने की प्रथा विभिन्न प्रांतों में विभन्न रूप से प्रचलित है।’’

          संवत् जलाने का मतलब है विक्रम संवत्-साल का पूरा होना, इस वर्ष जो कुछ भी हुआ उसे जला देना-भूल जाना और अगले दिन नये वर्ष - विक्रम संवत् का प्रारंभ हँसी-खुशी व सकारात्मक विचारों के साथ करना।

v  कबीरः कबीर नाम सुनते ही सबसे पहले हमें मध्यकाल के महान हिन्दी संत कवि कबीर याद आते हैं। परंतु यहाँ बात करनी है कबीर नामक होली संबंधी एक लोकगीत की। होली के अवसर पर गाये जाने वाले गीतों में कबीर उस गीत को कहते है जिसमें गालियाँ गाई जाती है। कई जगह होली पर्व पर गालियाँ गाने की प्रथा भी बहुत पहले से चली आ रही है। ‘अररर अररर भइया, सुन लेउ मोर कबीर।’ डॉ. श्रीधर मिश्र लिखते है- ‘‘ये कबीर बड़े अश्लील होते हैं। जैसे उनको एक सुन्दर मौका मिला हो और वे अपने मन की कसक निकाल रहे हों। यह एक ऐसा अवसर है कि जब समाज लोगों की दमित यौन-भावना को एवं असामाजिक एवं अश्लील मानते हुए भी उस दिन उसकी अभिव्यक्ति की छूट देता है।’’ शादी-ब्याह का प्रसंग हो या होली का त्यौहार, इसके गीतों में गाली का भी इसका विषय बनना जितनी आश्चर्य की बात नहीं है, उससे कही ज्यादा आश्चर्य इस बात से है कि आखिर इन होली के गाली गीतों को कबीर क्यों कहते हैं ? दरअसल यह भी एक शोध का विषय है। संत कवि कबीर के नाम के ही साथ उक्त गीतों के नामकरण का तुक बिठाना वैसे तो ठीक नहीं लग रहा है किन्तु इस विषय में डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय का अध्ययन कहें या अनुमान, जो यह कहता है कि- ‘‘इन गालियों को कबीर क्यों कहते हैं यह निश्चित रूप से बतलाना कठिन है। ऐसा ज्ञान होता है कि कबीर की अटपटी निर्गुण बानी तत्कालीन समाज के लिए लोकप्रिय नहीं हो सकी। अतः कबीर के प्रति समाज की अप्रसन्नता या आक्रोश दिखलाने के लिए ही लोगों ने इन गालियों को कबीर का नाम दे दिया है।’’

v जोगीड़ाः  शब्दकोश के अनुसार जोगीड़ा का अर्थ है – होली के अवसर पर गाया जाने वाला गँवारू गाना। - गँवारू गाना गानेवालों का दल।

असल में जोगीड़ा भी कबीर गीत की प्रकृति का ही गीत कहा जा सकता है। विशेषतः उत्तरप्रदेश में होली की मस्ती में झूमते हुए गाये जाने वाले जोगीड़ा तथा इसे गाने और नाचने वाली मंडली लोगों के आकर्षण का केन्द्र होता है। ‘‘आनन्द और उत्साह में डूबी हुई लोकगायकों की टोलियाँ गाँव भर में मंडराती रहती हैं। इस अवसर पर जोगीड़ा का प्रचलन भी है, जिसमें ढोलक, करताल तथा झाँझ बजाते हुए एक मंडली गाती है और लौंडा नाचता है।’’ इसमें भी कुछ भदेस व फूहड़पन से जुड़े विषयों को गाया जाता है। ननंद-भोजाई और देवर भाभी के रिश्तों को लेकर की जाने वाली हँसी, विशेष तरह का मजाक व मस्ती को भी इन गीतों में प्रस्तुत किया जाता हैं। कहीं-कहीं इसमें अश्लीलता का पुट भी होता है, लेकिन इसमें कोई बुरा नहीं मानता। लोग इसे बहुत सहजता से ही लेते है। बड़े बुजुर्ग, युवा, बच्चों सभी के लिए यह मनोरंजन का विषय़ बनता है। ढोल, हारमोनियम, झाँझ आदि लोकवाद्यो के साथ गाये जाने वाले इन गीतों की भाषा भी बहुत सरल व सहज होती है, एक तरह ये यह भाषा चलती और गँवारू होती है। इस नाच-गान में बीच-बीच में टेक पद की पुनरावृत्ति होती है- जोगीड़ा सरर..... रर.... रर....। ‘‘परंपरागत जोगीरा कामकुंठा का विरेचन है। एक तरह से उसमें काम-अंगो, काम-प्रतीकों की भरमार है। कुछ लोगों को जोगीरा के बहाने गरियाने और उन पर अपना गुस्सा निकालने का यह अपना तरीका है। वास्तव में होली खुलकर और खिलकर कहने की परंपरा है। यही कारण है कि जोगीरे की तान में आपको सामाजिक विडम्बनाओं और विद्रुपताओं का तंज दिखता है। होली की मस्ती के साथ वह आसपास के समाज पर चोट करता हुआ नजर आता है।’’

     वैसे ही होली के अवसर पर गाये जाने वाले गीतों में अनेकों ऐसे गीत होते है जिसमें श्रृंगार रस की खुलकर अभिव्यक्ति होती है। युवा के साथ वृद्ध भी इस भाव से सराबोर होकर इस तरह के गीतों को गाते हैं। ‘होली मयँ बाबा दिवर लगै।’ जोगीड़ा गाने वाला समूह पूरे गाँव में घूमता है, हर घर के द्वारा जाकर गाये जाने वाले इन गीतों में शुभ कामनाओं का स्वर भी रहता है ‘सदा आनंद रहे यह द्वारे, फागुन कै मोहन प्यारे।’

v  लट्ठमार होलीः होली मनाने का एक ऐसा प्रसिद्ध रिवाज जिसमें होली खेलते समय रंगों के साथ साथ स्त्रियों द्वारा लाठियों से पुरुषों पर प्रहार किया जाता है और पुरुष ढाल से इस प्रहार से अपना बचाव करते हैं। इसमें लाठी से प्रहार करने का अधिकार सिर्फ स्त्रियों को होता हैं और पुरुष को तो ढाल से अपने को बचाना होता है। इसमें कोई वास्तविक पिटाई वाली बात नहीं होती बल्कि यह एक हँसी-खुशी का ही प्रसंग है। ‘‘लट्ठमार होली के पीछे मान्यता यह है कि इस दिन भगवान कृष्ण राधा रानी को देखने बरसाने जाते हैं। इसके बाद कृष्ण और ग्वाले राधा और उनकी सखियों की छेडखानी करने लगते हैं। इस पर राधा और उनकी सखियाँ हाथ में छड़ी लेकर कान्हा और उनके ग्वालों के पीछे भागती है। आज भी बरसाने और नंदगाँव में इसी परंपरा को निभाया जाता है।’’ बरसाने में लट्ठमार होली मनाने की तिथि है फाल्गुन महीने के शुक्ल पक्ष की नवमी। राधारानी के जन्मस्थान बरसाने की रंगीली गली में नंदगाँव के हुरियारों और बरसाने की स्त्रियों द्वारा रंग, अबीर और गुलाल से खेली जाने वाली होली में विशेष आकर्षण का केन्द्र बनता है -  इन स्त्रियों द्वारा नंदगाँव के हुरियारों के ढाल पर लाठियों का प्रहार। भरतपुर भास्कर पत्र से प्राप्त जानकारी के अनुसार ‘‘संवत् 1650 मे खेली गई थी पहली लट्ठमार होली इसलिए है रंगीली गली-आचार्य नारायण भट्ट द्वारा लिखित पुस्तक ब्रज भक्ति विलास के मुताबिक करीब 6 से 8 फुट सँकरी रंगीली गली में संवत् 1650 में पहली बार नंदगाँव और बरसाना के ब्राह्मणों ने लट्ठमार होली खेली थी। इस तरह करीब 425 संवत् पुरानी परंपरा आज भी निभाई जा रही है।’’ दूसरे दिन यानी फाल्गुन महीने की शुक्ल पक्ष की दशमी को नंदगाँव में यह लट्ठमार होली होती है। जिसमें बरसाने के हुरियार नंदगाँव की हुरियारिनों के साथ यह खेली जाती है।


डॉ. हसमुख परमार

एसोसिएट प्रोफ़ेसर

स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर

जिला- आणंद (गुजरात) – 388120

विचार स्तवक






पर्वों और त्यौहारों का अपना गौरवशाली इतिहास है  इसमें देश की समग्र संस्कृति और सभ्यता का उत्स छिपा होता है  ये हमें देश विशेष की परंपराओं, आदर्शों और मूल्यों से जोड़ते हुए नए उत्साह और उमंग भरते हैं 

– डॉ. एस. पी. उपाध्याय (भारतीय पर्व और त्यौहार)

 

जैसा कि होली रंगों का पर्व है और अलग-अलग रंग जब एक साथ मिल जाते हैं तो एकता का संदेश देते हैं  यही इस त्यौहार की महान अस्मितामूलक पहचान है 

– डॉ. मदन मोहन शर्मा

 

स्नेह की बौछारों में भीगना-भिगोना और उसके रंग-बिरंगे छींटों की छाप का मन पर सदा के लिए अंकित हो जाना – बस यही है होली

– डॉ. पूर्वा शर्मा

कहानी

 


प्रेम की होली


गंगी का सत्रहवाँ साल था, पर वह तीन साल से विधवा थी, और जानती थी कि मैं विधवा हूँ, मेरे लिए संसार के सुखों के द्वार बन्द हैं। फिर वह क्यों रोये और कलपे? मेले से सभी तो मिठाई के दोने और फूलों के हार लेकर नहीं लौटते? कितनों ही का तो मेले की सजी दूकानें और उन पर खड़े नर-नारी देखकर ही मनोरंजन हो जाता है। गंगी खाती-पीती थी, हँसती-बोलती थी, किसी ने उसे मुँह लटकाये, अपने भाग्य को रोते नहीं देखा। घड़ी रात को उठकर गोबर निकालकर, गाय-बैलों को सानी देना, फिर उपले पाथना, उसका नित्य का नियम था। तब वह अपने भैया को गाय दुहाने के लिए जगाती थी। फिर कुएँ से पानी लाती, चौके का धन्धा शुरू हो जाता। गाँव की भावजें उससे हँसी करतीं, पर एक विशेष प्रकार की हँसी छोडक़र सहेलियाँ ससुराल से आकर उससे सारी कथा कहतीं, पर एक विशेष प्रसंग बचाकर। सभी उसके वैधव्य का आदर करते थे। जिस छोटे से अपराध के लिए, उसकी भावज पर घुड़कियाँ पड़तीं, उसकी माँ को गालियाँ मिलतीं, उसके भाई पर मार पड़ती, वह उसके लिए क्षम्य था। जिसे ईश्वर ने मारा है, उसे क्या कोई मारे! जो बातें उसके लिए वर्जित थीं उनकी ओर उसका मन ही न जाता था। उसके लिए उसका अस्तित्व ही न था। जवानी के इस उमड़े हुए सागर में मतवाली लहरें न थीं, डरावनी गरज न थी, अचल शान्ति का साम्राज्य था।

2

होली आयी, सबने गुलाबी साडिय़ाँ पहनीं, गंगी की साड़ी न रंगी गयी। माँ ने पूछा-बेटी, तेरी साड़ी भी रंग दूँ। गंगी ने कहा-नहीं अम्माँ, यों ही रहने दो। भावज ने फाग गाया। वह पकवान बनाती रही। उसे इसी में आनन्द था।

तीसरे पहर दूसरे गाँव के लोग होली खेलने आये। यह लोग भी होली लौटाने जाएँगे। गाँवों में यही परस्पर व्यवहार है। मैकू महतो ने भंग बनवा रखी थी, चरस-गाँजा, माजूम सब कुछ लाये थे। गंगी ने ही भंग पीसी थी, मीठी अलग बनायी थी, नमकीन अलग। उसका भाई पिलाता था, वह हाथ धुलाती थी। जवान सिर नीचा किये पीकर चले जाते, बूढ़े, गंगी से पूछ लेते-अच्छी तरह हो न बेटी, या चुहल करते-क्यों री गंगिया भावज तुझे खाना नहीं देती क्या, जो इतनी दुबली हो गयी है! गंगिया हँसकर रह जाती।। देह क्या उसके बस की थी। न जाने क्यों वह मोटी हुई थी।

भंग पीने के बाद लोग फाग गाने लगे। गंगिया अपनी चौखट पर खड़ी सुन रही थी। एक जवान ठाकुर गा रहा था। कितना अच्छा स्वर था, कैसा मीठा। गंगिया को बड़ा आनन्द आ रहा था। माँ ने कई बार पुकारा-सुन जा। वह न गयी। एक बार गयी भी तो जल्दी से लौट आयी। उसका ध्यान उसी गाने पर था। न जाने क्या बात उसे खींचे लेती थी, बाँधे लेती थी। जवान ठाकुर भी बार-बार गंगिया की ओर देखता और मस्त हो-होकर गाता। उसके साथ वालों को आश्चर्य हो रहा था। ठाकुर को यह सिद्धि कहाँ मिल गयी! वह लोग विदा हुए तो गंगिया चौखटे पर खड़ी थी। जवान ठाकुर ने भी उसकी ओर देखा और चला गया।

गंगिया ने अपने बाप से पूछा-कौन गाता था दादा?

मैकू ने कहा-कोठार के बुद्धूसिंह का लडक़ा है, ग़रीबसिंह। बुद्धू रीति व्यवहार में आते-जाते थे। उनके मरने के बाद अब वही लडक़ा आने-जाने लगा।

गंगी – यहाँ तो पहले पहल आया है?

मैकू – हाँ, और तो कभी नहीं देखा। मिज़ाज बिलकुल बाप का-सा है और वैसी ही मीठी बोली है। घमण्ड तो छू नहीं गया। बुद्धू के बखार में अनाज रखने को जगह न थी, पर चमार को भी देखते तो पहले हाथ उठाते। वही इसका स्वभाव है। गोरू आ रहे थे। गंगी पगहिया लेने भीतर चली गयी। वही स्वर उसके कानों में गूँज रहा था।

कई महीने गुजर गये। एक दिन गंगी गोबर पाथ रही थी। सहसा उसने देखा, वही ठाकुर सिर झुकाये द्वार पर से चला जा रहा है। वह गोबर छोडक़र उठ खड़ी हुई। घर में कोई मर्द न था। सब बाहर चले गये थे। यह कहना चाहती थी-ठाकुर! बैठो, पानी पीते जाव। पर उसके मुँह से बात न निकली। उसकी छाती कितने ज़ोर से धडक़ रही थी। उसे एक विचित्र घबराहट होने लगी-क्या करे, कैसे उसे रोक ले। ग़रीबसिंह ने एक बार उसकी ओर ताका और फिर आँखें नीची कर लीं। उस दृष्टि में क्या बात थी कि गंगी के रोएँ खड़े हो गये। वह दौड़ी घर में गयी और माँ से बोली-अम्माँ, वह ठाकुर जा रहे हैं, ग़रीबसिंह। माँ ने कहा-किसी काम से आये होंगे। गंगी बाहर गयी तो ठाकुर चला गया था। वह फिर गोबर पाथने लगी, पर उपले टूट-टूट जाते थे, आप ही आप हाथ बन्द हो जाते, मगर फिर चौंककर पाथने लगती, जैसे कहीं दूर से उसके कानों में आवाज़ आ रही हो। वही दृष्टि आँखों के सामने थी। उसमें क्या जादू था? क्या मोहिनी थी? उसने अपनी मूक भाषा में कुछ कहा। गंगी ने भी कुछ सुना। क्या कहा? यह वह नहीं जानती, पर वह दृष्टि उसकी आँखों में बसी हुई थी।

रात को लेटी तब भी वही दृष्टि सामने थी। स्वप्न में भी वही दृष्टि दिखाई दी।

फिर कई महीने गुजर गये। एक दिन सन्ध्या समय मैकू द्वार पर बैठे सन कात रहे थे और गंगी बैलों को सानी चला रही थी कि सहसा चिल्ला उठी-दादा, दादा, ठाकुर।

मैकू ने सिर उठाया तो द्वार पर ग़रीबसिंह चला आ रहा था। राम-राम हुआ।

मैकू ने पूछा-कहाँ ग़रीबसिंह! पानी तो पीते जाव।

गरीब आकर एक माची पर बैठ गया। उसका चेहरा उतरा हुआ था। कुछ वह बीमार-सा जान पड़ता था। मैकू ने कहा-कुछ बीमार थे क्या?

गरीब – नहीं तो दादा!

मैकू – कुछ मुँह उतरा हुआ है, क्या सूद-ब्याज की चिन्ता में पड़ गये?

गरीब – तुम्हारे जीते मुझे क्या चिन्ता है दादा!

मैकू – बाकी दे दी न?

गरीब – हाँ दादा, सब बेबाक कर दिया।

मैकू ने गंगी से कहा – बेटी जा, कुछ ठाकुर को पानी पीने को ला। भैया हो तो कह देना चिलम दे जाए।

गरीब ने कहा – चिलम रहने दो दादा! मैं नहीं पीता।

मैकू – अबकी घर ही तमाकू बनी है, सवाद तो देखो। पीते तो हो?

गरीब – इतना बेअदब न बनाओ दादा। काका के सामने चिलम नहीं छुई। मैं तुमको उन्हीं की जगह देता हूँ।

यह कहते-कहते उसकी आँखें भर आयीं। मैकू का हृदय भी गद्गद हो उठा। गंगी हाथ की टोकरी लिये मूर्ति के समान खड़ी थी। उसकी सारी चेतना, सारी भावना, ग़रीबसिंह की बातों की ओर खिंची हुई थी! उसमें और कुछ सोचने की, और कुछ करने की शक्ति न थी। ओह! कितनी नम्रता है, कितनी सज्जनता, कितना अदब।

मैकू ने फिर कहा-सुना नहीं बेटी, जाकर कुछ पानी पीने को लाव! गंगी चौंक पड़ी। दौड़ी हुई घर में गयी। कटोरा माँजा, उसमें थोड़ी-सी राब निकाली। फिर लोटा-गिलास माँजकर शर्बत बनाया।

माँ ने पूछा – कौन आया है गंगिया?

गंगी – वह हैं ठाकुर ग़रीबसिंह। दूध तो नहीं है अम्माँ, रस में मिला देती?

माँ – है क्यों नहीं, हाड़ी में देख।

गंगी ने सारी मलाई उतारकर रस में मिला दी और लोटा-गिलास लिये बाहर निकली। ठाकुर ने उसकी ओर देखा। गंगी ने सिर झुका लिया! यह संकोच उसमें कहाँ से आ गया?

ठाकुर ने रस लिया और राम-राम करके चला गया।

मैकू बोला – कितना दुबला हो गया है।

गंगी – बीमार हैं क्या?

मैकू – चिन्ता है और क्या? अकेला आदमी है, इतनी बड़ी गिरस्ती; क्या करे।

गंगी को रात-भर नींद नहीं आयी। उन्हें कौन-सी चिन्ता है। दादा से कुछ कहा भी तो नहीं। क्यों इतने सकुचाते हैं। चेहरा कैसा पीला पड़ गया है।

सबेरे गंगी ने माँ से कहा – गरीबसिंह अबकी बहुत दुबले हो गये हैं अम्माँ!

माँ – अब वह बेफिक्री कहाँ है बेटी। बाप के जमाने में खाते थे और खेलते थे। अब तो गिरस्ती का जंजाल सिर पर है।

गंगी को इस जवाब से सन्तोष न हुआ। बाहर जाकर मैकू से बोली – दादा, तुमने ग़रीबसिंह को समझा नहीं दिया-क्यों इतनी चिन्ता करते हो?

मैकू ने आँखें फाडक़र देखा और कहा-जा, अपना काम कर।

 

गंगी पर मानो बज्रपात हो गया। वह कठोर उत्तर और दादा के मुँह से। हाय! दादा को भी उनका ध्यान नहीं। कोई उसका मित्र नहीं। उन्हें कौन समझाए! अबकी वह आएँगे तो मैं खुद उन्हें समझाऊँगी।

गंगी रोज सोचती-वह आते होंगे, पर ठाकुर न आये। फिर होली आयी। फिर गाँव में फाग होने लगा। रमणियों ने फिर गुलाबी साडिय़ाँ पहनीं। फिर रंग घोला गया। मैकू ने भंग, चरस, गाँजा मँगवाया। गंगी ने फिर मीठी और नमकीन भंग बनाई! द्वार पर टाट बिछ गया। व्यवहारी लोग आने लगे। मगर कोठार से कोई नहीं आया। शाम हो गयी। किसी का पता नहीं! गंगी बेकरार थी। कभी भीतर जाती, कभी बाहर आती। भाई से पूछती-क्या कोठार वाले नहीं आये? भाई कहता-नहीं। दादा से पूछती-भंग तो नहीं बची, कोठार वाले आवेंगे तो क्या पीयेंगे? दादा कहते-अब क्या रात को आवेंगे, सामने तो गाँव है। आते होते तो दिखाई देते।

रात हो गयी, पर गंगी को अभी तक आशा लगी हुई थी। वह मन्दिर के ऊपर चढ़ गयी और कोठार की ओर निगाह दौड़ाई। कोई न आता था।

सहसा उसे उसी सिवाने की ओर आग दहकती हुई दिखाई दी। देखते-देखते ज्वाला प्रचण्ड हो गयी। यह क्या! वहाँ आज होली जल रही है। होली तो कल ही जल गयी। कौन जाने वहाँ पण्डितों ने आज होली जलाने की सायत बतायी हो। तभी वे लोग आज नहीं आये। कल आएँगे।

उसने घर आकर मैकू से कहा – दादा, कोठार में तो आज होली जली है।

मैकू – दुत् पगली! होली सब जगह कल जल गयी।

गंगी – तुम मानते नहीं हो, मैं मन्दिर पर से देख आयी हूँ। होली जल रही है। न पतियाते हो तो चलो, मैं दिखा दूँ।

मैकू – अच्छा चल देखूँ।

मैकू ने गंगी के साथ मन्दिर की छत पर आकर देखा। एक मिनट तक देखते रहे। फिर बिना कुछ बोले नीचे उतर आये।

गंगी ने कहा – है होली कि नहीं, तुम न मानते थे?

 

मैकू – होली नहीं है पगली-चिता है। कोई मर गया है। तभी आज कोठार वाले नहीं आये।

गंगी का कलेजा धक्-से हो गया। इतने में किसी ने नीचे से पुकारा-मैकू महतो, कोठार के ग़रीबसिंह गुजर गये।

मैकू नीचे चले गये, पर गंगी वहीं स्तम्भित खड़ी रही। कुछ खबर न रही-मैं कौन हूँ, कहाँ हूँ, मालूम हुआ जैसे ग़रीबसिंह उस सुदूर चिता से निकलकर उसकी ओर देख रहा है-वही दृष्टि थी, वही चेहरा, क्या उसे वह भूल सकती थी? उस दिवस से फिर कभी होली देखने नहीं गयी। होली हर साल आती थी, हर साल उसी तरह भंग बनती थी, हर साल उसी तरह फाग होता था; हर साल अबीर-गुलाल उड़ती थी, पर गंगी के लिए होली सदा के लिए चली गयी।

प्रेमचंद 


निबंध

 



होली

जीवन का लक्ष्य गति करना है। इस गति की प्रक्रिया में व्यक्ति के जीवन में बहुत सी चीजें सम्मिलित होती चली जाती है। त्यौहार भी उन्हीं में से एक है। भारत जैसे बहुप्रांतीय, बहुक्षेत्रीय देश में कई प्रकार के त्यौहार मनाए जाते हैं। मकर संक्रांति हो, होली हो, दीपावली हो, पूनम, ओनम, पोंगल, बिहू या वैशाखी हो। सभी त्यौहार की अपनी गरिमा और महत्त्व  है। हर त्यौहार की तरह होली का त्यौहार भी बड़ी धूम-धाम और हर्षोल्लास से मनाया जाता है यह त्यौहार रंगों का त्यौहार है। बुराई पर अच्छाई की जीत और वसंत ऋतु के आगमन का त्यौहार है। जिस प्रकार बसंत के आगमन के साथ धरा नया रूप रंग धारण कर अपनी खुशबू और सौंदर्य चारों ओर बिखेरते हुए लोगों में आनंद-उल्लास का संचार करती है। उसी प्रकार रंगों का त्यौहार होली भी लोगों के चेहरों के साथ-साथ उनके जीवन को भी खुशियों से भर देती है

      हमारे देश में वर्ष भर कोई न कोई त्यौहार मनाया जाता है। इन त्यौहारों की तिथि व समय निश्चित होती है। होली का त्यौहार फाल्गुन माह के पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। इस दिन लकड़ी, उपले, और पत्तियाँ इकट्ठा कर होलिका बनाई जाती है और मुहूर्त के अनुसार उसे जलाया जाता है। होली मनाने का पौराणिक महत्त्व होने के साथ-साथ सामाजिक और वैज्ञानिक महत्त्व  भी है।

       पौराणिक मान्यता के अनुसार नृसिंह रूप में भगवान इसी दिन प्रगट हुए थे, जिन्होंने हिरण्यकश्यप का वध किया था हम सभी जानते हैं कि प्रहलाद हिरण्यकश्यप का पुत्र था। वह भगवान विष्णु की पूजा-उपासना करता था। हिरण्यकश्यप स्वयं को ही सर्वशक्तिमान समझने की लगा था। उसे इस बात का अभिमान था कि वह भगवान जितना ही शक्तिशाली है इसीलिए वह चाहता था कि सभी उसी की पूजा करें अपने पुत्र को भी उसने विष्णु का नाम छोड़कर स्वयं की ही पूजा करने के लिए कहा प्रहलाद ने इसे मानने से अस्वीकार कर दिया। क्रोधित हो हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका से प्रहलाद का वध करने के लिए कहा होलिका को यह वरदान प्राप्त था कि अग्नि में वह जल नहीं सकती इसी कारण वह प्रहलाद को लेकर अग्नि में बैठती है किंतु प्रहलाद की भक्ति के समक्षसका वरदान निष्फल होता है, वह जलकर मर जाती है और प्रहलाद जीवित रहता है। इसकी खुशी में होली मनाई जाती है। इस प्रकार की कई दंतकथाएँ हमारे यहाँ प्रचलित हैं। शिवपुराण की कथा के अनुसार शिवजी तपस्या में लीन थे और पार्वती उनसे विवाह करना चाहती थी शिव की तपस्या भंग करना इंद्र के लिए अनिवार्य था क्योंकि ताड़कासुर नामक राक्षस का वध शिव-पार्वती के पुत्र द्वारा होना था। इसी कारण इंद्र, शिव तपस्या भंग करने के लिए कामदेव को भेजते हैं। शिवजी क्रोधित हो कामदेव को भस्म कर देते हैं, किंतु उनकी तपस्या भी भंग हो जाती है और उनका विवाह पार्वती से हो जाता है। इस खुशी में रंगो द्वारा, फूलों द्वारा अपनी खुशी को अभिव्यक्त किया जाता है

     एक अन्य मान्यता के अनुसार वासुदेव और देवकी के विवाह के पश्चात देवकी की विदाई के समय जब यह आकाशवाणी होती है कि देवकी के आठवें पुत्र द्वारा कंस का वध होगा। अपनी बहन के एक-एक कर सभी पुत्रों की हत्या के पश्चान कृष्ण के जन्म लेते ही उन्हें नंद और यशोदा के यहाँ छोड़ कर उनकी कन्या को लेकर वासुदेव लौटते हैं। कंस उस कन्या का भी वध करना चाहता है तभी आकाशवाणी होती है कि वासुदेव के आठवें पुत्र ने जन्म ले लिया है, यह सुनकर कंस गोकुल में जन्में सभी नवजात शिशुओं की हत्या के लिए पूतना राक्षसी को भेजता है किंतु कृष्ण द्वारा उनका वध कर दिया जाता है, इस दिन फाल्गुन पूर्णिमा थी और ग्राम वासियों ने अपनी खुशी को अभिव्यक्त करने के लिए रंगों का त्यौहार मनाया।

      बसंत ऋतु में एक दूसरे पर रंग, फूल डाल कर इसके अतिरिक्त बसंत ऋतु में राधा-कृष्ण एक दूसरे पर रंग और फूलों की वर्षा कर अपने प्रेम को व्यक्त करते थे इसी कारण राधा-कृष्ण के प्रेम को अभिव्यक्त करता यह त्यौहार मनाया जाता है। ऐसी कई दंतकथाएँ और मान्यताएँ हमारे समाज में व्याप्त है किंतु इसका सबसे बड़ा उद्देश्य बुराई पर अच्छाई का विजय है।

      फाल्गुन पूर्णिमा की रात में होलिका दहन किया जाता है कई प्रांतों में ठंडी होली की पूजा का महत्त्व  है अर्थात होलिका को जलाने के पूर्व उसके चारों ओर घूम कर जल से प्रदक्षिणा कर उसमें श्रीफल डाला जाता है। इसके पीछे का उद्देश्य यह है कि अग्नि देव प्रहलाद अर्थात भक्तों की रक्षा करें ऐसी विनती की जाती है तथा कई जगहों पर जलती होलिका की पूजा की जाती है जिसका उद्देश्य है कि अग्नि अपनी लपटों द्वारा बुराई को खत्म कर अच्छाई की रक्षा करे।

     हमारे देश के अधिकतर हिस्सों में किसी न किसी रूप में यह त्यौहार मनाया जाता है किंतु कुछ प्रदेश ऐसे हैं जहाँ की होली विश्व विख्यात है। जैसे वृंदावन में फूलों की होली का विशेष महत्त्व  है यहाँ यह त्यौहार एकादशी के दिन से ही प्रारंभ हो जाता है यहाँ के मंदिरों और गली-मोहल्लों में उल्लास का वातावरण होता है वृंदावन के बाँके बिहारी मंदिर की होली तो सबसे विशेष होती है। बाँके बिहारी की मूर्ति को मंदिर के बाहर किया जाता है और सभी यही मानते हैं कि भगवान स्वयं होली खेलने उनके बीच आए हैं। सबसे पहले फूल, उसके बाद गुलाल के साथ सूखे और गीले रंगों से होली खेली जाती है किंतु विशेष रूप से फूलों से खेली जाने के कारण इसे फूलों की होली कहा जाता है

       ब्रज के बरसाने गाँव की लठमार होली भी विश्व प्रसिद्ध है इसे राधा-कृष्ण के प्रेम से जोड़ा जाता है। कृष्णा अपने मित्रों के साथ राधा तथा उनकी सखियों को तंग करते थे तब यह मिलकर उन्हें मारती थी। यहाँ होली के अवसर पर नंद गाँव के पुरुष और बरसाने की महिलाएँ भाग लेती हैं नंदगाँव की टोली जब बरसाने जो कि राधा का गाँव था। वहां पहुंचती हैं तब महिलाएँ-पुरुषों को लाठियों से पीटती हैं। पुरुषों की इन लाठियों की मार से बचते हुए महिलाओं को रंगों से भिगोना होता हैबड़ी संख्या में लोग इसमें भाग लेते हैं।

    पंजाब का होला-मोहल्ला भी इस दृष्टि से प्रसिद्ध है सिख गुरु गोविंद सिंह ने इसकी शुरुआत की थी इसमें पंच-प्यारे जुलूस का नेतृत्व करते हुए रंगों की बरसात करते हैं और निहंगों के अखाड़े नंगी तलवारों के करतब दिखाकर अपने साहस, पौरुष और उल्लास का प्रदर्शन करते हैं

    हरियाणा की ‘धूलेंड़ी हरियाणा की होली भी बरसाने की होली से काफी हद तक मिलती-जुलती है किंतु यहाँ भाभी-देवर के बीच यह होता है इस दिन भाभियों को देवरों को पीटने की पूरी स्वतंत्रता होती है पूरे दिन भर की पिटाई के बाद शाम को देवर अपनी भाभी को मनाने के लिए उपहार लाता है और भाभी उन्हें आशीर्वाद देती हैं।

    बिहार की फाल्गु-पूर्णिमा फागु का अर्थ होता है लाल रंग और पूर्णिमा का अर्थ पूरा चाँद। बिहार में होली के अवसर पर फगुआ गाया जाता है जो काफी प्रसिद्ध लोक गायन का एक प्रकार है बिहार तथा उत्तर-प्रदेश के कई हिस्से में इसे नव वर्ष के उत्सव के रूप में मनाते हैं यहाँ तीन दिन तक होली मनाई जाती है पहले दिन होलिका दहन दूसरे दिन इससे निकली राख से होली खेलना और तीसरे दिन रंगों से खेला जाता है। कई जगहों पर कीचड़ से भी होली खेली जाती है तो कई जगह कपड़ा फाड़ होली की परंपरा भी है

       राजस्थान की होली भी काफी प्रसिद्ध है यहाँ होली के अवसर पर तमाशे की परंपरा है इसमें किसी नुक्कड़ नाटक की तरह मंच-सज्जा के साथ कलाकार आते हैं और नित्य तथा अभिनय से अपने-अपने हुनर का प्रदर्शन करते हैं।

     होली के त्यौहार को मनाने की परंपरा काफी प्राचीन है सात पुरातन धार्मिक पुस्तकों में इस पर्व का वर्णन मिलता है जैमिनी के पूर्व मीमांसा सूत्र और कथा गार्ह्य सूत और भविष्य पुराण जैसे पुराणों की हस्तलिपिओं और ग्रंथों में उल्लेख है। मुगल काल में अकबर-जोधाबाई तथा हांगीर-नूरजहां के भी होली खेलने का वर्णन प्राप्त होता है

    इस प्रकार पूरे देश में होली का त्यौहार विविध रूप में मनाया जाता है। जिस प्रकार रंग तथा फूलों की खुशबू जीवन को आनंददायक बनाती है उसी प्रकार होली का त्यौहार भी नववर्ष के आगमन के साथ जीवन में ढेरों खुशियाँ भर देता है


 

डॉ. अनिला मिश्रा

हिंदी-विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय

वल्लभ विद्यानगर

 

   

अप्रैल 2024, अंक 46

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