सोमवार, 24 अक्तूबर 2022

अक्टूबर – 2022, अंक – 27

 


शब्द-सृष्टि 

अक्टूबर – 2022, अंक – 27

दीपोत्सव की अशेष शुभकामनाओं के साथ...


विचार स्तवक

व्याकरण विमर्श – डॉ. योगेंद्रनाथ मिश्र

सार /ललित छन्द – छलनी लेकर हाथों में – ज्योत्स्ना शर्मा प्रदीप

कविता – मैं उजाला बाँटता हूँ – त्रिलोक सिंह ठकुरेला

ग़ज़ल – हिमकर श्याम

कविता – वो शख़्स – प्रीति अग्रवाल

हाइगा – डॉ. पूर्वा शर्मा

लघुकथा – सदा सुहागिन – श्यामसुंदर अग्रवाल

लघुकथा – खाँचा – सत्या शर्मा ‘कीर्ति’

आलेख – भारतीय लोकनाट्य (‘नौटंकी’ और ‘भवाई’ के विशेष सन्दर्भ में) – डॉ. हसमुख परमार

आलेख – भक्तिकाव्य का मूल्यांकन और विश्वनाथ त्रिपाठी – डॉ. भरत वणकर

आलेख – ‘तलब’ : दलित समाज की संवेदनाओं की अभिव्यक्ति – डॉ. प्रदिपकुमार महिडा

हाइगा

 





आलेख

 




‘तलब’ : दलित समाज की संवेदनाओं की अभिव्यक्ति

डॉ. प्रदिपकुमार महिडा

          हरीश मंगलम गुजराती दलित साहित्य के प्रतिष्ठित रचनाकार है। चोकी, तिराड़ जैसे लघु उपन्यासों के साथ-साथ दलित कहानी लेखन में भी उनका योगदान महत्वपूर्ण है, ‘तलब’ कहानी संग्रह इसका प्रमाण है। ‘तलब’ कहानी संग्रह की कहानियों के बारे में कहा जाए तो इसमें दलित जीवन का हर्ष, शोक, उसकी पीड़ा, दुःख, दर्द, दलित समाज में व्याप्त धार्मिक अंधश्रद्धा, तंत्र-मंत्र, जादू-टोना, पारंपरिक रीति-रिवाज, दलित समाज में चेतना लाने का प्रयास, सवर्ण समाज की ज्यादति, दलित समाज की कमियाँ, कमजोरियाँ आदि के साथ-साथ समस्त मानव जीवन की बुराईयों को भी बेपर्दा किया है। मंगलम् की कहानियों से हम गुजरते हैं तो हमें लगता है कि कहानियों की घटना का विषय हमारे आसपास व्याप्त समाज है, उसमें यथार्थता अधिक कल्पना कम दिखाई देती है।

          ‘तलब’ कहानी संग्रह में कुल चौदह कहानियाँ संकलित है, जिसमें सभी कहानियाँ दलित कहानियाँ नहीं हैं किन्तु हम यह अवश्य कह सकते हैं कि सभी कहानियों में कहीं न कहीं दलित समाज का जिक्र अवश्य हुआ है जिसकी विशद चर्चा यहाँ हम करेंगे। ‘तलब’ कहानी संग्रह की महत्वपूर्ण कहानी ‘दलो उर्फे दलसिंह’ है। प्रस्तुत कहानी में मुसीबतों का मारा दलित व्यक्ति अपने परिवार के पेट की भूख मिटाने के लिए जाति छिपाकर रोजी-रोटी कमाना चाहता है। किन्तु उसकी जाति का भाँड़ा फूट जाता है तभी सवर्ण समाज नेक, इमानदार, कर्तव्यनिष्ठ, फरजनिष्ठ जैसे उदात्त गुणों के धनी दला के साथ बेहूदा बर्ताव करके उसे मिटाने पर तुले समाज की सोच को बेनकाब करती यह कहानी है। अहमदाबाद में कपड़ा मिल बंद हो जाने की वजह से दलित वर्ग के कई लोग बेरोजगार हो जाते हैं, उनमें दला भी शामिल है। परिवार के पेट की भूख मिटाने के लिए वह कई जगह नौकरी ढुँढने जाता हैं किन्तु जाति से दलित था अतः उन्हें कहीं भी नौकरी नहीं मिलती इसलिए वह दला में से दलसिंह परमार (राजपूत) बनकर धनसुख लाल की दुकान में चौकीदारी की नौकरी पा लेता है, दुकान में रहे कई कर्मचारी उन्हें लालच भी देते हैं किन्तु दला इमानदार, नेक इन्सान था इसलिए उनकी बातों में नही आता, उतना ही नहीं वहाँ काम कर रहे भ्रष्ट कर्मचारियों को पकडवा देता है जिसकी वजह से उन्हें धनसुखलाल जैन मंदिर में चौकीदारी का हवाला देता है। चौकीदारी करते समय मूर्ति की चोरी करते हुए रतनसिंह को रंगे हाथ पकडवा देता है जिसकी वजह से सारा गाँव दला की कर्तव्यनिष्ठा, फरजनिष्ठा से अभिभूत हो जाता है। चारों तरफ दला की किर्ती फैल जाती है, कई सवर्ण तो उन्हें अपने घर भोजन का निमंत्रण देते है। सबकुछ अच्छा चल रहा था किन्तु एक दिन अचानक उनके दूर के रिश्तेदार से मिल जाने से उनकी असली जाति का भंडा फूट जाता है। फिर तो कहना ही क्या था सारे गाँव वालों का रवैया बदल जाता है, सारे सवर्ण एकजुट होकर दला को खोजते हैं, उनको लगता है कि दला ने उनके साथ छलकपट किया है। उसकी कर्तव्यनिष्ठा, फरजनिष्ठा की प्रशंसा करनेवाले उन्हें अब मारने तुले हैं, किन्तु दला कहीं भाग जाता है। यहाँ कहानीकार ने यह बताने की कोशिश की है कि उदात मानवमूल्यों के आगे जातिगत भेदभाव जीत जाता है।

          ‘उटाटियों’ (कुकुरखाँसी) कहानी में सभ्य समाज का रवैया कितना तकवादी एवं खोखला है उसका पर्दाफाश किया है। मुसीबतों में फँसा सवर्ण समाज दलित समाज के व्यक्तियों से अपना काम निकाल लेता है, किन्तु जब अपना स्वार्थ सिद्ध हो जाता है तभी उनका रवैया कितना बदल जाता है, दलित समाज के व्यक्ति को तुच्छ, निम्न समझकर उसकी अवहेलना की जाती है, इस भाव को प्रस्तुत कहानी में कहानीकार ने अभिव्यक्त किया है। गाँव में कुकुरखाँसी का रोग फैल जाता है जिसको मिटाने कचरा एवं रतन अपने चर्मकुंड से गाँव के बच्चों को छींटे पिलाकर रोगमुक्त करते हैं, जिनमें हरगोवन पटेल भी शामिल था। रोगमुक्त हो जाने के बाद गाँव वाले कचरा एवं रतन को सम्मान की नजरों से देखते हैं। किन्तु जैसे ही सरकार के महत्तम जमीन मर्यादा कानून के तहत हरगोवन पटेल की जमीन कचरा को देने का निर्णय लिया तो वहीं हरगोवन पटेल एवं उनकी जाति बिरादरी वाले कचरा को जमीन न लेने की सलाह, धमकियाँ देते हैं, किन्तु कचरा अपने निर्णय पर अडिग था। दलित व्यक्ति सवर्णों की जमीन कैसे ले सकता है यह बात सभ्य समाज कैसे बर्दाश्त कर सकता। अतः खेत जुताई के दिन सारे सवर्ण एकजुट होकर कचरा को मारने आ धमकते हैं।      

‘दायण’ (दाई) मानवमूल्यों को चिरतार्थ करती दलित नारी की एक संवेदनशील कहानी है, साथ-साथ कहानीकार ने यहाँ बाल मनोविज्ञान का सफल विनियोग किया है। मनोविज्ञान के अनुसार बच्चों पर अधिक छाप अपने परिवार एवम् समाज की पड़ती है। बच्चे नहीं जानते कि ऊँच-नीच, जात-पाँत, सवर्ण-अवर्ण क्या है, किन्तु उनके समाज द्वारा सिखाया वही संस्कार पीढ़ी-दर पीढ़ी में हस्तांतरण होता रहता है। दाई के रूप में काम करनेवाली बेनीमा सेवा परायण वृद्धा है। बेनीमा की गहरी सूझ-बूझ से बलदेव पटेल की बहू पशली को सफल प्रसूति होती है। पशली एवं उनका बेटा जिन्दा है उनकी आभारी बेनीमा है किन्तु उनके कार्य को भूला दिया जाता है। पशली का मानना था कि उसे तो राम कबीर की मन्नत फली है। अब कहानीकार हमें पिछले दस साल की घटना में ले जाते हैं जहाँ पशली की देवरानी दलि एवं उनके बेटा डायला को बेनीमां ने ही बचाया था किन्तु वही डायला आज बडा होकर बेनीमा को अपने नजदीक आते देखकर अपमान जनक शब्द कहता है। जिससे बेनीमां के दिल पर गहरी चोट लगती है, किन्तु यह चोट पूरे मानवजात पर लगती है। निरक्षरता एवं अंधश्रद्धा समाज के लिए घातक है। समाज शिक्षित नहीं होगा तो अंधश्रद्धा में बढावा होगा, जिससे समाज की प्रगति संभव नही होगी। आज हम देखते हैं कि पिछड़े समाज की सबसे बड़ी समस्या निरक्षरता है, जिसकी वजह से अनपढ़ समाज अंधश्रद्धा में फँसकर पायमाल होता जा रहा है। अंधश्रद्धा से समाज का आर्थिक, सामाजिक अधःपतन होता जा रहा है। अंधश्रद्धा से समाज का आर्थिक, सामाजिक अधःपतन निश्चित है यह बात कहानीकार ने वरपडुं (भूत-प्रेत) कहानी में प्रस्तुत की है। साथ-साथ माधोभा के पात्र द्वारा कहानीकार ने कहानी के अंत में दलित समाज में व्याप्त अंधश्रद्धा एवं रीत-रिवाजों का खंडन करके दलित समाज में चेतना लाने का प्रयास किया है। माधोभा की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी जिसके कारण पुत्र धर्मेन्द्र को पढ़ा नहीं पाया किन्तु वही धर्मेन्द्र बड़ा होकर शहर में कपड़ा मिल में नौकरी पाकर अपने परिवार को सुख-सुविधाएँ दे रहा है। इसी दौरान धर्मेन्द्र की पत्नी हंसा गोद भराई के बाद पिहर जाती है, वहाँ पुत्र को जन्म देती है। सफल प्रसूति के बाद प्रसूति में लगने वाली बिमारी का शिकार हो जाती है किन्तु गाँववालों को लगता है कि हंसा को भूत-प्रेत ने जकड लिया है इसलिए भूत-प्रेत भगाने वाले जुगा रबारी का संपर्क किया जाता है। जुगा-रबारी धूर्त था वह भोलेभाले गाँववालों एवं माधोभा को समझाता है कि हंसा को शिकोतर लग गई है जिसको भगाने समय लगेगा। किन्तु समयावधि अधिक लगने से हंसा की मौत हो जाती है। गाँववालों को लगता है कि हंसा के आखिरकार भूत-प्रेत ने प्राण हर लिए। माधोभा का सुखी परिवार इस घटना से सहम जाता है। कुछ समय बाद एक दिन जुगा रबारी इस घटना से सहम जाता है। एक दिन जुगा रबारी माधोभा को आश्वासन देने उनके घर आ धमकता है तभी माधोभा सहज रूप से पूछ बैठता है कि तुम्हारी ईहल देवी कहाँ-गई जिससे जुगा शर्मसार होकर अपने पाखंड को ढँकने के लिए कह देता है- अरे भाई ईहल देवी, हरिजन के देह में क्यो प्रवेश करेगी और जब तक वह प्रवेश न कर तब तक भीतर बैठी वंतरी बाहर कैसे निकलेगी।2 जवाब सुनकर माधोभा की आत्मा काँप उठती है, और जगा रबारी को चले जाने के बाद जहाँ ईहल माता का मंदिर था वही जाकर उसे तोड़ देता है।

          ‘खोट’ (कमी) कहानी में कहानीकार ने वर्तमान समय में पारिवारिक संबंध कितने खोखले, बनावटी हो गये हैं यही दिखाने की कोशिश की है। प्रस्तुत कहानी में मगनबापा का दो वक्त की रोटी ठीक से न मिलने की वजह से शरीर अशक्त हो जाता है किन्तु संबंधियों को लगता है कि बूढ़ा अब ज्यादा जीने वाला नहीं है। अतः स्वजन दिखावे का नाता निभाते हुए क्षेम-कुशल पूछकर चले जाते हैं, किन्तु कोई भी स्वजन मगनबापा को अस्पताल नहीं पहुँचाते। इसी दौरान धीरजकुमार का कहानी में प्रवेश होता है वह मगनबापा को अस्पताल पहुँचाता है। डॉक्टर निदान करते हैं, मगनबापा को कोई रोग नहीं है किन्तु सही ढंग से खाना नहीं मिलने की वजह से शरीर अशक्त हो गया है, फिर मगनबापा की अच्छी खातिरदारी की जाती है। कहानी के अंत में कहानीकार लिखते हैं कि आज मगनबापा ठाठ से जी रहा है। यहाँ खोट यानी की सच्चे स्वजनों की कमी।

          ‘वृत्त’ (कुंडालुं) ऴ कहानी की समस्या पूरे मानवजात की समस्या है। शंका का कोई समाधान नहीं वह बढ़ती ही जाती है और आगे जाकर भयानक स्वरूप धारण करती है, इस भाव को प्रस्तुत कहानी में दर्शाया गया है। हरजी का बचपन अभावों में भी बीता था, आर्थिक विपन्नता के चलते उसने अपने घर में कई झगड़े देखे थे। अतः नौकरी पाकर किसी के साथ झगडाटंटा नहीं करने एवं माँ की सलाह पराई कन्या बहन समान और पराई औरत माँ समान3 की सीख को अपने जीवन में उतार लेता है। जिस व्यक्ति को अपने परिवार के पालन-पोषण की पड़ी हो उनके लिए बाहर की दुनिया में झाँकने का अवकाश नहीं रहता, किन्तु हरजी की पत्नी सरला उनके सहकर्मी एवं आसपास रहने वाली औरतों की हरजी पर शंका-कुशंका करके उनका जीवन कष्टसाध्य बना देती है।

          दलित समाज का व्यक्ति पढ़-लिखकर, परिश्रम करके आज अच्छे पद पर बिराजमान हैं। फिर भी जातिभेद का ब्रह्मराक्षस उसका पीछा नहीं छोडता यह बात ‘एबोर्सन’ कहानी में प्रस्तुत की गई है। काफी दिक्कतों के बाद इन्दू को गर्भ ठहरता है इसलिए डॉक्टर उसे आराम करने की सलाह देता है। यदि इन्दू आराम करेगी तो घर का काम कौन करेगा यही सोचकर इन्दू का पति दिनेश वाघरी, रबारी कौम की लड़कियों को अधिक पैसे का लालच देकर घरकाम करने बुलाता है किन्तु दिनेश एवं इन्दु चमार जाति से है इसलिए कोई न कोई बहाना बनाकर लड़कियों के माँ-बाप काम पर नहीं भेजते। प्रस्तुत कहानी में किस हद तक जातिभेद घर कर गया है यह दिखाना कहानीकार का उद्देश्य रहा है।

          ‘मोभ’ कहानी में ईश्वर क्षयग्रस्त है उसका इलाज करने रेवा और मथूर अस्पताल ले जाते हैं किन्तु एक रात गुजारकर वह दोनों सवेरे अस्पताल से छुट्टी लेकर अपने गाँव जाने वाले हैं किन्तु रास्ते में ईश्वर की मौत हो जाती है। शहर में अतिवृष्टि होने की वजह से सन्नाटा छाया है कोई भी वाहन वाला उन्हें गाँव ले जाने तैयार नहीं है इसलिए दोनों असमंजस में पड़ जाते हैं कि यदि ईश्वर की देह को गाँव नहीं पहुँचाया तो गाँव वाले जिंदगी भर ताना मारेंगे अतः बहुत कठिनाई के बाद मृत देह की गाँव  पहुँचाया जाता है। ईश्वर की मौत से सारा गाँव गमगीन हो जाता है। ईश्वर का पिता ईश्वर द्वारा की गई पारिवारिक जिम्मेदारियों को बताकर रो पडता है, जेठुभा कहता है- आज मेरे घर का मोभ टुट गया।4 यहाँ मोभ यानी घर का आधार जिस पर पूरा घर टिका होता है, यदि घर चलानेवाला व्यक्ति मर जाता है तो उनके घर पर आनेवाली मुसीबतों का आभास कहानीकार ने प्रस्तुत किया है।

          ‘शोध’ (खोज) कहानी नारी जीवन की विडम्बनाओं, उसकी संवेदनाओं को उजागर करती कहानी है। साथ-साथ एन.जिन्टो जैसे उम्दा पुरुष द्वारा नारी को मान-सम्मान देते दिखाकर कहानीकार ने नेक इन्सान का चित्र हमारे सामने अंकित किया है। सीमा का पहला पति राकेश उसे छोडकर अमेरिका में किसी अन्य स्त्री के साथ शादी कर लेता है। दूसरा पति तुषार भी अन्य स्त्रियों से अनैतिक संबंध बनाते फिरता है इसे भी सीमा छोड देती है। कई पुरुष सीमा की सुंदरता को देखकर उनके साथ औपचारिक संबंध बनाना चाहते हैं किन्तु कोई भी उसकी वेदना समझने तैयार नहीं है, इसलिए सीमा थककर अच्छे पुरुष की खोज में निकलती है जिसे एन. जिन्टो जैसा नेक इन्सान मिलता है।

          ‘तलप’ (तलब) कहानी में भला को बीड़ी पीने की आदत है, किन्तु आर्थिक विपन्नता के चलते वह बीड़ी खरीद नहीं पाता, वह गाँव के चौराहे पर फैंक दिये गये ठूँठे से अपना काम चला लेता है। एक रोज उन्हें बीड़ी पीने की तीव्र इच्छा हो गई वह चौराहे पर गया किन्तु वहाँ कोई इन्तजाम न हो पाया इसलिए शवली से बीड़ी के पैसे माँगते वक्त, शवली जहाँ पाकिट रखती थी वहाँ अनायास स्पर्श हो जाता है। भला के स्पर्श से शवली रोमांचित हो जाती है। अब दोनों को एकदूसरे से मिलने की अदम्य इच्छा होती है किन्तु उसी समय शवली की शादी हो जाती है जिससे दोनों की तलब अतृप्त रह जाती है।

          ‘ज्वाला’ कहानी समाज में व्याप्त जातिभेद किस हद तक फैल गया है उसको बयाँ करती कहानी है, कहानी प्रतीकात्मक है। कहानी में कोई घटना या प्रसंग नहीं है। उसे खुजली हुई है और वह खुजलाता रहता है डॉक्टरने उसे मिटाने के प्रयास किए किन्तु खुजली काफ़ी  पुरानी है इसलिए मिटने में देर लगेगी, किन्तु अधिक समय हो जाने के बाद भी खुजली मिटती नहीं। अतः वह दुःखी है। फिर बाद में उसे ज्ञात होता है कि यह खुजली सिर्फ उन्हें अकेले को नहीं हुई, कइयों को हुई है। खुजली को मिटाने का प्रयास हुए हैं किन्तु यह सारे प्रयास सिर्फ दिखावे के लिए है यदि डॉक्टर खुजली को मिटा देगा तो उसकी दुकान कैसे चलेगी यही सोचकर वह खुजली को संपूर्ण मिटाना नहीं चाहता। कहानी में एकाध प्रामाणिक डॉक्टर की बात की गई है वह शायद बाबा साहब अम्बेड़कर की ओर इशारा करती है।

          ‘श्रद्धा’ नारी जीवन को स्पर्श करती कहानी है। संकरभा और माणेकबा का इकलौता पुत्र बचुडा विवाह के कुछ समय पश्चात कहीं खो जाता है जिसकी वजह से संकरभा पागल हो जाता है। और माणेकबा शिवजी पर आस्था लगाये रात-दिन पूजा करती रहती है। नवविवाहित नारियों की भाँति बचुडा की पत्नी धनी भी भविष्य के सुंदर सपने सजाती हैं किन्तु उनकी स्थिति तो बदतर हो जाती है, क्योंकि गाँव वाले उनको ताने मारते रहते हैं कि इस औरत का पैर घर में पडते ही बचुडा कहीं खो गया, ऊपर से घऱ चलाने की पूरी जिम्मेदारी उन पर आ पडती है। इन परिस्थितियों में धनी अंदर से टूट जाती है किन्तु उनकी आशा भी अमर है कि बचुडा कहीं से आ जायेगा। निरंतर मजदूरी से जुड़ी धनी को एक दिन सुंदरलाल सेठ खलिहान में तम्बाकू के अच्छे-बुरे पत्तों को अलग करने की जिम्मेदारी सौंपी। धनी जहाँ काम करती थी वह जगह अन्य मजूदूरों से अलग थी, इसलिए धनसुखलाल सेठ उसका फायदा उठाकर धनी के साथ संबंध बना लेता है और दोगुनी दहाड़ी देता है। इस प्रकार कई दिनो तक चलता रहता है किन्तु अनुभवी तरवी सबकुछ जानकर सुंदरलाल के कारस्तानों एवं उनकी पत्नी की दयनीय दशा की कथनी सुनाती है जिससे नारी हृदय नारी की वेदना सुनकर पिघल जाता है और पुन: स्थिरता धारण कर लेती है।

          पंगदंडी दलित चेतना को उजागर करती कहानी है। गाँव के दलित मजदूर जल्द-जल्द काम पर पहुँचाने के लिए सवर्ण बेचर के खेत से गुजरती पंगदंडी का उपयोग करते है। बेचर फावड़ा लेकर शिवा, धनजी और ईश्वर के पीछे पड जाता है। तीनों जान बचाकर भागने लगते हैं। किन्तु बेचर उन्हे छोड़नेवाला नहीं था दूर तक पीछा करता है। तीनों थककर गाँव के सिरफिरे धूलसिंह का आश्रय पाकर बच जाते हैं। धूलसिंह तीनों को उनका प्रतिकार करने की सलाह देता है। जिससे तीनों का स्वाभिमान जाग उठता है और एक दिन आव देकर बेचर की पिटाई की जाती है। मार खारक बेचर की स्थिति बड़ी दयनीय हो जाती है क्योंकि वह किसी को दलितों के हाथ मार खाई ऐसा कह भी नहीं सकता। अतः कई दिनों तक गायब रहता है। एक बार स्वाभिमान जाग उठ़ा दलित शिवा फिरसे सबक सिखाने वही पगदंडी का इस्तेमाल करता है किन्तु डर के मारे बेचर उनका प्रतिकार नहीं करता।

          संक्षेप में कहें तो ‘तलब’ कहानी संग्रह की कहानियाँ दलित समाज की संवेदनाओं को उजागर करती कहानियाँ है। जिस प्रकार की दलित समाज की वास्तविक स्थिति-परिस्थितियाँ है उसी प्रकार का वर्णन करने में कहानीकार सफल हुए हैं। सवर्णों द्वारा दलितों को प्रताड़ित करनेवाली कहानियों में ‘दलो उर्फ दलसिंह’, ‘उटाटियो’, ‘दायण’, ‘एबोर्सन’, ‘पगदंडी’ एवं ‘ज्वाला’ है। ‘पगदंडी’ को दलित चेतना संबंधी कहानी कह सकते हैं। नारी की विडम्बनाओं को प्रस्तुत करती कहानियाँ ‘दायण’, ‘शोध’, एवं ‘श्रद्धा’ है। ‘तलब’ एवं ‘प्रेम एज सत्य’ वासनामुक्त प्रेम के आदर्शों को प्रस्तुत करती कहानियाँ है। ‘खोट’ कहानी में खोखले पारिवारिक संबंधों को प्रस्तुत किया है जबकि ‘मोभा’ कहानी में कमानेवाले घर के मुख्य व्यक्ति का देहांत होने से आनेवाली संभवित दिक्कतों को उजागर करती कहानी है। उपर्युक्त सभी कहानियाँ दलित समाज की वेदना, संवेदना को वाणी देने का माध्यम है।

संदर्भ सूची

1.  ‘तलब’, हरीश मंगलम, कुमकुम प्रकाशन, गाँधीरोड अहमदाबाद, पृ. 64

2.  वही, पृ. 128

3.  वही, पृ. 101

4.  वही, पृ. 76            

 

 

डॉ. प्रदिपकुमार महिडा

डगेरीया (दाहोद)

गुजरात

आलेख

 


भारतीय लोकनाट्य

(नौटंकी और भवाई के विशेष सन्दर्भ में)



डॉ. हसमुख परमार

लोकगीत, लोककथा व लोकगाथा की तरह लोकनाट्य भी लोकसाहित्य की एक प्रमुख, प्रसिद्ध व प्राचीन विधा है।  कथावस्तु के साथ गीत, संगीत व नृत्य का साहचर्य लिए हुए अभिनय के ज़रिए लोक को ज्ञान एवं मनोरंजन प्रदान करने वाला यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लोककला का रूप है।  लोक की सहजता, स्वाभाविकता व सादगी लोक नाट्यों की प्रस्तुति में बखूबी पायी जाती है।  मंचसज्जा, वेशभूषा, संवाद, संगीत, दृश्यविधान, पात्रदृष्टि, अभिनय आदि में लोकनाट्य शिष्ट नाट्य से थोड़ा भिन्न होता है।  बाहरी ताम-झाम व कृत्रिमता से दूर रहने वाले लोकनाट्य में शिष्ट रंगमंचों जैसी मंचसज्जा, प्रकाश योजना, पर्दा एवं अन्य अत्याधुनिक सुविधाएँ नहीं होती।  बहुत ही पारंपरिक व सादगीपूर्ण ढंग से इन नाटकों का मंचन होता है।  “लोकनाट्य के आयोजन से पूर्व विशिष्ट ताम-झाम की आवश्यकता नहीं होती।  गाँव में किसी भी उपयुक्त स्थान पर मंच के रूप में  एक तख़्त डाल दिया जाता है।  जिसके चारों तरफ़ दर्शक बैठकर या खड़े होकर लोकनाट्य का रस लेते हैं।  कभी-कभी या कुछ प्रकार के लोकनाट्यों में तख़्त डालने की भी आवश्यता नहीं होती।  पात्र ज़मीन पर ही अभिनय करते हैं और दर्शक चारों ओर घेरा बनाकर नाटक का आनंद लेते हैं। इसमें प्रकाश व्यवस्था भी अतिसाधारण होती है। ”1

लोकजीवन के मनोरंजन एवं लोकजीवन की विविध भावनाओं को प्रकट करने हेतु होने वाले ये नाटक शास्त्रीय नियमों से मुक्त होते हैं।  धार्मिक, ऐतिहासिक, पौराणिक कथावस्तु के अतिरिक्त सामाजिक कथा प्रसंगों से भी ये नाटक जुड़े रहे हैं।  इन नाटकों में ज्यादातर पुरुष पात्र ही होते हैं।  जहाँ स्त्री की भूमिका होती है वहाँ स्त्रियों का अभिनय पुरुष ही करते हैं।  कुछ प्रस्तुतियों में पुरुषों के साथ स्त्रियों का भी समावेश किया जाता है।  अलग-अलग किरदारों का अभिनय ये पात्र बहुत ही अच्छी तरह से करते हैं इसके लिए इन्हें कुछ विशेष प्रकार की तैयारी नहीं कराई जाती।  इन पात्रों की वेशभूषा और मेकअप भी सामान्य होता है।  “इन नाटकों में किसी विशेष प्रकार के प्रसाधन, अलंकार, बहुमूल्य वस्त्र आदि की आवश्यकता नहीं होती। कोयला, काजल, खड़िया आदि देशी प्रसाधन से मुख को प्रसाधित कर तथा उपयुक्त वेशभूषा धारण कर पात्र मंच पर आते हैं। ”2  

पात्रों के संवादों की भाषा भी अकृत्रिम होती है।  लोक के रंग व राग भी हम इन लोकनाट्यों में देख-सुन सकते हैं।  भाषा व अभिनय की सहजता की वजह से ही अभिनय करने वाले पात्रों और दर्शकों में बड़ा ‘गैप’ नहीं रहता।  डॉ. कुंदनलाल उप्रेती के शब्दों में “लोकनाटक शास्त्रीय तंत्र तथा रचना विधान से इतर लोकमानस की सहज स्वाभाविक अभिव्यक्ति है जिसमें लोक परंपरा तथा चिर विकसित नाट्य रूढ़ियों का प्रदर्शन लोक मंच पर होता है।  इस लोक मंच का निर्माण भी लोक मानसिक होता है जो व्यवसायार्थन होकर अखाड़े के रूप में गली गलियारों में विद्यमान रहता है।  सभी लोकक्षेत्रों के उपादानों से निर्मित इन नाटकों का रचयिता भी लोक होता है। ”3  

भारत के विविध प्रांत प्रदेशों में अलग-अलग नाम से विभिन्न प्रकार के लोकनाटक प्रचलित  है – नौटंकी, रामलीला(उत्तर भारत) ; रासलीला (पश्चिमी उत्तरप्रदेश - ब्रजप्रदेश) ; विदेसिया (बिहार) ; कीर्तनिया (मिथिला जनपद) ; स्वांग (हरियाणा) ; माच (मालवा) ; भाँड (कश्मीर) ; जात्रा, गंभीरा (बंगाल) ; तमाशा (महाराष्ट्र) ; भवाई (गुजरात) ; ख्याल, कठपुतली (राजस्थान) ; यक्षगान (दक्षिण भारत)।  

डॉ. मदनमोहन शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘प्रतिनिधि : भारतीय लोकरंग शैलियाँ’ में भारतवर्ष के विविध प्रदेशों में प्रचलित लोकरंग शैलियों (लोकनाट्य) की सूची इस प्रकार दी है –

· उत्तरभारत की लोकरंग शैलियाँ -  जश्न (भाँड पथ), नौटंकी, रामलीला, रासलीला, भगत,  विदेसिया, करियाला  

· पूर्वीभारत की लोकरंग शैलियाँ – अंकिया नाट, जात्रा, कीर्तनिया

· पश्चिमी भारत की लोकरंग शैलियाँ –तमाशा, भवाई, ख्याल, गवरी

· दक्षिण भारत की लोकरंग शैलियाँ – यक्षगान, कथकली, वीथिभागवतमू, तेरूकुल

· मध्यभारत की लोकरंग शैलियाँ – माच, नाचा

· अन्य भारतीय लोकरंग शैलियाँ –  ढाढीलीला, ललित, गोंधल, दशावतार, गंभीरा, नकाब, सांग, जटजटिन, कूटियाट्टम   

 



नौटंकी  :


उत्तरभारत का प्रमुख व अत्यधिक प्रसिद्ध लोकनाटक नौटंकी है।  लोकजीवन को मनोरंजन प्रदान करने में यह नाटक अपना सानी नहीं रखता।  यह नाटक धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक, के साथ- साथ सामाजिक एवं राष्ट्रीय कथावस्तु पर आधारित होता है।  नौटंकी के नामकरण व उत्पत्ति के संबंध में कई मत प्रचलित है।  पंजाब की एक लोककथा को नौटंकी की उत्पत्ति से जोड़ा गया है।  “नौटंकी नाम की एक राजकुमारी थी।  अपनी भाभी से ताने सुनकर फूलसिंह नामक एक नवयुवक उससे शादी करने के लिए निकल पड़ा।  एक मालिन की सहायता से वह महल में स्त्रीवेश में पहुँच गया।  राजकुमारी और नवयुवक खूब घुलमिल गए।  राजकुमारी बोली – हमारे में से एक पुरुष होता तो कितना अच्छा होता, फूलसिंह ने तत्काल अपना वास्तविक रूप प्रकट कर दिया।  नौटंकी यह देख कर घबरा गई परंतु बाद में विवाह के लिए तैयार हो गई।  परंतु नौटंकी के पिता ने यह संबंध स्वीकार नहीं किया।  उसने फूलसिंह को प्राणदंड दिया।  इस पर नौटंकी ने पुरुष वेश धारण कर उसकी रक्षा की।  अंत में फिर इन दोनों का विवाह हो  गया। ”4  इस लोककथा को सर्वप्रथम ‘शहजादी नौटंकी उर्फ़ फूलसिंह पंजाबी’ के नाम से मथुरा के पंडित नथाराम शर्मा ने प्रस्तुत किया।  आगे चलकर इसकी प्रस्तुति में विविध कथावस्तु जुड़ते गए और इस तरह यह उत्तर भारत की एक प्रमुख लोकरंग शैली के रूप में ख्यात हुई।  

उत्तरप्रदेश में नौटंकी को स्वांग और भगत के नाम से भी पहचाना जाता है।  

कुछ अध्येता नौटंकी की उत्पत्ति ‘नाटकी’ शब्द से बतलाते हैं।  

नौटंकी के नामकरण को इस नाटक की प्रस्तुति में बजाये जाने वाले वाद्ययंत्रों से भी जोड़ा गया है –“इसमें नये प्रकार के वाद्य-प्रयोग के कारण इसका नाम नौटंकी पड़ा।  नौ +टंकी = नौटंकी के आधार पर ‘नौ’ से तात्पर्य नयी अथवा नौ की संख्या से है और टंकी से तात्पर्य टंकार की चोट से है।  इस प्रकार नौ वाद्यों पर किसी लकड़ी से चोट करके विशेष ध्वनियाँ उत्पन्न करना नौटंकी का प्रमुख अंग रहा है। ”5

बहुत ही सादगीपूर्ण  रंगमंच पर नौटंकी की प्रस्तुति होती है।  इस तरह के रंगमंच के लिए कुछ खास पूर्व तैयारी की आवश्यकता नहीं होती।  किसी खुले स्थान पर ज़मीन पर दरी बिछाकर या तख़्त डालकर मंच तैयार कर लिया जाता है।  इस तरह के खुले रंगमंच में प्रेक्षागृह जैसी सुविधाएँ भले ना हो पर कलात्मकता तो अवश्य दिखती है।  रंगमंच पर सुविधानुसार प्रकाश की व्यवस्था की जाती है।  गाँव में बिजली की सुविधा हो तो बल्ब या ट्यूबलाईट लगाई जाती है।  बिजली के अभाव में पेट्रोमेक्स या मशालों से काम चलाया जाता है।  व्यवसायिक रूप में प्रस्तुत की जाने वाली नौटंकी का रंगमंच ज्यादा व्यवस्थित व सुंदर होता है।  

नौटंकी का प्रारंभ ज्यादातर रात्रि के दस-ग्यारह बजे होता है और लगभग पूरी रात इसका प्रदर्शन होता है।  इसकी प्रस्तुति बहुत ही कलात्मक एवं सुंदर होती है जिससे रात-रातभर दर्शक आनंद लेते हैं।  

नौटंकी गीत, संगीत, नृत्य व अभिनय का बहुत ही सशक्त लोक कला रूप है।  इस लोकनाट्य के वाद्ययंत्रों  में नगाड़ा, हारमोनियम, ढोलक, झाँझ, मंजीरा, चिमटा, डफली आदि होते हैं।  नगाड़ा तो इस लोकनाट्य का प्राणवाद्य कहा जाएगा।  रात्रि के समय नगाड़े की ध्वनि दूर-दूर तक, यहाँ तक कि मीलों दूर दूसरे गाँव तक सुनाई देती है।  इस ध्वनि को सुनकर दूसरे गाँव के लोग भी पैदल चलकर, जिस गाँव में नौटंकी होती है, वहाँ उसे देखने के लिए पहुँच जाते हैं।  


नगाड़ा

नौटंकी की शुरुआत मंगलाचरण से होती है जिसमें देवी देवताओं एवं गुरु की स्तुति से की जाती है।  नौटंकी मूलतः गेय लोकनाट्य है।  अभिनय से भी गायकी का महत्त्व इसमें ज्यादा होता है।  लोकधुनों व लोकछंदों पर आधारित नौटंकी में मंगलाचरण से लेकर नाटक की समाप्ति तक की कथा छंदोबद्ध में रूप में गाकर बताई जाती है।  “इन छंदों में प्रमुख रूप से दोहा, चौबोला, बहरेतबील, लावणी, रागीनी, रसिया, कवित्त, चोक, चौपाई, झड, भजन, ग़ज़ल, शेरो-शायरी आदि का समावेश होता है।  चौबोला और बेहरेतबील हर नौटंकी के प्राण छंद होते हैं।  हर छंद की गायकी समाप्त होने पर नक्कारे की विशिष्ट ताने बाजई जाती है और संवादों की झड़ी लग जाती है। ”6

नौटंकी की मंडली में ज्यादातर पुरुष ही होते हैं।  अतः इससे प्रस्तुत होने वाली कथा में आने वाले पुरुष पात्रों की भूमिका का निर्वाह तो पुरुष करते ही है, स्त्री पात्रों की भूमिका भी सुंदर लड़कों द्वारा निभाई जाती है।  हास्य रस की सृष्टि के लिए विदूषक होता है  जिसे जोकर कहा जाता है, जो लोगों को हँसाता भी है और बीच-बीच में सामाजिक बुराइयों पर व्यंग्यात्मक भाषा में प्रहार भी करता है।  पात्रों की मुख सज्जा एवं वेशभूषा भी सामान्य होती है।  इसमें ज्यादा आडंबर की गुंजाइश नहीं होती।  हाँ, व्यवसायिक नौटंकियों में इन दोनों का विशेष ध्यान रखा जाता है।  अपनी-अपनी भूमिका के अनुसार पात्र अपना मेकअप व वेशभूषा अपनाते हैं।  

नौटंकी के खेलों में राजा हरिशचंद्र, भक्त प्रहलाद, सुल्तान डाकू, अमरसिंह राठौर, गोपीचंद भरथरी, श्रवणकुमार, लैला-मजनू, हीर-राँझा आदि कथाएँ प्रस्तुत की जाती है।  “नौटंकी के रचयिताओं में हाथरस के पं. नत्थाराम शर्मा, फर्रुखाबाद के हरिमोहन, कानपुर के श्री कृष्ण राधेश्याम कथावाचक तथा लम्बरदार है। ”7  

अलग-अलग क्षेत्रों में इस लोकनाट्य की विविध शैलियाँ अपनाई जाती है, जैसे – हाथरसी शैली, कानपुरी शैली रोहतकी शैली आदि।   


भवाई :


गुजरात का प्रमुख लोकनाट्य भवाई है।  ‘भवाई’ नामकरण के संबंध में कई मत प्रचलित है।  ‘भवाडवुं’ का अर्थ  है पसंद करना या शोभा बढ़ाना।  श्री हरिवल्लभ भायाणी के अनुसार - “भवाई शब्द का अर्थ सजधज या शोभा सजावट हो सकता है। ”8

डॉ. सुधाबहन देसाई के मत से ‘भावन’ का अर्थ है भक्ति या गुणगान या लीला विस्तार।  भवाई में इस भावन शब्द का अनेकों बार प्रयोग देखा जा सकता है।  मांडण नायक ने अपनी रचनाओं को ‘भावन’ कहा है।  “जो व्यक्ति ‘भावन’ खेलता है वह भावक कहलाता है।  उसी प्रकार भवाई खेलने वालों को भवैया कहते हैं।  इसका अर्थ यही हुआ कि अंबा माता के चाचर में खेल करने वाली भावन ही भवाई है। ”9

“आईने-अकबरी में भवाया जाति का उल्लेख मिलता है तो कुछ विद्वान इसे ‘भवानी’ से जोड़कर देखते हैं।  गणपति रचित ‘माधवानल कामकंदला’ में भी भवाई जाति का सन्दर्भ विद्यमान है।  ‘भवइया’ शब्द का संबंध संस्कृत शब्द ‘भ्रुकुस’ से भी जोड़कर देखा जा सकता है जिसका तात्पर्य ‘स्त्रीवेशभ्रत नट’अर्थात् नारी वेश धारण करने वाले नट के अर्थ से लिया जाता है।  साथ ही ‘भव’ यानी जीवन और ‘वाही’ अर्थात् वहन करने वाली (कला) के रूप में भववाहिनी (भवाई) को स्वीकार किया जाता है। ”10

भवाई के उद्भव की कथा 14 वीं शताब्दी में उत्तर गुजरात के सिद्धपुर में हुए असाइत  ठाकर से जुड़ी है।  अतः भवाई के प्रवर्तक के रूप में असाइत ठाकर का नाम लिया जाता है।  ऐसा कहा जाता है कि असाइत  ठाकरजो एक कणबी कन्या को मुसलमानों के हाथों से बचाने के लिए उस कन्या के साथ एक ही थाली में भोजन किया तो उसकी जाति वालों ने उसे बिरादरी बाहर कर दिया और वो अपने परिवार के साथ ऊँझा में आ गया और तरगाडा के नाम से अपनी पहचान बनाई।  गायक, कथाकार, माता का उपासक तथा नृत्यकला में प्रवीण के रूप में असाइत  की प्रसिद्धि रही।  इसी ने भवाई के रूप को विकसित किया।  “असाइत  अपने परिवार, तीनों बेटों के साथ गाँव-गाँव घूम फिरकर कला से सबका मनोरंजन करते हुए आजीविका चलने लगे और प्रारंभ में ये कलाकार भमाया (घूमन्तु) कहलाए फिर धीरे-धीर उनको भवाया कहा जाने लगा तथा उनकी कला का नामकरण ‘भवाई’ हो गया। ”11

भवाई के उद्भव व नामकरण के संदर्भ में राजस्थान के नागजी नामक एक जाट कलाकार की कथा भी प्रचलित है।  नागजी जाट का कलाप्रेम उनकी जाति के लोगों को पसंद नहीं था और उसे भूंगल आदि वाद्य यंत्र देकर स्थान व जाति से निकाल दिया जाता है।  नागजी जाट अलग-अलग जगहों पर अपनी कला प्रस्तुत करता था।  घूम-घूमकर कला प्रस्तुत करने की वजह से भमाई के नाम से जाना जाता और बाद में उसी शब्द से ‘भवाई’ शब्द अस्तित्व में आया।  

भवाई की प्रस्तुति के लिए गाँव में खुले चौक, चबूतरा या मंदिर के बाहर की खुली जगह पर अस्थाई रूप से मंच तैयार कर लिया जाता है।  सबसे पहले भवाई की मंडली के मुखिया के द्वारा रंगभूमि निश्चित की जाती है।  एक-दो घंटे से लेकर रातभर तक इसका अभिनय होता है।  ‘भूंगल’ तो भवाई का प्राण वाद्य कहा जाता है।  भूंगल भी दो प्रकार की होती है।  जिसमें से तीव्र स्वर निकलते है वह नर भूंगल और मंदस्वर वाली मादा भूंगल के नाम से जानी जाती है।  ढोल-तबला वाला तबलची, हारमोनियम बजाने वाला उस्ताद-पेटी मास्टर, झाँझ बजाने वाले को झाँझिया कहा जाता है।  


भूंगल

भवाई की टीम या मंडली को पेडुं नाम से भी जाना जाता है।  “मंडल का मुखिया या मुख्य नायक बेशगोर कहलाता है।  वह अपने सर्वाधिक विश्वसनीय व्यक्ति भाई, भतीजा या पुत्र को व्यवस्थापक के रूप में नियुक्त करता है।  मंडल में पुरुष भूमिका करने वाले छह से सात मूछैल होते हैं और मुख्य नायक के अतिरिक्त इसमें उपनायक, प्रतिनायक, रंगातरो (प्रश्न पूछने वाला) आदि का भी समावेश होता है।  कांचलिया की संख्या छह से सात की होती है।  एक भगत होता है जो समय-समय पर डागलो, जूठण, रंगलो, हसाउलो, बटावो आदि की भूमिकाएँ करता है।  वादकों में दो भूंगल वादक, एक उस्ताद (पेटी मास्टर) तबलची तथा दो झाँझ बजाने वालों का समावेश होता है।  इसके उपरांत मंडल में कोतवाल,पडपतिया (छोटे मोटे काम करने वाला), चाय बनाने वाला आदि अन्य व्यक्तियों को भी समाविष्ट किया जाता है।  परंपरागत रूप से और पूर्व व्यवस्था से अनुरूप मंडल गाँव-गाँव जाकर भवाई खेलते हैं। ”12  

जैसा कि ऊपर बताया है भवाई में स्त्रियों की भूमिका पुरुष ही करते हैं जिसे कांचलिया कहा जाता है।  कुंचकी धारण करने की वजह से ही इसे कांचलिया के नाम से जाना जाता है।  इनकी अधिक संख्या से ही भवाई के मंडल को ज्यादा महत्त्व प्राप्त होता है।  भवाई में रंगलो और रंगली संवाद व अभिनय से दर्शकों को खूब हँसाते हैं।

भवाई की प्रस्तुति में सबसे पहले ‘भूंगल’ बजाई जाती है, फिर गणपति वंदना और तत्पश्चात् प्रस्तुत किए जाने वाले वेश-कथाप्रसंग की घोषणा की जाती है।  

भवाई में धार्मिक, पैराणिक व ऐतिहासिक के अतिरिक्त सामाजिक कथाप्रसंगों को प्रस्तुत किया जाता है।  भवाई के कुछ प्रसिद्ध  वेशों में शंकर-पार्वती, राम-रावण युद्ध, राजा हरिशचन्द्र, वीर मांगडावालो, भाथी लूटेरो, भरथरी-पिंगला, झंडा-झूलण, छैल-बटाऊ, बंजारा, जसमा ओडण आदि को उदाहरणतया देख सकते  हैं।  कथावस्तु की प्रस्तुति ज्यादातर गद्य में ही होती है।  साथ ही कथा के कुछ अंशों को पद्य रूप में गाकर भी प्रस्तुत किया जाता है।  इसमें गीतों का समावेश अनिवार्य रूप से किया जाता है।  इस लोकनाट्य का मूल उद्देश्य भले ही लोक का मनोरंजन करना हो किंतु इसके साथ-साथ इस लोकनाट्य के द्वारा जनशिक्षा व समाज में सुधार का कार्य भी होता है।  

(‘लोक साहित्य’ पुस्तक से साभार) 

 

संदर्भानुक्रम –

1.    लोकसाहित्य का शास्त्रीय अनुशीलन, डॉ. महेश गुप्त, पृ. 67

2.    लोकसाहित्य की भूमिका, कृष्णदेव उपाध्याय, पृ. 147

3.    लोकसाहित्य के प्रतिमान, डॉ. कुंदनलाल उप्रेती, पृ. 171 

4.    वही, पृ. 184

5.    लोकसाहित्य का शास्त्रीय अनुशीलन, डॉ. महेश गुप्त, पृ. 325

6.    प्रतिनिधि भारतीय लोकरंग शैलियाँ, डॉ. मदनमोहन शर्मा, पृ. 07

7.    लोकसाहित्य के प्रतिमान, डॉ. कुंदनलाल उप्रेती, पृ. 185

8.    लोकनाट्य – भवाई, कृष्णकान्त कडकिया, अनु. –अविनाश श्रीवास्तव, पृ. 13

9.    वही, पृ. 13-14

10.              प्रतिनिधि भारतीय लोकरंग शैलियाँ, डॉ. मदनमोहन शर्मा, पृ. 27

11.             वही, पृ. 27

12.             लोकनाट्य – भवाई, कृष्णकान्त कडकिया, अनु. –अविनाश श्रीवास्तव, पृ. 16 



डॉ. हसमुख परमार

एसोसिएट प्रोफ़ेसर

स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर

जिला- आणंद (गुजरात) – 388120

 


 

आलेख

भक्तिकाव्य का मूल्यांकन और विश्वनाथ त्रिपाठी

डॉ. भरत वणकर

          डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी हिन्दी के वरिष्ठ आलोचक, कवि और गद्यकार के रूप में ख्यात है। डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी प्रगतिशील विचारधारा से संबद्ध कट्टरतारहित आलोचक के रूप में प्रधानतः मध्यकालीन साहित्य से लेकर समकालीन साहित्य तक की आलोचना में गहरी अंतर्दृष्टि का परिचय देते हैं। भक्तिकविता की समीक्षा करना आलोचकों के लिए काफी चुनौतिपूर्ण कार्य रहा है। विश्वनाथ त्रिपाठी जी ने मीरा एवं तुलसीदास पर एक-एक किताब लिखी है।

          विश्वनाथ त्रिपाठी जी ने तुलसीदास के संदर्भ में ‘लोकवादी तुलसीदास’ पुस्तक लिखी है। हालाँकि तुलसीदास के संदर्भ में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी से लेकर डॉ. रामविलास शर्मा जी तक के विवेचन के बाद कुछ नया जोड़ पाना चुनौतीपूर्ण कार्य है जिसको त्रिपाठी जी बखूबी निभाते हैं। विश्वनाथ त्रिपाठी जी ‘लोकवादी तुलसीदास’ पुस्तक में तुलसीदास को ‘लोकवादी’ विशेषण देने के लिए मोटे तौर पर तुलसीदास की रचनाओं को आधार बनाते हैं। त्रिपाठी जी विभिन्न उद्धरण और विशद विवरण के जरिए तुलसीदास की लोकवादिता को उजागर करते हैं। हालाँकि यह भी गौर करने वाली बात है कि वे कई ऐसे बिन्दु हैं जिनसे तुलसी की लोकवादिता खंडित होती है उनको भी पेश करते हैं।


          ‘लोकवादी तुलसीदास’ पुस्तक को त्रिपाठी जी ने चार अध्यायों में विभक्त किया है। जिसमें ‘तुलसी के राम’, ‘तुलसी का देश’, ‘कलियुग और रामराज्य’, ‘तुलसी की कविताई’ आदि है। प्रथम अध्याय ‘तुलसी के राम’ में त्रिपाठी जी तुलसी के ‘राम के रामत्व’ को अन्य रचनाओं के राम से पृथक करते हुए उनकी विशिष्टता को सामने लाते हैं। त्रिपाठी जी अपने द्वितीय अध्याय में तुलसीदास की प्रकृति और जनसमाज संबंधी समझ की व्यापकता और गहराई को विस्तार से प्रस्तुत करते हैं। त्रिपाठी जी तुलसीदास की लोकप्रियता के कारण उनकी कविता में यथार्थवाद का निरूपण, तुलसी की कवि प्रतिभा और उनकी रचनाशैली आदि बातों पर प्रकाश डालते हैं। त्रिपाठी जी तृतीय अध्याय ‘कलियुग और रामराज्य’ में तुलसी वर्णित कलियुग की विषमता और रामराज्य के स्वप्न के प्रारूप को सामने रखते हैं। ‘लोकवादी तुलसीदास’ पुस्तक के अंतिम अध्याय में त्रिपाठी जी तुलसी के रचनाकौशल और कविता विवेक की बहुआयामी विशेषताओं के सोदाहरण प्रस्तुत करते हैं।

          विश्वनाथ त्रिपाठी, ‘लोकवादी तुलसीदास’ की भूमिका में तुलसीदास की लोकप्रियता को लेकर चर्चा करते हैं और उसमें तुलसी की कविता को देखे-भोगे जीवन का चित्रण एवं यथार्थ का निरूपण करनेवाली बात को तुलसी की लोकप्रियता का आधार बताते हैं। हालाँकि जहाँ तक मेरा मानना है कि भारतीय सदियों से धर्मभीरू रहे हैं और कहीं न कहीं यही सोच तुलसी की लोकप्रियता का कारण हो सकती है। क्योंकि भक्तिकाल में और कई बड़े निर्गुण कवि हुए हैं जिनकी लोकप्रियता तुलसी जितनी नहीं है।

          डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी जी राम के चरित्र-चित्रण से लेकर ‘रामचरित मानस’ में प्रकृति चित्रण, राम-राज्य की कल्पना, सुराज्य, तुलसी की कविताई लेकर तुलसीदास की कवि प्रतिभा में त्रिपाठी जी राम के उदात्त और आदर्श एवं मर्यादावादी चरित्र को उजागर करते हैं, हालाँकि वह तुलसी के वर्णव्यवस्था पर जोर देनेवाली बात की भर्त्सना भी करते हैं। तुलसी के राम भवभूति और वाल्मीकि के राम से भिन्न और लोक से जुड़े व्यक्ति के रूप में उजागर होते हैं, जिसका जायजा त्रिपाठी जी लेते हैं और इसकी पुष्टि के लिए वह शुक्लजी की ‘तुलसीदास’ पुस्तक की वनगमन की कुछ पंक्तियों का जिक्र करते हैं कि ‘‘पथिक वेश में राम लक्ष्मण वन के मार्ग में चले जा रहे है। क्षमा कीजिएगा यह हमें मनोहर लगा है इससे बार-बार सामने आया करते है... एक सुंदर राजकुमार के छोटे भाई और स्त्री को लेकर घर से निकालने वन-वन फिरने से अधिक मर्मस्पर्शी दृश्य क्या हो सकता है।’’1

         तुलसी की श्रेष्ठता के आधार त्रिपाठी जी 19वीं शती के सामान्य भारतीय जीवन को मानते है। तुलसी के राम वाले प्रकरण में त्रिपाठी जी राम का कोल, किरातों से, निषाद बंदर-भालू, ग्रामजनों आदि से घुल-मिल जाना सभी बातों को पेश करते हैं।

          त्रिपाठी जी तुलसी का देश प्रकरण में देश की प्रकृति जिसमें नदियाँ, धरती, वन-उपवन, खग-मृग, पक्षी, पर्वत, देश की जनता, गाँव, नगर और देश की भाषा आदि बातों को मुखऱ करते हैं। तुलसीदास को प्रायः नारीनिन्दक के रूप में उनकी आलोचना होती है। यद्यपि त्रिपाठी जी इस बात की जितनी आलोचना करते है साथ ही वह यह भी कहते हैं कि नारी के विविध रूपों में तुलसी ने चित्रित किया और जितनी सहानुभूति तुलसी ने नारीपात्रों को दी है उतनी मध्यकाल के किसी अन्य कवि ने नहीं दी। हालाँकि यह बात गौर करनेवाली है कि मध्यकाल के निर्गुण और सगुण कवियों ने भी स्त्री के मायावाले रूप की अवहेलना की है। त्रिपाठी जी तुलसी को नारी निन्दक के रूप में घोषित करनेवाले विद्वानों को चुनौती भी देते है। त्रिपाठीजी तुलसी नारीनिन्दक के रूप में स्वीकार भी करते है और नारी के विविध रूपों में उजागर करने में उनका समर्थन भी करते हैं।

          तुलसीदास वर्णव्यवस्था के समर्थक थे यह बात भी विद्वानों के बीच विवादास्पद रही है। यही बात तुलसी की महानता, कवि प्रतिभा और लोकप्रियता होने के बावजूद उनका रामचरितमानस आज भी शूद्रों के बीच अप्रिय रहा है। त्रिपाठी जी तुलसीदास वर्णाश्रम व्यवस्था के कायल, वेदान्त और पौराणिक विचार धाराओं के हिमायती और पोषक थे ऐसा मानते है और तुलसी स्थापनाओं की आलोचना भी करते है। एक तरफ आदर्शवादी परंपरा के तहत उनका समर्थ करके दोहरा मानदंड अपनाते हैं।

          कलियुग और रामराज्य प्रकरण में तुलसी ने कलियुग अर्थात 16वीं-17वीं सदी के भारत का यथार्थ वर्णन किया है। यद्यपि तुलसी का रामराज्य वर्णव्यवस्था के ढाँचें में ही कल्पित है। वैसे तो कलियुग का वर्णन तुलसीदास ने रामचरितमानस और कवितावली में किया है। कलियुग की बुराइयों का कारवाँ तुलसी वर्णाश्रम-व्यवस्था के परित्याग को मानते है। हालाँकि त्रिपाठी जी इस बात से अपनी असहमति प्रकट करते है। त्रिपाठी जी तुलसी के रामचरितमानस की अपेक्षा कवितावली के वर्णन को अधिक यथार्थपरक, वास्तविक और मार्मिक मानते हैं।

          विश्वनाथ त्रिपाठी जी की मार्क्सवादी विचारधारा तुलसीदास की कड़ी आलोचना करती है। कलियुग संबंधी तुलसी की धारणा और जिस वर्णाश्रम व्यवस्था के तुलसी समर्थक है वही स्वयं उनको पीड़ित करती है तब वह उसको कलियुग का प्रभाव नहीं मानते इस बात पर त्रिपाठी जी अपनी टिप्पणी रखते हैं कि ‘‘तुलसीदास ने जो वर्णाश्रम परम्परा प्राप्त की थी उसके कारण एक और तरह का कलियुग वे स्वयं झेलते हैं उससे पीड़ित होते हैं, उसका वर्णन भी खूब करते हैं, लेकिन उसे कलियुग नहीं कह पाते उसका वे समर्थन करते है। कट्टर पंडितों और वर्णाश्रम व्यवस्था ने पीड़ित किया था। किन्तु इस पीड़न को कलियुग का दुष्प्रभाव नहीं मानते। वर्णाश्रम व्यवस्था का विरोध करने के लिए कबीरदास की भाँति जुलाहे के घर में पैदा होना पड़ता है।’’2 त्रिपाठी जी भारतीय सवर्ण की संकीर्णता की ओर भी संकेत करते हैं।

          तुलसीदास के समय में कलियुग के साथ-साथ रामराज्य यानी अच्छे लोग भी थे जिसका जिक्र त्रिपाठी जी करते हैं। भाषा विषयक दृष्टि में ही उनकी लोकप्रियता का असली भेद छिपा हुआ है। यही प्रमुख बात है कि शास्त्र भाषा के स्थान पर तुलसी ने लोकभाषा को अपनाया। सामन्तवादी व्यवस्था का विरोध भी तुलसी के यहाँ मिलता है और रामचरित-मानस एवं तुलसी की अन्य कृतियों में सुराज की कल्पना दिखलाई देती है। इन सभी बातों का त्रिपाठी जी ने बखूबी चित्रण किया है।

          नारी विमर्श के इस दौर में प्रगतिशील चेतना को रामराज्य की अवधारणा शीर्षक पर ही आपत्ति है। यद्यपि रामराज्य की कुछ बातें आज भी हमारे लिए महत्वपूर्ण है। जिसका जिक्र त्रिपाठी जी करते हैं कि न्याय, विवेक, संयम, नैतिकता आदि आज भी हमारे लिए और हमेशा के लिए अर्थपूर्ण है। दैहिक भौतिक तापों से मुक्त शासन व्यवस्था हमेशा स्वीकार्य होगी।

          तुलसीदास जितने भक्ति के क्षेत्र के महान थे उतने कविता क्षेत्र में भी थे। तुलसी की कविता को लेकर त्रिपाठी जी के दृष्टिकोण की  चर्चा करते है तब राम-भरत मिलन, चरित्र-विधान, संयम और संकोच, सहजता, रूपक, ध्वनीयोजना, अलंकार योजना, अनुप्रास आदि की चर्चा को विशेष वेग मिला है। तुलसी की कविताई प्रकरण में तुलसी की कविता के विविध पहलुओं को उजागर किया है। तुलसी के यहाँ ध्वनियोजना के विनियोग पर त्रिपाठी जी टिप्पणी करते हैं कि – “शब्दों की ध्वनि योजना द्वारा अर्थ झंकार देने में तुलसीदास जैसी निपुणता हिन्दी के किसी अन्य कवि के पास नहीं है। शायद संस्कृत का भी कोई कवि इस क्षेत्र में उनके सामने नहीं ठहर सकेगा। डॉ. रामविलस शर्मा ने बिल्कुल ठीक लिखा है कि भाव के साथ ध्वनि की तरंगे उठाने-गिराने में वह( तुलसीदास) अद्वितीय है।’3

          अतः अंत में रामायण के गुण और दोष की जहाँ तक बात है मैं अदित्या प्रसाद त्रिपाठी के आलेख लोकप्रियता और प्रगतिशीलता के निकष पर तुलसीदास में से डॉ. लोहिया का प्रस्तुत कथन रखना चाहूँगा कि ‘‘तुलसी की रामायण में निश्चय ही सोना, हीरा, मोती बहुत है, लेकिन उसमें कूड़ा और उच्छिष्ट भी काफी है। मोती को चुनने के लिए कुड़ा निगलना जरूरी नहीं है न ही कूड़ा साफ करते वक्त मोती को फेंकना।’’4

          कुल मिलाकर विश्वनाथ त्रिपाठी की लोकवादी तुलसीदास पुस्तक पाठकों को तुलसी संबंधी पूर्वाग्रह से बाहर निकालने का कार्य करती है। तुलसीदास पर त्रिपाठी जी यह एकमात्र ऐसी किताब है जो तुलसीदास संबंधी कई भ्रांतियों को तोड़ने का काम करती है। हालाँकि लेखक ने सिर्फ तुलसीदास का स्तुति गान नहीं किया है लेकिन तुलसी के उन पदों पर भी त्रिपाठी जी विस्तार से प्रकाश डालते हैं जो उन्हें वर्णव्यवस्था के करिब लाता है। विश्वनाथ त्रिपाठी तुलसीदास को मानवीय करूणा का अन्यतम अद्धितीय, अप्रतिम कवि मानते हुए उसे लोकवादी सिद्ध करते हैं। विश्वनाथ त्रिपाठी अपने विचार के साथ कार्लमार्क्स, आई-ए-रिचर्डस, रामचन्द्र शुक्ल, रामविलास शर्मा जैसे विद्वानों को भी उद्धृत करते है। त्रिपाठी तुलसीदास की रचनाओं को देशकाल-सापेक्ष में देखने का आग्रह करते है, बगैर इसके अंतर्विरोधों को पहचाना नहीं जा सकता।

          मीरा काव्य के मूल्यांकन को लेकर डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी जीने मीरा का काव्य पुस्तक लिखी है। मीरा संबंधी आलोचना में यह बहुत चर्चित किताब है। मीरा काव्य को लोकोन्मुखता और मानवतावादी द्रष्टि को उजागर करने का श्रेय निश्चित रूप से प्रगतिशील आलोचना को जाता है। मीरा का काव्य किताब को त्रिपाठी जी ने चार अध्यायों में विभक्त किया है। जिसमें वर्णव्यवस्था, नारी और भक्तिआंदोलन, मीरा और गिरधऱ नागर, मीरा की कविता, मीरा का काव्य’ क्रमशः है। अगले तीन अध्यायों में समीक्षा है और अंतिम अध्याय मीरा का काव्य में मीराबाई के पदों को रखा है।

          डॉ. त्रिपाठी मीरा का काव्य के प्रथम अध्याय वर्णव्यवस्था नारी और भक्ति आंदोलन में भक्ति आंदोलन में नारी की स्थिति और वर्णव्यवस्था संबंधी समीक्षा करते है। यह अध्याय भक्तिआंदोलन में नारी की स्थिति और वर्णव्यवस्था का गहरा अध्ययन करता है। इस अध्याय में प्रमुख रूप से दक्षिण में भक्ति का उदय, शंकराचार्य और रामानुजाचार्य के सिद्धांतों में वैचारिक भेद, भक्तिआंदोलन के उदय पूर्व की स्थिति वर्णव्यवस्था और नारीपराधीनता, शिल्पकारों की स्थिति, जुलाहा और बुनकरों पर विशेष चर्चा, जातिप्रथा और शुद्रों की स्थिति, रामानंद, नामदेव, रैदास, कबीर, नरसी मेहता, तुलसी के यहाँ नारी का स्थान एवं भक्ति आंदोलन और सामंतवादी सभ्यता आदि बातों पर विशेष चर्चा करते हैं। साथ ही त्रिपाठी जी क्षितिमोहन सेन, इरफान हबीब, सुरेन्द्रनाथ दासगुप्त, डॉ. रामविलस शर्मा, डॉ. रामशरण शर्मा, हजारीप्रसाद व्दिवेदी, के दामोदरन, डॉ. श्री निवास आदि के उद्धरणों को पेश करके अपनी आलोचना को अर्थवान बना देते हैं।

          मीरा काव्य की समीक्षा में त्रिपाठी जी मीरा के वैधव्य पर ध्यान केन्द्रित करते हैं। इस संदर्भ में त्रिपाठी जी लिखते हैं कि ‘‘मीरा का जीवन-संघर्ष उसके वैधव्य से प्रारंभ हुआ। मीरा पति की मृत्यु पर सती नहीं हुई और भक्तिन हो गई। मीरा की कविताओं में अलौकिक प्रियतम को पाने की आतुरता न पा सकने की व्यथा, उसके पास पहुँचने से रोके जाने का आक्रोश, अपनी असहायता उसे भावजगत में प्राप्त कर लेने की ललक-सब कुछ विद्यमान है।’’5

          प्रस्तुत कथन में देखा जाए तो अलौकिक प्रियतम और उससे मिलन पर पाबंदी, दो बातें महत्वपूर्ण है। हालाँकि इसमें अलौकिक प्रियतम से मिलन की बात हो तब यह मिलन कैसे संभव है यह सवाल है। तब अलौकिक प्रियतम छल है या फिर उसके मिलन की पाबंदी में झूठ। इन दो विरोधपूर्ण स्थितियों में स्त्री की पवित्रता खतरे में पड़ जाती है और मीरा एक स्त्री न रहकर एक भक्तिन में सिमटकर रह जाती है।

          मीरा और गिरधर अध्याय में मीरा का नारी विद्रोह मीरा का वैधव्य, जोगी संबंधी चर्चा, नारी पराधीनता, कबीर-तुलसी मत का उल्लेख, परशुराम चतुर्वेदी और डॉ. पदमावती शबनम के अभिमत को रखकर त्रिपाठी जी मीरा काव्य की समीक्षा करते हैं।

          मीरा का काव्य पुस्तक का तीसरा अध्याय है मीरा की कविता प्रस्तुत अध्याय में मीरा काव्य में प्रेमचित्रण लोकलाज को तोड़ना, दरद दीवानी मीरा, मीरा काव्य में विरह, मीरा काव्य में ध्वनियोजना, मीरा की शब्दावली आदि बिंदुओ पर चर्चा करते हैं। त्रिपाठी जी इस अध्याय में मीरा की शिल्पगत विशेषता की ओर हमारा ध्यान इंगित करते हैं। अधिकतर विद्वानों का यह मानना है कि भक्तिकाल के अन्य भक्त कवियों के मुकाबले मीरा के यहाँ सामंती व्यवस्था से सीधी टकराहट है।

          विश्वनाथ त्रिपाठी जी मीरा की कविता की समीक्षा करते हुए सूर-तुलसी कबीर आदि का जिक्र करते हैं और कई बार इनकी तुलना भी करते हैं। जहाँ कविता में निरलंकृति की बात हो, सत्संग की बात हो आदि में मीरा की तुलना इन कवियों के साथ करते हैं। हालाँकि मीरा की सपाट व सरल पंक्तियों में भी भाव सौंदर्य की मौजूदगी को वह स्वीकार करते हैं।

          कुल मिलाकर त्रिपाठी जी मीरा काव्य की समीक्षा में मीरा की वेदना, मीरा का आत्मनिवेदन, सामंती व्यवस्था विरोधी स्वर, मीरा का पतिव्रत्य धर्म और सदाचार, मीरा काव्य में विरह वेदना, ध्वनियोजना, बम्बयोजना आदि मुद्दों की गंभीर एवं मार्मिक चर्चा करते है। साथ ही मध्यकालीन नारी की स्थिति और वर्णव्यवस्था का गहरा पर्यवेक्षण करते हैं।

          विश्वनाथ त्रिपाठी की मीरा का काव्य पुस्तक में भक्तिकाव्य को सामाजिक और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य प्रदान किया गया है। हालाँकि यह कोई नया प्रयास नहीं है लेकिन जिन तथ्यों और बिंदुओं पर जोर दिया गया है और जिस अनुपात में संजोया गया है यह नया है। विश्वनाथ त्रिपाठी मीरा काव्य का मूल्यांकन करते हुए कबीर, सूर, तुलसी, जायसी, प्रसाद, महादेवी, मुक्तिबोध, रामानंद, तिलक, गाँधी की काव्य स्मृतियों और विचार संघर्ष में गूँथी सजीव अनुभूति की प्रस्तावना करते है। मीरा की काव्यानुभूति का विश्लेषण करते हुए लेखक ने अनुभूति की उस द्वंद्वमयता का सटीक विश्लेषण किया है।

संदर्भ सूची

1.  लोकवादी तुलसीदास, डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी, पृ. 25

2.  वही, पृ. 89

3.  वही, पृ. 138

4.  भक्तिकाल के प्रमुख कवियों का पुनर्मूल्यांकन, - संपादक डॉ. ओमप्रकाश त्रिपाठी, प्रा. लता शिरोड़कर, पृ. 168

5.  मीरा का काव्य डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी, पृ. 65 

 

 


डॉ. भरत वणकर

थाणासावली

तहसील - लुणावाडा

जिला – महिसागर

गुजरात


अप्रैल 2024, अंक 46

  शब्द-सृष्टि अप्रैल 202 4, अंक 46 आपके समक्ष कुछ नयेपन के साथ... खण्ड -1 अंबेडकर जयंती के अवसर पर विशेष....... विचार बिंदु – डॉ. अंबेडक...