गुरुवार, 31 अगस्त 2023

अगस्त – 2023, अंक – 38

 



शब्द-सृष्टि

अगस्त – 2023, अंक – 38


कुछ बातें : शब्दसृष्टि के बहाने, शब्दसृष्टि के बारे में – प्रो. हसमुख परमार

व्याकरण विवेक – कर्ता के विविध रूप – डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

पर्व विशेष 

आलेख – मुफ़्त की आज़ादी?! – डॉ. ऋषभदेव शर्मा

कविता – भाई तेरा घर-आँगन – सत्या शर्मा ‘कीर्ति’

आलेख – रक्षाबंधन : अटूट नेह बंधन! – डॉ. पूर्वा शर्मा

कविता – वर्षा : नायिका रूपों में – मंजु महिमा

उपलब्धि विशेष

आलेख – अब हम चाँद पर ! – प्रो. पुनीत बिसारिया








पर्व विशेष


रक्षाबंधन : अटूट नेह बंधन!

डॉ. पूर्वा शर्मा

पंक्ति में खड़े

सावन प्रतीक्षा में

तीज-त्यौहार ।

 (डॉ. पूर्वा शर्मा)

अगस्त का महीना न जाने कितने अनुपम त्यौहार ले आता है। सभी त्योहारों का अपना महत्त्व है और हम भारतवासी प्रत्येक त्यौहार को बड़ी धूम-धाम से मनाते हैं। सावन के इस पावन महीने में आदिवासी दिवस, हरियाली तीज, नाग पंचमी, स्वतंत्रता दिवस, रक्षाबंधन, श्रावणी एवं संस्कृत दिवस आदि त्यौहार तो आते ही हैं  लेकिन इन सबके साथ इस बार की विशेष उपलब्धि रही – चंद्रयान-3 का चंद्र पर सफलतापूर्वक अवतरण। इस प्रकार अनेक विशेष पर्व एवं दिनों को अपने में संजोए हुए अगस्त अपने आप में प्रसन्नता बिखेर देने वाला माह है। 

भारत में थोड़े-थोड़े दिनों में कोई न कोई त्यौहार-पर्व आ ही जाता है और विशेषतः सावन तो त्यौहारों का भंडार ही है। ऐसा लगता है जैसे ये सभी त्यौहार एक पंक्ति में खड़े होकर सावन की ही प्रतीक्षा कर रहे थे।

भारतवर्ष में चार त्यौहार वैदिक काल से महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं, क्योंकि हमारे यहाँ चार पुरुषार्थ हैं – धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष। इन चारों को संसार में स्थापित करने के लिए चार त्यौहार बनाए गए हैं और ये चारों त्यौहार इसलिए महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि यह वेद द्वारा प्रतिपादित है। ये त्यौहार हैं – दशहरा, दीपावली, होली और रक्षाबंधन। कुछ लोगों की यह धारणा है कि रक्षाबंधन के बारे में प्राचीन धार्मिक साहित्य में ज्यादा वर्णन नहीं मिलता। लेकिन ऐसी बात नहीं है। रक्षाबंधन बहुत ही महत्त्वपूर्ण त्यौहार है। लेकिन बात यह है कि प्राचीन साहित्य में इसका नाम रक्षाबंधन नहीं है। रक्षाबंधन को प्राचीन वैदिक साहित्य में श्रावणी के नाम से जाना जाता है। इस दिन गुरुकुल में वेद अध्ययन की शुरुआत की जाती थी। आज भी वेद अध्ययन के लिए श्रावणी ही मनाया जाता है। दक्षिण भारत में रक्षाबंधन नहीं मनाया जाता, वहाँ के लोग इस दिन समुद्र देवता को अथवा पवित्र नदी के किनारे जाकर नारियल चढ़ाते हैं और फिर यज्ञोपवीत धारण (अथवा बदलते) करते हैं। यह त्यौहार पूरे भारत में मनाया जाता है।  गुरुकुल में भी यज्ञोपवीत धारण करने का यह पर्व मनाया जाता है।  यह मोक्षदायी त्यौहार है।  इसलिए इसे बहुत ही महत्त्वपूर्ण त्यौहार माना जाता है। जिस तरह दशहरा धर्म, दिवाली अर्थ, होली काम का त्यौहार माना जाता है, उसी तरह रक्षाबंधन अथवा श्रावणी मोक्ष का त्यौहार माना जाता है। श्रावणी को विश्वविद्यालयों में ‘संस्कृत सप्ताह’ अथवा ‘संस्कृत दिवस’ के नाम से मनाया जाता है। इस तरह पूर्णिमा के दिन श्रावणी, संस्कृत दिवस एवं  रक्षाबंधन यह तीनों पर्व मनाए जाते हैं।

रक्षाबंधन के दिन बहन अपने भाई की कलाई पर राखी बाँधती है और भाई उसकी रक्षा करने का वचन देता है। रक्षाबंधन त्यौहार से जुड़ी कई पौराणिक कथाएँ भी है। जो इस प्रकार हैं –

एक कथा के अनुसार राजा बलि ने भगवान विष्णु की कठोर उपासना की थी और भगवान को दिन-रात अपने सामने रहने का वचन ले लिया। भगवान विष्णु को अपने यथा स्थान न पाकर उनकी अर्धांगिनी लक्ष्मी जी परेशान हुई और उन्होंने एक अबला स्त्री का रूप लेकर राजा बलि के यहाँ आश्रय लिया। श्रावण पूर्णिमा के दिन देवी लक्ष्मी ने राजा बलि की सुरक्षा हेतु उनकी कलाई पर पवित्र धागा बाँध दिया और अपने पति को उपहार स्वरूप वापस माँग लिया।

भविष्य पुराण के अनुसार प्राचीन काल में एक बार बारह वर्षों तक हुए देवासुर संग्राम में देवताओं की दानवों से हार हो रही थी। पराजित इन्द्र गुरु बृहस्पति के पास गए। वहाँ इन्द्र की पत्नी शची (इन्द्राणी)भी मौजूद थीं। इन्द्र की व्यथा जानकर इन्द्राणी ने विधानपूर्वक रक्षासूत्र तैयार किया और उसे स्वस्तिवाचन पूर्वक बृहस्पति द्वारा इन्द्र को रक्षाबंधन कराया। माना जाता है कि इसके प्रभाव से इन्द्र एवं देवताओं की विजय हुई। उस दिन श्रावण पूर्णिमा का दिन था और तभी से यह धागा बाँधने की प्रथा चली आ रही है।

एक अन्य कथा द्रौपदी एवं श्रीकृष्ण की है। एक बार श्रीकृष्ण को चोट लग गई थी, तब द्रौपदी ने अपना पल्लू फाड़कर श्रीकृष्ण के हाथ पर बाँध दिया था। उसी क्षण श्रीकृष्ण ने द्रौपदी को रक्षा का वचन दिया था।

एक और कथा के अनुसार महाभारत के युद्ध में युधिष्ठिर ने श्री कृष्ण से पूछा कि मैं सारे दुखों पर कैसे विजय पा सकता हूँ? तब श्रीकृष्ण ने कहा कि तुम अपने सैनिकों को रक्षा सूत्र बाँधों, तो तुम्हारी विजय निश्चित है। तब युधिष्ठिर ने ऐसा ही किया। माना जाता है कि यह घटना श्रावणी के दिन हुई थी।

इसी क्रम में कुछ और कथाओं का जिक्र भी आता है। जैसे सिकंदर की पत्नी का राजा पुरु को राखी बाँधना, रानी कर्णावती का मुगल बादशाह हुमायूँ को राखी बाँधना।

ये सभी कथाएँ चाहे प्रामाणिक हो या न हों, विगत कई वर्षों से पूरे भारत वर्ष में यह त्यौहार धूम-धाम के साथ मनाया जा रहा है। गली-गली में राखी से सजे बाज़ारों को देखकर कोई भी अंदाज़ा लगा सकता है कि यह त्यौहार कितना महत्त्वपूर्ण है। आजकल हम टेक्नालॉजी की दुनिया में रह रहे हैं, इस त्यौहार का प्रभाव सोशल मीडिया पर भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। सोशल मीडिया पर रक्षाबंधन से संबंधित अनेक पोस्ट एवं रील आप देख ही सकते हैं। राखी की ऑनलाइन डिलीवरी देश के किसी भी कोने में संभव है।  इतना ही नहीं, आजकल विदेश में भी राखी भेजने की व्यवस्था इस बात का प्रमाण है कि यह त्यौहार विदेश में भी रहने वाले भारतीयों के लिए कितना महत्त्वपूर्ण है।

लिफ़ाफ़ा खुश!

चला भाई के घर

लिए सौगात।

(डॉ. पूर्वा शर्मा)



डॉ. पूर्वा शर्मा
वड़ोदरा

 

 

 

 

कुछ बातें

कुछ बातें : शब्दसृष्टि के बहाने, शब्दसृष्टि के बारे में

प्रो.हसमुख परमार

भाषा, साहित्य, शोध-समीक्षा एवं इनसे इतर कतिपय विषय-क्षेत्रों से संबद्ध विचारों व तत्संबंधी समसामयिक गतिविधियों को कभी सहजता से तो कभी गंभीरता से रेखांकित करके हिन्दी के प्रयोग व प्रचार-प्रसार में अपनी भूमिका का निर्वाह करने वाली शब्दसृष्टि अपने स्तर की एक बहुत ही सक्रिय वेब पत्रिका है । इसके हर नवीन अंक के लेखन व प्रकाशन के समय संपादिका की नजर एक साहित्यिक पत्रिका के स्थाई विषयों के साथ-साथ मौसमी मिज़ाज, विशेष पर्व-त्यौहार, विशेष तिथियों-दिवसों पर भी बराबर रहती है, और जिसे अंक के कलेवर में गूँथकर हर मास एक नवीन रूप-रंग से सजे अंक को लेकर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत होती हैं।

ब्रिटिश सत्ता की गुलामी से हमारे देश को मुक्ति पाने का स्वर्णिम दिवस तथा पवित्र सावन मास के धार्मिक विधि-विधान व पर्व-त्यौहार से इस समय हमारा मन व व्यवहार मान-महिमा-उमंग-उत्साह से भरपूर है । साथ ही अन्य महीनों की ही भाँति अगस्त में भी अलग-अलग क्षेत्रों से संबद्ध महान पुरुषों और स्त्रियों  के अवतरण व निर्वाण तिथियों पर उनको स्मरण कर, उनकी देन को याद कर, उनके बताए मार्ग  पर चलकर लोकहित में अपनी भूमिका को विकसित करने हेतु एक इच्छाशक्ति-संकल्पशक्ति-नवीन ऊर्जा से अपने को भरने के लिए हम तैयार रहते हैं ।

हमारा अपने देश से-वतन से-माटी से बेहद प्रेम, स्वतंत्रता के लिए शहीदों की शहादत के मूल्य का बोध, स्वाधीनता के मायने व महत्त्व की प्रतीति, हमारी राष्ट्रीयता आदि हमें 15 अगस्त-स्वतंत्रता पर्व को पूरे आनंद-उल्लास से मनाने के लिए  प्रेरित करते हैं, उसमें भी यदि स्वाधीनता दिवस का रजत, स्वर्ण, हीरक या अमृत महोत्सव हो, साथ ही सरकार की ओर से भी, इस पर्व के उपलक्ष्य में विविध अभियान तथा इसके अंतर्गत विविध कार्यक्रमों की घोषणा होती है, तो फिर देशवासियों के उत्साह का तो क्या कहना? वह तो आसमाँ ही छुए ! पिछले कुछ वर्षों से मीडिया-सोशल मीडिया के बढ़ते हुए प्रचार-प्रसार की भी इस ‘राष्ट्रीय-पर्व’ के विस्तार व महत्त्व को बढ़ाने में अहम् भूमिका रही है ।

इस साल ७७ वें स्वतंत्रता पर्व को पूरे राष्ट्र में बड़ी धूमधाम से मनाया गया । इस उत्सव का दिवस विशेष भले ही आज गुजर गया हो पर उसका आनन्द भारतीय दिलों में कम नहीं हुआ है । सरकारी स्तर से आजादी का अमृत महोत्सव, घर घर तिरंगा, मेरी माटी-मेरा देश जैसे अभियानों की घोषणा तथा ठेर ठेर इसका आयोजन हुआ, जिसमें हम देशवासियों ने सहर्ष शिरकत की । हमारी शान और सम्मान ‘तिरंगा’ जिसके तीनों रंगों से भारत का कण-कण और भारतीय का मन-मन रंग गया ।

भारत के स्वतंत्र होने के पश्चात यहाँ ‘राष्ट्र’ की एक बहुत ही व्यवस्थित व दृढ विभावना का विकास होता है ।  हमारे राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे के रूप-रंग के बारे में तो हम जानते ही हैं कि इसकी डिज़ाइन आंध्रप्रदेश के पिंगली वेंकैया ने महात्मा गाँधी के कहने पर बनाई थी । गाँधी जी की वेंकैया से मुलाकात उनकी दक्षिण अफ्रीका यात्रा के दौरान हुई थी । 22 जुलाई, 1947 को वर्तमान तिरंगे को संवैधानिक स्वीकृति मिली और उस पर चरखा के स्थान पर सम्राट अशोक के धर्म चक्र का चित्र रखा गया । 

15 अगस्त-स्वतंत्रता दिवस, हमारी देशभक्ति व हमारे स्वदेश-प्रेम का पर्याय है । आजादी के लिए और आजाद भारत की सुरक्षा के लिए अपना बलिदान देनेवाले वीरों को स्मरणांजलि और श्रद्धांजलि देने का दिन है, देश की गौरवगाथा के गान का अवसर है। साथ ही भारत के एक नागरिक के रूप में हमारे दायित्वों-कर्तव्यों को याद रखने-उसे जीवन व्यवहार में लाने के संकल्प का दिन । और ये सब महज़ एक दिन के लिए नहीं बल्कि पूरे साल के लिए-हमेशा के लिए बनाए रखने में ही इस आजादी पर्व की सफलता व  सार्थकता है ।

बेशक, आजादी के विगत साढ़े सात दशकों में हमने, हमारे देश ने अनेकों क्षेत्रों में काफ़ी प्रगति की है । साथ ही यह प्रश्न भी विचारणीय है कि आजादी के समय देशवासियों ने जो जो सपने देखें थे, वे कितने और कहाँ तक पूरे हुए ? लिंग-धर्म-जाति-भाषा-प्रदेश-संप्रदाय में समानता-सद्भावना, शिक्षा, किसान, मजदूर की स्थिति, रोजगार, नैतिक मूल्यवता, सामाजिक चेतना, भ्रष्टाचार मुक्त समाज को और ज्यादा सशक्त बनाने में हमें स्वयं को भी अपनी भूमिका का बराबर ध्यान रहें । स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले – स्वतंत्रता सेनानियों का मानना था कि – आजादी एक जन्म के समान है । जब तक हम पूर्ण स्वतंत्र नहीं है, तब तक हम दास है । आज आजाद भारत के हम नागरिकों को भी यह ध्यान रहे कि स्वतंत्र होते हुए भी कहीं मानसिक पराधीनता का शिकार न हो । आजाद भारत के नागरिक हैं हम, और आजादी (ब्रिटिश शासन से मुक्ति) के मायने हम बखूबी जानते हैं । स्वतंत्र भारत में भारती से हमारा प्रेम भरपूर है । साथ ही अपने स्वदेश प्रेम को लेकर यह ध्यान भी रहे कि भारतीय संस्कृति से हमारा जीवन सदैव सराबोर ही रहे। तेज पश्चिमी हवा और भूमंडलीकरण की आँधी  में भी हमारा ‘भारतीय’ रूप शुद्ध एवं पूर्ण बना ही रहे। भारतीय भाषाओं, रहन-सहन, पोशाक, उत्सव, अपनी परंपराएँ गौरवशाली-वैभवशाली अतीत से हमारा लगाव कभी कम न हो ।

वर्ष के अन्य महीनों की तरह अगस्त माह में भी अलग-अलग क्षेत्रों से संबद्ध कई महानुभावों, जिनकी जन्मतिथि या पुण्यतिथि इसी माह में आती है, जिसके निमित्त इनके अवदान को विशेष रूप से याद किया - इनके प्रति देशवासियों ने पूरा मान सम्मान प्रकट किया । यह एक सुखद संयोग ही कहा जा सकता है कि कुछेक ऐसे हिन्दी कवि तथा कुछ स्वातंत्र्य वीर जो जीवनपर्यंत देशानुराग, स्वाधीनता और भारतीयता से ही बड़े सक्रिय रूप से जुड़े रहे, जिनके जन्म या मृत्यु की तिथियाँ इस अगस्त में है । 03 अगस्त को भारतीय संस्कृति के आख्याता मैथिलीशरण गुप्त की जयंती ।  भारतीय संस्कृति के अतीत के गौरव की भावना से प्रेरित हो ‘ भारत भारती’ में उन्होंने लिखा- “ हम कौन थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी / आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएँ सभी । ” बात देशप्रेम की चले और गुप्तजी की इन पंक्तियों का स्मरण न हो, ये कैसे हो सकता है !

जो भरा नहीं है भावों से, जिसमें बहती रसधार नहीं ।

वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं ।।

स्वाधीनता दिवस के ठीक दूसरे दिन की तिथि – 16 अगस्त को राष्ट्रीय चेतना से भरपूर तथा स्वतंत्रता संग्राम तथा सत्याग्रह में अपना योगदान देने वाली हिन्दी कवयित्री सुभद्राकुमारी चौहान की जन्म जयंती । उनकी विश्व विख्यात कविता की एक  झलक –

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी ।

खूब लडी मर्दानी, वह तो झाँसी वाली रानी थी ।।

अटल बिहारी बाजपेयी जितने बड़े और सशक्त नेता थे, उतने ही संवेदनशील और ओजस्वी स्वर के बड़े कवि । 16 अगस्त उनकी पुण्यतिथि । बाजपेयी के सृजन में विस्तार है, वैविध्य है । ‘स्वतंत्रता दिवस’ के अवसर पर तो इनकी कुछ कविताएँ मंत्र की तरह गूँजती हैं ।

     मसलन –

भारत जमीन का टुकड़ा नहीं,

जीता जागता राष्ट्रपुरुष है ।

हिमालय मस्तक है, कश्मीर किरीट है,

पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं

देशानुराग से भरे इस कवि व्यक्तित्व की निम्न पंक्तियाँ, जो कि स्वतंत्रता प्राप्ति के समय एक अलग संदर्भ को लेकर लिखी गई थी, आज भी लोगों की ज़ुबान से दूर नहीं हुई ।

पंद्रह अगस्त का दिन कहता – आज़ादी अभी अधूरी है।

सपने सच होने बाकी है, रावी की शपथ न पूरी है।।

जिनकी लाशों पर पग धर कर, आज़ादी भारत में आई।...

दिन दूर नहीं खंडित भारत को, पुन: अखंड बनाएँगे।

गिलगित से गारो पर्वत तक, आज़ादी पर्व मनाएँगे।।

उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से, कमर कसें बलिदान करें।

जो पाया उसमें खो न जाएँ, जो खोया उसका ध्यान करें।।

 18 अगस्त, सुभाषचंद्र बोस की पुण्यतिथि। देशप्रेम,स्वाभिमान और साहस से भरा जिनका जीवन, ‘आजाद हिन्द फौज’ का गठन करनेवाले, ‘जय हिन्द’, ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा’ का नारा देनेवाले इस महान देशसेवक, देशरक्षक, देशभक्त को कोटि कोटि श्रद्धा सुमन समर्पित ।  अगस्त की 17 तारीख, भारतीय स्वाधीनता संग्राम के अप्रितम क्रांतिकारी मदनलाल ढींगरा की पुण्यतिथि। अगस्त की 18 तारीख को स्वतंत्रता सेनानी एवं संयुक्त राष्ट्र की पहली महिला अध्यक्ष स्व.श्रीमती विजय लक्ष्मी पंडित का जन्मदिवस ।

हिन्दी के और भी कुछेक साहित्यकारों को हिन्दी जगत उनकी जयंती के अवसर पर अगस्त में विशेष रूप से स्मरण करता है । शिवमंगलसिंह सुमन [जन्म-5 अगस्त], शिवपूजन सहाय [जन्म 9 अगस्त], अमृतलाल नागर [जन्म-17 अगस्त], हजारीप्रसाद द्विवेदी [जन्म 19 अगस्त], हरिशंकर परसाई [जन्म 22 अगस्त- मृत्यु 10 अगस्त], राजेन्द्र यादव [जन्म 28 अगस्त], अमृता प्रीतम [जन्म 31अगस्त],  रामकथा- रामकाव्य को भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में प्रचारित करने व प्रसिद्धि दिलाने वाले महाकवि गोस्वामी तुलसीदास की जन्म जयंती भी सावन मास में ही मनाई जाती है । साथ ही हमारे देश के महान अध्यात्मिक गुरु और विचारक श्री रामकृष्ण परमहंस का निर्वाण दिन 16 अगस्त और महर्षि अरविंद की जन्म जयंती 15 अगस्त ।

इस जुलाई-अगस्त इंडिया का मून मिशन-भारत का एक सफर चाँद तक यानी भारत की ऊँची उडान – चंद्रयान-3,जो भारत की और हर भारतीय के गौरव की ऊँचाई में वृद्धि कर रहा है । 14 जुलाई को चंद्र यात्रा पर निकले यह चंद्रयान की यात्रा सफलतापूर्वक आगे बढ़ती हुई अंतत 23 अगस्त शाम 6.04 बजे वह चंद्र की सतह पर उतरा । इस समय चाँद पर ‘जय हिंद’ की गूँज जिसे पूरी दुनिया सुन रही है । चाँद के दक्षिणी ध्रुव पर कदम रखने वाला भारत पहला देश बना है । ‘मेरा भारत महान’ की महागाथा के यह एक महान अध्याय लेखन से, चाँद पर भारत के इस ऐतिहासिक ‘सूर्योदय’ से हर भारतीय गौरवान्वित है । यह फलश्रुति है ISRO की, इसके वैज्ञानिकों की मेधा व मेहनत की। ISRO को लख-लख बधाइयाँ । चंद्रयान-3 मिशन की सफलता के बाद अब एक और बढ़िया खबर मीडिया सुना रहा है – भारत के सन मिशन को लेकर । सूर्य की ओर जाने की तैयारियाँ । कहते हैं कि 2 सितंबर को इसके लिए aditya-L-1 लोन्च होगा और वह सूरज तरफ पंद्रह लाख कि.मी. तक की यात्रा करेगा । जिसके लिए लगभग 128 दिन का समय लगेगा । इस सूर्य मिशन की सफलता के लिए ISRO को हम सब की ओर से अशेष मंगलकामनाएँ !

भारतीय जीवन मूलतः धर्मप्रधान है । हमारी प्रातः जागरण काल से लेकर रात्रि शयन तक की अधिकांश गतिविधियाँ धर्म द्वारा ही परिचालित होती हैं । वैसे भी कहा गया है कि “हमारी संस्कृति घर्म के ताने-बाने से बुनी गई है । हमारी संस्कृति, हमारे समाज और साहित्य में धर्म का स्वर सबसे ऊँचा है ।” हमारी यह धार्मिक भावना विशेषत: विविध व्रत-त्यौहार एवं देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना के समय विशेष रूप से प्रकट होती है । हिन्दू धर्म में व्रत एवं पर्व-त्यौहार की संख्या बहुत ही ज्यादा है । जनता में ‘सात वार और नौ त्यौहार’ की उक्ति ऐसे ही प्रचलित नहीं है । धार्मिक पूजा-पाठ की दृष्टि से ‘सावन’ माह का विशेष महत्त्व रहा है । महादेव की महिमा का गान खूब गाया जाता है, इस महीने में । सावन-भादों में या अगस्त-सितम्बर में हरियाली तीज, नाग पंचमी, रक्षाबंधन, शीतला-सातम, जन्माष्टमी, बहुरा, अनंत चतुर्दशी प्रभृति त्यौहार व व्रत-उत्सव मनाते हुए अपनी धार्मिक व सांस्कृतिक परंपरा के साथ लेकर हम अपने जीवन-पथ पर अग्रसरित हो रहे हैं । ‘ओणम’ दक्षिण भारत का, मुख्यतः केरल का एक बड़ा त्यौहार है, जो चिंगम मास में मनाया जाता है । इस त्यौहार के मूल में भगवान वामन की जयन्ती और राजा बली की कथा है । यह लगभग दस दिन चलनेवाला त्यौहार है । जैसा कि बताया है, यह त्यौहार चिंगम महीने में मनाया जाता है और यह चिंगम महिना हिंदू कलैंडर में लगभग अगस्त-सितम्बर में पड़ता है । इस वर्ष अगस्त के अंत में ओणम मनाया गया ।

विविध ऋतुओं में, विविध महीनों में गाये जाने वाले ऋतुगीतों-माहवारी गीतों, मतलब प्रकृति प्रेरित गीतों में एक ‘कजली’ जो सावन महीने में गाया जाता है । ‘ झूलागीत’ के नाम से भी जाना जाने वाला यह गीत सावन में, गाँवों में जगह-जगह झूले लगाकर स्त्री-पुरूष झूला झूलते हुए इस गीत को गाते हैं, पर अब वह स्थिति नहीं रही या बहुत कम हो गई । इस तरह के गीतों को मिथिला में मलार [कारि कारि बदरा उमडि गगन माझे लहरी बहे पुरविया], राजस्थान में हिंडोले के गीत तथा छतीसगढ़ी में सवनाही के नाम से जाना जाता है ।

किसी अकादमिक स्थायी मंच से दूर रहते हुए और सर्जकों-समीक्षकों के लेखन सहयोग के सिवा और किसी प्रकार के किसी के सहयोग के बगैर एक मासिक पत्रिका को बहुत ही नियमित रूप से निकालना थोड़ा मुश्किल है और आज के दौर में तो वाकई मुश्किल है, क्योंकि आज हम देखते हैं कि ऐसी साहित्यिक पत्रिकाओं की संख्या ज्यादा ही हैं, जिनके संपादक किसी शैक्षिक संस्था से जुड़े हुए हैं या संस्था से निवृत्त हुए हैं, इनको सहज रूप से एक बड़ा सहयोगी साहित्यिक माहौल मिल जाता है । साथ ही इस तरह की पत्रिकाओं को और ज्यादा मजबूती प्रदान करने के लिए एक पूरी टीम इनके साथ खड़ी रहती है । जिसमें प्रधान संपादक के साथ-साथ पूरा संपादक मंडल, कभी-कभी अतिथि संपादक, संरक्षक, परामर्शक आदि। किसी-किसी पत्रिका में तो इस तरह की और भी कई समितियाँ और उसके कई सदस्य । इतना बड़ा परिवार किसी पत्रिका का हो तो उसे निकालने-चलाने में सुविधा रहेगी ही। पर जहाँ इस तरह के सहयोग के बगैर ही कोई संपादकीय कार्य कर रहे है तो उनके लिए यह कितनी मेहनत का कार्य होगा, इसका अनुमान हम कर ही सकते हैं। पत्रकारिता की दुनिया में बहुत ही कर्मठ, जुझारू, समर्पित, प्रतिबद्ध पत्रकारों-संपादकों का भी अभाव नहीं है जो अकेले ही अपनी महेनत से, सेवा से इस तरह के ज्ञानरथ को आगे बढ़ाते रहते हैं। ऐसे संपादकों की पंक्ति में मैं ‘शब्दसृष्टि’ की संपादिका का नाम रखना चाहूँगा। एक परामर्शक और प्रकाशित होनेवाले भाषा व साहित्य के सेवियों को छोड़ दें तो सिर्फ अपनी अकेले की मेहनत से  विगत कई वर्षों से अपनी इस पत्रिका के हर अंक को, कलेवर की दृष्टि से-विषय की दृष्टि से नवीनता-वैविध्य-विस्तार के साथ हर माह और कभी-कभी तो विशेषांक के चलते महीने में दो अंक निकालना सच में सराहनीय है। यहाँ एक शब्द याद आता है- ‘एकल प्रयत्नी’। हर क्षेत्र में हमें ऐसे कई लोग मिलते हैं जो ‘ एकल प्रयत्नी’ होते हैं ।

दरअसल यह ‘एकल प्रयत्नी’ शब्द मैंने पहली बार कवि अशोक चक्रधर से, उनके एक काव्यपाठ के दौरान सुना । काव्य था दो माँझी - एक दशरथ माँझी और दूसरा दाना माँझी को लेकर । अपने प्रबल और प्रगाढ पत्नी-प्रेम के चलते ये दोनों माँझी मिसाल बन गए और साहित्य के नायक भी । दशरथ माँझी ‘ द माउंटन मैन’ के नाम से विख्यात हुए, जो बरसों तक अकेले ही छैनी-हथौड़ी  से पहाड़ तोड़ते रहे, राह बनाने के लिए और सफल भी हुए, और दाना माँझी जो किसी प्रकार की मदद-सुविधा न मिलने पर अपनी मृत पत्नी की लाश को अपने कंधों पर उठाकर मीलों तक पैदल चलता रहा । अशोक चक्रधर इन दोनों को ‘एकल प्रयत्नी’ कहते हैं, कहते हैं कि ‘यह अतुलित बल कहाँ से मिला इस ‘ एकल प्रयत्नी’ [दोनों के लिए] को, तो श्रेय जाता है उसे प्रेम करने वाली पत्नी को’ ।

अंत में, ‘शब्दसृष्टि’ के विगत सफ़र की प्रशंसा करते हुए मौजूदा अंक-38 के प्रकाशन अवसर पर अतीव प्रसन्नता की अनुभूति के साथ संपादिका एवं अपनी लेखनी से अंक को सुशोभित करने वाले तमाम सहयोगी मित्रों के प्रति साधुवाद ज्ञापित करता हूँ। साथ ही इनसे यह उम्मीद भी करता हूँ कि साहित्य के सृजन-पठन-आस्वादन व शोध-समीक्षा में वृद्धि, हिन्दी भाषा के व्यापक प्रचार-प्रसार, समाज व संस्कृति की विस्तृत पहचान-समझ के विकास, नई पीढ़ी को साहित्य तथा इससे जुड़ी पत्रिकाओं के प्रति ज्यादा लगाव बढ़ाने प्रभृति महत् उद्देश्यों को और ज्यादा अच्छी तरह से सिद्ध करने हेतु अपनी महती भूमिका को निरंतर सक्रिय बनाये रखते हुए पत्रकारिता के माध्यम से हमारे साहित्य, समाज, संस्कृति, भाषा एवं राष्ट्र के विकास में अपना बौद्धिक व रचनात्मक सहयोग दें।

 


डॉ. हसमुख परमार

प्रोफ़ेसर

स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर

जिला- आणंद (गुजरात) – 388120

 

 


सामयिक टिप्पणी

हिमालय का दर्द :

तुम अपनी मुहब्बत वापस लो!

डॉ. ऋषभदेव शर्मा

जी हाँ, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में महावृष्टि और भूस्खलन के प्रलयंकर दृश्य देखकर तो यही लगता है कि कालिदास के देवतात्मा नगाधिराज हिमालय की आत्मा यही चीत्कार कर रही होगी –

'अब नज़अ का आलम है मुझ पर/ तुम अपनी मुहब्बत वापस लो;/

जब कश्ती डूबने लगती है/ तो बोझ उतारा करते हैं!' (क़मर जलालवी)

सच ही, हिमालय डूब रहा है! इस प्रलय-वेला में उसका बोझ उतारने की ज़रूरत है। इसीलिए तो सर्वोच्च न्यायालय ने भी हिमालय क्षेत्र की 'वहन क्षमता' के बारे में चिंता व्यक्त की है। दरअसल हिमालय के नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र पर हमने जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई और अति-पर्यटन का भारी बोझा लाद  दिया है जिससे वह भीषण दबाव और तनाव महसूस कर रहा है। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में हाल की बारिश से हुई क्षति इस क्षेत्र की वहन क्षमता के अतिक्रमण का ही अनिवार्य कर्म-फल है!

वहन क्षमता (कैरींग कैपेसिटी) वह अधिकतम जनसंख्या है जिसे कोई पारिस्थितिकी तंत्र बिना नष्ट हुए बनाए रख सकता है। हिमालय के मामले में, इसका मतलब लोगों की उस अधिकतम संख्या से है जो पर्यावरण को नुकसान पहुँचाए बिना इस क्षेत्र में रह सकते हैं। ऐसी कई चीजें हैं जो वहन क्षमता निर्धारित करती हैं, जिनमें पानी, भोजन और भूमि की उपलब्धता, साथ ही अपशिष्ट को अवशोषित करने के लिए पारिस्थितिकी तंत्र की क्षमता शामिल है।

हिमालय एक जल-समृद्ध क्षेत्र है, लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियर खतरनाक दर से पिघल रहे हैं। इससे पीने, सिंचाई और जल-विद्युत उत्पादन के लिए पानी की उपलब्धता कम हो रही है। इसके अलावा, वनों की कटाई से मिट्टी में जमा पानी की मात्रा भी कम हो रही है। इससे यह क्षेत्र बाढ़ और भूस्खलन के प्रति अधिक संवेदनशील हो रहा है।

अतिपर्यटन भी हिमालय की वहन क्षमता पर दबाव डाल रहा है। यह क्षेत्र भारत के कुछ सबसे लोकप्रिय पर्यटन स्थलों जैसे चार धाम, शिमला, मनाली और धर्मशाला का घर है। पर्यटकों की आमद बुनियादी ढाँचे, जल आपूर्ति और अपशिष्ट प्रबंधन प्रणालियों पर दबाव डाल रही है। इससे पर्यावरण का क्षरण हो रहा है और स्थानीय समुदायों का विस्थापन हो रहा है।

उत्तराखंड और हिमाचल  में हाल ही में हुई बारिश से हुई क्षति बड़े खतरे की घंटी है। यह स्पष्ट है कि क्षेत्र अपनी वहन क्षमता तक पहुँच रहा है। यदि आज ही पर्यावरण पर तनाव को कम करने के लिए कार्रवाई नहीं की गई, तो भविष्य में और अधिक भयानक आपदाएँ झेलनी पड़ेंगी।

हिमालय की वहन क्षमता पर तनाव को कम करने के लिए कुछ चीज़ें  की जानी ज़रूरी हैं। जैसे, ग्लेशियरों से पानी की माँग को कम करने के लिए नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों में निवेश करना, पानी को संग्रहित करने और मिट्टी के कटाव को रोकने में मदद के लिए पेड़ लगाना, क्षेत्र में पर्यटकों की संख्या कम करने के लिए पर्यटन को विनियमित करना और टिकाऊ बुनियादी ढाँचे का विकास करना जो पर्यावरण को नुकसान पहुँचाए बिना आबादी की जरूरतों को पूरा कर सके।

इसके अलावा भी  हिमालयी क्षेत्र में वहन क्षमता के मुद्दों के समाधान के लिए यह ज़रूरी होगा कि क्षेत्र के लिए एक व्यापक मास्टर प्लान विकसित किया जाए जो प्रत्येक क्षेत्र की वहन क्षमता को ध्यान में रखे। संवेदनशील क्षेत्रों में विकास को प्रतिबंधित करने के लिए ज़ोनिंग नियमों को लागू करना होगा। जैविक खेती और कृषि वानिकी जैसी टिकाऊ भूमि उपयोग प्रथाओं को बढ़ावा देना होगा। प्रदूषण कम करने के लिए अपशिष्ट प्रबंधन प्रणालियों में सुधार करना होगा। तथा पर्यावरण की रक्षा के महत्व के बारे में जनता को शिक्षित करना होगा। ये कदम उठाकर हम भावी पीढ़ियों के लिए हिमालय क्षेत्र की स्थिरता सुनिश्चित करने में मदद कर सकते हैं।

कुल मिलाकर, भारतीय सर्वोच्च न्यायालय का हिमालयी क्षेत्र की वहन क्षमता के बारे में चिंतित होना सही है। इस समूचे इलाके को अवश्यंभावी प्रलय से बचाना अब इसकी सुरक्षा के लिए कार्रवाई करने की हमारी क्षमता पर निर्भर है।

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डॉ. ऋषभदेव शर्मा

सेवा निवृत्त प्रोफ़ेसर

दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा

हैदराबाद

 

 

 

आलेख

 


भारतीय शिक्षा प्रणाली के अंतर्गत गुरु शिष्य परम्परा के संदर्भ में विवेकानंद के विचार

डॉ. सुपर्णा मुखर्जी

सीखना और सिखाना दोनों ही समानांतर चलनेवाली प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया के दो महत्वपूर्ण अंग हैं शिक्षक और शिष्य। अर्थात्, एक व्यक्ति जो सिखाने के लिए तैयार होगा और दूसरा व्यक्ति जो सीखने की इच्छा रखता है। इस प्रक्रिया के अंतर्गत अमूमन यह मान लिया जाता है कि सारा दायित्व छात्र का है उसे सब कुछ सीख लेना, समझ लेना है और अगर वह सीख नहीं पाता है तो निष्कर्ष रूप में या तो उसे बेवकूफ मान लिया जाता है या फिर उसके शिक्षक को लापरवाह। इससे हुआ क्या है अनादिकाल से शिक्षक अपने को भारी भरकम समझा देने, सीखा देने के गुरु भार के लबादे में अपने आप को ओढ़ा हुआ पाता है, तो छात्र शिक्षक को रोबोटिक यंत्र मान बैठा है। जो, कुछ भी कैसे भी समझा ही देगा, सीखा ही देगा। यह एक प्रकार की मनोवैज्ञानिक बीमारी है जिसने शिक्षा के वास्तविक आनंद का ही नाश कर दिया है और कहीं न कहीं गुरु शिष्य परम्पराकी पवित्रता और रोमांच का भी नाश हुआ है।

सा विद्या विमुक्तयेमें विद्या जिस अज्ञानता के अंधकार से मुक्त करने की क्षमता रखने के साधन के रूप में दिखाई पड़ती है वही विद्या तो आज गुगल, व्हाट्सऐप, यू ट्यूब के ज़माने में खुद ही अंधेरे के गर्त में कहीं डूब गई है। टेक्नोलॉजी के साथ चलना गलत नहीं लेकिन टेक्नोलॉजी को पाकर आज के युवा शिष्य और गुरुओं की नई पीढ़ी भारतीय शिक्षा प्रणाली के मूलभूत सिद्धांतों को भूल गई है। शिक्षा का अर्थ केवल पास हो जाना या नौकरी प्राप्ति नहीं है। शिक्षा जीवन को अनुशासित और आत्मनियंत्रित करने का महत्वपूर्ण साधन है। शिक्षा का प्रथम लक्ष्य या तत्व ही होता है सत्, प्रकाश एवं प्रकाश अमरत्व की ओर विद्यार्थी को ले जाना। सत्, सृष्टि का मूल कारण, ज्ञान या प्रकाश उस सत्  को जानने की प्रक्रिया तथा अमरतत्व अर्थात्, आचरण की पवित्रता के द्वारा जाने हुए ज्ञान को जीवन में समाहित करना।

यहाँ स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा संबंधी विचार को समझना आवश्यक हो जाता है। उनका कहना था, ‘शिक्षा द्वारा मनुष्य का निर्माण किया जाता है। समस्त अध्ययनों का अंतिम लक्ष्य मनुष्य का विकास करना है। जिस अध्ययन द्वारा मनुष्य की संकल्प शक्ति का प्रवाह संयमित होकर प्रभावोत्पादक बन सके, उसी का नाम शिक्षा है

आज के समय में इस कथन की प्रासंगिकता और भी अधिक बढ़ गई है और गुरु की गुणवत्ता को बढ़ाने का समय भी आ गया है। गुरु को भी यह समझना होगा कि उपदेश देने का ज़माना गया आज की युवा पीढ़ी न तो भयभीत है और न ही चिंतित। इनकी महत्वाकांक्षाएँ अधिकाधिक हैं। ऐसी ही पीढ़ी देशोद्धार का कार्य और अधिक सटिक तरीके से कर सकती है। शर्त यह है कि उन्हें सही मार्गदर्शन मिले। स्वामी जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा था,

‘THREE THINGS ARE NECESSARY TO MAKE EVERY MAN GREAT, EVERY NATION GREAT:

1.        CONVICTION OF THE POWERS OF GOODNESS.

2.        ABSENCE OF JEALOUSY AND SUSPICION.

3.        HELPING ALL WHO ARE TRYING TO BE AND DO GOOD’.

ऐसी आदतों को केवल किताबी विद्या के द्वारा प्राप्त नहीं की जा सकती है। ऐसी शिक्षा में शिक्षित होने के लिए भारतीय प्राचीन ज्ञान प्रणाली की महत्वपूर्ण नियम ब्रम्हचर्यको जीवन में अपनाना होगा। शिष्य और गुरु दोनों के लिए ही यह महत्वपूर्ण चरण है। गुरु केवल ज्ञान का वाहक नहीं बल्कि पथ प्रदर्शक भी होता है। हाँ, स्वामीजी रुष्ट थें हमारी विश्वविद्यालयों की शिक्षा पद्धति को देखकर और उन्होंने सन् 1897 में मद्रास में अपने व्यक्तव को रखते हुए कहा,

‘MY IDEA OF EDUCATION IS PERSONAL CONTACT WITH THE TEACHER- GURUGRHA VASA. WITHOUT THE PERSONAL LIFE OF A TEACHER THERE WOULD BE NO EDUCATION. TAKE YOUR UNIVERSITIES. WHAT HAVE THEY DONE DURING THE FIFTY YEARS OF THEIR EXISTENCE? THEY HAVE NOT PRODUCED ONE ORIGINAL MAN. THEY ARE MERELY AN EXAMINING BODY. THE IDEA OF THE SACRIFICE FOR THE COMMON WEAL IS NOT YET DEVELOPED IN OUR NATION’.

देखिए, कितना समय बदल गया है। ऐसा नहीं कि भारत के शिक्षक और विद्यार्थी कमज़ोर हैं। लेकिन हमें यह मानना ही पड़ेगा कि गुरु और शिष्य संबंध आज ढुलमुल स्तर पर पहुँच गया है। शिक्षा के स्तर को सुधारने से पहले इस संबंध को कैसे सुधारे इस विषय पर केवल चर्चा करना काफ़ी नहीं होगा, सुधरे रूप को कार्यान्वयन में यथाशीघ्र लाना आवश्यक है।

 


डॉ. सुपर्णा मुखर्जी

हिंदी प्राध्यापिका

भवन्स विवेकानंद कॉलेज

सैनिकपुरी, हैदराबाद

 

 

कविता

 


भाई! तेरा घर-आँगन

सत्या शर्मा कीर्ति

 

भाई! अब जब नहीं रहती

तेरे घर-आँगन

फिर भी  बहुत याद आता है मुझे

तेरा वो घर-आँगन

 

वो पीछे का खेत

वो अमरुद की छाँव

वो कुँए का मुंडेर

वो नन्हे-नन्हे पाँव

क्या अब भी तकते हैं राह

मेरे लौट आने की?

 

वो छोटी-छोटी गिट्टियाँ

वो नीम डाल के झूला

जाने कितनी अठन्नी-चवन्नियाँ

जिन्हें हम सब ने था रोपा

 

हाँ  भाई! अक्सर अकेले में

बहुत पुकारता है मुझे

तेरा वो घर-आँगन

 

वो बेलपत्र की डाली

वो उड़हुल की लाली

वो बड़ों का प्यार

वो तेरी  तकरार

वो माँ का मुझे मानना

वो तेरा रूठ जाना

पर पापा का ये कहना

ये एक दिन तो चली जायेगी।

 

हाँ , देख चली तो आई

पर बहुत याद आता है

भाई! मुझे तेरा वो घर-आँगन।

 

देखो न! आज माता-पापा

सब तेरे ही साथ हैं

वो ड्योढ़ी , वो चौखट सब

सब तेरे ही पास हैं

मैं छोड़ आई सबको

नयी दुनिया बसाने चली

नये-नये रिश्तों को

अपना बनाने लगी

इस घर के कोने - खिड़की पर

अब मेरा भी नाम है

पर भाई!

आज भी बहुत याद आता है मुझे

तेरा वो घर-आँगन।

 

राखी के दिन तेरा देर तक सोना

जगाने पर भी चादर फिर से ओढ़ लेना

चिढ़ना मुझे, उपहार छुपा देना।

 

सुनो कि

नींद अब आती नहीं

उपहार भी सुहाते नहीं

खतों में भेजती हूँ राखी

 पर राखी की कलाई

पास आती नहीं

हाँ भाई! ऐसे में  बहुत याद आता है मुझे तेरा घर - आँगन

 

अब जब उम्र ढलने लगी है

मन के भाव भी थकने लगे हैं

कई रिश्ते छूटने लगे हैं

संबंधों की डोर टूटने लगी है

अंतिम क्षणों की आहट

आकर डराने लगी है

तब सोचती हूँ बार-बार

लौटती हूँ तेरे द्वार

देखती हूँ पलट कर

चाहती हूँ यह कहना कि

मुझे बहुत याद आता है

बचपन का वो तेरा व मेरा

घर-आँगन।


सत्या शर्मा कीर्ति

राँची

अप्रैल 2024, अंक 46

  शब्द-सृष्टि अप्रैल 202 4, अंक 46 आपके समक्ष कुछ नयेपन के साथ... खण्ड -1 अंबेडकर जयंती के अवसर पर विशेष....... विचार बिंदु – डॉ. अंबेडक...