रविवार, 12 नवंबर 2023

नवम्बर 2023, अंक 41


शब्द सृष्टि

नवम्बर 2023, अंक 41

उजाले के साथ....

शुभकामनाओं के साथ-साथ......... – दीपोत्सवी आलोक से आलोकित – घर, आँगन और अंतःकरण – प्रो. हसमुख परमार/डॉ. पूर्वा शर्मा

विशेष – आ गई दीपावली.... – प्रो. बीना शर्मा

भाषा-चिंतन – 1)दिवाली/दीवाली 2)रेफ किसे कहते हैं?– डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

विचार – धर्मो रक्षति रक्षितः – सुरेश चौधरी 'इंदु'

रम्य रचना – कंचन थार आरती नाना – डॉ. ऋषभदेव शर्मा

व्यंग्य – लक्ष्मीजी से मुलाकात – डॉ. गोपाल बाबू शर्मा

कविता – ज्ञानदीप – गोपाल जी त्रिपाठी

विशेष – डायरी के पन्ने.... – डॉ. बीना शर्मा

कविता – धनतेरस – मालिनी त्रिवेदी पाठक

कविता – जगमग दीप जले – इन्द्र कुमार दीक्षित

भजन – श्याम – सुरेश चौधरी 'इंदु'

कवि परिचय – सरदार कवि – प्रो. पुनीत बिसारिया

संस्मरण – खोही पर के बुडुआ – इन्द्र कुमार दीक्षित

कविता – हेमन्त ऋतु – सुरेश चौधरी

तेवरी – डॉ. घनश्याम बादल



शुभकामनाओं के साथ-साथ.........


दीपोत्सवी आलोक से आलोकित

घर, आँगन और अंतःकरण

प्रो. हसमुख परमार/डॉ. पूर्वा शर्मा

सात वार और नौ त्यौहार यानी हमारे यहाँ, विशेषत: हिन्दू धर्म में पर्व एवं त्यौहारों का बाहुल्य। इन पर्व-त्यौहारों में कुछ सांस्कृतिक हैं , कुछ राष्ट्रीय, तो कुछ किसी देवी-देवता या महापुरुष की पुण्य स्मृति में मनाये जाते हैं। सिर्फ कैलेंडर की किसी विशेष तिथि तथा छुट्टी के दिन का नाम ही त्यौहार नहीं है बल्कि सदियों से भारतीय जनजीवन का अभिन्न अंग रहे ये त्यौहार हमारी धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय भावना से पूरित गौरवगाथा का एक मुख्य व महत्त्वपूर्ण अध्याय है। हमें हमारी उज्ज्वल परंपराओं व आदर्शों और मूल्यों से जोड़े रखने, हमारे विचार एवं व्यवहार में सामूहिक भावना, संवेदना, परहित वृत्ति प्रभृति के विकास में इन त्यौहारों की महती भूमिका रही है।

कहते हैं, और यह हमारा अनुभूत सत्य भी है कि त्यौहार हमें रिफ्रेश करते हैं। कभी-कभी दैनिक जीवन की ऊबाऊ परिस्थितियों से हमें बाहर निकाल कर, हमारे मन को एक नयी उमंग तथा ऊर्जा से भरने वाले ये त्यौहार, हमें नवजीवन प्रदान करने वाले बड़े स्फुर्तिदायक अवसर होते हैं। त्यौहार का आनंद-उल्लास हमारे जीवन की, हमारे समाज की कई विषमताओं एवं समस्याओं से हमें मुक्त करने में सहायक बनते हैं। “दैनिक तालिका के शांतिपूर्ण जीवन से जब मनुष्य ऊब जाता है, तो उसमें उत्क्रांति लाने के लिए वह तरह-तरह के उपाय करता है। उन्हीं उपायों में से एक उपाय पर्व-त्यौहार भी है।

प्रमुख भारतीय त्यौहारों की फेहरिस्त में सबसे पहले नाम लिया जाता है दिवाली का। हमारे सभी त्यौहारों में इस त्यौहार की शान, स्थान व महत्व कुछ निराला ही है। एक नहीं, दो नहीं, पूरे पाँच दिनों का यह प्रकाश पर्व सबके लिए आशा व आनंद का संदेश लेकर आता है। पाँच दिवसीय त्यौहार में प्रत्येक दिवस का एक विशेष महत्व है।

कई मान्यताएँ, कई पौराणिक कथा-प्रसंग इस महापर्व से जुड़ें हैं। रामायण से जुड़ी मान्यतानुसार लंका विजय के बाद तथा अपनी वनवास अवधि को पूरा कर श्रीराम ब अयोध्या लौटते हैं तो उनके स्वागत में अयोध्यावासियों द्वारा दीपकों की रोशनी कर अपने आनंद को प्रकट करने के दिवस को दिवाली से जोड़ा जाना। एक और मान्यता है जिसमें महाभारत को लेकर युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ की पूर्णाहूति की खुशी के संदर्भ को भी दिवाली से जोड़ा गया है। इस बात से भी हमअनभिज्ञ नहीं हैं कि जैन संप्रदाय में दिवाली के दिन दीपमालिका सजाकर भगवान महावीर स्वामी का निर्वाणोत्सव मनाया माता है।

उजाले के साथ उजाले की ओर अग्रसर.... प्रकाश के इस सुंदर पर्व की तैयारियाँ कुछ दिन पहले से ही शुरू हो जाती हैं। सफाई, पुताई, शोपिंग की व्यस्तता । तत्पश्चात पाँच दिवसीय पर्व में दीपकों के प्रकाश से पूरा वातावरण प्रकाशित। दरअसल घर-आँगन की सफाई के साथ-साथ, उसे रोशनी से जगमग करने के साथ-साथ हमारे अंतः करण की शुद्धता-सफाई, मन-चित्त को प्रकाशित करने का भी यह पर्व है। घर-आँगन की सफाई से ज्यादा कठिन है मन की सफाई। हमारे बाहरी वातावरण को स्थूल प्रकाश से रोशन करना तो सरल है पर हमारे भीतर को -हमारे अंतः करण को – हमारे स्व-स्वयं को प्रकाशित करना उतना सरल नहीं। आओ ! संकल्प करें कि इस दिवाली हम अपने मन में पल रही-बढ़ रही कुत्सित वृत्तियों-विकारों के डस्ट को साफ करें। मन के दोष-मलिनता के अंधकार को, अज्ञान के तिमिर को मनुष्यता की ज्योति से दूर कर अपने अंतः करण को प्रेम, सौहार्द-भाईचारा, परोपकारी वृत्ति के प्रकाश से प्रकाशित करें। हमारे रोम-रोम में प्रकाश का तेज, मन में ज्ञान की रोशनी का अनुभव करें। हम अपने चर्मचक्षु से बाहरी प्रकाश को देख सकते हैं, बाहरी स्थूल वस्तु व दृश्यों को देख सकते हैं लेकिन हमारे आंतरिक उजाले को देखने के लिए तो हमें अपने दिव्यचक्षु-अंतरचक्षु खोलने की मरूरत है। इस बात को लेकर एक दैनिक समाचार पत्र के एक स्तंभ लेखक लिखते हैं कि दिवाली अंतरचक्षु खोलने का दिव्य अवसर है।’

दिवाली – ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ का त्यौहार है। ‘अंधकार पर प्रकाश की जीत’ का पर्व है।

एक तरफ ज्ञान है यानी प्रकाश। और दूसरी तरफ अज्ञान यानी अंधकार।  अंधकार एक ऐसा आवरण है जो सारी चीजों को ढँक देता है और प्रकाश आते ही सारी चीजें स्पष्ट दिखाई देती ही हैं। यही काम अज्ञान और ज्ञान का है। यह पर्व मनुष्य के इसी विकास की यात्रा है। पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपने एक निबंध- अंधकार से जुझना है!में मनुष्य की जिज्ञासा वृत्ति, इसकी चेतना का विकास व विवेक की चर्चा करते हुए प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति के केन्द्र में रहे तमसो मा ज्योतिर्गमयसूत्र के परिप्रेक्ष्य में हमारे इस प्रमुख त्यौहार दिवाली के महत्व व संदेश को स्पष्ट करते हुए ज्ञान रूपी प्रकाश की प्राप्ति हेतु अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करने, इससे लड़ने, जूझने की बात बताई है।

उजाले के साथ-साथ स्त्री के मान का, सम्मान का त्यौहार....

पर्व-त्यौहार-व्रत-उत्सव अबालवृद्ध के आनंद तथा उनकी धार्मिक-सांस्कृतिक भावना की अभिव्यक्ति के अवसर हैं। त्यौहार को मनाने में, उससे जुड़े विधि-विधान, धार्मिक कृत्य आदि को संपादित करने में स्त्री-पुरुष उभय की सहभागिता रहती है। बावजूद इसके हमारे ज्यादातर व्रत व त्यौहार के केन्द्र में स्त्री ज्यादा रही है। त्यौहार की पूर्व तैयारी से लेकर इसके संपन्न होने तक स्त्री की भूमिका खास होती है। इन दिनों दिवाली के साथ-साथ कुछ समय पूर्व मनाए गए नवरात्रि, शरद पूर्णिमा, तीज, करवा चौथ आदि व्रत-त्यौहार में स्त्री की केन्द्रीयता को हम बखूबी देखते हैं। नवरात्रि में शक्ति की आराधना, करवा चौथ में अपने सुहाग हेतु स्त्री द्वारा पूजा-अर्चन, दिवाली में लक्ष्मी की पूजा। ये सब एक संदेश है स्त्री के मान-सम्मान का ।

अप्प दीपो भव: बात दीपक की हो, दीपों के पर्व की हो, दीपोत्सव और उसके आलोक की हो और उसीके निमित्त ज्ञान-अज्ञान रूपी प्रकाश-अंधकार की चर्चा। बाहरी उजाले के साथ मनुष्य के अंतर्मन के उजाले तथा दीपक की तरह प्रकाशित होकर अपने विकासमार्ग पर अग्रसर होने की चर्चा के प्रसंग में, गौतम बुद्ध और लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व उनके द्वारा दिये गए एक मंत्र अप्प दीपो भवः को याद करना अप्रासंगिक नहीं होगा। ‘अप्प दीपो भव:अर्थात् अपना दीपक खुद बनो। अपना प्रकाश स्वयं बनो । किसी और से आशा,उम्मीद रखे बिना, औरों पर निर्भर रहे बगैर अपना प्रकाश खुद बनो और स्वयं के साथ-साथ औरों के लिए भी प्रकाशित हो। न ज्यादा अनुकूल स्थिति, न वातावरण, न कोई मार्गदर्शक, न प्रोत्साहन – फिर भी अपनी लीक बनाने वाले इस ‘अप्प दीपो भवःकी परंपरा के कई दीपक हमारे समाज में, हमारे इतिहास में जगमगा रहे हैं। जो अपने ज्ञान व कर्म के प्रकाश से दूसरों का मार्ग भी प्रशस्त कर रहे हैं। आत्मज्ञान और अंतरात्मा के प्रकाश से ये दीपकजीवनपथ पर अग्रसर हुए.....

 

प्रो. हसमुख परमार


डॉ. पूर्वा शर्मा


 

विशेष

 



आ गई दीपावली....  

प्रो. बीना शर्मा

            कार्तिक मास, अमावस्या तिथि तो दीपावली का आना बनता है।  दो दिन पहले ही प्रकाश पर्व का आगाज हो चुका है। सप्ताह पूर्व ही बाजार गुलजार हो चुके हैं। घर लिप पुत कर विद्युत लड़ियों की सजावट से अपनी आभा बिखेर रहे हैं।  घरों का कचरा और टूटा फूटा सामान कबाड़ी की भेंट चढ़ चुका है।  अब ये अलग बात है कि आपके घर का कबाड़ भी किसी गरीब की झोंपडी में सज  चुका है और हम अपने-अपने गृह सहायक सहायिका को कबाड़ दे उस पर अहसान लाद चुके हैं। अमीर-गरीब सबने कोशिश तो खूब की है कि घर सज सँवर सके।  तो जिसकी जैसी सामर्थ्य है सब अपनी अपनी चादर में पैर फैला कर दीपावली मनाने को तैयार है।  

मध्यमवर्गीय घरों में चूल्हे पर कढाई चढ़ चुकी है।  भले ही बाजार में सब रेडीमेड मिलता हो।  मिठाइयाँ के थाल के थाल और पैकेट लदे पड़े हो पर गृहणियों को अपने हाथ से बनाए खिलाए बना चैन कब आता है।  सो कहीं बेसन भुनने और मावा मिठाइयों को बनाने का दौर जारी है तो कहीं मीठे नमकीन सकर पारे और मठरी तले जाने की खुशबु आ रही है। जिधर देखो उधर उत्साह का माहौल है।  जिनके पास रेज का पैसा भरा पड़ा है  लक्ष्मी बरस रही है वे सोने-चाँदी के सिक्के आभूषण खरीदने में लगे पड़े हैं और कुछ अपनी गरीबी के चलते दो समय की रोटी की जुगत भिड़ा रहे हैं।  जिनके घर भंडार भरे पड़े हैं उनके घर तो रोज दीपावली-सी है।  दीया तो गरीब की झोंपडी में भी प्रकाशित होगा आखिर तो साल भर का त्यौहार है।  

असल बात तो उजाले की है प्रकाश की है फिर वह मिट्टी का छोटा सा-दीया हो या जगमगाती रोशनी बिखेरती बिजली की लड़ियाँ हों। एक छोटा दीप भी अंधेरे को दूर करता ही है।

याद आते हैं गोपाल दास नीरज –

‘जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना

अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाये।’

कितने भी दीप जलाओ पर मन का अंधेरा तो तभी मिटता है जब मनुज स्वयं दीप का रूप धर आए।  दूसरों को प्रकाशित करने के लिए स्वयं दीप्त होना जरूरी है।  जलते दीपक से ही दूसरा दीपक जलाया जा सकता है । उजाले की पंक्ति तैयार की जा सकती है।  माटी का दीपक  स्नेह की बाती  और तेल की स्निग्धता में कैसी रोशनी बिखेरता है कि निशा आने और उषा जाने का साहस खो बैठती है।  सब और प्रकाश ही प्रकाश फैल जाता है।  जगमग-जगमग हो जाता है।  मन कैसा उलसता उमगता  है सुर फ़ूट पड़ते हैं ज्योति कलश छलके।  खुद खुश होते हो तो सामने वाले को भी खुशी दे पाते हो।  सबकी  झोली में खुशियाँ भर देते हो।  तो बस जैसे भी हो मन को खुश रखो और मन की खुशियाँ पैसों  से  कहाँ खरीदी जाती हैं भला । वह तो अपने अंदर से आती है।  मन भरा पूरा हो तो बिना माल जाये भी सारी खुशियाँ झोली में आ गिरती हैं।  

दीप से दीप जलते रहें, सब को खुशियाँ बाँटते रहें, वाणी में मधुरता बनाए रखें, कड़वे बोलों को तिलांजलि दें, सबका शुभ मनाते रहें तो मन गई दीपावली।  असत से सत, अंधकार से प्रकाश और मृत्यु से अमरत्व की ओर चलना ही तो ध्येय है।  तो बस ज्ञान का दीप जलता रहे रोशनी बिखेरता रहे अज्ञान को  दूर करता रहे  तो  मन गई दीपावली। और क्या चाहिए इस मन को?  बस प्रकाश ही न! प्रकाश हो तो सब साफ़ साफ़ दिखता है।  गलती की गुंजाइश ही नहीं रहती। बस जीवन में प्रकाश भरा रहे उजास फैलता रहे, अंधकार दूर हो, गलतफहमियाँ दूर हों, फासला मिट सके। जो आत्मीय किसी भी कारण से दूर हो गए हैं उनसे मन मिलते रहें, मनमुटाव दूर हों, गले मिल सकें गिले शिकवे दूर हों। आखिर जिंदगी है ही कितनी-सी। आज हैं कल किसने देखा है।  तो जो मन में हैं सब कह लेते हैं सबसे मिल लेते हैं।  होली दिवाली तो आती ही बिछुडो को मिलाने को हैं। तो चलो दोस्ती का हाथ बढ़ाते हैं और मिल कर हँसी खुशी दीपावली मनाते हैं।  

आप सभी को दीपावली शुभ हो।

 

प्रो. बीना शर्मा

पूर्व निदेशक, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा

संप्रति विभागाध्यक्ष अंतरराष्ट्रीय हिंदी शिक्षण विभाग

केंद्रीय हिंदी संस्थान

आगरा 

 

भाषा-चिंतन

 



डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

1)दिवाली/दीवाली

किसी विषय की तात्त्विक चर्चा भावुकतापूर्ण और मनमानी उक्तियों से नहीं आगे बढ़ती।

शब्दों में होने वाले रूपांतरण का अध्ययन करने वाला शास्त्र है - व्युत्पत्तिशास्त्र है, जिसमें यह अध्ययन किया जाता है कि कौन-सी भाषा-ध्वनि कब, कैसे और किस रूप में रूपांतरित होती है या हो सकती है? यह बात उपलब्ध प्राचीन दस्तावेजों से प्रमाणित भी करनी होती है। सिर्फ हवा में बात नहीं होती। किसी ध्वनि में होने वाले परिवर्तन का अनुमान किया जाता है। तर्क ढूँढ़े जाते हैं। नियम बनाए जाते हैं।

प्रत्येक भाषा-ध्वनि की उच्चारण संबंधी अपनी विशेषताएँ होती हैं। वे विशेषताएँ ही उस ध्वनि में होने वाले परिवर्तन की दिशा तय करती हैं।

दीपावली शब्द से दीवाली बना है।

दीपावली>दीवाअली (प् ध्वनि व् में परिवर्तित होती है और दूसरे व् का लोप होने से अ शेष रहता है)

फिर आ और अ की संधि होने से शब्द बनता है दीवाली।

दीवाली फिर बोलने में दिवाली बनता है।

दीवाली शब्द में तीन दीर्घ स्वर हैं। तीन दीर्घ स्वरों का एक क्रम में उच्चारण करना कठिन होता है। कारण कि एक साथ अधिक श्रम लगता है।

ऐसी स्थिति में दीवाली शब्द का पहले उच्चारण दिवाली हुआ।

बाद में वह लिखने में भी आ गया।

***

2)सवाल –  रेफ किसे कहते हैं?

जवाब –

र वर्ण चार रूपों में लिखा जाता है।

यानी वर्ण तो एक ही है र।

लेकिन लिखा जाता है चार रूपों में।

१. र = स्वर सहित। यानी अ युक्त।

२. ट ठ ड ढ के नीचे।

ट्र ठ्र ड्र ढ्र।

३. पाई वाले अन्य व्यंजन वर्णों के नीचे।

क्र ख्र प्र ..... आदि।

४. किसी भी व्यंजन वर्ण के ऊपर।

र्क र्च् र्ट र्प् र्य ..... आदि।

अन्य व्यंजन वर्णों के ऊपर लगे र के रूप को (र्क) रेफ कहा जाता  है।

र चार रूपी में लिखा जाता है।

१. एक रूप जो स्वतंत्र प्रयुक्त होता है। यानी र।

२. दूसरे तीन रूप अन्य व्यंजनों के साथ यानी संयुक्त व्यंजन के रूप में प्रयुक्त होते हैं।

नम्र

कर्म

उष्ट्र



डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

40, साईंपार्क सोसाइटी, वड़ताल रोड

बाकरोल-388315, आणंद (गुजरात)

विचार

 



धर्मो रक्षति रक्षितः

सुरेश चौधरी 'इंदु'

यदि हम धर्म की रक्षा करते हैं तो वह हमारी रक्षा करता है।

अज्ञानवश, छद्म राजनीति से ग्रषित लोगों ने मनुस्मृति को अयोग्य ही नहीं बल्कि कलंकित तक कह दिया। जबकि मनुस्मृति सच्चे मायने में जीवन की रूल बुक है। यह भी सच है कि पहली सदी के आसपास कथित ब्राह्मण वर्ग ने अपने वर्चस्व को बनाये रखने के लिये इसे प्रक्षिप्त भी किया। परंतु इसके सूक्त आज भी हमे मार्ग दिखाते हैं।  यह श्लोक भी उनमें से एक है।

यह मनुस्मृति अध्याय 8 का 15वाँ श्लोक है :

धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।

तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत्

(मनुस्मृति 8/15)

अर्थात: धर्म का लोप कर देने से वह लोप करने वालों का नाश कर देता है और रक्षित किया हुआ धर्म रक्षक की रक्षा करता है। इसलिए धर्म का हनन कभी नहीं करना चाहिए, जिससे नष्ट धर्म कभी हमको न समाप्त कर दे।

प्रायः हम धर्म से पूजा पद्धति को मान लेते हैं कि हमने मंदिर जाकर पूजा कर ली इसलिए बस धर्म कर लिया अब धर्म हमारी रक्षा करेगा। जबकि वैदिक सनातन दर्शन में धर्म कदापि पूजा पद्धति नहीं रहा बल्कि यह एक मार्ग है जिस पर चलकर हम जीवन की आराधना करते हैं ।

इस पूरे श्लोक को समझने के लिए हमें धर्म क्या है समझना होगा ।

वैदिक सनातन दर्शन में ‘धर्म’ शब्द ‘ऋत’ पर आधारित है। ‘ऋत’ वैदिक धर्म में सही प्राकृतिक व्यवस्था और संतुलन के सिद्धांत को कहते हैं।

अर्थात् वह व्यवस्था जो प्रकृति जनित तत्वों द्वारा पूरे ब्रह्मांड को संयमित रखे। वैदिक संस्कृत जो कि वर्तमान संस्कृत से थोड़ी भिन्न है, जिसमें इसका अर्थ ‘ठीक से जुड़ा हुआ, सत्य, सही या सुव्यवस्थित’ होता है।

ऋग्वेद के अनुसार – ”ऋतस्य यथा प्रेत”  अर्थात प्राकृत नियमों के अनुसार जीओ। और जो इन नियमों का पालन करता है और प्रकृति का मान रखता है वह ही धर्म का पालन करता है।

लेकिन इस सूत्र का मात्र इतना ही अर्थ नहीं है कि प्राकृत नियमों के अनुसार जीओ। सच तो ये है कि ऋत शब्द के लिए हिन्दी में अनुवादित करने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए इसको समझना ज्यादा जरूरी है, क्योंकि यह शब्द अपने आप में बहुत ही विराट है। ‘प्राकृत’ शब्द से हम भूल कर सकते हैं, अर्थ समझने में।  निश्चित ही ऋत के बहुत से आयामों में यह एक आयाम मात्र है ।

ऋत का अर्थ है – जो सहज है, स्वाभाविक है, सरल है, जिसे आरोपित नहीं किया गया है। जो अंतस है आपका, आचरण नहीं। जो आपकी प्रज्ञा का प्रकाश है, चरित्र की व्यवस्था नहीं जिसके आधार से सब चल रहा है, सब ठहरा है, जिसके कारण अराजकता नहीं है। बसंत आता है और फूल खिलते हैं। पतझड़ आता है और पत्ते गिर जाते हैं। वह अदृश्य नियम, जो बसंत को लाता है और पतझड़ को भी। सूरज है, चाँद है, तारे हैं। यह विराट विश्व है और कहीं कोई अराजकता नहीं। सब सुसंबद्ध है। सब एक तारतम्य में है। सब संगीतपूर्ण है। इस लयबद्धता का ही नाम ऋत है। और यही तो प्रकृति का धर्म है , इससे अच्छा उदाहरण धर्म का क्या हो सकता है।

बहुत गूढ़ व्याख्याओं पर न जाते हुए साधारण शब्दों में कहा जाये तो वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय, शुद्र और वैश्य को कर्म के आधार पर बाँटा गया है, आप बताए गए माध्यम से सही-सही कर्म करते रहें तब आपके वही कर्म, धर्म बन जाएँगे और आप धार्मिक कहलायेंगे। मनुष्यों के लिए यही धर्म है।

अतः आपका कर्म अगर सुकर्म है तो वही आप की रक्षा करेगा।



सुरेश चौधरी 'इंदु'

एकता हिबिसकस

56 क्रिस्टोफर रोड

कोलकाता 700046


रम्य रचना

 



कंचन थार आरती नाना

डॉ. ऋषभदेव शर्मा

प्रकाश सृष्टि का प्रतीक है; और दीपक उसका हमारे सबसे निकट स्थित वाहक। चेतना और प्राणशक्ति का ही एक नाम है दीप। उसने उस एक नूर की किरण को, चिंगारी को, स्फुलिंग को, अपने में समेट कर रखा है, जिससे यह सारा जग उपजा है। दीपक बीजमंत्र है - ऊर्जा के सारे स्फोट को अपनी बाती में सँभाले हुए। दीप जलता है तो चाहे जितना ही मद्धिम जले, पर जहाँ तक उसकी किरण जाती है, अँधेरा कट जाता है। दीप जलता है, जलता ही है, अँधेरे को काटकर लोक का कल्याण करने के निमित्त। अँधेरे में पनपता है अज्ञान - अँधेरे में पनपते हैं रोग - अँधेरे में पनपता है शोक - अँधेरे में पनपती है दरिद्रता - अँधेरे में पनपते हैं अपराध। दीपक एक एक कर काटता है अज्ञान को - रोग को - शोक को - दरिद्रता को - अपराध को। इसीलिए तो दीपक को, दीपक की ज्योति को, प्रणाम किया जाता है।

दीपक के अभाव में ज़िंदगी अँधेरी सुरंग थी। मैं तो बस चला जा रहा था। एक हाथ में लोक की लाठी थी, दूसरे में शास्त्र की बेंत। पर दीखता कुछ न था! तभी, तुम आए, और आगे-आगे दीपस्तंभ बने चलने लगे! धीरे धीरे तुम्हारी ज्योति मेरे भीतर समाती रही, और मेरे अंतस्तल का जाने कब से अँधियारा पड़ा लोक आलोक से भर उठा। भीतर का दीया जल गया था! कैसा अंधा था मैं, आज से पहले ध्यान ही नहीं दिया था। जिस प्रकाश को, जन्म-जन्म जाने कहाँ-कहाँ खोजता फिरा, वह तो मेरे भीतर था। बड़ी कृपा की तुमने। भरपूर तेल से भरा दीया दिया। कभी न ख़त्म होने वाली बाती दी। अखंड ज्योति जल उठी। यह अखंड ज्योति अब दिन रात तेरी आरती बन गई  है। आकाश के थाल में, सूर्य, चंद्र और अग्नि ही नहीं, असंख्य तारे भी तेरी आरती उतार रहे हैं। यह महोत्सव है तेरे प्रकाश के मुझपर उतरने का। चौदह-चौदह चंदा खिल उठे हैं, चौंसठ चौंसठ दीवों की मालाएँ झिलमिला उठी हैं। स्वयंप्रकाशमय तुम जबसे मेरे घर आए हो, सब ओर अखंड प्रकाश है। अब चाहे जितनी अमावस घिरे, चाहे जितना तमस बरसे, चाहे जितनी कालिख उड़े, मेरे अस्थिचूड का दीपक लगातार जलता रहेगा - मेरी पुकार सुनकर कोई न भी आए, तो भी।

जब-जब तुम आए हो, तब-तब मेरे रोम रोम ने मंगलगीत गाए हैं, दीपमालिका सजाई है। सभी ने महसूस किया होगा कभी न  कभी, चाहे जितनी दूर रहो, एक कोई छोटी सी ज्योति, हमें निरंतर अपनी ओर खींचती रहती है। ज्योति - जो सरयू के जल में सिराये दोने में, जाने कबसे जल रही है। हर साँझ माँ कौसल्या आती है आँचल में दीपक छिपाए हुए, और जाने कितनी शुभकामनाएँ मन ही मन उच्चारती हुई, उस दिए को सरयू में प्रवाहित कर देती है। उधर राजभवन के शिखर पर, नंगे पैरों सात-सात मंजिलों की सीढ़ियाँ चढ़कर, उर्मिला आकाशदीप जला आती है। जहाँ भी हों, हमारे प्रिय, उनका मार्ग प्रकाशमय रहे! यह सरयू का दीया, यह राजभवन के शिखर का आकाशदीप, उनके लौटने के मार्ग में प्रकाश के पाँवड़े बन जाएँ। लंका की चकाचौंध एक तरफ और साकेत की दीपशिखाओं की रुपहली सी झलमल एक तरफ। दीपशिखा के इस मधुर प्रकाश में ममत्व है, वात्सल्य है, स्नेह है, और है प्रतीक्षा। इसलिए, स्वर्णमयी लंका भी राम को लुभा नहीं पाती। और वे पुष्पक विमान से सीधे साकेत आ पहुँचते हैं।

राम के लिए विलंब करना संभव नहीं है। आज अगर देर कर दी, तो वह पगला भरत, चिता में जल मरेगा। वैसे भी, भरत चौदह साल से एक सुलगती हुई चिता ही तो है। प्रतिक्षण जलती इस चिता से जाने कितना धुँआँ उठ-उठ कर ब्रह्मांड में व्याप गया है। राम की आँखें अकेले में जाने कितनी बार, इस धुँएँ से कडुआ कर, झर-झर बरसती आई हैं। इसलिए अब राम के लिए, और विलंब करना संभव नहीं।

राम अयोध्या पहुँच रहे हैं। आज दीवाली है। दीवाली - ज्ञान और समृद्धि का त्यौहार। दीवाली - साधना की सिद्धि का पर्व। मिलन को उपलब्ध होने का महोत्सव है दीवाली। यही तो प्रिय की अगवानी का शुभ मुहूर्त है। भरत माताओं को राम के आगमन की सूचना देते हैं, तो वे विह्वल हो उठती हैं। पगला कर दौड़ पड़ती हैं - जैसे बछड़े की आहट पाकर गाय दौड़ पड़ी हो। नगर भर में समाचार फैल जाता है, और शोक की चौदह वर्ष की अमावस्या एक पल में अतीत हो जाती है। दीप जलाकर, लोकाभिराम राम की अगवानी की जाती है, और नगर जगर-मगर हो उठता है। राम आ पहुँचे हैं अयोध्या में। भरत-मिलाप जैसा मार्मिक अवसर कहीं दूसरा नहीं मिलता। पर राम तो सबके हैं। वे भरत से मिलते हैं, और एक-एक पुरवासी से भी मिलते हैं। राम ने जैसे उतने ही रूप धर लिए, जितने नागरिक हैं। सबसे ‘यथायोग्य’ मिले वे, क्षण भर में। दीपक प्रज्वलित हो तो एक साथ सबको यथायोग्य उसका प्रकाश मिल जाता है। वह कोई भी तिथि हो, कोई भी वार हो, अगर प्रिय मिलन की तिथि हो, अगर यथायोग्य कृपा की वर्षा का वार हो, तो वह वेला अंधकार के समूल कटने की वेला बन जाती है। राम का पृथ्वी को निशिचरहीन करके लौटना, ज्योति-बीज बोने का काल है। जब-जब वह पल अनंत काल के प्रवाह में कहीं भी घटित होता है, तब-तब सजती है दीपावली और मनाया जाता है आलोक का पर्व –

 

कंचन कलस विचित्र सँवारे।

सबहि धरे सजि निज निज द्वारे॥

 

बंदनिवार पताका केतू।

सबन्हि बनाए मंगल हेतू॥

 

बीथीं सकल सुगंध सिंचाईं।

गजमनि रचि बहु चौक पुराईं॥

 

नाना भांति सुमंगल साजे।

हरषि नगर निसान बहु बाजे॥

 

जहं तहं नारि निछावरि करहीं।

देहिं असीस हरष उर भरहीं॥

 

कंचन थार आरती नाना।

जुवती सजें करहिं सुभ गाना॥

 

करहिं आरती आरतिहर कें।

रघुकुल कमल विपिन दिनकर कें॥

 

नारि कुमुदिनी अवध सर,

रघुपति बिरह दिनेस।

अस्त भए बिगसत भईं,

निरखि राम राकेस॥”

 

कहाँ है अँधेरा? कहाँ है अमावस?? जिस रात के चंद्रमा राम हैं, उसमें कैसा अँधेरा??? जब तक राम नहीं थे - तभी तक अँधेरा था - तभी तक अमावस थी। राम आ गए। उजियारा छा गया। उजियारा - भीतर और बाहर सर्वत्र उजियारा!!!

मेरे दीपक, तू निष्कंप जलता चल। इस तरह जल कि कोई कहीं अँधेरे रास्ते पर न भटके। किसी चिड़िया-चुरंग का भी घर न खोये। किसी को भी भयभीति न हो, और किसी का भी सपना न टूटे। ओ मेरे दीपक जल। इस तरह जल कि तुझसे अनेक दीप जल उठें। अँधेरा सब ओर से घिर रहा है, निशाचरों ने पृथ्वी पर तांडव मचा रखा है। मुझे दीपक राग गाने दो। हर मनुष्य के हृदय  का दीपक जल उठे। आखिर इसी दीपक के सहारे तो प्रलय निशा के पार जाना है हमें। जलो, मेरे दीपक, जलो, अनथक जलो। अकेले जलो, और फिर पंक्ति में जलो। जलो क्योंकि तुम्हारे भीतर वही हठीली आग सुलगती है, जो सृष्टि के आरंभ से हर अँधेरे को चुनौती देती चली आई है। जलो मेरे दीपक जलो। हर ओर से अँधेरे की सेनाएँ टूट पड़ रही हैं। इसीलिए जलो, दीपमाला बनकर जलो!!!


 

डॉ. ऋषभदेव शर्मा

सेवा निवृत्त प्रोफ़ेसर

दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा

हैदराबाद

 

अप्रैल 2024, अंक 46

  शब्द-सृष्टि अप्रैल 202 4, अंक 46 आपके समक्ष कुछ नयेपन के साथ... खण्ड -1 अंबेडकर जयंती के अवसर पर विशेष....... विचार बिंदु – डॉ. अंबेडक...