गुरुवार, 2 दिसंबर 2021

दिसंबर - 2021, अंक – 17

 


शब्द सृष्टिदिसंबर - 2021, अंक – 17


विचार स्तवक

शब्द संज्ञान – डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

प्रासंगिक – स्मृति शेष मन्नू भंडारी – राजा दुबे

जयकरी छन्द /चौपई – नीला-जलजात – ज्योत्स्ना प्रदीप

परिचय – बिरसा मुंडा – सुशीला भूरिया

उपन्यास पर बात – आओ पेपे, घर चलें ! (प्रभा खेतान) – डॉ. हसमुख परमार

कविता – हर-हर गंगे – डॉ. अनु मेहता

आलेख – राजस्थानी लोक नृत्यों में जालोर का ‘ढोल नृत्य’ – डॉ. जयंतिलाल बी. बारीस

कविता – डॉ. पूर्वा शर्मा

संस्मरण – कितने कमलेश्वर! – मन्नू भंडारी

औपन्यासिक जीवनी – काल के कपाल पर हस्ताक्षर : हरिशंकर परसाई (भाग – 4) – राजेन्द्र चंद्रकांत राय

लघुकथा – वृद्धावस्था का पड़ाव – सविता अग्रवाल 'सवि'


लघुकथा

 


वृद्धावस्था का पड़ाव

सविता अग्रवाल 'सवि'

सुरेन्द्र शर्मा जी को सेवा निवृत्त हुए दो साल हो गए थे। पत्नी शोभा के साथ अपना समय व्यतीत कर रहे थे। उनका बेटा सुबोध अच्छी नौकरी की तलाश करते करते एक दिन अमरीका चला गया था। उसके विवाह को भी सात साल बीत चुके थे। साल में एक बार, सुरेन्द्र जी और उनकी पत्नी शोभा बेटे के पास दो तीन महीने अमरीका रह कर आते थे। एक दिन अचानक दिल का दौरा पड़ने से शोभा की मृत्यु हो गयी। विधि के विधान को कौन टाल सकता है। बेटे को माँ की मृत्यु का समाचार मिला तो वह अगले दिन ही भारत पहुँच गया। तेरह दिन तक अंत्येष्टि की सभी प्रक्रियाएँ पूरी कर सुबोध भी और अधिक नहीं रुक सकता था और अमरीका वापिस चला गया। माँ की मृत्यु के बाद बेटा सुबोध रोज़ ही अपने पिता से बात करता था और उन पर अमरीका आकर रहने के लिए दबाव डालता था। परिस्थिति से समझौता कर सुरेन्द्र जी ने स्वयं को संभाला, जब कि शोभा के रहते हुए वे हर कार्य में उस पर ही आश्रित थे। सुबह की चाय से लेकर पूरे दिन के खाने पीने का ध्यान शोभा ही तो रखती थी। सुरेन्द्र जी से शोभा ने कई बार कहा भी कि आप भी चाय बनाना और थोड़ा खाना बनाना सीख लो, पता नहीं हम दोनों में से कौन अकेला रह जाए। परन्तु सुरेन्द्र जी हमेशा बात टाल जाते थे। कभी कभी हँस कर कह भी देते थे कि अरे भाई तुम मुझे छोड़ कर कैसे जा सकती हो। तुम्हारे हाथ के स्वादिष्ट लड्डू अभी और खाने हैं मुझे। किन्तु भाग्य में क्या लिखा है कोई नहीं जानता। अब सुरेन्द्र जी स्वयं सब कुछ धीरे धीरे सीखने लगे। अक्सर चाय बनाते समय चाय उबल कर नीचे गिर जाती थी और वे बची हुई आधा प्याला चाय ही पीकर संतुष्ट हो जाते थे, दुबारा चाय बनाने की हिम्मत भी नहीं करते थे। कहते हैं कि ज़रुरत क्या कुछ नहीं सिखा देती है। खाने में भी ब्रेड आदि खाकर ही काम चलाते थे। शोभा को याद कर उनके आँसू अनायास ही निकल आते थे। 

एक दिन सुरेन्द्र जी ने अपने एक घनिष्ठ मित्र से अपनी समस्या का समाधान माँगा कि “क्या मैं अमरीका बेटे के पास जा कर रहूँ ?” मित्र ने सलाह दी कि आप यहाँ बिलकुल अकेले हो गए हैं; वृद्धावस्था के इस पड़ाव में आपको अपने बेटे के पास ही चले जाना चाहिए, वहाँ नाती पोतों के साथ आपका मन लगा रहेगा। सुरेन्द्र जी को लगा कि मेरे लिए यही ठीक रहेगा और उन्होंने निश्चय कर लिया कि वो अब अमरीका जाकर सुबोध के साथ ही रहेंगे और एक दिन वो अपना घर बेचकर बेटे के पास चले गए। बच्चों के साथ उनका समय अच्छे से व्यतीत होने लगा।

जैसे-जैसे सुबोध के बच्चे बड़े हुए वे दादा के साथ कम समय बिताते और अपने कंप्यूटर पर अधिक समय व्यतीत करने लगे। एक दिन सुबोध ने पिता से कहा कि घर के पास ही जो नया पार्क बना है आप उसमें जाकर अपनी उम्र के और लोगों से मिलजुल सकते हैं। इससे आपका समय अच्छा कटेगा और मित्र भी बन जायेंगे। सुरेन्द्र जी को बेटे का सुझाव अच्छा लगा और वे पार्क में जाने लगे। शीघ्र ही वहाँ उनके दो मित्र भी बन गए। एक दिन  किसी कारणवश कोई भी मित्र पार्क में नहीं आया। वे उदास होकर बेंच पर बैठे हुए सामने बच्चों को खेलते हुए देख रहे थे। तभी भागते भागते एक तीन वर्षीय बच्चा गिर गया और रोने लगा, सुरेन्द्र जी ने जल्दी से भाग कर उस बच्चे को उठाया और उसे चुप कराने लगे। तभी बच्चे की दादी सरला भागती हुई आयीं और सुरेन्द्र जी को धन्यवाद देकर बच्चे को लेकर घर चली गयीं। अगले दिन सरला जी हाथ में एक डब्बा लेकर पार्क में आयीं और सुरेन्द्र जी को इधर उधर ढूँढते हुए उनके पास पहुँचीं और डब्बा खोलकर घर के बनाये हुए लड्डू दिए। लड्डू मुँह में रखते ही उन्हें अपनी पत्नी शोभा की याद आयी, “वह भी तो बिलकुल ऐसे ही लड्डू बनाती थी"। सरला जी से बात करने पर पता लगा कि वे भी अपने बेटे के पास रहती हैं और उनके पति भी अब इस दुनिया में नहीं हैं।

उस रात सुरेन्द्र जी सो ना सके क्योंकि बार बार उन्हें सरला में अपनी पत्नी शोभा की झलक दिखाई दे रही थी। अब वे हर शाम पार्क में जाकर सरला का इंतज़ार करने लगे। कई बार मन किया कि अपने बेटे से कहें कि अब उनसे अकेले नहीं रहा जाता, अपना सुख दुःख बाँटने के लिए उन्हें भी एक हमउम्र साथी चाहिए, परन्तु संकोचवश कह नहीं पाए। एक दिन सुरेन्द्र जी पार्क में यह सोचकर गए कि वह सरला से पूछेंगे कि क्या उन्हें भी इस ढलती उम्र में एक साथी की ज़रुरत महसूस होती है ? पार्क में कुछ देर इंतज़ार करने के बाद जब उन्होंने सरला को सामने से आते हुए देखा तो उनके चेहरे पर चमक आ गयी। दोनों बेंच पर बैठ कर बातें करने लगे। बातों-बातों में सरला ने उन्हें बताया कि पंद्रह दिन बाद वह वापिस भारत जा रही है क्योंकि उनकी छोटी बहु को बच्चा हुआ है, जिसकी देखभाल करनी है। जाते-जाते सरला ने कहा कि कल मैं आपके लिए वही लड्डू फिर लाऊँगी जो आपको पसंद आये थे और ये कह कर सरला जी घर चली गईं।

अगले दिन लड्डुओं का डब्बा लेकर सरला पार्क में पहुँचीं तो देखा कि लोगों की भीड़ जमा है। पूछने पर एक लड़के ने कहा कि एक अंकल जो रोज़ पार्क में आते थे, सड़क पार करते समय उनका एक्सीडेंट हो गया है और लगता है वे अब जीवित भी नहीं हैं। पुलिस की गाड़ियों से घिरा सुरेन्द्र जी का शव सरला ने आगे बढ़कर देखना चाहा कि वह कौन व्यक्ति है ? देखा तो सुरेन्द्र जी का निर्जीव शरीर सामने पड़ा हुआ था और सरला को लगा जैसे कह रहे हों कि अरे सरला तुम लड्डू ले आयीं ?




सविता अग्रवाल 'सवि'

कैनेडा

 

 

 

 




















कविता



डॉ. पूर्वा शर्मा


1.

क्यों मोहब्बत में दर्द है ज्यादा !

मिलन के पल कम और जुदाई बहुत ज्यादा ।   

2.     

इतने दूर हो हमसे, फिर भी जादू तुम्हारा कमाल

ग़र पास होते तो न जाने क्या होता हमारा हाल ! 

3.     

क्यों महोब्बत में इतनी बेबसी होती है

जो ज़िंदगी है, बस उसी से दूरी होती है 

4.     

उदय हुआ है सूरज फिर से, कलियों ने आँखें है खोली ।

भोर हुई है आज रंगीलीकानों गूँजी ज्यों तेरी बोली।।

5.     

एक ही मन था मेरा

तुमने उसे भी रख लिया अपने पास

अब इस बेमन को लेकर कहाँ जाऊँ

रख लो न तुम मुझे भी... अपने ही पास....

6.     

ज़माने भर की ख़बरे छपी थी अख़बार में

वो कैसे है हमारे बिन? बस इसी का जिक्र नहीं

किसी भी समाचार में....

7.     

यूँ तो शब्दों से घिरे रहते हैं

हरपल हम

लेकिन उनके सामने आते ही.....

निःशब्द...बेजुबां हो जाते हैं हम

8.     

ज्यों पहलू में आकर बैठे वो

मुस्कान ने ली अँगड़ाई

और मैं....

खुशी के आगोश में...

 

 


डॉ. पूर्वा शर्मा

वड़ोदरा

प्रासंगिक

 


स्मृति शेष मन्नू भण्डारी

राजा दुबे

15 नवम्बर, 2021 को इस फानी दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह अनंत यात्रा पर निकल गई मन्नू भंडारी हिंदी कथा साहित्य की वो उज्ज्वल शख़्सियत जो अपनी लेखन संपदा के बल पर साहित्यानुरागियों के स्मरण में सदैव अपना वजूद बनाए रखेंगी। उनकी स्मृति को मेरा नमन ।

मन्नू जी के निधन से इनके परिजनों, परिचितों तथा पाठकों को एक गहरा सदमा पहुँचा है। इनका जाना साहित्य जगत में एक ऐसी रिक्ति हैं जिसकी भरपाई तत्काल ही नहीं बल्कि आने वाले दिनों में भी बहुत मुश्किल लगती है।

जब मन्नू भण्डारी के समग्र लेखन पर भारी पड़ा उनका एक उपन्यास

सुप्रसिद्ध हिन्दी लेखिका मन्नू भण्डारी एक मेधावी और नारी चरित्र का प्रभावी लेखन  करने वाली अप्रतिम और उत्कृष्ट लेखिका है। उनके दमदार लेखन के कैरियर में उनका जो एक उपन्यास बेहद चर्चित रहा, वो है - ‘आपका बंटी’। विवाह-विच्छेद की त्रासदी में पिस रहे एक बच्चे को केंद्र में रखकर लिखा गया है। यह उपन्यास उनके समग्र लेखन पर इतना भारी पड़ा कि उनका जिक्र होने पर लोग यही कहते हैं कि - “मन्नू भण्डारी, अच्छा! वही आपका बंटी वाली ?

मन्नू भण्डारी को अपने लेखन के लिए कई पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए हैं जिनमें  दिल्ली साहित्य अकादमी का शिखर सम्मान, बिहार सरकार, भारतीय भाषा परिषद और कोलकाता साहित्य परिषद का पुरस्कार, राजस्थान संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान और उत्तर-प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा दिया जाने वाला सम्मान भी शामिल हैं ।

व्यक्तित्व की सहजता से उपजी थी

मन्नू भण्डारी के लेखन की बोधगम्यता

मन्नू भण्डारी के लेखन की बोधगम्यता उनके व्यक्तित्व की सहजता से ही उपजी थी। उनके लेखन और व्यवहार में कहीं कोई फर्क नहीं था। नब्बे वर्ष की उम्र में उनका लेखन भी लगभग छूट चुका था, फिर भी वे हमेशा स्त्री लेखन की मज़बूत कड़ी बनी रहीं। उनके निधन से साहित्य जगत में जो शून्य आया है उसकी भरपाई असम्भव है। वे उस दौर में लेखन कर रही थीं, जब स्त्रियाँ कम लिख पाती थीं। उनकी संख्या उँगलियों पर गिनी जा सकती थी। उस समय भारतीय समाज संक्रमण के दौर से गुजर रहा था। मध्यवर्गीय परिवारों में विखंडन शुरू हो चुका था और स्त्रियाँ अपनी अस्मिता को लेकर मुखर हो रही थीं। ऐसे दौर में मन्नू भंडारी एक सुधारवादी नज़रिया लेकर कथा जगत में आईं। उसी दौर में स्त्रियाँ घरों से बाहर निकलीं और कामकाज़ी बनीं। उनका जीवन बदला और सोच भी बदली। इस यथार्थ और बदलाव को उन्होंने देखा, समझा और अपने लेखन का हिस्सा बनाया।

लेखन के संस्कार उन्हें

अपने परिवार से मिले थे

मध्यप्रदेश में मंदसौर जिले के भानपुरा में 03 अप्रैल, 1931 को जन्मीं मन्नू का बचपन का नाम महेंद्र कुमारी था। लेखन के लिए उन्होंने मन्नू नाम का चुनाव किया। उन्होंने एम. ए. तक शिक्षा पाईं और वर्षों तक दिल्ली के मिराण्डा हाउस में अध्यापिका रहीं। ‘धर्मयुग’ में धारावाहिक रूप में प्रकाशित अपने उपन्यास - ‘आपका बंटी’ से अपार लोकप्रियता प्राप्त करने वाली मन्नू भंडारी विक्रम विश्व विद्यालय, उज्जैन में प्रेमचंद सृजनपीठ की अध्यक्ष भी रहीं। लेखन का संस्कार उन्हें विरासत में मिला था। उनके पिता सुख सम्पतराय भी जाने माने लेखक थे।

अपने व्यापक रचना संसार में

नारी चरित्र को उकेरा था मन्नू भण्डारी ने

मन्नू भण्डारी के नौ कहानी संग्रह - एक प्लेट सैलाब, मैं हार गई, तीन निगाहों की एक तस्वीर, यही सच है, त्रिशंकु, श्रेष्ठ कहानियाँ, आँखों देखा झूठ, नायक खलनायक और विदूषक, उपन्यास - आपका बंटी, महाभोज, स्वामी, एक इंच मुस्कान, कलवा और एक कहानी यह भी (आत्मकथ्य), चार पटकथाएँ  - रजनी, निर्मला, स्वामी, दर्पण और एक नाटक - बिना दीवारों का घर प्रकाशित हुआ। नारी चरित्रों को सम्यक सोच और सूक्ष्म अध्ययन के साथ प्रस्तुत करने में सिद्धहस्त मन्नू भण्डारी की एक कहानी – ‘अकेली’ सोमा बुआ नाम के पात्र को केंद्र में रखकर लिखी गई है। सोमा बुआ अपने पास पड़ोस से घुलने-मिलने के प्रयासों के बावजूद अकेली पड़ जाती हैं। वे अकेली इसलिए है क्योंकि वह परित्यक्ता है, बूढ़ी हो चली है तथा उसका पुत्र भी उन्हे छोड़कर जा चुका है। अपने परिवेश के साथ घुलने मिलने का उनका प्रयास भी एकतरफा है। इसी प्रकार सुप्रसिद्ध लेखक और अपने पति राजेंद्र यादव के साथ लिखा गया उनका उपन्यास – ‘एक इंच मुस्कान’ पढ़े लिखे आधुनिक लोगों की एक दुखांत प्रेमकथा है जिसका एक-एक अंक लेखक-द्वय ने क्रमानुसार लिखा है, जो बेहद रोचक है और एक पुरुष और एक महिला की सोच के अन्तर को रेखांकित करता है। नौकरशाही और राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार के बीच आम आदमी की पीड़ा को उजागर करने वाला उपन्यास – ‘महाभोज़’  भी अपने समय में बेहद लोकप्रिय रहा। इस उपन्यास पर आधारित नाटक भी खूब पसन्द किया गया। इसी प्रकार- ‘यही सच है’  कहानी पर आधारित फिल्म रजनीगंधा भी लोकप्रिय हुई थी और उसको सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त हुआ था।

मन्नू भण्डारी के पिता भी

सुप्रसिद्ध साहित्यकार थे

मन्नू भण्डारी के पिता सुख सम्पतराय जाने माने लेखक थे और उन्होंने ‘हिंदी के पारिभाषिक कोश’ जैसा महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा था। वे एक आदर्शवादी व्यक्ति थे। स्त्री शिक्षा पर बल देने वाले वे लड़कियों को रसोई में जाने से मना करते थे और लड़कियों की शिक्षा को  प्राथमिकता देते थे। मन्नू भण्डारी के व्यक्तित्व निर्माण में उनका प्रमुख  हाथ रहा।  मन्नू भंडारी ने अपने पहले कहानी संग्रह -  ‘मैं हार गई’ अपने पिताजी को समर्पित करते हुए लिखा है -  उन्हें समर्पित जिन्होंने मेरी किसी भी इच्छा पर, कभी अंकुश नहीं लगाया। मन्नू जी की माँ अनूपकुँवरी उदार, स्नेहिल, सहनशील और  धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी। मन्नू द्वारा पिताजी का विरोध करने पर वह कहती  - “मुझे कोई शिकायत नहीं है बेटी, तुम क्यों परेशान होती हो, जाओ अपना काम करो।” मन्नू भण्डारी तो कहतीं थीं आज हम जो कुछ भी हैं हमारी माता के प्रोत्साहन का परिणाम है ।

संस्कार और पऱिवेश से

कोई व्यक्ति बड़ा बनता है

मन्नू भण्डारी का मानना था कि कोई भी व्यक्ति जन्म से बड़ा नहीं होता। बड़ा बनने के लिए सबसे बड़ा योगदान संस्कारों का होता है उसके बाद परिवेश का। उन्हें लेखन का संस्कार विरासत में मिला था। उनके पिता लेखक और समाज सुधारक थे। इसी कारण स्वतंत्रता पूर्व जब नारी शिक्षा अकल्पनीय बात लगती थी तब मन्नू तथा उनकी बहनों को उच्च शिक्षा प्राप्त करवाई गई। मन्नू ने अजमेर के सावित्री गर्ल्स हाई स्कूल में शिक्षा प्राप्त की। अजमेर कॉलेज से इण्टरमीडिएट किया। कॉलेज की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल ने लड़कियों को देशप्रेम और अंग्रेज सरकार के विरोध की प्रेरणा दी जिसके कारण मन्नू भण्डारी ने स्वतंत्रता आंदोलन में भी भाग लिया। स्वतंत्रता के बाद बहन सुशीला के पास कोलकाता से बी.ए.की डिग्री हासिल की। उन्होंने अपना कैरियर कोलकाता से आरम्भ किया। सबसे पहले कोलकाता के बालीगंज शिक्षा सदन में नौ साल तक पढ़ाने का कार्य किया। वर्ष 1961 में वे राणी बिरला कॉलेज, कोलकाता में प्राध्यापिका और फिर दिल्ली के एक आभिजात्य महाविद्यालय मिराण्डा कॉलेज ‌‌‌‌में अध्यापिका रहीं।

व्यर्थ के भावोच्छवास से बचा रहा

मन्नू भण्डारी का लेखन

सुप्रसिद्ध लेखक और मन्नू भण्डारी के पति राजेंद्र यादव उनके लेखन के बारे में कहते थे, कि व्यर्थ के भावोच्छवास में नारी के ‘आँचल में दूध और आँखों में पानी’ दिखाकर मन्नू भंडारी ने पाठकों की कभी दया नहीं वसूली। वह यथार्थ के धरातल पर नारी का नारी की दृष्टि से अंकन करती हैं। मन्नू भण्डारी अक्सर कहा करती थीं कि लेखन ने मुझे अपनी निहायत निजी समस्याओं के प्रति वस्तुनिष्ठ होना और उनसे उबरना सिखाया।

 

राजा दुबे

सेवानिवृत्त संयुक्त संचालक, जनसंपर्क मध्यप्रदेश

एफ - 310 , राजहर्ष कालोनी,

(अकबरपुर) कोलार रोड,

भोपाल(म.प्र.) – 462042

 

आलेख

 


राजस्थानी लोक नृत्यों में जालोर का ढोल नृत्य’

डॉ. जयंतिलाल बी. बारीस

प्रत्येक राज्य अपनी भौगोलिक स्थिति एवं सांस्कृतिक विशेषताओं के कारण एक अलग पहचान रखता है। भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर पश्चिम भाग में अवस्थित राजस्थान राज्य भौगोलिक दृष्टि से पूर्व में गंगा-यमुना नदियों के मैदान, दक्षिण में मालवा के पठार तथा उत्तर एवं उत्तर पूर्व में सतलज-व्यास नदियों के मैदानों से घिरा हुआ है। इस राज्य की कहानी गौरवपूर्ण परंपरा की कहानी है। एक ओर पृथ्वीराज चौहान, राणा साँगा, प्रताप, वीर दुर्गादास, अमरसिंह राठौड़ आदि द्वारा राज्य का नाम विशेष रूप में गौरवान्वित किये जाने का बोध होता है तो दूसरी ओर संस्कृति में समाहित भिन्न-भिन्न रंगों, रूपों एवं कलाओं के दिग्दर्शन होते हैं। राजस्थान की सांस्कृतिक विशेषता को रेखांकित करते हुए डॉ. जयसिंह नीरज लिखते हैं-‘‘देश के परिदृश्य में राजस्थानी का सांस्कृतिक वैभव बेजोड़ है। त्यागमयी ललनाओं, साहसी वीरों और गरिमामयी संस्कृति के इस प्रदेश का भौगोलिक, ऐतिहासिक और प्राकृतिक वैविध्य अनोखा है। यहाँ एक ओर दूर-दूर तक फैली अरावली की शृंखलाएँ हैं, तो दूसरी ओर विराट मरुस्थल। एक ओर पूर्वांचल और दक्षिणांचल हरीतिमा के वैभव से युक्त हैं, तो दूसरी ओर बियावान मरु के टीलों का अखण्ड साम्राज्य। उत्तर में गंगानगर से लेकर दक्षिण में डूँगरपुर, बाँसवाड़ा तक और पूर्व में अलवर, भरतपुर से लेकर पश्चिम में जैसेलमेर तक फैला यह प्रदेश आकार में ही बड़ा नहीं है, वरन् प्राकृतिक सम्पदा, कलात्मक वैभव, रहन-सहन, वेश-भूषा, बोली-भाषा, धर्म और दर्शन आदि में भी इतना समृद्ध और सम्पन्न है कि इसकी तह तक संस्कृति-कर्मी अभी भी बहुत कम पहुँच पाये हैं।‘‘(राजस्थान की सांस्कृतिक परम्परा-सं. डॉ. जयसिंह नीरज व डॉ. बी.एल.शर्मा, (भूमिका से)पृ.-5,)

राजस्थानी लोक संस्कृति में समाहित लोक नृत्यों में लोक जीवन की सरसता, सरलता, सहजता के साथ ही साथ लोक गीत, लोक वाद्य, लोक शृंगार एवं कलाओं का समावेश रहता है। लोक जीवन के हृदय में व्याप्त भावों के स्वरूप को प्रकट करते हैं लोक नृत्य। राजस्थान में प्रचलित लोक नृत्य की विशेषता को रेखांकित करते हुए हरदान हर्ष लिखते हैं-‘‘राजस्थान के लोक-नृत्य राजस्थानी संस्कृति के अनुपम शृंगार हैं। यहाँ की प्रकृति ने राजस्थानी व्यक्ति को एक ओर शारीरिक रूप से कठोर और परिश्रमी बनाया है तो दूसरी ओर मन से उसे कोमल और संवेदनशील। आनन्द के समय में उत्सवादि अवसरों पर वह प्रसन्नता से झूमने लगता है। वह अपनी अंग-भंगिमाओं का अनायास, अनियोजित प्रदर्शन करता है। इस तरह लोग तब सामूहिक रूप से झूमने लगते हैं, वे किसी नियम से बंधे नहीं होते। बढ़ते हुए उत्साह के साथ, किसी लोक-गीत की लय के साथ, किसी लोक-वाद्य की ताल के साथ उनके अंगों की थिरकन प्रकट होती है, जिसे देशी-नृत्य या लोक-नृत्य कहा जाता है।‘‘(राजस्थानी भाषा साहित्य और संस्कृति-हरदान हर्ष, पृ.-208) राजस्थान के लोक-नृत्य में भवाई नृत्य, घूमर-नृत्य, डंड़िया-नृत्य, तेरहताली नृत्य, डांडया नृत्य, कालबेलिया-नृत्य, ढोल नृत्य, थाली-नृत्य, गणगौर नृत्य आदि प्रमुख हैं, जिनमें स्थानीय रंग की छटा भी दृष्टव्य है।

‘जालोर‘ राजस्थान राज्य के तैंतीस जिलों में से एक जिला है जो कि राज्य के पश्चिम में मरुस्थल क्षेत्र से संबंधित है। इस जिले का ‘ढोल नृत्य‘ राज्य के लोक नृत्यों में अपनी एक अलग पहचान बनाए हुए प्रसिद्ध है। ‘जालोर का ढोल नृत्य मरुस्थल क्षेत्रों के अलावा अन्य क्षेत्रों में विशेष रूप से विवाह आदि मांगलिक अवसरों पर किया जाता है। जालोर का ‘ढोल नृत्य पुरुष-प्रधान नृत्य है। राज्य में जीवन यापन करने वाली सरगरा, ढोली, भील आदि जातियों द्वारा यह नृत्य अधिक किया जाता है। जालोर और ढोल नृत्य से संबंधित एक किंवदती है जिसे व्यक्त करते हुए डॉ. कालूराम परिहार लिखते हैं-‘‘जब जालोर बसा था उन्हीं दिनों सिवाणा गाँव के खींवसिंह राठौड का सरगरा जाति की युवती से प्रेम हो गया और वह सिवाणा छोड़कर जालोर आ गया। यहाँ आकर खींवसिंह ढोल बजाने लग गया और जालोर का ढोल नृत्य प्रसिद्ध हो गया।(राजस्थान के लोकनृत्य और लोकनाट्य-डॉ.कालूराम परिहार, पृ.-26)

जालोर के ‘ढोल नृत्य से संबंधित ‘ढोल एक अवनद्ध लोक वाद्य है। अवनद्ध अर्थात चमड़े आदि से ढका हुआ। अवनद्ध से संबंधित लोक वाद्यों में चंग, डफ, ढोलक, ढोल, नगाड़ा, नौबत आदि हैं। ‘ढोल वाद्य को चढ़ाने और उतारने के लिए डोरी में लोहे या पीतल के छल्ले लगे रहते हैं। ढोल का नर भाग डंडे से तथा मादा भाग हाथ से बजाया जाता है। लोक नृत्यों की माधुर्य वृद्धि के साथ ही वातावरण निर्माण एवं भावाभिव्यक्ति को प्रभावशाली बनाने में इन वाद्यों की भूमिका किसी भी स्तर से कम नहीं। राज्य में ‘ढोल‘ वाद्य को बजाने संबंधी विशेषता व मांगलिक कार्यों में इसके महत्त्व को अभिव्यक्त करते हुए हरदान हर्ष लिखते हैं-‘‘यह एक मांगलिक वाद्य है। विवाह के प्रारम्भ में ढ़ोल के ऊपर भी स्वास्तिक का चिन्ह बनाते हैं। इसका पूजन होता है और इसके रोली चढ़ाते हैं।....राजस्थान में यह बारह प्रकार से बजाया जाता है - एहड़े का ढ़ोल, गेर का ढ़ोल, नाचने का ढ़ोल, झोटी ताल (देवरे के देवी-देवताओं के सामने बजाई जाती है), बारू ढ़ोल (लूट के समय बजाया जाता है), घोड़ चढ़ी का ढ़ोल (दूल्हा घोड़े पर चढ़कर जाता है उस समय), बरात चढ़ी का ढ़ोल, आरती का ढ़ोल, वार त्योहार का ढ़ोल, सगरी को न्योतो (जीमणे का निमंत्रण) आदि। इसको बजाने के लिए दो आदमियों की आवश्यकता पड़ती है। राजस्थान के कई लोक-नृत्यों में यह बजाया जाता है, जैसे-जालोर का ढोल नृत्य, भीलों का गेर नृत्य और शेखावाटी का कच्छी घोड़ी नृत्य।‘‘(राजस्थानी भाषा साहित्य और संस्कृति-हरदान हर्ष, पृ.-218) इन शैलियों में बजने वाले ढोल की ध्वनियाँ भिन्न प्रकार की होती हैं जैसे कि ‘ढाक्-ढिना, ढाक्-ढिना, ढाक्-ढिना.......’, धिना-धिना, धिक-धिका......‘, ‘धाक धिना, तिरकट-तिना........’, आदि।

‘ढोलनृत्य’ में ढोल का आकार सामान्य ढोल से काफी बड़ा होता है। ढोल नृत्य का मुख्य कलाकार अपने शरीर पर तीन ढोल बाँधकर उन्हें बजाता है। शरीर में बँधे तीन ढोलों में से प्रथम ढोल वह अपने सिर पर रखता है, द्वितीय ढोल सामने की तरफ रखता है और तृतीय ढोल पीछे की तरफ रखता है। इन तीनों ढोलों को इस तरह से शरीर में बाँधा जाता है कि नृत्य नर्तक अपनी कलाएँ या नृत्य को प्रस्तुत करते हुए किसी तरह की परेशानी अनुभव न करे और ढोल भी अपने स्थान से खुले नहीं। मुख्य कलाकार के साथ अन्य सहयोगी कलाकार भी होते हैं जो कि नृत्य के साथ साथ वादन में भी उपयुक्त भूमिका निभाते हैं।

‘ढोल नृत्य’ में मुख्य कलाकार ढोल को पहले ‘थाकना शैली’ में बजाना शुरु करता है। थाकना शैली से तात्पर्य है एक तरह से वादन से पहले की भूमिका के लिए बजाये जाने वाली लय व ताल। ज्यों ही थाकना समाप्त हो जाता है तब अन्य नर्तक कोई मुँह में तलवार लेकर, कोई हाथों में डण्डे लेकर, काई भुजाओं में रूमाल लटकाकर लयबद्ध अंग संचालन करके नृत्य करने लगते हैं। नृत्य के दौरान अनेक जोशीली भाव-भंगिमाओं को ढोल नृत्य के कलाकार प्रदर्शित करते हैं। थाकना शैली के अलावा भी अन्य अलग-अलग शैलियों में ढोल का वादन होता है। ढोल वादन के साथ नृत्य दृश्य एक तरफ जोश से भरपूर होता है तो दूसरी तरफ गति से। ढोल नृत्य में नाचते हुए, वादन करते हुए कलाकार जोश में आकर एक दूसरे के ढोल पर भी डंका मारते हैं। ढोल नृत्य से संबंधित नर्तक उछलते-कूदते हुए आपस में तारतम्य बनाए रखते हैं। इस नृत्य में नर्तक ताल और लय की एक शृंखला बनाते हैं। ‘ढोल नृत्य’ में एक तरफ राजस्थानी लोक संस्कृति के दिग्दर्शन होते हैं तो दूसरी तरफ लोक कला की मार्मिकता एवं रसात्मकता की अनुभूति होती है।

सहायक ग्रन्थ सूची

१. राजस्थान की सांस्कृतिक परम्परा-सं. डॉ. जयसिंह नीरज व डॉ. बी.एल.शर्मा, राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी प्लाट नं १ ,झालाना सांस्थानिक क्षेत्र, जयपुर-राज. तेरहवाँ संस्करण २००५

२.राजस्थानी भाषा साहित्य और संस्कृति-हरदान हर्ष, आशीर्वाद पबिल्केशन्स, बी -10 टोक रोड, जयपुर-३०२०१५, नवीन संस्करण -2004

३.राजस्थान के लोकनृत्य और लोकनाट्य-डॉ.कालूराम परिहार, रायल पब्लिकेशन १८ शक्ति कॉलोनी,गली नं २,रातानाडा-जोधपुर (राजस्थान) प्रथम संस्करण २००९

 



जयंतिलाल बी. बारीस

असिस्टेंट प्रोफेसर

आर.के. देसाई कॉलेज ऑफ एजुकेशन

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कविता

 



हर-हर गंगे

  डॉ. अनु मेहता

                     

जीवनदायिनी मोक्षप्रदायिनी , पतित पावन रसधार है गंगा।

जनकल्याणी आनंददायिनी, कष्ट निवारणी अवतार है गंगा।

 

पापनाशिनी भवतारिणी , हर शरणागत का उद्धार है गंगा।

सुख-समृद्धि- स्नेह-सुधा की संजीवनी मूर्ति साकार है गंगा।

 

श्रद्धा-आस्था-भक्ति और दिव्यता की पुण्य सलिला है गंगा।

वेद और पुराणों में बखानी,जीवन की आधारशिला है गंगा।

 

कलुषहारिणी  देवसरिता निर्मल- निर्विकार- निर्दोष है गंगा।

संस्कृति की विरल विरासत, भारत माँ का जयघोष है गंगा।



 

डॉ. अनु मेहता

प्रभारी प्राचार्य

आनंद इंस्टीट्यूट ऑफ पी.जी स्टडीज इन आर्ट्स ,

आणंद, गुजरात

जयकरी छन्द /चौपई

 



 

नीला-जलजात

ज्योत्स्ना प्रदीप

विभा- अनोखी  पूनम  रात।

यमुना- तट नीला-जलजात ।।

कितना   प्यारा   हैं  गोपाल ।

कमल  हँसे  नैनो  के  ताल।।

 

मोरपंख   न्यारा   शृंगार  ।

वंशी झरती  सुर की   धार ।।

मोहक  प्यारी  वंशी - तान।

राधा  करती  मोहन -ध्यान।।

 

छेड़े गिरधर जब- जब राग।

राधा - उर  जागे  अनुराग।।

दौड़ी - दौड़ी  आती   नार ।

कुंजबिहारी  से  अभिसार।।

 

मोहन - राधा  की ये  प्रीत।

पावन उर की पावन रीत।।

देखे  राधा जिस भी  ओर।

वंशीधर, गिरधर, चितचोर !



 

ज्योत्स्ना प्रदीप

(देहरादून )

 

शब्द संज्ञान

 



डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

दयनीय

दयनीय शब्द की व्युत्पत्ति क्या है?

पहली नजर में यही लगता है कि दयनीय शब्द दया से बना है।

लेकिन ऐसा नहीं है।

दयनीय विशेषण शब्द है, जिसमें ‘अनीयर’ प्रत्यय लगा है। संस्कृत में सात प्रत्ययों का एक समूह है, जिसे ‘कृत्य’ प्रत्यय कहा जाता है। ‘अनीयर’ सात में से एक प्रत्यय है।

ध्यान देने की बात है कि कृत्य प्रत्यय धातु से जुड़ते हैं। लेकिन दया शब्द धातु नहीं है। अर्थात् दयनीय दया से नहीं बना है।

तब?

यह जानने के लिए मैंने संस्कृत व्याकरण के एक बड़े आचार्य से संपर्क किया। उन्होंने बताया कि दयनीय शब्द ‘देङ्’ धातु से बना है।

‘देङ्’ धातु का अर्थ होता है रक्षा करना।

देङ् धातु के साथ अनीयर प्रत्यय के लगने से दयनीय शब्द बनता है, जो संज्ञा के साथ प्रयुक्त होकर विशेषण का कार्य करता है।

दयनीय का मूल अर्थ होता है रक्षणीय।

रक्षा में दया का भाव होता है। संभव है इसी लिए जो दया (रक्षा).का पात्र (योग्य) है वह है दयनीय।

यह तो अनुमान मिश्रित मेरी व्याख्या है।

इसमें यदि परिवर्तन-परिवर्धन की गुंजाइश हो तो सुझाएँ।


दम्पति/दम्पती

इसमें अपनी बुद्धि लगाने या यों कहें कि अपनी होशियारी दिखाने का कोई अवकाश नहीं है।

सर मोनियर विलियम के संस्कृत-इंग्लिश-डिक्शनरी में जो कुछ दिया है, उसे अपने ढंग से प्रस्तुत करने की कोशिश कर रहा हूँ -

1. दम् का प्रयोग ऋग्वेद से होता आ रहा हे।

2. ‘दम्’ धातु (क्रिया) भी है और संज्ञा भी।

3. ‘दम्’ का मूल अर्थ है ‘घर’। मूल अर्थ पत्नी या स्त्री नहीं है। स्त्री तो बिल्कुल नहीं। ‘दम् का स्वतंत्र प्रयोग नहीं मिलता।

4. दम् के साथ पति द्वंद्व समास के रूप में जुड़ता है। मजे की बात यह कि वह आगे-पीछे दोनों तरफ जुड़ता है - दम्पति तथा पतिदम्। ये दोनों रूप कोश में दिए गए हैं।

5. दम्पति का मूल अर्थ है - घर का स्वामी। दम् यानी घर। पति यानी स्वामी।

6. चूँकि घर के स्वामी पति तथा पत्नी दोनों होते हैं (या उस जमाने में होते रहे होंगे)। इसलिए आगे चलकर दम्पति का अर्थ हो गया पत्नी-पति (पति-पत्नी)। दम् यानी पत्नी।

7. और आगे चलकर पाणिनि काल में दम्पति का समास-विग्रह किया गया - जाया च पतिश्च दम्पतिः।

8. फिर सवाल यह हो सकता है कि विग्रह में दम् क्यों नहीं आया? जाया क्यों आया?

इसका जवाब मेरी अल्पमति से यह हो सकता है कि चूँकि दम् शब्द का स्वतंत्र प्रयोग नहीं होता और विग्रह में स्वतंत्र शब्द चाहिए, इसलिए दम् के पर्याय जाया का प्रयोग दम् के स्थान पर हुआ होगा।

सर मोनियर विलियम के कोशग्रंथ के सहारे अपनी अल्पमति से मैंने यह व्याख्या की है।

खुद को अल्पमति विनय प्रदर्शन के लिए नहीं कहा है। संस्कृत व्याकरण मेरा विषय नहीं है, इसलिए कहा है।



योगेन्द्रनाथ मिश्र

40, साईं पार्क सोसाइटी

बाकरोल – 388315

जिला आणंद (गुजरात)

अप्रैल 2024, अंक 46

  शब्द-सृष्टि अप्रैल 202 4, अंक 46 आपके समक्ष कुछ नयेपन के साथ... खण्ड -1 अंबेडकर जयंती के अवसर पर विशेष....... विचार बिंदु – डॉ. अंबेडक...