शुक्रवार, 31 मार्च 2023

मार्च – 2023, अंक – 32

 


शब्द-सृष्टि  

मार्च – 2023, अंक – 32


व्याकरण विमर्श – 1.परसर्ग (‘में’ और ‘पर’) का प्रयोग 2. कारक की पहचान – डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

परिचय – ढोला मारू : एक प्रसिद्ध प्रेमगाथा – डॉ. हसमुख परमार

काव्यास्वादन – स्त्रियाँ (अनामिका) – डॉ. पूर्वा शर्मा

प्रासंगिक – कुछ सत्ता है नारी की!? – डॉ. ऋषभदेव शर्मा

विशेष – गोवा का लोकनृत्य ‘धालो’ – अनीता सक्सेना

आलेख

आलेख – साहित्य का समाजशास्त्रीय अध्ययन – कुलदीप कुमार ‘आशकिरण’

आलेख – हिंदू धर्मग्रंथों की मूल संवेदना – डॉ. राज बहादुर गौतम

रचनाएँ

कविता – बदलती हुई स्त्री – सत्या शर्मा ‘कीर्ति’

कविता – स्त्री : परिचय – आनन्द तिवारी

कविता – स्वप्न जरूरी है – कंचन अपराजिता

कविता – विचार-विमर्श – रूपल उपाध्याय

कविता – ‘आखिर मैं क्या हूँ’? – डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा

दोहे – अनिता मंडा

दोहे – नारी – त्रिलोक सिंह ठकुरेला

लघुकथा – माँ – कृष्णा वर्मा

लघुकथा

 



माँ

कृष्णा वर्मा

अकस्मात् पिता की मृत्यु होने पर राजीव को बहुत धक्का लगा। माँ का रो-रोकर बुरा हाल था।

ग़मगीन सा राजीव सोचों के घेरे से बाहर ही नहीं आ पा रहा था। माँ का क्या करूँगा। अभी दो दिन पहले ही तो नौकरी का नियुक्ति-पत्र मिला है। इतनी मुश्किलों से तो अमरीका में नौकरी मिली है। इसी उधेड़बुन में पिता की तेरहवीं भी हो गई। 

शांतिपाठ समाप्त होते ही राजीव से उसकी बुआ ने पूछा राजीव अमरीका जाने का क्या सोचा। कुछ समझ नहीं आ रहा बुआ! मैं तो बहुत दुविधा में हूँ। एक तरफ सोचता हूँ, यही अवसर है।

अपना करियर बनाने का। हाथ आया इतना बढ़िया मौका गँवा दिया, तो फिर जाने कभी मिले या ना मिले। और दूसरी ओर सोचता हूँ कि मम्मी अकेली कैसे रहेंगी। 

राजीव को समझाते हुए बुआ बोली अरे बेटे तू भाभी की फिक़र क्यों करता है।  करियर बनाने का समय निकल गया, तो हाथ में केवल पछतावा ही रह जाएगा।  तुम्हारी मम्मी तो ख़ुद ही एक करियर ओरियन्टिड वूमन रही हैं। भला करियर के मामले में भाभी से अच्छा कौन जानता है। अकेली संतान होते हुए भी अपनी नौकरी की वजह से ही तो तुझे वह कभी समय नहीं दे पाईं। 

राजीव के कंधे पर प्यार से हल्की सी चपत लगाते हुए तंज़िया लहजे में बोली तुझे तो सब याद ही होगा, पूरा बचपन तूने नैनी के साथ ही तो बिताया है। 

फिर भाभी का अपना घर है, पढ़ी-लिखी हैं और अब तो रिटायर भी हो गई हैं। इनके लिए चौबीस घंटे साथ रहने वाली एक आया का इंतज़ाम कर दे, जो इनकी देखभाल करे। 

भाभी की ओर ताककर उनका पश्चाताप पढ़ते हुए बोली क्यों ठीक कह रही हूँ ना भाभी! 

कृष्णा वर्मा

कैनेडा 


दोहे

नारी

त्रिलोक सिंह ठकुरेला

 

 

हाथ प्रेम की तूलिका, वर्ण पिटारी  संग ।

जीवन में नारी भरे, सुख के सौ-सौ रंग ।।

    

होठों पर मुस्कान रख , बाँट रही अनुराग ।

नारी सहती ही रही, असमदृष्टि  की आग ।।


ठगी रह गयी द्रोपदी, टूट गया विश्वास ।

संरक्षण कब मिल सका , अपनों के भी पास ।।


मानवता के पक्ष में, नारी का हर रूप ।

छाया है वह धूप में, जाड़े में शुभ धूप ।।

  

किससे अपना दुःख कहें, कलियाँ लहू-लुहान ।

माली सोया बाग में, अपनी चादर तान ।।


जीवन के संघर्ष में, यदि नारी हो संग ।

कठिन नहीं कोई डगर , सहज विजित हर जंग ।।


नारी नर की सारथी , जीवन है संघर्ष ।

यदि रथ साथ विवेक का , सब कुछ सहज, सहर्ष ।।


लक्ष्मण रेखा लांघकर , किसे मिला सुख चैन ।

रह अशोक वन शोक में, सीता के दिन रैन ।।


आँगन हो माँ-बाप का, या हो पति का द्वार ।

पग-पग पर नारी गढ़े , खुशियों का संसार ।।


हुए विचारक सोचकर, बार बार हैरान ।

यह समाज क्यों मानता, नारी को सामान ।।


अपनी ताकत जानकर , तोड़ रूढ़ि के फंद ।

नारी लिखती आजकल, नव विकास के छंद ।।

 


त्रिलोक सिंह ठकुरेला

आबूरोड


दोहे

 



अनिता मंडा

 

बचपन-मन झुलसा रही, अलगावों की आँच।

कोरे कागज़ पर लिखा, पाए क्या हम बाँच।।

 

घटनाओं का अब कहो, लिखता कौन बयान।

गूँगी हुई ज़बान तो, बहरे हैं सब कान।।

 

सम्बन्धों की देहरी, दिखती लहूलुहान।

घुटी-घुटी सी साँस को, मिले न रोशनदान।

 

पहरेदारी साँच पर, झूठ को लगे पंख।

दमे भरी हर साँस है, कौन बजाए शंख।।

 

मन-जंगल में खिल गए, जब यादों के फूल।

अनजानी सी सब डगर, ख़ुद को जाएँ भूल।।

 

वादों के परचम तले, मची हुई है भीड़।

खाली चोंचें भागती, ढूँढ़ रही हैं नीड़।।


अनिता मंडा

दिल्ली 


कविता

 



आखिर मैं क्या हूँ?

डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा

भला क्या बताऊँ कि आखिर मैं क्या हूँ’ ?

नदी हूँ, हवा हूँ, हया हूँ, अदा हूँ 

 

कभी चाँदनी तो कभी अग्निधर्मा-

किरण हूँ, अँधेरे में जलता दिया हूँ ।

 

सुमन हूँ, सुधा हूँ, सृजन-साधना मैं,

गरल हूँ मैं, कंटक, कहीं सर्वदा हूँ ।

 

कदम दर कदम मैं चली थी सँभलकर,

मगर मुश्किलों का मुकम्मल पता हूँ ।

 

ज़रा ध्यान से जो सुनोगे मुझे तुम ,

तुम्हारे ही दिल की तुम्हारी सदा हूँ ।

 

भला अपनी पहचान मैं क्या बताऊँ ,

मरज हूँ, मरीजा हूँ, खुद ही दवा हूँ 

 

समझ है तुम्हारी कहे ज्योतिक्या अब,

बहन, बेटी हूँ, संगिनी, माँ, प्रिया हूँ ।

डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा

वापी (गुजरात)

कविता

 

नारी

हिमकर श्याम

एक अघोषित युद्ध वह, लड़ती है हर रोज।

नारी बड़ी सशक्त है, सहन शक्ति पुरजोर।।

 

टूट रही हैं बेड़ियाँ, दिखता है बदलाव।

बेहद धीमी चाल से, बदल रहा बर्ताव।।

 

अपने निज अस्तित्व को, नारी रही तलाश।

सारे बन्धन तोड़ कर, छूने चली आकाश।।

 

पूजन शोषण की जगह, मिले ज़रा सम्मान।

नारी में गुण- दोष है, नारी भी इंसान।।

 

हक की ख़ातिर बोलिए, शोषण है हर ओर।

अपनी ताकत आँकिए, आप नहीं कमजोर।।


 

हिमकर श्याम

राँची

कविता

 

विचार-विमर्श

रूपल उपाध्याय

एक कागज़ और कलम लेती हूँ,

फिर कुछ विचार बुनती हूँ।

उन विचारों को ज्यों का त्यों रख सके,

ऐसे शब्दों का आयाम खोजती हूँ ।।

सोचा कि लिख दूँ वो सब,

जो कभी किसी से कहा नहीं ।

बताऊँ उन वेदनाओं को ,

जिसे किसी ने कभी सहा नहीं ।।

फिर विचार किया कि ,

क्या करूँगी लिखकर ?

कुछ बदलेगा तो नहीं,

मनुष्य देह पाकर ,

राम- कृष्ण ने भी ,

कई विष पिए हैं।

अनेक वेदनाओं को सहकर ,

वे बरसों जीये हैं ।।

कलम को तलवार मुझे भी बनाना है,

मेरे भीतर की अग्नि की ज्वाला,

आवाम तक पहुँचाना है।

फिर सोचा ज़िक्र उन सभी,

बातों का करूँ जिसने,

मेरे आत्मविश्वास को डीगाया है।।

या फिर उन पलों का सिंचन करूँ,

जिसने मेरा हौसला बढ़ाया है।

यह कहानी सिर्फ तेरी या मेरी नहीं है,

इसका सृजनहार और सूत्रधार ,

मैंने अपने ईश को बनाया है।।

कर्म करते रहना और

फल की इच्छा न करना,

आज में जीवन जीकर

कल की चिंता न करना।

यह मुद्दा मैंने उठाया तो है,

लेकिन अफसोस यह मुद्दा तुमने उछाला है।।

इसलिए कलम को तलवार नहीं बनाऊँगी,

रहीम के मीठे बोल की सीख,

आज मैं सच कर जाऊँगी।

शून्य आकाश की भाँति,

विचार भी मेरे शून्य हुए ।।

जहाँ से उठाए थे कागज़ कलम ,

यथा स्थान वही धर पूर्ण हुए ,

भीतर अंतर्द्वंद्ध से लड़कर,

अधरों पर मैं मुस्कान रखती हूँ ।

सौहार्द परिपूर्ण क्षणों का,

मन से आह्वान करती हूँ ।।


 

रूपल उपाध्याय

सी/70, इंद्रप्रस्थ सोसायटी ,

घनश्याम पार्क -2 के पास ,

सहयोग सोसायटी के पीछे

गोरवा,वडोदरा -390016

कविता

 

स्वप्न जरूरी है

कंचन अपराजिता

जिन्दगी का स्पंदन

महसूस करने के लिए

साँसों की मौजूदगी के

एहसास के लिए

आत्म सम्मान से जीवित रहने के

खुराक के लिए

एक सार्थक दृष्टिकोण

निर्माण के लिए

स्वप्न जरूरी है।

 

स्वप्न पलते आँखों में

कभी देखा है तुमने

एक जुनून ज़िंदगी का दिखेगा

एक रवानी खून में रहेगी

कुछ पसीने की बूँद पेशानी पर होगी

भविष्य वहीं से कहानी गढ़ेगी।

स्वप्न जरूरी है

 

नई मंजिल पाने के लिए

कारवाँ को मंजिल तक ले जाने के लिए

मील के पत्थर को जीवंतता दे जाने के लिए

कुछ मार्ग नवीन रच जाने के लिए

कृति की विजयपताका फहराने के लिए

स्वप्न जरूरी है

 

एक स्वप्न जब पूरा होगा

फिर नया सबेरा होगा

तुम्हें जगाने होंगे स्वप्न

किसी की आँखों में

किसी मासूम मन पर दस्तक दे

स्वप्न का महत्व सिखाना होगा

उसके कोमल मन में स्वप्न देखने का बीज

रोप जाना होगा

उसे उसकी सार्थकता

बार-बार बतानी होगी

स्वप्न जरूरी है

 

हाँ स्वप्न जरूरी है

स्वयं के उत्थान के लिए

एक नवनिर्माण के लिए

एक आख्यान के लिए

हौंसले भरी उड़ान के लिए

स्वप्न बेहद जरूरी है...

 


कंचन अपराजिता

चेन्नई

अप्रैल 2024, अंक 46

  शब्द-सृष्टि अप्रैल 202 4, अंक 46 आपके समक्ष कुछ नयेपन के साथ... खण्ड -1 अंबेडकर जयंती के अवसर पर विशेष....... विचार बिंदु – डॉ. अंबेडक...