रविवार, 30 मार्च 2025

सामयिक टिप्पणी

फेसबुकिया प्रेम की त्रासद परिणति!

डॉ. ऋषभदेव शर्मा

हरियाणा के रोहतक में कांग्रेस नेता हिमानी नरवाल की नृशंस हत्या ने एक बार फिर सोशल मीडिया को निशाने पर ला दिया है। गिरफ्तार आरोपित से मृतका का परिचय कथित रूप से फेसबुक के माध्यम से हुआ और उसकी चरम परिणति इस हत्याकांड के रूप में सामने आई। दावों का झूठ-सच सामने आने में शायद कुछ वक़्त लगे, लेकिन इस घटना ने एक गहरी सामाजिक बहस ज़रूर छेड़ दी है।

आधुनिक तकनीक ने जहाँ वैश्विक स्तर पर संवाद और संबंधों के नए द्वार खोले हैं, वहीं इसके काले पक्ष भी अब तेजी से उभरने लगे हैं। भारतीय समाज को परंपरागत मूल्यों और रिश्तों का पोषक माना जाता है। लेकिन अब यहाँ भी सोशल मीडिया, विशेष रूप से फेसबुक-इंस्टाग्राम जैसे मंच, प्रेम की नई परिभाषाएँ गढ़ रहे हैं। परंतु दुर्भाग्यवश, इन फेसबुकिया प्रेम कहानियों का अंत अक्सर त्रासदियों में बदलता दिखाई देता है। अखबारों के पन्ने और डिजिटल प्लेटफॉर्म आए दिन ऐसी खबरों से पटे रहते हैं, जिनमें फेसबुक पर शुरू हुए रिश्ते धोखे, ब्लैकमेलिंग, आत्महत्या, हत्या और सामाजिक विघटन का कारण बन रहे हैं।

कई बार तो ऐसा लगता है कि फेसबुकिया प्रेम महज एक डिजिटल आकर्षण बनकर रह गया है, जिसमें भावना से अधिक दिखावा, छल और क्षणिक उत्तेजना का बोलबाला है। कुछ दिनों की बातचीत, लाइक्स और कमेंट्स के आदान-प्रदान के बाद अजनबी चेहरे अपना सब कुछ सौंप देने को तैयार हो जाते हैं। ख़ासकर किशोरवय और नवयुवक वर्ग इस चक्रव्यूह में सबसे अधिक फँसते दिखाई देते हैं। भरोसे और समझ की जगह भावनात्मक कमज़ोरी, तात्कालिक आकर्षण और इंटरनेट की आभासी दुनिया का नशा हावी हो जाता है।

पिछले वर्षों में दर्जनों ऐसे मामले सामने आए हैं, जिनमें फेसबुक के जरिए शुरू हुए प्रेम संबंधों ने न केवल व्यक्तिगत स्तर पर बरबादी लाई, बल्कि परिवारों को भी गहरे सदमे में डाल दिया। दिल्ली, मुंबई, लखनऊ, भोपाल जैसे बड़े शहरों से लेकर छोटे कस्बों तक इस किस्म के प्रेम की परिणतियाँ हत्या, आत्महत्या, ऑनर किलिंग, धोखाधड़ी और आपराधिक वारदातों के रूप में देखने को मिली हैं। कहीं प्रेमिका/प्रेमी को बुलाकर अपहरण किया गया, तो कहीं अश्लील वीडियो बनाकर ब्लैकमेल किया गया। कई बार तो ऐसे प्रेम में ठगे गए लोग मानसिक अवसाद का शिकार होकर जान देने तक की कगार पर पहुँच जाते हैं।

 

इस स्थिति के पीछे केवल व्यक्तिगत भूल ही नहीं, बल्कि सामाजिक और पारिवारिक ढाँचे में आ रहे बदलावों की भी बड़ी भूमिका है। पहले परिवारों में संवाद, निगरानी और मार्गदर्शन की संस्कृति मजबूत थी। लेकिन अब वह सोशल मीडिया की आँधी में बिखरती दिखाई दे रही है। माता-पिता की व्यस्तता, बच्चों के लिए असीमित इंटरनेट की सुविधा और डिजिटल गोपनीयता का आग्रह इस समस्या को और गहरा कर रहे हैं।

कहना ही होगा कि समाज में प्रेम को लेकर दोहरापन भी इस त्रासदी को बढ़ाता है। एक ओर तो वास्तविक दुनिया में प्रेम को अपराध और शर्म की दृष्टि से देखे जाने की कुप्रथा प्रचलित है। वहीं दूसरी ओर सोशल मीडिया पर प्रेम की आभासी स्वीकृति युवाओं को खुले में प्रयोग करने को प्रेरित कर रही है। इस दोहरेपन में न तो वास्तविक प्रेम को सम्मान मिल पा रहा है, न ही आभासी प्रेम की नैतिकता तय हो पा रही है। इस विकट स्थिति का समाधान केवल तकनीकी निगरानी या दंड से नहीं निकलेगा। इसके लिए ज़रूरी है कि परिवार और समाज में संवाद की संस्कृति को फिर से सशक्त किया जाए। बच्चों को डिजिटल साक्षरता के साथ-साथ भावनात्मक परिपक्वता भी सिखानी होगी। प्रेम जैसी गूढ़ अनुभूति को क्षणिक आकर्षण, आभासी दिखावे और झूठे प्रोफाइल के माध्यम से परखने की आदत पर रोक लगानी होगी।

फेसबुकिया प्रेम की त्रासद परिणति से बचने का रास्ता यही है कि युवा वर्ग समझे कि आभासी दुनिया का प्रेम असल जिंदगी की कसौटी पर अधिकतर खरा नहीं उतरता। भावनाओं की सच्चाई केवल स्क्रीन के उस पार नहीं, जीवन की वास्तविकता में ही परखी जा सकती है।

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डॉ. ऋषभदेव शर्मा

सेवा निवृत्त प्रोफ़ेसर

दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा

हैदराबाद

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