शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2023

फरवरी – 2023, अंक – 31

 


शब्द-सृष्टि 

फरवरी – 2023, अंक – 31


विचार स्तवक

व्याकरण विमर्श – 1. विराम चिह्न 2. सर्वनामों के साथ परसर्गों का प्रयोग – डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

आलेख – लोकगीतों में रसाभिव्यक्ति – डॉ. हसमुख परमार

निबंध – ढाई आखर – डॉ. पूर्वा शर्मा

कविता – मैंने देखा है – डॉ. ऋषभदेव शर्मा

व्यंग्य – हैप्पी वैलेंटाइन-डे – डॉ. गोपाल बाबू शर्मा

दोहे – प्रेम – त्रिलोक सिंह ठकुरेला

ग़ज़ल – हिमकर श्याम

काव्यास्वादन – ट्राम में एक याद : चेतना पारीक के बहाने – विकास कुमार मिश्रा

विशेष – प्रेम-सप्ताह – कुलदीप कुमार ‘आशकिरण’

क्षणिकाएँ – प्रीति अग्रवाल

दोहे – अनिता मंडा

स्मृति शेष – वाणी जयराम – संध्या दुबे

कविता – अनचाहा गुलाब – आनन्द तिवारी

कविता – वो सूरज है – रामानुज द्विवेदी

सामयिक टिप्पणी – कहीं खो न जाएँ हमारी छह ऋतुएँ! – डॉ. ऋषभदेव शर्मा

सामयिक टिप्पणी



कहीं खो न जाएँ हमारी छह ऋतुएँ!

डॉ. ऋषभदेव शर्मा

यह हो क्या रहा है इस देश में? फरवरी का महीना आधा बीतते-बीतते ही फागुन में जेठ आ गया लगता है! ऋतु चक्र का यह घालमेल सामान्य नहीं हो सकता। प्रकृति कुछ संकेत दे रही लगती है!

क्रॉस डिपेंडेंसी इनिशिएटिव (एक्सडीआई) की रिपोर्ट की मानें (और न मानने की कोई वजह नहीं है)  तो भारत के 9 राज्यों सहित दुनिया भर के 2,600 राज्यों व प्रांतों पर जलवायु परिवर्तन का बड़ा खतरा मँडरा रहा है। यानी ये इलाके कुछ ही दशकों में व्यापक  बाढ़, जंगलों की आग, लू और सूखे जैसे विकराल अनुभव से गुजरने के लिए तैयार रहें!

दरअसल, मनुष्य समाज ने विकास की लंबी यात्रा करते हुए अपने जीवन को सुख-सुविधाओं से संपन्न करने के लिए प्रकृति के साथ तालमेल और संघर्ष का दोहरा रिश्ता कायम किया है। इस दौरान उसने अपने पर्यावरण में कई बदलाव किए हैं। मानव निर्मित पर्यावरण में हर वह चीज शामिल है, जिसे मनुष्य ने बनाया है। मकान, बिल्डिंग, एयर पोर्ट, रेलवे स्टेशन, मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारा, अस्पताल आदि सब 'मानवनिर्मित पर्यावरण' का हिस्सा हैं। विभिन्न सभ्यताओं का इतिहास साक्षी है कि 'मानवनिर्मित पर्यावरण' और 'प्राकृतिक पर्यावरण' का आपसी संतुलन जब-जब बिगड़ता है, तब-तब प्रलय घटित होती है। शायद आधुनिक सभ्यता भी ऐसे ही असंतुलन की ओर बढ़ रही है!

एक्सडीआई की रिपोर्ट डराने और आतंकित करने के लिए नहीं, बल्कि इसी आसन्न खतरे के प्रति सावधान और तैयार रहने की चेतावनी देने के लिए है। यह रिपोर्ट चेताती है कि जिन खतरों की बात की जा रही है वे प्राकृतिक प्रकोप तो कहे जा सकते हैं, लेकिन वे सब प्रकृति की देन नहीं, बल्कि मानव की देन होंगे! इसका अर्थ यह भी है कि जलवायु परिवर्तन की इस चाल को उचित प्रबंधन से  समय रहते बदला भी जा सकता है। वरना प्रलय के मुँह में समाती सभ्यताओं के पास मनु महाराज की तरह यह पछतावा ही रह जाएगा कि –

“प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित थे हम सब अपने मद में!” (कामायनी)।

गौरतलब है कि वर्ष 2050 को ध्यान में रख कर बनाई गई इस रिपोर्ट में मानव गतिविधियों और घरों से लेकर इमारतों तक यानी मानवनिर्मित पर्यावरण को जलवायु परिवर्तन व मौसम के चरम हालात से नुकसान के पूर्वानुमान का प्रयास किया गया है। रिपोर्ट बताती है कि 2050 में 200 में से 114 जोखिम वाले प्रांत एशिया के हैं। इनमें भारत और चीन के राज्य अधिक हैं।  2050 तक जो इलाके सबसे ज्‍यादा खतरे से घिर जाएँगे. उनमें से पहले 50 में से 80 प्रतिशत इलाके चीन, अमेरिका और भारत के होंगे।  चीन के बाद भारत के सबसे ज्‍यादा यानी 9 राज्‍य इन पहले 50 में शामिल हैं। ये हैं बिहार, उत्‍तर प्रदेश, असम, राजस्‍थान, तमिलनाडु, महाराष्‍ट्र, गुजरात, पंजाब और केरल। कहा जा सकता है कि हज़ारों साल से छह ऋतुओं के क्रमिक परिवर्तन चक्र और उसके सौंदर्य का साक्षी रहा स्वर्गोपम भारत देश एक ऐसे युग की तरफ बढ़ रहा है जिसमें शायद 3 ऋतुएँ भी ढंग से पहचानी न जा सकेंगी!

बताया गया है कि भौतिक जलवायु जोखिम का यह अब तक का सबसे परिष्कृत वैश्विक विश्लेषण है, जो पहले कभी नहीं देखे गए पैमाने पर व्यापकता, गहराई और कणिक सटीकता प्रदान करता है। इसके अनुसार, अगर जलवायु परिवर्तन के कारण चरम मौसमी हालात पैदा हुए तो भले ही सबसे ज्‍यादा नुकसान एशियाई क्षेत्र को होगा। लेकिन अँधेरे में प्रकाश की किरण यह है कि अगर जलवायु परिवर्तन को बदतर होने से रोका गया और जलवायु के प्रति सतत निवेश में वृद्धि हुई, तो इसका सबसे ज्‍यादा फायदा भी एशियाई देशों को ही होगा।

अब यह खुद हमारे ऊपर निर्भर है कि हमें चरम मौसमी हालात वाला कष्टकर और बदरंग जीवन चाहिए, या धीरे-धीरे रंग बदलते खुशगवार छह मौसमों का वह सुखकर और बहुरंगी नज़ारा चाहिए जिसमें बारहों मास अलग अलग पहचाने जा सकें!

 


डॉ. ऋषभदेव शर्मा

सेवा निवृत्त प्रोफ़ेसर

दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा

हैदराबाद

 

कविता

 


वो सूरज है

रामानुज द्विवेदी

 

नमन उसका आकाश करता है,

तिहुँ लोक में छाए तिमिर का

नाश जो करता है।

वो सूरज है ...........।

 

उसे देखे बिना

सरोवर का कमल भी खिल नहीं सकता,

पंछी गा नहीं सकते

उजाला मिल नहीं सकता ।

जगत के अंधेरे को

नित प्रति  जो साफ करता है ,

वो सूरज है ......।

 

उसके आते ही

उपवन में कलियाँ मुस्कुराती हैं,

बिछड़ा रात का जोड़ा भी

दिन में मिल ही जाता है।

कुंज  आबाद  होते हैं 

कलरव  साथ  करता  है,

वो सूरज है .......।

 

दिशा के अंक में सोया

मयंक भी काँप जाता है,

रूप निश्तेज होता है 

भानु को भाँप जाता है ।

दिग्वधू शर्म करती  है

सितारे  लाज   खाते  हैं ,

वो सूरज है .......।

 

जिसके आते ही

रमणियों का सपना टूट जाता है,

कुमुदिनी घूँघट कर लेती है

मदन भी रूठ जाता है ।

सपना सपना ही रह जाता

मगर वह प्रेरित करता है ,

वो सूरज है ........।

 

दिन का देव दिनकर है

निशा पर शशि में रमती है ,

एक पालन करता है

एक सृजन में खिलती है 

पर दोनों का महिमामंडन

रामानुज यूँ करता है ,

वो सूरज है

नमन उसका आकाश  करता है ।

***

 


रामानुज द्विवेदी

प्राध्यापक

श्रीनाथ सं. म. वि. हाटा

कुशीनगर (उ.प्र.)

कविता

 



अनचाहा गुलाब

आनन्द तिवारी

महीना अति पावन माघ का कुछ खास पैगाम लेकर आता है,

कई दिलों में मुहब्बत का अनचाहा जज़्बात जगा के जाता है।

प्यार, स्नेह, अपनापन पश्चिमी सभ्यता का संदेश लेकर आता है,

कई दिलों को जोड़, तोड़ चुपचाप खामोशी के साथ चला ये जाता है।

ख्वाहिशों के अनन्त आसमान में व्याध तारे-सा चमचमाता है,

हुआ जो सवेरा तो अंधेरे में कई दिलों को असहाय छोड़ के जाता है।

सपने सजाए जो आँखों में कोई प्रियतम का संग भी पाता है,

कोई देख के दूजे की बाहों में उनको मन ही मन अकुलाता है।

रोज डे से शुरू हुआ त्योहार प्रेम का वेलेंटाइन-डे तक आता है,

विचारों में सोई अमिट अभिलाषा को वादों में जी के जाता है।

विशिष्ट की विशिष्टता को अनचाहा गुलाब भी मिल जाता है,

परिभाषा इसकी है क्या? खुद प्रेमी समझ न पाता है।

चाहत जिसकी खोया उसको? संग दूजे का आता है,

मर्म हृदय का संग गुलाब के अधखिला ही रह जाता है।

प्रपोज किया जो जानेमन को प्रतिकूल जवाब भी आता है,

मन का पक्षी झरना बनकर मिलकर नदियों में बह जाता है।

चॉकलेट खिलाया जो लेट समझ लो शरण नहीं फिर पाता है,

दिलरुबा को मनाने की कोशिश में ही मास निकल ये जाता है।

बाहों में भरकर प्रियतमा को प्रियतम अपना प्यार जताता है,

सारे अधूरे सपनों को पूरा करने वेलेंटाइन डे फिर आता है।

स्वीकार नहीं हमको गुलाब जो प्रतीक प्रेम बन आता है,

शूल समान चुभता है दिल में कोमलता को नहीं यह पाता है।

कैसा लगता है जब प्रेम किसी का कोई और ही ले के जाता है,

अंतर्व्यथा मनोदशा विकृत चेतना अव्यक्त ही रह जाता है।

पर क्या गलती उसकी जो अपना प्यार जताता है?

प्रतीक प्रेम का पूरे मन से पास हमारे लाता है।।

इस अनचाहे गुलाब को स्वीकार करें? सोच के दिल घबराता है,

लगता है हमको जैसे सच्चा प्रेमी अवसर पाकर आता है।

प्रेम अदृश्य है प्रेम है पावन सबको ही हो जाता है,

कोई पाता है गुलाब कोई बिन पाए ही रह जाता है।

गुलाबों की इस श्रेणी में जलता हुआ गुलाब भी आता है,

विरह दशा का सुंदर वर्णन पंखुड़ियों से हो जाता है।

कुछ गुलाब बिखर पन्नों में दर्ज दफन हो जाता है,

कहानी प्रेम की आने वाली पीढ़ी को बतलाता है।

महीना अति पावन माघ का कुछ पैगाम लेकर आता है,

विशिष्ट की विशिष्टता को अनचाहा गुलाब भी मिल जाता है।।

प्रेम पुण्य है, प्रेम कर्म है, प्रेम अमर जीवन गीत का उद्गाता है,

भाग्यशील है वो मानव जो जीवन में साथ अपनों का पाता है।

छोड़ो बात गुलाब की जो हम पे ही हँसता और मुस्कुराता है,

पागल है कितना इंसान सच्चा प्रेम समझ नहीं पाता है।

उम्मीदें बहुत दोनो पक्षों की पर एक ही पक्ष निभाता है,

धीरे धीरे बोझ तले ये नश्वर क्षणिक प्रेम मर जाता है

अनंत प्रेम की अमिट कथाएँ और पात्र अमर रह जाता है,

गुल से बढ़े गुलमोहर बने और अंत में अनचाहा गुलाब ही रह जाता है।

"जिसे चाहा वो मिला नहीं,

जो मिला वो जँचा नहीं।

जो अपने थे हकीकत न हुए,

जो हुए वो गलत नहीं।

जिससे उम्मीद थी उसने ठुकराया,

जिसने अपनाया उससे कोई उम्मीद नहीं।

और मिला ये अनचाहा गुलाब........"

 


आनन्द तिवारी

शोध छात्र, हिंदी विभाग

म. स.  विश्वविद्यालय

वड़ोदरा  (गुजरात)

 

 

स्मृति शेष

 



वाणी जयराम

संध्या दुबे

पार्श्वगायन के क्षेत्र में अलग मुकाम था वाणी जयराम का

दक्षिण भारत से भाषाई और हिन्दी फिल्मों में आये जिन प्रख्यात पार्श्वगायकों ने अपने गायन की एक अलग छाप छोड़ी उनमें तमिलनाडु की सुप्रसिद्ध गायिका वाणी जयराम भी अग्रगण्य रहीं हैं । अपने स्वर माधुर्य और शास्त्रीय रागों पर आधारित गीतों के गायन में प्राविण्य के कारण वाणी जयराम ने फिल्म में पार्श्वगायन के क्षेत्र में अलग मुकाम बनाया था। तीन बार पार्श्वगायन के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और भारत सरकार के प्रतिष्ठित नागरिक  सम्मान से विभूषित वाणी जयराम का गत 04 फरवरी को अवसान हो गया। उनका यूँ चला जाना फिल्म संगीत की दुनिया की एक बड़ी क्षति है और उनके अवसान से स्वर माधुर्य का एक अध्याय ही समाप्त हो गया है ।

पाँच दशक के अपने केरियर में उन्होंने  हिन्दी और भिन्न भाषाओं में लगभग दस हज़ार गीत गाए हैं. जिसमें हिन्दी, तमिल, मलयालम, कन्नड़ और हरियाणवी समेत कई भाषाएँ शामिल हैं। 

बॉलीवुड की हिन्दी फिल्मों के लिए ही उन्होंने करीब डेढ़ हज़ार गीत गाए। उन्होंने  देशभक्ति से ओतप्रोत अनेक गीत भी गाए है और दुनिया भर में कई म्यूजिक कन्सर्ट की भी वे मुख्य प्रतिभागी रहीं है। वाणी जयराम, जिनका वास्तविक नाम कलैवानी था। दक्षिण भारत की भाषाई फिल्मों से पार्श्वगायन का अपना केरियर शुरु करने वाली वाणी जल्दी ही हिन्दी फिल्मों की भी एक लोकप्रिय पार्श्वगायिका बन गई। अपनी सुरीली आवाज के कारण वाणी सत्तर के दशक से नब्बे के दशक के अन्त तक देश के कई संगीतकारों की पसन्दीदा पार्श्वगायिका रहीं , उन्होंने कई भारतीय भाषाओं जैसे कन्नड़, तेलुगु, तमिल, मलयालम, मराठी, हिन्दी, उड़िया, हरियाणवी, असमिया, तुलू, गुजराती और बंगाली भाषाओं में भी पार्श्वगायन किया । पार्श्वगायन के लिए तीन राष्ट्रीय पुरस्कार के साथ ही उन्हें ओडिशा, गुजरात, आंध्रप्रदेश और तमिलनाडु राज्यों की  सरकार द्वारा स्थापित पुरस्कार भी मिले। वर्ष  2012 में उन्हें दक्षिण भारतीय फिल्मों में पार्श्वगायन के क्षेत्र की उनकी विशेष उपलब्धियों के लिए लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड-(साउथ )से सम्मानित किया गया। वर्ष  2017 में उन्हें न्यूयॉर्क शहर में  नाफा टू हण्ड्रेड सेवन्टीन कार्यक्रम में बेस्ट फीमेल वोकलिस्ट का पुरस्कार भी दिया गया ।

वाणी जयराम का जन्म 30 नवंबर, 1945 को तमिलनाडु के वेल्लोर में एक तमिल परिवार में हुआ था। आपके पिता दुरईसामी अयंगर और माता पद्मावती, रंगा रामुनाजा अयंगर से प्रशिक्षित संगीतकार थे। आठ साल की उम्र में, उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो, मद्रास में अपना पहला सार्वजनिक प्रदर्शन दिया था‌। वाणी मद्रास विश्वविद्यालय के क्वीन मैरी कॉलेज की छात्रा थीं।  अपनी पढ़ाई के बाद वाणी ने बैंक की नौकरी ज्वाइन की ।  वाणी की शादी एक ऐसे परिवार में हुई जो पहले से ही संगीतमय था। उनके पति टी एस जयरमण और उनकी सास श्रीमती पद्मा स्वामीनाथन , सामाजिक कार्यकर्ता होने के साथ संगीत के प्रति रुझान ‌‌भी रखते थे। उनके पति टी. एस. जयरमण ने वाणी के गायन को सुनकर उन्हें हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का प्रशिक्षण दिलवाया और पटियाला घराने के उस्ताद अब्दुल रहमान खान से वाणी ने शिक्षा ली। संगीत सीखते समय उन्होंने बैंक की नौकरी छोड़ दी और संगीत के प्रति ही समर्पित हो गईं। उन्होंने  ठुमरी, ग़ज़ल और भजन के स्वर सीखे और वर्ष 1969 में अपना पहला म्यूजिक शो किया । इसी दौरान उनकी मुलाकात संगीतकार वसंत देसाई से हुई, जिन्होंने वाणी की आवाज सुनी और अपने एलबम के लिए गाना गाने का मौका दिया । यह एलबम मराठी लोगों को  काफी पसंद आया।  और इसके बाद उनके पास एक के बाद एक गाने के प्रस्ताव  आने लगे ।

वाणी को सबसे बड़ा ब्रैक भी संगीतकार वसंत देसाई सा'ब ने वर्ष 1971 में ‘ गुड्डी  ‘ फिल्म  में दिया । इस फिल्म के एक गीत - ‘बोल रहे पपीहरा...’ ने उन्हें शीर्षस्थ पार्श्वगायिकाओं की पंक्ति में खड़ा कर दिया। उन्होंने कई दिग्गज संगीतकारों के साथ काम किया जिनमें  एमएस विश्वनाथन, सत्यम, चक्रवर्ती केवी महादेवन और इलैयाराजा प्रमुख थे । आपने गुलज़ार की फिल्म मीरा’ के भी सभी गीत गाये थे जो बेहद लोकप्रिय हुए । आपका एक एलबम ‘परवाज़’ भी काफी लोकप्रिय हुआ । इसमें आपने फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ सहित अनेक शीर्षस्थ शायरों की रचनाओं को स्वर दिया ।  ‘वाणी’ का यह विराम स्तब्ध कर देने वाला है ।



संध्या दुबे

भोपाल 


अप्रैल 2024, अंक 46

  शब्द-सृष्टि अप्रैल 202 4, अंक 46 आपके समक्ष कुछ नयेपन के साथ... खण्ड -1 अंबेडकर जयंती के अवसर पर विशेष....... विचार बिंदु – डॉ. अंबेडक...