रविवार, 25 अप्रैल 2021

अंक – 9

 

शब्द सृष्टि, अप्रैल - 2021, अंक – 9 
















विचार स्तवक

 






पराजय क्षणिक है, इसे सनातन बनाती है हताशा |

– लॉगफेलो

मैं ऐसे धर्म को मनाता हूँ जो स्वतंत्रता, समानता और भाई-चारा सिखाता है |

– डॉ. बाबासाहब आम्बेडकर

नष्ट हुआ वैभव शरीर द्वारा पुनः प्राप्त किया जा सकता है लेकिन क्षीण हुआ शरीर वैभव द्वारा पुनः प्राप्त नहीं किया जा सकता |

– संस्कृत सुभाषित

मनुष्य में देव और दानव दोनों का अस्तित्व है | देवता की प्राण प्रतिष्ठा और दानव का नाश करने के लिए चलने वाला संघर्ष ही मानव जीवन है |

– जार्ज बर्नार्ड शॉ 


शब्द संज्ञान


अर्थविज्ञान (Semantics) से संबंधित कतिपय शब्द

अर्थविज्ञान भाषा विज्ञान की एक महत्त्वपूर्ण शाखा है जिस में भाषा के अर्थ पक्ष पर विचार किया जाता है। भाषा के अर्थ तत्त्व विषयक अध्ययन के चलते अर्थविज्ञान, भाषाविज्ञान के भावपक्ष से जुड़ा विषय है और हिन्दी-अंग्रेजी दोनों भाषाओं में इस विषय को लेकर स्वतंत्र पुस्तकें भी लिखी गई है। अर्थ विचार, माने-तत्त्व-विचार, शब्दार्थ विज्ञान, अर्थातिशय आदि हिन्दी में तथा Rhematology, Sematology, Rhematics, Significant, Semasiology, Semiotics जैसे शब्द अंग्रेजी में प्रयुक्त होते रहे हैं । फिर भी हिन्दी-अंग्रेजी में उक्त शाखा के लिए क्रमशः अर्थविज्ञान तथा Semantics शब्द ज्यादा प्रचलित एवं स्वीकृत रहे हैं और विषय की दृष्टि से अधिक उचित भी। अर्थविज्ञान में अर्थ का वैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन-विश्लेषण किया जाता है। अंग्रेजी Semantics शब्द को विद्वानों ने इस तरह व्याख्यायित किया है – The system and study of meaning in language. – भाषा में अर्थ की प्रणाली का अध्ययन।

v अर्थ : जिस तरह ध्वनिविज्ञान, रूपविज्ञान, वाक्यविज्ञान, लिपिविज्ञान आदि के अध्ययन में क्रमशः ध्वनि, रूप, वाक्य, अक्षर केन्द्रीय इकाइयाँ है, ठीक उसी तरह ‘अर्थ’ अर्थविज्ञान की मूल इकाई है।

वैसे हमारे भाषा प्रयोग में ‘अर्थ’ शब्द एकाधिक अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है। विषय, प्रसंग-सन्दर्भ के अनुसार इस अनेकार्थी शब्द से अभिप्रेत-योग्य अर्थ ग्रहण किया जाता है। “अर्थ शब्द भी अनेकार्थी है। Economics अर्थशास्त्र में उसका अर्थ धन होता है, किन्तु भाषाविज्ञान में उसका यह अर्थ ग्राह्य नहीं है। यहाँ तो वह meaning ‘माने’ का ही बोधक है। वस्तु thing, धन money और माने meaning इन तीनों अर्थ में से वह तीसरे का वाचक है।”

संस्कृत वैयाकरण भर्तृहरि अपने वाक्यपदीय ग्रन्थ में अर्थ को शब्द तक सीमित रखते हुए इसे इस तरह परिभाषित करते हैं –

यस्मितस्तूच्चरिते शब्दे यदा योऽर्थः प्रतीयते।

तमाहुरर्थं तस्यैव नान्यदर्थस्य लक्षणम्॥

सामान्यतः शब्द, पद, वाक्य, वाक्य समूह आदि से जिसकी अभिव्यक्ति एवं प्रतीति होती है, उसे अर्थ कहा जाता है।   

v यादृच्छिक : जिस मान्यता या धारणा के पीछे कोई तर्क न हो, कोई तार्किक आधार न हो, उसे यादृच्छिक कहा जाता है। सुरेशचन्द्र त्रिवेदी के मतानुसार “यादृच्छिक शब्द यदृच्छा का विशेषण है। यदृच्छा – जैसी इच्छा। इसके लिए कोई भी कार्य-कारण संबंध या तर्क सम्मत दलिल काम नहीं देती।

Ø भाषा यादृच्छिक ध्वनि प्रतीकों की व्यवस्था है।

Ø शब्द और अर्थ का संबंध है – यादृच्छिक।

भाषाविज्ञान-अर्थविज्ञान की दृष्टि से शब्द और अर्थ के संबंध को यादृच्छिक कहना यानी किसी भाषा प्रयोक्ता समाज-समुदाय की इच्छानुसार मात्र माना हुआ संबंध। इस संबंध को तर्कसंगत या तर्काश्रित संबंध नहीं कहा जा सकता। “एक विशेष समुदाय किसी भाव या वस्तु के लिए जो शब्द बना लेता है, उसका उस भाव या वस्तु से कोई संबंध नहीं होता। यह समाज की इच्छानुसार माना हुआ संबंध है।” इस वजह से एक ही वस्तु के लिए अलग-अलग भाषाओं में अलग-अलग शब्द प्रयुक्त होते हैं। जैसे एक ही पक्षी विशेष के लिए हिन्दी में तोता, गुजराती में पोपट, अंग्रेजी में Parrot तथा अन्य भाषाओं में इसी तरह अलग-अलग नाम।

आप्तवाक्य / विवृति / प्रकरण

अर्थविज्ञान में शब्दों के अर्थ जो जानने के, संकेत ग्रहण के विविध साधक तत्त्वों पर विचार किया गया है। भारतीय भाषा वैज्ञानिकों ने अर्थ बोध के कुल आठ साधन बताए हैं – 1. व्याकरण 2. उपमान 3. कोश 4. आप्तवाक्य 5. व्यवहार 6. विवृति (व्याख्या) 7. प्रकरण (वाक्य-शेष) 8. ज्ञात पद का सान्निध्य ।

v आप्तवाक्य : आप्तवाक्य से आशय है –  किसी विशिष्ट विद्वान, अनुभवी एवं विश्ववसनीय व्यक्ति, सत्यवक्ता द्वारा कही गयी बात- कथन। ऐसे लोगों के कथन पर पूरी तरह से विश्वास किया जाता है । ये जिस शब्द का जो अर्थ बताते हैं, वही हम लोगों के लिए मान्य और स्वीकृत होता है। धर्म, पाप, आत्मा, ईश्वर, स्वर्ग, नर्क, पुनर्जन्म जैसे अनेकों शब्द है, जिसका अर्थज्ञान आप्तवाक्य के ज़रिए ही होता है। काशवाणी शब्द का मूल अर्थ देववाणी है पर कवि पन्त ने इसे रेडियो का वाचक बनाया तो उसी अर्थ में यह शब्द प्रयुक्त होने लगा।

v विवृति : अर्थबोध के इस साधक तत्त्व को व्याख्या या विवरण के नाम से भी जाना जाता है। कुछ शब्द ऐसे है जिनकी व्याख्या करने पर ही अर्थबोध हो पाता है।” भाषा में ऐसे असंख्य शब्द है जो अर्थज्ञान की दृष्टि से कठिन लगते हैं, ऐसे शब्दों का विवरण देना पड़ता है, तब अर्थबोध – अर्थ की स्पष्टता संभव होती है। पारिभाषिक शब्द विशेषतः इस कोटि में आते हैं जिसका अर्थ जानने हेतु यह साधन अपेक्षित है।

ध्वनि, अलंकार, अद्वैत, अघोष, घोष, निर्गुण, सगुण, वृत्ति, रीति, स्वनिम प्रभृति अलग-अलग विषय-क्षेत्र के शब्दों की व्याख्या जरूरी है। जैसे – “विधि शब्द। इसे स्पष्ट करने के लिए – आचार व्यव्हार के लिए अनिवार्य नियम इतना स्पष्टीकरण आवश्यक है।”

v प्रकरण : प्रकरण के लिए एक अन्य शब्द – ‘वाक्य-शेष’ भी चलता है । अनेकार्थी शब्द के अर्थनिर्णय की यह एक कसौटी है। किसी अनेकार्थी शब्द का जब प्रयोग होता है, तब प्रकरण या सन्दर्भ के आधार पर ही इसका अर्थ जाना जाता है। “प्रसंग के अनुसार अर्थनिर्णय होता है। भोजन के समय सैंधव अर्थात् नमक और युद्ध के समय सैंधव अर्थात् घोड़ा ही लिया जाएगा।” आशय यह है कि जब कोई शब्द एकाधिक अर्थ का वाचक हो तब इस साधन (प्रकरण) के द्वारा अर्थज्ञान होता है। इस तरह प्रकरण, प्रसंगानुरूप अर्थ ग्रहण की सरल पद्धति है। जैसे ‘गोली’ शब्द है जो अनेकार्थी है। जब वाक्य में इसका प्रयोग होता है तो प्रकरण-प्रसंग के अनुसार सही अर्थ का बोध होता है। सैनिक अथवा लड़ाई के प्रसंग से संबंधी वाक्य में प्रयुक्त ‘गोली’ शब्द बन्दूक की गोली, बुखार-बीमारी के सन्दर्भ में दवाई, बालकों के खेल संदर्भित वाक्य में यह खेलने की गोली

अर्थविज्ञान विषयक तकनीकी शब्दावली में अर्थ परिवर्तन(Semantic Change), अर्थ परिवर्तन की दिशाएँ(Direction of Semantic Change), अर्थ-विस्तार(Expansion of meaning), अर्थ-संकोच(Contraction of meaning), अर्थादेश(Transference  of meaning), अर्थोत्कर्ष(Elevation of meaning), अर्थापकर्ष(Degradation of meaning) आदि शब्दों का विशेष महत्त्व है।

अर्थ विकास या अर्थ परिवर्तन की दिशाओं-प्रकारों संबंधी गंभीर चिंतन-अध्ययन करने वाले भाषा वैज्ञानिकों में सबसे पहले फ्रांसीसी भाषा वैज्ञानिक माइकल ब्रील ने अर्थ परिवर्तन की तीन दिशाओं – अर्थ विस्तार, अर्थ संकोच तथा अर्थादेश पर विचार किया। प्रस्तुत विषय को लेकर कुछ ऐसे भी अध्येता है जिन्होंने इन दिशाओं की संख्या तीन से अधिक बताई है। जैसे ब्लूमफील्ड ने नौ दिशाओं का उल्लेख किया। कुछ विद्वानों ने अर्थोत्कर्ष और अर्थापकर्ष को स्वतंत्र दिशाओं में लिया है, जबकि ये दोनों ‘अर्थादेश’ के ही भेद है। असल में अर्थ परिवर्तन की तीन दिशाओं और अर्थोत्कर्ष एवं अर्थापकर्ष को अर्थादेश के भेद मानना ज्यादा तर्क संगत है, जो ज्यादा मान्य एवं स्वीकृत भी है।

v अर्थादेश (Transference  of meaning) :

अर्थादेश की स्थिति तब मानी जाती है जब कोई शब्द अपने पहले वाले अर्थ को छोड़कर अन्य नये अर्थ को लेकर व्यवहृत हो। डॉ. भोलानाथ तिवारी के मतानुसार – “भाव-साहचर्य के कारण कभी-कभी शब्द के प्रधान अर्थ के साथ एक गौण अर्थ भी चलने लगता है। कुछ दिनों में ऐसा होता है कि प्रधान अर्थ का धीरे-धीरे लोप हो जाता है और गौण अर्थ में ही शब्द प्रयुक्त होने लगता है। इस प्रकार एक अर्थ के लोप होने तथा नवीन अर्थ के आ जाने को ‘अर्थादेश’ कहते हैं ।”  

असुर, गँवार, आकाशवाणी, उष्ट्र, तटस्थ जैसे शब्दों के अर्थ में हुआ परिवर्तन अर्थादेश प्रकार का परिवर्तन कहा जाता है। ‘असुर पहले देवता के लिए, अब राक्षस का वाचक, गाँव में निवास करने वाला ‘गँवार’ पर आगे चलकर यह शब्द मूर्ख व असभ्य के लिए प्रयुक्त, ‘आकाशवाणी’ का देववाणी से रेडियो और ‘उष्ट्र’ पहले भैंसा अब ऊँट, ‘तटस्थ पहले तट पर स्थित अब निष्पक्ष के लिए।

v अर्थोत्कर्ष (Elevation of meaning) :

अर्थ का उत्कर्ष, अर्थ का उन्नत होना। अर्थात् अर्थ का बुरे से अच्छा होना। अर्थोत्कर्ष की प्रवृत्ति में शब्द अपने बुरे अर्थ को छोड़कर अच्छे अर्थ में प्रयुक्त होने लगता है। इस तरह परिवर्तित अर्थ पहले से ज्यादा अच्छा-उन्नत होता है। ‘साहस’ (पहले संस्कृत में लूट, हत्या, चोरी आदि के अर्थ में) शब्द अर्थपरिवर्त, अर्थोत्कर्ष का उदहारण है, इसी तरह एक शब्द ‘मुग्ध’ का अर्थोत्कर्ष – “संस्कृत में इस शब्द का प्रयोग मूर्ख के अर्थ में होता था। धीरे-धीरे इसके अर्थ में परिवर्तन आया और मोहित-आकर्षित और भोलेपन के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा।”

v अर्थापकर्ष (Deterioration of meaning) :

अर्थोत्कर्ष की तरह अर्थापकर्ष भी अर्थादेश का एक भेद है। इसमें अर्थोत्कर्ष से बिल्कुल विपरीत स्थिति होती है। अर्थ का अपकर्ष होना, अवनत होना.. अर्थापकर्ष कहलाता है। पहले वाला अर्थ अच्छा होता है पर बदलाव वाला अर्थ बुरा होता है – यानी अर्थ का अच्छे से बुरा होना। असुर, पाखण्ड, जुगुप्सा, अभियुक्त जैसे शब्दों का अर्थपरिवर्तन, अर्थापकर्ष के अच्छे उदहारण हैं। एक शब्द है – महाजन “ महाजन श्रेष्ठ व्यक्तियों को कहते थे, पर आज उन लोगों को महाजन कहा जाता है जो रूपये-पैसे का लेन-देन करते हैं और सूद के द्वारा धन कमाया करते हैं। इस प्रकार पहले महाजन शब्द श्रद्धावान के रूप में और अब सूदखोर घृणावाची हो गया है।”

 

 
डॉ. पूर्वा शर्मा
वड़ोदरा 


व्यंग्य

 


1. अग्निपरीक्षा

नरेंद्र कोहली

उस दिन मेरा मन कुछ और ही हो रहा था, इसीलिए उन्हें गुड मार्निंगन कह कर “जय रामजी की” कह बैठा ।

वे बिगड़ उठे, “तुम्हें कुछ पता भी है कि मुझे राम जी के कारण अपनी पढ़ी-लिखी पत्नी और उसकी सहेलियों से कितनी डाँट सुननी पड़ी।”

मैं ‘पढ़ी-लिखीविशेषण पर विचार कर ही रहा था कि उन्होंने गोला दागा, “बताओ राम जी ने सीता जी की अग्निपरीक्षा क्यों ली? हम तुम तो ऐसा काम नहीं करते।” उन्होंने अपनी पत्नी के शब्द दुहरा दिए, “अपनी पत्नी के साथ ऐसा व्यवहार करना चाहिए क्या?”

मेरे पास इस प्रश्न का कोई मौलिक समाधान नहीं था। विनोद में कहना होता तो कह देता कि सहस्रों पत्नियाँ प्रतिदिन अपने पतियों की अग्निपरीक्षा लेती रहती हैं। कभी एक पति ने ऐसी परीक्षा ले ली तो कौन-सा आकाश फट पड़ा। किंतु यह समय विनोद का नहीं था और यह प्रश्न तो अब फैशन बन चुका है। कोई भी राह चलता अनपढ़ व्यक्ति, जो स्वयं को पढ़ा लिखा मानता है, ऐसी फबती कस देता है। राम जी के चरित्र में दोष निकाल कर स्वयं को महान सिद्ध करने में देर ही कितनी लगती है। एक बार लखनऊ विश्वविद्यालय की बी. ए. की एक छात्रा ने अपने पत्र में मुझे लिख भेजा था कि सीता त्याग के लिए वह राम जी को कभी क्षमा नहीं करेगी। राम जी के चरित्र की महानता से पूर्णत: अनभिज्ञ उस छात्रा का अहंकार मुझ से सहा नहीं गया और मैंने उसे लिख भेजा, “राम जी जब तुमसे क्षमा माँगने आएँ तो क्षमा मत करना ।

पर आज बात पत्र की नहीं थी। वे मेरे सामने खड़े मुझ से उत्तर माँग रहे थे। शायद घर लौटते ही उन्हें अपनी पत्नी को उत्तर देना था। वैसे भी राम जैसे चरित्र के साथ हँसी-ठट्ठा करना उचित नहीं था। बात गंभीर थी।

एक बार यही प्रश्न किसी ने स्वामी विवेकानंद से पूछा था। तो स्वामी जी ने कहा था, “राम जी भगवान थे। वे सीता माता को अग्नि में भी बिना किसी कष्ट के जीवित रख सकते थे, इसीलिए उन्होंने संसार के सामने सीता माता की पवित्रता प्रमाणित करने के लिए अग्नि परीक्षा ली।”

उस प्रश्नकर्ता को यह उत्तर स्वीकार नहीं था। उसे लगा कि स्वामी जी उसे टाल रहे हैं। उसने कहा, “हम इस बात को नहीं मानते। राम जी मनुष्य के रूप में आए थे तो उन्हें मनुष्य की क्षमता के भीतर ही रखना होगा।”

स्वामी जी ने कहा था, “आप ठीक कह रहे हैं। मनुष्य की क्षमता के भीतर रख कर सोचिए। यदि कोई मनुष्य किसी दूसरे मनुष्य को आग में झोंक कर उसकी परीक्षा ले सकता है और दूसरा व्यक्ति जलती आग में से बिना झुलसे सकुशल बाहर आ सकता है, तो राम जी ने सीता माता की परीक्षा ली।”

यही तो बात है।” प्रश्नकर्ता ने कहा, “मनुष्य आग में से जीवित बच कर नहीं निकल सकता।”

ठीक है।” स्वामी जी ने कहा, “आपके तर्क से चलते हैं। इसीलिए न राम जी ने परीक्षा ली, न सीता माता ने परीक्षा दी । यह तो एक कवि का काव्य कौशल भर है।”

यह कैसे हो सकता है।” वे भड़क उठे, “जब रामायण में लिखा है कि राम जी ने अग्निपरीक्षा ली तो हम कैसे मान लें कि वह कवि का कौशल भर है।”

अरे एक ओर हो जाओ न भाई।” मैंने पूरे आत्मबल के साथ कहा, “या तो राम जी को भगवान मानो या मत मानो। वे भगवान थे तो उनमें अपनी पत्नी क्या, किसी को भी अग्नि में जीवित रखने का सामर्थ्य था और यदि वे भगवान नहीं थे, मनुष्य थे-तो न मनुष्य ऐसी परीक्षा ले सकता है और न कोई मनुष्य ऐसी परीक्षा दे सकता है।”

वे चुप हो गए। सहमत हुए या नहीं हुए- मैं नहीं जानता। पर मैं तब से सोच रहा हूँ कि हमें ऐसे और भी बहुत सारे प्रश्नों पर विचार करना चाहिए। किसी की भी परीक्षा वैसी ही होती है, जैसे उस युग में प्रचलित परीक्षाएँ होती हैं। क्या रामकथा के समय में सत्य और झूठ का निर्णय करने के लिए अग्निपरीक्षा का प्रचलन था? क्या किसी और स्त्री या पुरुष ने भी ऐसी कोई परीक्षा दी थी? या सचमुच यह कवि का चमत्कार ही था? काव्य-रूढ़ि भी हो सकती है, कवि का चमत्कार भी हो सकता है और कवि की राम के ईश्वरत्व में दृढ़ आस्था भी हो सकती है। तब इंद्र, वरुण, कुबेर, अग्नि, वायु, सूर्य और धरती साकार-सशरीर प्रकट भी होते थे। उस युग की चिंतन पद्धति अथवा घटना पद्धति कुछ और ही थी। तो हम अपनी अक्षमताओं को उन पर थोप कर स्वयं परेशान क्यों होते हैं और साथ ही उन महान चरित्रों के प्रति अपनी अश्रद्धा प्रकट क्यों करते हैं?


2. हाहाकार


वे हिन्दी की प्रसिद्ध लेखिका हैं। पिछले दिनों एक शिष्टमंडल ले कर प्रधान मंत्री से मिली थीं और हिन्दी के लिए ही नहीं, उसकी बोलियों के लिए भी, कुछ करने का आग्रह और अनुरोध कर के आई थीं।

आज गोष्ठी की अध्यक्षता वे ही कर रही थीं। हिन्दी के भविष्य को ले कर वे आज भी बहुत चिंतित थीं। उन के भाषण का मूल विचार ही यही था। अगली पीढ़ी यदि हिन्दी का बहिष्कार कर देगी तो हिन्दी कैसे बचेगी। हमारे साहित्य का भविष्य क्या होगा? पुस्तकें बिकेंगी नहीं। पत्रिकाएँ कोई ख़रीदेगा नहीं। अंततः दुखी हो कर वे बड़े आवेश में बोलीं, “मेरे तो अपने बच्चे ही हिन्दी की कोई पुस्तक पढ़ने को तैयार नहीं हैं।”

वे मंच से उतर कर नीचे आईं और चाय की मेज़ की ओर चलीं तो रामलुभाया भी उनके साथ हो लिया।

आपने अपने बच्चों को किस अवस्था में पाठशाला भेज दिया था?” रामलुभाया ने पूछा।

उन्होंने वक्र दृष्टि से रामलुभाया की ओर देखा, “पाठशाला में पढ़ें तुम्हारे बच्चे। मेरे बच्चे क्यों पाठशाला में पढ़ेंगे। वे तो पब्लिक स्कूल में पढ़े हैं।”

चलिए आप उन्हें पब्लिक स्कूल कह कर प्रसन्न हैं तो वही सही।” रामलुभाया बहुत धैर्य से बोला । पर हैं तो वे भी पाठशालाएँ ही। तो आपने किस अवस्था में अपने बच्चे को उस पब्लिक स्कूल में भेज दिया था? “

लेखिका का मन बहुत ख़राब हो चुका था। पाठशाला में पढ़ने के नाम से वे स्वयं को बहुत अपमानित अनुभव कर रही थीं। मन नहीं था कि रामलुभाया की शक्ल भी देखें। फिर भी सोचा कि शालीनता का पल्ला नहीं छोड़ना चाहिए ।

तीन वर्ष की अवस्था में सभ्य घरों के बच्चे अपने स्कूल जाने लगते हैं।”

“स्कूल में तो बच्चे अंग्रेज़ी में ही सब कुछ पढ़ते होंगे?”

और क्या संस्कृत में पढ़ेंगे।” उनका मुँह घृणा से कड़वा गया।

मेरा तात्पर्य है कि आप उनको स्कूल भेजने से कुछ पहले ही से अंग्रेज़ी पढ़ा रही होंगी।”

तो क्या बिना पढ़ाए ही अंग्रेज़ी आ जाती उनको?” हिन्दी की लेखिका रुष्ट थीं ।

तो आप के बच्चे ढाई वर्ष की अवस्था से अंग्रेज़ी पढ़ रहे हैं?”

और नहीं तो क्या ।” लेखिका ने गर्व से रामलुभाया की ओर देखा ।

रामलुभाया मुस्कराया, “आप अपने बच्चों को उनके शैशव से अंग्रेज़ी पढ़ाएँगी तो बड़े हो कर वे हिन्दी की पुस्तकें किसी दैवी प्रेरणा से पढ़ेंगे देवी जी?”

क्या मतलब?” वे चिढ़ कर बोलीं।

आपने कभी उनके हाथ में हिन्दी की पुस्तक नहीं दी। शायद कभी उनसे हिन्दी में बातचीत भी नहीं की तो उनकी अंग्रेज़ी भक्ति का पापी कौन है?” रामलुभाया उनकी ओर देख रहा था।

लेखिका रामलुभाया को छोड़ कर मेरे पास आ गईं, “यह कौन बदतमीज़ी है?”

रामलुभाया है।” मैंने बताया, “वह भी हिन्दी के लिए चिंतित रहता है।”

खाक चिंतित रहता है। मेरे बच्चों का कैरियर तबाह करना चाहता है।” वे बोलीं ।

आपकी भाषा में उर्दू की शब्दावली प्रचुर मात्रा में है।” मैंने कहा।

हाँ! उर्दू बहुत मीठी ज़बान है।” उन्होंने चटखारा लिया, “एक मेरी ही स्टेट है इस देश में जहाँ सरकारी ज़बान उर्दू है।”

मेरी आँखें फटी की फटी रह गईं। ये हिन्दी की लेखिका नहीं जानती कि कश्मीर में से कश्मीरी, डोगरी और लद्दाखी समाप्त कर वहाँ उर्दू की प्रतिष्ठा की जा रही है। वह जो हिन्दी और उसकी बोलियों के लिए कुछ करने का आग्रह ले कर प्रधान मंत्री के पास गई थीं, अपने प्रदेश पर इसलिए गर्व कर रही हैं कि वहाँ भारतीय मूल की सारी भाषाओं और बोलियों पर राजनीतिक कारणों से उर्दू थोपी जा रही है।

आपका चिंतन तो बहुत गंभीर है। मैंने कहा, “पर आप ने विचार नहीं किया कि कश्मीर में वहाँ की सारी बोलियों की हत्या क्यों की जा रही ।”

 अरे वह सब क्या सोचना।” वे हँस कर बोलीं, “आप को एक शेर सुनाऊँ।

पर मैं उनका शेर नहीं सुन पाया। मेरे मन में कश्मीरी, डोगरी और लद्दाखी का हाहाकार गूँज रहा था।


नरेंद्र कोहली

हाइगा

 






हाइकु

 


हाइकु


 1

खिली बगिया

संभाली थीं उसने

नन्हीं कलियाँ !

मन में शोर

भागी है उठकर

नैनों से नींद ।

 3

ऊषा मगन

ले मोतियों के हार

करे शृंगार !

 4

थामो कमान

तरकश से तीर

स्वयं न चलें ।

 5

काव्य-कुसुम

प्रेम की सुगंध में

भीगे-से शब्द !

 6

उड़ी पतंग

नाच रही नभ में

डोर बँधी है ।

भरें उमंग

खिल उठें मन में

खुशी के रंग ।

फिक्र में जागे

नयनों में सपने

नहीं सजते ।

दिया उसने

बाहों में भरकर

सारा आकाश ।

 

डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा

 

संस्मरण

 


डॉ. शिवकुमार मिश्र : जैसा मैंने देखा : जैसा मैंने जाना

-        डॉ. योगेन्द्र नाथ मिश्र 

1

डॉ. शिवकुमार मिश्र से मेरी पहली मुलाकात 1 मार्च, 1988, की शाम को, उनके निवास-स्थान पर हुई थी। उस समय वे सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर, के स्टॉफ क्वार्टर (बी-3) में रहते थे। मैं रिसर्च एसोशिएट पद (भाषाविज्ञान) का इंटरव्यू देने के लिए बनारस से आया था। इंटरव्यू 2 मार्च को था। पहली ही मुलाकात में मैं मिश्रजी के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हो गया था। उनका व्यक्तित्व ही ऐसा था। कई वर्षों के बाद साइंस के एक अध्यापक ने मुझसे कहा था कि मिश्रजी का व्यक्तित्व ऐसा है कि अगर वे सामने से चले आ रहे हों, तो उन्हें देखकर, परिचय न होते हुए भी उनसे मिलने की और बात करने की सहज ही इच्छा होती है।

मैं ही अकेला उम्मीदवार था। मेरी नियुक्ति निश्चित थी। दूसरे दिन मिश्रजी ने बताया कि इस महीने के अंत तक आप आने के लिए तैयार रहिएगा। तब तक आपको नियुक्ति-पत्र पहुँच जाएगा। 30 मार्च, 1988, को मैं सरदार पटेल विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के साथ विधिवत् जुड़ गया। विभाग बहुत बड़ा था। कुछ पुराने तथा ज्यादातर नए, 15-16 लोगों का विभाग था। विभाग का अपना तीन मंजिला स्वतंत्र भवन था। हालाँकि,  वह सिर्फ हिंदी विभाग का भवन नहीं है। वह संस्कृत, हिंदी, गुजराती तथा अंग्रेजी विभागों का संयुक्त भवन है, जिसमें हिंदी विभाग का हिस्सा बहुत ज्यादा है, जो मिश्रजी द्वारा यूजीसी से लाई हुई ग्रांट से बना है।

जिस समय मैं ऐसे हिंदी विभाग का हिस्सा बना, उस समय विभाग में सदा उत्सव का माहौल बना रहता था। वर्षों से विभाग स्पेशल असिस्टेंस के अंतर्गत काम कर रहा था। आए दिन सेमिनारों के आयोजन हुआ करते थे। बहुत बड़ी-बड़ी हस्तियों का आना-जाना लगा रहता था। लेकिन विभाग के ऐसे माहौल में मेरी शुरुआत कुछ अच्छी नहीं हुई, जिसका खामियाजा मुझे आने वाले समय में भुगतना पड़ा। मैं तो बनारस का संस्कार लेकर वल्लभ विद्यानगर पहुँचा था - धोती-कुर्ता, कुमकुम का टीका, चोटी, जनेऊ के साथ। जबकि सारा विभाग मार्क्सवादी (?)। उस समय विभाग में एक क्लर्क थे गंभीर गढ़वी। उनके पड़ोस में मुझे रहने के लिए कमरा मिला था। मेरी वेशभूषा देखकर एक दिन उन्होंने मुझसे कहा : ‘पंडितजी, सारा विभाग मार्क्सवादी है। जरा सँभलकर रहिएगा।’ उस समय मेरे लिए ‘मार्क्सवाद’ या ‘मार्क्सवादी’ बड़े अजीब शब्द थे। एक तरह से गाली। मुझे लगता है, बहुतों के लिए आज भी ऐसा ही होगा। उस समय तक मैं ‘मार्क्स’ या ‘मार्क्सवाद’ के बारे में नाम के सिवाय कुछ भी नहीं जानता था। मेरे मन में सिर्फ इतना ही था कि ‘मार्क्सवादी’ अजीब किस्म के प्राणी होते हैं।

बनारस के अस्सी चौराहे पर मैंने ‘मार्क्सवादियों’ तथा ‘गैर-मार्क्सवादियों’ को भिड़ते हुए देखा था। उस समय मेरे मन में यही छाप थी कि जो लोग ईश्वर को नहीं मानते, परंपरा को नहीं मानते, नाम में से जाति सूचक शब्द हटा देते हैं या बहुत उल्टी-सुल्टी हरकतें करते हैं, वे ‘मार्क्सवादी’ होते हैं। मेरे परिचय में कई ऐसे ब्राह्मण या ठाकुर थे (और आज भी हैं), जो ‘प्रोग्रसिव’ कहलाने के लिए अपने नाम से जाति सूचक शब्द  हटाए हुए थे।

2

एक प्रसंग का उल्लेख यहाँ करना चाहता हूँ। जिस समय डॉ. अवधेश प्रधान की नियुक्ति काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में हुई थी, उस समय वह नियुक्ति चर्चा का विषय बनी थी। हम मित्रों में अस्सी (बनारस) पर अजीब ढंग से चर्चाएँ होती थीं। मैं उस समय से अवधेशजी का नाम जानता हूँ - मिला कभी नहीं। उन्हें देखा भी नहीं है। (टिप्पणी – करीब तीन वर्ष पहले बीएचयू के हिंदी विभाग में अवधेशजी से मुलाकात हुई थी। आश्चर्य कि अवधेशजी हमारी कल्पित धारणा के बिल्कल विपरीत लगे। बड़े प्यारे व्यक्ति। हमारे बीच काफी बातें हुई थीं।) उस समय उनके बारे में यह कहा जाता था कि वे बहुत प्रखर बुद्धि के व्यक्ति हैं, लेकिन मार्क्सवादी हैं। उनकी नियुक्ति के पीछे उनके मार्क्सवादी होने की चर्चा अस्सी पर होती थी। मैं तो काशी विद्यापीठ का हिंदी का विद्यार्थी था। लेकिन बीएचयू के हिंदी विभाग की चर्चाएँ हमारे बीच होती रहती थीं।

आगे चलकर मैंने बीएचयू से भाषाविज्ञान में एम. ए. तथा पी-एच. डी. की। मार्क्सवाद तथा मार्क्सवादियों के बारे में ऐसी धारणाएँ लेकर मैं सरदार पटेल विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में पहुँचा था। अभी मैं ऐसे माहौल को समझ पाता या उसके अनुकूल होने की कोशिश कर पाता कि उसके पहले ही मेरे सहकर्मी भाई लोगों ने मेरी हालत चिड़ियाघर से आए हुए किसी प्राणी जैसी बना दी। मैं उनके लिए मनोरंजन का विषय बन गया। वे लोग मुझे तरह-तरह के विषयों पर छेड़ देते - खास करके धर्म या ईश्वर को लेकर - और मैं उत्तेजित हो उठता। धीरे-धीरे मेरी स्थिति विवादास्पद बन गई। झूठी-सच्ची कहानियाँ मिश्र के पास पहुँचने लगीं। वे मुझे अपने कक्ष में बुलाते - समझाते - डराते भी। लेकिन यह सिलसिला रुकने के बजाय अधिकाधिक खराब होता गया। मैं न बुरा तब था, न आज हूँ। मुझे तो बहुत बाद में पता चला कि कुछ लोग तो सिर्फ मनोरंजन के लिए ऐसा करते थे; परंतु एक-दो मित्र ऐसे थे, जो विभागाध्यक्ष यानी मिश्रजी की नजर में मुझे गिराकर अपना रास्ता साफ करना चाहते थे। वे अपनी चाल में सफल रहे। इसके लिए चरित्र-हनन तक का सहारा लिया गया। लोगों ने मुझे कूड़ादान बना दिया। हर रोज मेरे बारे में नई-नई कहानियाँ गढ़ी जाने लगीं। मिश्रजी के सामने मेरी बातों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया जाने लगा। मेरी चोटी, तिलक, जनेऊ आदि पर सामूहिक चर्चाएँ होने लगीं। हर रोज ढाई बजे सब लोग चाय पर बैठते। उस समय मेरी चर्चा एक छोटे सेमिनार का रूप ले लेती। आज यह कल्पना करके भी सिहर उठता हूँ कि यह सब कुछ मैंने कैसे सहा! मिश्रजी के सेवा-निवृत्त होने के बाद ‘तुलनात्मक साहित्य’ में प्रोफेसर के रूप में डॉ. महावीरसिंह चौहान आए। एक दिन बरबस उनके मुख से निकल गया - ‘पंडितजी, ऐसे वातावरण में इतने वर्षों तक आप रहे कैसे?’

मैं भाषा अनुभाग में शोध सहायक था और तीन रिसर्च फेलो थे। सबको भाषावैज्ञानिक कार्य करना था। लेकिन भाषाविज्ञान से उनका दूर-दूर तक का रिश्ता न था। परंतु मैं भाषाविज्ञान में एम. ए. और पी-एच. डी. था। मित्रभाव से मैंने उनसे कहा कि आप लोग चिंता मत कीजिएगा। कोई कठिनाई हो तो मुझे बताइएगा। बस! यह बात मिश्रजी के पास पहुँच गई। उन्होंने मुझे बुलाकर धमकाया कि आप लोगों पर अपने भाषाविज्ञान के ज्ञान का रोब जमाते हैं।

 

मेरी परिस्थिति का अंदाज आप इसी बात से लगा सकते हैं कि एक वरिष्ठ प्रोफेसर थे डॉ. श्रीराम नागर, जो वरीयता में मिश्रजी के बाद आते थे। वे भी बहती गंगा में हाथ धोने से अपने को नहीं रोक सके थे। मैं नागरजी के पड़ोस में रहता था। मेरे लिए कमरा नागरजी ने ही दिलवाया था। ‘महाभारत’ सीरियल देखने के लिए मैं उनके यहाँ हर रविवार को या वैसे भी जाया करता था। उसी बीच अमेरिका से उनके बेटी-दामाद आ गए। वे लोग एक महीने तक रहे। उनसे मिलने आने वालों की भीड़ लगी रहती थी। ऐसे में, मैं उस दौरान, उनके यहाँ नहीं गया। एक दिन मिश्रजी के कक्ष में सब लोग बैठे थे और मेरे बारे में बातें चल रही थीं। उस समय मैं बनारस गया हुआ था। मिश्रजी की यह शिकायत थी कि मेरे यहाँ योगेन्द्रनाथ मिश्र नहीं आते। यह सुनकर छूटते ही नागरजी बोले - ‘मेरे यहाँ भी एक महीने से नहीं आए।’ बनारस से लौटने के बाद मुझे इस बात की जानकारी हुई, तो मैंने डॉ. नागरजी से सीधे बात की और पूरी बात बताई। वे अपनी गलती भी मान गए।

यहाँ यह बता दूँ कि उस समय तक मेरी ‘इमेज’ इतनी खराब हो गई थी कि मिश्रजी भरसक मुझसे बात भी नहीं करते थे, मेरी तरफ देखने से भी परहेज करते थे। उनके निकट पहुँचने की मैंने बहुत कोशिश की थी। वे भले ही मुझे पसंद नहीं करते थे, परंतु उनके व्यक्तित्व में इतना आकर्षण था कि मैं उनके निकट पहुँचना चाहता था।

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मिश्रजी जून 1991 में सेवा-निवृत्त हुए। सेवा-निवृत्त होते ही विभाग से उनका नाता धीरे-धीरे टूट गया; अथवा यह भी कह सकते हैं कि तोड़ दिया गया। जो लोग उनके आगे-पीछे मधुमक्खियों की तरह लगे रहते थे, वे लोग धीरे-धीरे उन्हें भूल गए। ऐसे लोगों के दो वर्ग मैं बनाना चाहता हूँ। एक वे जो पुराने थे, जिनके ऊपर मिश्रजी बैठे थे।

मिश्रजी की नियुक्ति जब 1977 में हुई थी, तब विभाग के एक वरिष्ठ अध्यापक श्री सुरेशचंद्र त्रिवेदी भी प्रोफेसर पद के उम्मीदवार थे। पता नहीं क्यों विश्वविद्यालय ने उन्हें इंटरव्यू में बुलाया ही न था। यह पता करके ही कि विभाग से कोई उम्मीदवार नहीं है, मिश्रजी इंटरव्यू में गए थे। मिश्रजी प्रोफेसर और अध्यक्ष पद पर नियुक्त हो गए। विभाग की परिस्थिति यह थी कि मिश्रजी ख्यात वामपंथी थे और विभाग के सभी लोग - खास करके डॉ. श्रीराम नागर दक्षिण पंथी थे - आर. एस. एस. वाले। जाहिर है ऐसे व्यक्ति को कोई भी सहजता से स्वीकार नहीं करेगा। मामला बहुत गरम था। मिश्रजी अक्सर बताया करते थे कि मैंने सबको साथ में बिठाया और कहा कि मैं तो छुट्टी लेकर आया हूँ। मैं वापस जा सकता हूँ। परंतु मेरे चले जाने के बाद त्रिवेदीजी, क्या आप प्रोफेसर बन जाएँगे। त्रिवेदीजी ने कहा - नहीं।

जब कोई बाहर से ही आने वाला है, तो मैं क्या बुरा हूँ? क्यों न हम सब लोग मिलकर विभाग को आगे बढ़ाएँ! यह सही है कि हमारी विचारधाराओं में कोई मेल नहीं है। हमारी राजनीति तो चलती रहेगी; परंतु विभाग के बाहर।‘ मिश्रजी ने उन लोगों से - खासकर नागरजी से - यह भी कहा कि मेरे लिए पाने को कुछ शेष नहीं है। सर्वोच्च डिग्री मुझे मिल चुकी है (वे तब तक डी. लिट्. हो चुके थे), सर्वोच्च पद (प्रोफेसर/हेड) मिल चुका है; मेरी कुछ महत्त्वपूर्ण पुस्तकें भी आ चुकी हैं; अब मैं चौबीस घंटे राजनीति कर सकता हूँ। परंतु इससे विभाग का कुछ भला नहीं होगा। क्यों न हम राजनीति बाहर करें, और विभाग को मिल-जुलकर चलाएँ। इसका बहुत असर उन लोगों पर पड़ा। उन लोगों ने कहा कि विश्वास मिलेगा, तो जरूर विश्वास देंगे। मिश्रजी बताते थे कि उसके बाद तो उन लोगों का पूरा विश्वास और सहयोग मुझे मिला। मैं हफ्ते-हफ्ते के लिए बाहर रहता था, मेरी चिट्ठियाँ मेरे टेबुल पर पड़ी रहती थीं। वे लोग चाहते, तो मुझे परेशान कर सकते थे। परंतु ऐसा कभी नहीं हुआ। बाद में तो मिश्रजी के प्रयत्नों तथा उनकी कार्य-क्षमता की वजह से यूजीसी की विविध परियोजनाओं की ऐसी भरमार 3  हुई कि सरदार पटेल विश्वविद्यालय का एक छोटा-सा हिंदी विभाग राष्ट्रीय स्तर पर ख्यात हो गया।

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इतना होने के बावजूद मुझे ऐसा लगता है कि उन लोगों में पराजय का भाव जरूर रहा होगा। इसी लिए निवृत्त होते ही मिश्रजी को वे लोग भूलने लगे और भूल गए।

अनुगामियों में दूसरा वर्ग उन महाशयों का है, जिन्हें न तो मिश्रजी की विद्वत्ता से कुछ लेना-देना था, न उनकी आदमीयत से। मिश्रजी ने कम-अधिक सबका भला किया। परिस्थितिवश किसी का भला नहीं भी हो पाया - यह भी सच है। लेकिन कोई यह नहीं कह सकता कि उन्होंने इरादा पूर्वक किसी का बुरा किया। उनकी उपेक्षा और बेरुखी के चलते मेरा सारा भविष्य ही खराब हो गया; फिर भी मैं यह नहीं कह सकता या ऐसा न पहले मानता था और न आज मानता हूँ कि मिश्रजी ने ऐसा जानबूझ कर किया था। भाई लोगों ने ऐसी धुंध फैला दी थी कि मिश्रजी जैसे भोले व्यक्ति परिस्थिति को समझ नहीं सकते थे। यह भी कहा जा सकता है कि मिश्रजी उस कालखंड में जिस प्रभा-मंडित तथा प्रभावपूर्ण स्थिति में थे, उसमें ऐसा होना स्वाभाविक था। उस जमाने की स्मृतियाँ आज भी मेरे मन में ताजी हैं। क्या रुतबा था मिश्रजी का! यूनिवर्सिटी स्टाफ क्वार्टर और विश्वविद्यालय के बीच मुश्किल से एक-डेढ़ किमी. का फासला है। मिश्रजी जब अपने ‘बी-3’ क्वार्टर से चलकर विश्वविद्यालय के गेट तक आते थे, तभी उनकी जावा की ‘धक्-धक्’ की आवाज विभाग तक पहुँच जाती थी और विभाग के लोग उनका स्वागत करने के लिए स्पर्धा में जुट जाते थे। मोटर साइकिल से उतरते ही कौन सबसे पहले उनकी मोटर साइकिल पार्क करेगा, कौन उनके हाथ से ब्रीफकेस पकड़ेगा - इसकी होड़ लग जाती। यही दृश्य जब वे लगभग तीन बजे विभाग से निकलते, तब दिखाई पड़ता। कौन सबसे पहले उनकी मोटर साइकिल स्टार्ट करके स्टेयरिंग उनके हाथ में पकड़ाए, इसकी होड़ लग जाती। मेरी तो कोई हैसियत ही न थी। मैं तो, कार्टूनिस्ट लक्ष्मण के ‘आम आदमी’ की तरह चुपचाप एक किनारे खड़ा यह सारा दृश्य देखा करता। बड़ा अजीब-सा लगता यह सब कुछ मुझे। आज नहीं, मैं उस समय भी यह सोचा करता था कि कितना बड़ा छलावा है यह सब कुछ! यूजीसी टेस्ट पास करके आए हुए मिश्रजी के एक शोधछात्र थे जगन्नाथ पंडित (आज वे एक कॉलेज में प्राध्यापक हैं)। वे भी विभाग के उपेक्षित प्राणी थे। मेरी जैसी उनकी स्थिति नहीं थी। परंतु हम दोनों समदुखिया थे। मिश्रजी की सेवा-निवृत्ति के कुछ पहले, बात-बात में मेरे मुँह से निकल गया था कि ‘जगन्नाथजी, देखिएगा, मिश्रजी के पास उस समय सिर्फ मैं रहूँगा, जब उनके पास दूसरा कोई नहीं होगा।’ मैं अक्सर यह सोचता हूँ कि इतना बड़ा सत्य मेरे मुँह से कैसे निकल गया था? जगन्नाथजी कभी-कभी वह बात याद दिलाते हैं। वह दूसरा वर्ग, मिश्रजी को संभवतः इसलिए भूल गया; क्योंकि मिश्रजी उन लोगों के लिए अब पायदान का काम करने की स्थिति में नहीं थे। यहाँ तक कि कुछ लोग सामने पड़ने पर नमस्कार करना भी भूल गए थे। 

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मेरे और मिश्रजी के संबंध का दूसरा दौर शुरू हुआ सन् 1996 से। एक दिन मुझे सूचना मिली कि मिश्रजी ने मुझे याद किया है। इस सूचना से मेरे अंदर हलचल-सी मच गई - मानो किसी सरोवर के शांत जल पर कोई भारी पत्थर पड़ा हो। मेरी पूरी रात उत्सुकता मिश्रित बेचैनी में गुजरी। जब वे अध्यक्ष थे, तब उनका बुलावा आते ही मैं काँप उठता था। जरूर कोई शिकायत हुई है। अब तो अध्यक्ष नहीं थे। क्यों बुलाया होगा? सुबह में मैं उनके घर पहुँचा। उस समय वे आजादी की पचासवीं वर्ष गाँठ पर इफ्को द्वारा प्रकाशित होने वाली किताब ‘आजादी की अग्निशिखाएँ’ का संपादन कर रहे थे। उसकी प्रेस कॉपी तैयार करने के लिए किसी ऐसे व्यक्ति की जरूरत थी, जो शुद्ध और साफ अक्षरों में कॉपी तैयार कर सके। उनकी छोटी बेटी शशिलेखा ने अथवा दामाद डॉ. अरुणप्रकाश मिश्र ने उन्हें मेरा नाम सुझाया था।

थोड़े संकोच के साथ उन्होंने यह प्रस्ताव मेरे सामने रखा। मुझे तो मन की मुराद मिल गई - अंधा क्या चाहे दो आँखें। मैं तो वर्षों से उनके निकट पहुँचने की अभिलाषा लिए बैठा था। मैं फिर स्पष्ट कर दूँ कि उनकी सारी बेरुखी के बावजूद मेरे मन में उनके लिए भारी आकर्षण था। मैंने ऊपर जैसा कहा कि निवृत्त होने के बाद सरदार पटेल विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से उनका रिश्ता कट गया था। वे एकदम से अकेले पड़ गए थे। बाजार से गुजरते हुए जब वे मुझे दिखाई पड़ते, तब उनका उतरा हुआ चेहरा देखकर मैं आहत हो उठता। पता नहीं कैसे मैं उनकी पीड़ा को भाँप जाता। मैं बहुत चाहता कि मैं उनके अकेलेपन को दूर करूँ। परंतु उन तक पहुँचने के मेरे सारे रास्ते बंद थे। मिश्रजी की उस समय की बेबसी और मेरी मनःस्थिति मेरी दो कविताओं में व्यक्त हुई है। एक कविता 23/05/93 को बनी थी और दूसरी 25/05/93 को बनी थी। मैं स्पष्ट कर दूँ कि मैं कवि नहीं हूँ। परंतु कभी-कभी कुछ मनःस्थितियाँ कविता का आकार ले लेती हैं। ऐसी ही किन्हीं खास मनःस्थितियों में बनीं ये दो कविताएँ बहुत कुछ कह जाती हैं। मैं यह मानता हूँ कि इन कविताओं की भाषा मिश्रजी के प्रति मेरे आदर-भाव को आहत करती हैं; लेकिन उसे कविता की भाषा मानकर ज्यों का त्यों यहाँ दे रहा हूँ ः

(1) 

मैं जब भी उस आदमी के सामने पड़ता हूँ उसके चेहरे पर

आड़ी-तिरछी रेखाएँ उभर आती हैं, 

उसकी धनुषाकार भौंहों में

कुछ हरकत होने लगती है

वक्राकार होंठों में कुछ बुदबुदाता है वह,

मानो मेरे लिए शुभकामनाएँ (?) कर रहा हो।

किंतु जब मैं उसकी आँखों में देखता हूँ

तो वहाँ एक ठहरी हुई बेबसी नजर आती है।

जो गहरी होकर एक सन्नाटे का रूप ले चुकी है

मैं उस सन्नाटे को तोड़ना चाहता हूँ

असफल कोशिश भी कर चुका हूँ कई बार

फिर भी सोचता हूँ

काश! मैं उस सन्नाटे को तोड़ पाता!

(2) 

सामने से चले आ रहे -

परम प्रतापी उस पुरुष को मैं जानता हूँ

अब उसकी जिंदगी क्षितिज तक फैला रेगिस्तान है;

जहाँ कोई बुलेट, जावा या राजदूत नहीं जाती,

जीप या कार भी नहीं जाती

पदचाप भी जहाँ क्षणजीवी होते हैं

फिर भी वह आदमी

अपने बूढ़े कंधों पर अपने अतीत को लटकाए

बेबस निगाहों से इधर-उधर देखते हुए

चुपचाप चलता रहता है।

इन कविताओं के माध्यम से जो कुछ व्यक्त हुआ है, वह मिश्रजी के जीवन का एक कटु दौर था।

6

खैर, मिश्रजी के नजदीक पहुँचने का मेरा रास्ता खुल गया। कुछ महीनों में प्रेस कॉपी तैयार करने का काम पूरा हो गया। परंतु उनके यहाँ जाने-आने का सिलसिला जारी रहा। सप्ताह में दो-तीन चक्कर लगने लगे। लेकिन ज्यादा देर तक बैठ नहीं पाता था। दस-पंद्रह मिनट से ज्यादा नहीं बैठ पाता था। मिश्रजी कुछ खास बात नहीं कर पाते थे। फिर भी, न जाने क्यों, अपने स्वभाव के विपरीत उनसे मिलना मैंने जारी रखा। मुझे उनके अकेलेपन को दूर करने की धुन सवार थी। मैं मिश्रजी के मन की हालत समझ सकता था। जहाँ हम दोनों के बीच छत्तीस का संबंध था, वह एकाएक तिरसठ का संबंध कैसे बन सकता था?

समय बीतता गया और बरफ की चट्टान पिघलती गई। धीरे-धीरे छोटे-मोटे काम मैं माँगने लगा। पहले पोस्ट का काम; फिर टिकट रिजर्वेशन का काम; फिर लाइट बिल, टेलीफोन बिल जमा करने का काम ... बाजार से कोई सामान लाना आदि-आदि ...। ज्यों-ज्यों उस घर में तथा मिश्रजी के मन मेरे लिए जगह बनने लगी, त्यों-त्यों अम्मा के मन की दुविधा बढ़ने लगी। कई बार अम्मा ने अकेले में मुझसे कहा कि मिश्राजी, मैं पहले ही बता देती हूँ कि कोई उम्मीद लेकर मत आना। अब इनके पास कुछ नहीं है। अब ये रिटायर हो चुके हैं। कुछ दे नहीं सकते। मैंने अम्मा को आश्वस्त किया कि अम्मा, मेरे स्वभाव में ही स्वार्थ की भावना नहीं है। कहने-सुनने में यह बात अटपटी लग सकती है; परंतु यह सच है। समय बीतता गया। यह पता ही नहीं चला कि मैं कब मिश्रजी की कमजोरी बन गया। मैं उस परिवार का तीसरा सदस्य (एक खुद मिश्रजी तथा दूसरी अम्मा। मिश्रजी की तीन संतानें हैं - तीनों बेटियाँ, जो अपने-अपने परिवार में सुखी हैं।) बन गया। मेरी तरफ से तो ऐसा कुछ था ही नहीं। अम्मा और मिश्रजी को सहज होने में थोड़ा समय लगा। फिर भी, मुझे यह बराबर एहसास होता रहा कि मिश्रजी यह कभी भूल नहीं पाए कि मेरी वजह से योगेंद्रनाथ मिश्र को नुकसान हुआ। यहाँ मैं यह बता दूँ कि मिश्रजी के रिटायर होने के बाद, सन् 1993 में, मिश्रजी के अनुगामी विभागाध्यक्ष महोदय ने, भाई लोगों के प्रभाव में आकर भाषाविज्ञान का प्रोजेक्ट बंद करने का ऐलान कर दिया, ताकि विभाग से मुझे निकाला जा सके। विश्वविद्यालय कार्यालय से तीन दिन की नोटिस दिलाकर 30 अप्रैल, 1993, को विभाग से मेरी विदाई कर दी गई। जो काम मिश्रजी अपनी सदाशयता के चलते नहीं कर पाए, वह काम डॉ. रमणभाई पटेल ने कर दिया। उसके बाद सन् 1994 से 1999 तक विद्यानगर के ही एक कॉलेज में मैंने प्रयोजनमूलक हिंदी के पार्टटाईम अध्यापक के रूप में काम किया और उसके बाद कभी मेरी गाड़ी पटरी पर नहीं चढ़ सकी। आज मैं बिना नौकरी किए सेवा-निवृत्ति का जीवन व्यतीत कर रहा हूँ।

अब यह सिलसिला रोज का हो गया। रोज शाम को 5 बजे तक मैं नियमित रूप से मिश्रजी के यहाँ पहुँचने लगा। यह पता ही नहीं चला कि मैं और मिश्रजी कब और कैसे एक-दूसरे में ओतप्रोत हो गए। उनका अकेलापन अब दूर हो चुका था। अब वे प्रसन्न रहने लगे थे। एक बार अम्मा ने मुझसे गद्गद् होकर कहा था - ‘मिश्राजी, तुमने इनकी उम्र दस वर्ष बढ़ा दी है।’ परंतु आगे चलकर स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि अब वे एक दिन की भी मेरी अनुपस्थिति बर्दाश्त नहीं कर पाते थे। अगर किसी दिन मैं समय से नहीं पहुँच पाता, तो वे बहुत अपसेट हो जाते। मेरे पहुँचने के बाद बीच में अगर मेरा मोबाईल बजता, तो उससे भी चिढ़ जाते थे - ‘मिश्राजी, लोगों से कह दो कि इस बीच कोई फोन न करे। चौबीस घंटे में एक बार तो बात करने का समय मिलता है और उसी में तुम्हारा मोबाईल बजने लगता है।’ अब लोगों को क्या पता कि इस समय मैंमिश्र के पास बैठा हूँ! कभी-कभी सुबह सात-आठ बजे ही उनका फोन आ जाता - ‘नौ-दस बजे अगर बाहर निकलो तो जरा मिलना। कुछ बात करनी है।’ मैं सोचता कोई जरूरी बात होगी। परंतु घर पहुँचने पर पता चलता कि ‘कोई काम नहीं; बस ऐसे ही बुलाया था।’

7

उनकी यह दशा देखकर अम्मा परेशान हो जातीं। एक दिन उन्होंने मुझसे आग्रह भरे स्वर में कहा - ‘मिश्राजी, अब आना बंद न करना। ये बर्दाश्त नहीं कर पाएँगे।’ उस समय अम्मा का गला भर आया था।

मिश्रजी सेवा-निवृत्ति के बाद दो-चार दिनों से लेकर हफ्ते-दस दिन के लिए या कभी-कभी उससे भी ज्यादा दिनों के लिए बाहर रहते थे या फिर घर में ही रहते थे। वे घर से बाहर बहुत कम निकलते थे। स्थानीय स्तर पर उनका संपर्क या सामाजिक व्यवहार बहुत कम था। उनका संबंध थोड़े-से हिंदी के अध्यापकों तथा विद्यार्थियों तक सीमित था। चौबीसों घंटे वे घर में ही रहते थे। वे पढ़ते कम, सोचते ज्यादा थे। जब भी किसी सेमिनार या रिफ्रेशर में जाना होता, तब उनके चिंतन की गति बढ़ जाती। जब मैं शाम को पहुँचता, तब एक तरह से अपनी तैयारी के रूप में, वे पंद्रह-बीस मिनट का व्याख्यान मुझे बैठाकर दे डालते - ‘आज मैंने इस विषय पर इस ढंग से सोचा है या इस ढंग का परिवर्तन किया है। या इस बात को ऐसे कहा जाए, तो ज्यादा अच्छा रहेगा।’ इस तरह से मुझे सुनाया करते। कभी-कभी एक-दो पृष्ठों से लेकर आठ-दस पृष्ठों तक का कोई आलेख लिखकर, संतुष्ट न होने पर, उसे रद्द कर देते। कभी-कभी तो आलेख के किसी पृष्ठ के किसी अंश पर चिप्पी लगाकर लिखते। संतोष न होने पर चिप्पी के ऊपर चिप्पी लगाते जाते। उनकी बैठक के आधे हिस्से में एक सोफासेट तथा 2.5x6 का एक तखत है। किताबों से भरी छोटी दो रैकें हैं। तखत के पायदान की ओर एक शो-केस है, जिसमें टीवी तथा कुछ दूसरे सामान रखे हैं। तखत पर दिवाल से सटा एक बहुत पुराना ब्रीफकेस तथा रेग्जीन और गत्ते से बना एक थैला पड़ा रहता। पायतान की ओर दिवाल से सटीं कुछ नई पत्रिकाएँ तथा किताबें पड़ी रहतीं। तखत के आधे हिस्से में वे लेटते या बैठते। अव्यवस्था उनकी जिंदगी का अनिवार्य हिस्सा थी। कोई जरूरी कागज, कोई रसीद, कोई पत्र, कभी-कभी कुछ रुपये भी ब्रिफकेस या थैले में ठूँस देते। फिर खोजना शुरू कर देते। ध्यान ही नहीं रहता कि कहाँ रखा है। बाद में ढूँढ़ने पर वह चीज उन्हें नहीं मिलती, तब अपने आप पर इतने झुँझलाते, परेशान होते और खुद को कोसने लगते कि मैं और अम्मा परेशान और दुखी हो जाते; पर बीच में हम कुछ बोल नहीं पाते। छोटे से छोटे कागज के टुकड़े को भी वे रद्दी में नहीं फेंकते - यहाँ तक कि आए हुए पत्र का फटा लिफाफा भी। टोकने पर कहते - पता नहीं कौन-सा कागज कब काम आ जाए। ब्रीफकेस तथा थैला भर जाने के बाद सारी सामग्री निकालकर प्लास्टिक की थैली में रखते। फिर उन थैलियों को अन्यत्र रखवाते। परंतु बिजली का बिल तथा फोन बिल भरने में एक दिन की भी देर नहीं करते। दोपहर में बिल आता और शाम को लिफाफे में पैसा और बिल डालकर मुझे पकड़ा देते। भले ही दस दिन का समय हो, परंतु मुझे हिदायत देते कि बिल कल जरूर भर देना। अगर कभी मैं भूल गया, तो शाम को मुझे जरूर डाँट पड़ती। उसका कारण सिर्फ उनका यह आग्रह कि आज का काम आज हो जाए, तो  दिमाग पर बोझ नहीं रहता है। हाउस टेक्स वे पुरानी रसीद के आधार पर अग्रिम भरवा देते। बिल के आने का इंतजार नहीं करते।

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मेरे एक मित्र हैं भरतसिंह झाला। वे सन् 1985-86 में मिश्रजी के एम. ए. के विद्यार्थी थे। सन् 1998-99 में उन्होंने डॉ. सनतकुमार व्यास के निर्देशन में पी-एच. डी. का काम शुरू किया। परंतु विषय उनके अनुकूल नहीं पड़ा। इसलिए एक वर्ष के बाद विषय बदलने की बात आई। व्यासजी के साथ मेरा अच्छा संबंध था। मेरे मन में एक बात कौंध गई थी कि क्यों न मिश्रजी के समीक्षा कार्य को भरत झाला के शोध का विषय बनाया जाए! व्यासजी इस पर सहमत हो गए। मैंने और झाला ने यह सोचा कि मिश्रजी से ही सिनॉप्सिस बनवाई जाए! पहले तो मिश्रजी इसके लिए तैयार नहीं हुए - ‘मेरा ही विषय और मैं  ही सिनॉप्सिस बनाऊँ?’ परंतु हमने यह कहा कि आप यह मानकर सिनॉप्सिस बनाइए कि यह किसी और का है। हम सिर्फ नाम बदल देंगे। हमारी बात मानकर उन्होंने सिनॉप्सिस बना दी। पर साथ ही यह हिदायत भी दी कि सूचनात्मक जानकारी से अधिक और कोई उम्मीद आप लोग मुझसे मत कीजिएगा। अपने बारे में कोई बात करने में मुझे असुविधा होती है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि काम आप भक्तिभाव से मत कीजिएगा - तटस्थ होकर कीजिएगा। यह आपके भी हित में रहेगा और मेरे भी हित में रहेगा। उन्हें इस बात का डर रहा होगा कि मैं विद्यानगर में रहता हूँ; काम विद्यानगर में हो रहा है और काम करने वाले भरत झाला मेरे विद्यार्थी हैं। लोग यह न सोचें कि काम मैंने ही करवाया है।

खैर, काम शुरू हुआ। भरत झाला मेरे मित्र और जिन पर काम हो रहा था, वे मेरे परम आदरणीय। स्वाभाविक था कि मैं चाहूँ कि काम अधिकाधिक अच्छा हो। एक और कारण था मेरी सक्रियता का। भाषाविज्ञान में आने के नाते हिंदी साहित्य से मेरा संबंध विच्छिन्न-सा हो गया था। मैं खुद भी हिंदी समीक्षा - विशेषकर मार्क्सवादी समीक्षा के बारे में कुछ जानने के लिए उत्सुक था।

सबसे पहले मिश्रजी का जीवन परिचय रिकॉर्ड किया गया, जिसे भरत झाला ने कागज पर उतारा। फिर हमने उनके लेखन की जानकारी माँगी। किताबों की सूची तो उन्होंने तुरंत तैयार कर दी; परंतु पत्रिकाओं में छपे निबंधों के लिए दो-चार दिनों का समय माँगा। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि अपने निबंधों की कोई सूची या सभी निबंधों की कॉपी मिश्रजी के पास कभी नहीं रही। शायद उन्होंने कभी इसकी जरूरत नहीं समझी। ज्यातर वे हाथ से लिखते थे और मूल कॉपी पत्रिकाओं को भेज देते थे। पहले तो फोटो कॉपी की सुविधा नहीं थी। परंतु यह सुविधा आने के बाद भी कभी-कभी ही फोटो कॉपी करवाते थे। कभी-कभी खुद ही टाइप भी कर लेते थे। उनके लिखने की पद्धति कुछ अलग ढंग की थी। जीवन में उन्होंने कभी भी लिखने के लिए टेबुल-कुर्सी का उपयोग नहीं किया। वे अपने तखत पर बाईं करवट लेटकर ही सब कुछ लिखते थे। उनके तखत की ऊँचाई की दो-सवा दो फुट के व्यास वाली एक गोल मेज है। वे तखत पर करवट लेटकर उसी मेज पर लिखा करते थे। चार दिनों के बाद उन्होंने हमें पचास निबंधों की एक सूची पकड़ा दी। हमने पूछा - बस! इतने ही निबंध! उन्होंने कहा - इतने ही याद हैं। सोच-सोच कर इतना लिखा है। 

9

फिर हमने उनके पुस्तकालय की शरण ली। एक-एक पत्रिका की विषय सूची देखी। दो हफ्ते की मेहनत के बाद मैंने और झाला ने डेढ़-पौने दो सौ निबंधों की सूची तैयार की। यह सूची बाद में संपादित हुईं उनकी किताबों में काम आई। इसी बहाने मुझे मार्क्सवाद के बारे में जानने का (‘मार्क्सवाद को’ जानने का नहीं ‘मार्क्सवाद के बारे में’ जानने का) मौका मिला। एक ‘मानवतावादी जीवन दर्शन’ के रूप में मार्क्सवाद के प्रति मेरी धारणा सकारात्मक होने लगी। इसका यह मतलब नहीं कि मैं मार्क्सवादी या मार्क्सवाद का जानकार हो गया। हुआ बस इतना ही कि एक जीवन दर्शन के रूप में मार्क्सवाद अब मेरे लिए विरोध का विषय नहीं रहा। अपने अनुभव से मैं यह कह सकता हूँ कि मिश्रजी ने मार्क्सवादी दर्शन को सिर्फ पढ़ा नहीं था, उसे पचाया भी था। मार्क्स का मानवतावाद उनके आचरण में उतर चुका था। बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि सागर की अपनी जमी जमाई नौकरी छोड़कर उनके वल्लभ विद्यानगर आने के पीछे, दूसरे कारणों के साथ-साथ उनका ‘दलित प्रेम’ भी जिम्मेदार था। नंदलाल नाम के अपने एक दलित शोध-छात्र को यूजीसी की स्कॉलरशिप दिलवाने की धुन में उन्होंने सागर विश्वविद्यालय के सवर्ण वर्ग की दुश्मनी मोल ले ली थी, जिसके चलते उन्हें चेतावनी मिल गई थी कि अब यहाँ आपका कोई भविष्य नहीं है।

वे बताते थे कि बहुत पहले एक बार आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने उन्हें मार्क्सवादी साहित्य चिंतन पर व्याख्यान देने के लिए उज्जैन बुलाया था। व्याख्यान के बाद परम धार्मिक तथा परंपरावादी आचार्य पं. विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने खड़े होकर मंच से कहा था कि ‘अगर यही मार्क्सवाद है, तब तो मैं भी मार्क्सवादी हूँ।’

मिश्रजी ख्यातनाम विद्वान् तो थे ही; परंतु उनकी लोकप्रियता में उनकी आदमीयत का विशेष योगदान था। जिन लोगों के लिए हिंदी समीक्षा या मार्क्सवाद बहुत दूर की वस्तु थी, उनके लिए भी मिश्रजी अपनी आदमीयत की वजह से विशेष प्रिय थे। मिश्रजी के लिए विचारधारा का सवाल सदा मंच तक ही सीमित रहा। मंच से उतरने के बाद वे सिर्फ एक उमदा इंसान होते थे। जहाँ तक मेरी जानकारी है, मिश्रजी को चाहने वालों तथा मित्रों में ऐसे लोगों की संख्या ज्यादा थी, जो गैर-मार्क्सवादी थे - यहाँ तक कि मार्क्सवाद को खुलेआम गालियाँ देते थे। मैं अपनी अल्पमति से, पूरा जोर देकर कहना चाहता हूँ कि मार्क्सवाद के मानवतावादी पक्ष को, दूसरों को समझाने में मिश्रजी जितने समर्थ थे, वैसा सामर्थ्य बहुत कम लोगों में होगा। उनकी एक दूसरी विशेषता, जिससे मैं बहुत प्रभावित रहा हूँ, यह थी कि वे अपनी विचारधारा की जमीन पर मजबूती से खड़े रहकर दूसरी सारी विचारधाराओं को पूरा सम्मान देते थे। वे धार्मिकता के मामले में भी बड़े उदार थे। वे उन लोगों जैसे नहीं थे, जो धर्म-विरोधी लेखन करके अपने को ‘प्रोग्रेसिव’ कहते हैं। मैं अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि मिश्रजी कर्मकांड और बाह्याडंबर के सख्त विरोधी थे; परंतु अधार्मिक नहीं थे। मैं हर साल गुरुपूर्णिमा के दिन उनको कुमकुम-अक्षत का टीका लगाता और वे मेरी भावनाओं की कद्र करते हुए सहर्ष टीका लगवा लेते। दीपावली के दिन वर्षों से मैं पहले उनके घर पर लक्ष्मीजी की पूजा करता हूँ; फिर अपने घर पर। मैं अम्मा के साथ पूजा की सारी तैयारी करके मिश्रजी को बुलाता। वे पहले से ही तैयार बैठे रहते। बुलाने पर हमारे पास आते; वेदी पर रखे लक्ष्मी और गणेशजी के फोटो पर फूल चढ़ाते। मैं उन्हें टीका लगाता। फिर वे अपने तखत पर चले जाते। आगे की पूजा अम्मा अपने ढंग से करतीं।

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मिश्रजी को एक लंबी उम्र (82 वर्ष) मिली थी। कुल मिलाकर, आजीवन वे बहुत स्वस्थ रहे। कुछ वर्षों से बीपी की थोड़ी तकलीफ अव्शय थी, जिसके लिए वे नियमित गोली लेते थे। घर में खानपान का उनका संयम तो बड़ा जबरदस्त था। परंतु डॉक्टर और अस्पताल के मामले में, मेरी समझ से उनकी एक मनोग्रंथि थी। वे नहीं चाहते थे कि बाहर लोगों तक यह  संदेश जाए कि ‘मिश्राजी बीमार हैं।’ या ‘मिश्राजी अस्पताल गए हैं।’ उनके बाएँ पैर में थोड़ा दर्द रहता था, जिसे वे घुटने का दर्द कहा करते थे। इसी लिए बाहर के कई लोग तो अपने खर्च से उसका ऑपरेशन कराने का प्रस्ताव भी कर चुके थे। परंतु उन्हें घुटने की तकलीफ थी ही नहीं। तकलीफ थी नसों की। फिर भी, वे अस्पताल जाने से बचते रहते थे। डॉक्टर के नाम से चिढ़ते थे - ‘डॉक्टर के पास जाने से जो बीमार नहीं है, वह भी बीमार पड़ जाता है। डॉक्टर को दिखाओ तो वह दस रोग बताएगा। डॉक्टरों का तो काम ही यही है ...।’ तरह-तरह के तेलों से मालिश करवाकर काम चलाते थे। वे जैसा कहते, मुझे वैसा करना पड़ता। पर वे अस्पताल जाने को तैयार नहीं होते थे। साँस की थोड़ी तकलीफ उन्हें पहले से थी। अवसान के एक साल पहले कफ बहुत बढ़ गया था। उसका वे घरेलू उपचार से काम चला लेना चाहते थे। दो महीनों तक यह प्रक्रिया चली। फिर बहुत मुश्किल से उन्हें अस्पताल ले जाया गया। अस्पताल में वे डॉक्टरों को भरसक यह समझाने की कोशिश करते रहे कि मुझे कुछ नहीं हुआ है - ‘मैं दो-दो घंटे तक लगातार लेक्चर देता हूँ। रेलवे प्लेटफॉर्म की ऊँची-ऊँची सीढ़ियाँ चढ़ता-उतरता हूँ। रोज टहलने जाता हूँ। गिनकर पाँच हजार कदम चलता हूँ ... आदि-आदि।’ कई तरह की जाँच के बाद डॉक्टरों ने कहा कि और तो सब ठीक है; परंतु आपके फेफड़े थोड़े ‘वीक’ लग रहे हैं। दवा शुरू कर दीजिए; और थोड़े-थोड़े समय पर जाँच कराते रहिए। एक छोटी-सी मशीन में दो तरह के एक-एक कैपसूल भरकर उसे मुँह में लगाकर रोज सुबह-शाम दो-तीन मिनट तक साँस लेनी थी। इससे आराम तो मिल गया। परंतु दुबारा वे डॉक्टर से मिलने नहीं गए। कहने पर जवाब दे देते कि अभी तो आराम मिला है। तकलीफ होगी तब देखेंगे।

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अवसान के लगभग तीन महीने पहले साँस की तकलीफ फिर शुरू हो गई। साँस लेने में तकलीफ होती थी। इसलिए रात को नींद नहीं आती थी। लेकिन किसी को यह बताते न थे कि नींद न आने का कारण क्या है? एक तो यह कि नाहक दूसरे लोग चिंता में पड़ेंगे; दूसरे शायद इसलिए कि अस्पताल जाना नहीं चाहते थे। बाद में बाईं तरफ की पसलियों में तथा पीठ में हल्का दर्द होने लगा। उनके कहने पर दर्द-निवारक ट्यूब से मैं मालिश करता रहा। इसी बीच दो शादियों में शामिल होने के लिए मैं 7 मई (2013) को अपने गाँव चला गया। फोन से खोज-खबर लेता रहा। साँस की तकलीफ ज्यादा होने पर उनके बेटी-दामाद ने 20 मई को करमसद (जिला-आणंद) के श्रीकृष्ण अस्पताल में उन्हें भर्ती कराया, जहाँ वे आई सी यू में रखे गए। मैं 31 मई को वापस आया। स्थिति में कुछ खास सुधार न होने पर दिल्ली से आए उनके बड़े दामाद 1 जून को अहमदाबाद के एक बड़े अस्पताल में ले गए। वहाँ भी तबियत बनती-बिगड़ती रही; और आखिर 21 जून, 2013, को प्रातः साढ़े 6 बजे मिश्रजी इस फानी दुनिया को छोड़कर चले गए। उनका अवसान अटैक से हुआ। हफ्ते भर में दो अटैक आए थे।

मिश्रजी अब हमारे बीच नहीं हैं। सिर्फ उनकी यादें हमारे साथ हैं। असंतोष उनके जीवन का हिस्सा न था। महत्त्वाकांक्षा भी उनके जीवन से बहुत दूर रही। कुल मिलाकर मैं उन्हें ‘आप्तकाम’ कहना चाहूँगा। (मैं जानता हूँ ‘आप्तकाम’ बहुत बड़ा शब्द है।) वे लोभ-लालच से बहुत परे थे। सन् 1991 में जब वे सेवा-निवृत्त हुए, तब उनकी पेंशन सिर्फ 1500/ रुपये से शुरू हुई थी; क्योंकि सागर (मध्यप्रदेश) की उनकी नौकरी गुजरात में जोड़ी नहीं गई थी। कई लोगों ने इस पर मुकदमा करने के लिए उन्हें उकसाने की कोशिश की थी। परंतु मिश्रजी का यही कहना था कि जहाँ मैंने नौकरी की, वहाँ की सरकार पर मुकदमा नहीं कर सकता। मिश्रजी को बहुत कम पेंशन मिलती है, यह बात उनके शिष्यों और मित्रों को मालूम थी। इसलिए वे लोग उनकी आर्थिक सहायता करने के लिए हमेशा तत्पर रहते थे। परंतु मिश्रजी सबसे यही कहा करते कि जरूरत पड़ने पर कहूँगा।

बिन माँगे मोती मिले ...’ वाली कहावत उन पर पूरी तरह से लागू पड़ती थी। वर्षों पहले बंबई के एक बहुत मँहगे डॉक्टर के यहाँ उनकी आँखों का आपरेशन उनके किसी मित्र ने करवाया था। परंतु उन्होंने कभी यह जानने नहीं दिया कि कितना खर्च हुआ था। मिश्रजी की बीमारी के समय के दो बिलों का भुगतान (6 लाख बासठ हजार) इफ्को ने किया था। बाद में अम्मा से भी वे लोग आग्रह करते रहे कि हम आपके लिए भी कुछ करना चाहते हैं। परंतु अम्मा इसके लिए तैयार नहीं हुईं। अम्मा के पास व्यक्तिगत रूप से फोन आते रहे कि हम कुछ भेजना चाहते हैं। परंतु अम्मा ने विनम्रतापूवर्क सभी के प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया। मिश्रजी के अवसान के कुछ महीने बाद मिश्रजी की एक किताब के प्रुफ के सिलसिले में फोन पर बातचीत के दौरान वाणी प्रकाशन के श्री अरुण माहेश्वरी ने मुझसे कहा था कि माँजी से आप मेरी तरफ से कहिएगा कि जब भी कोई कठिन परिस्थिति आए, वे मुझे अवश्य याद कर लें। आखिर ऐसा क्यों? इस ‘क्यों’ का जवाब मुझे यही सूझता है कि मिश्रजी ने इन लोगों के दिलों में जगह बना ली थी - अपनी आदमीयत के चलते।

 

आप्तकाम’ होने के बावजूद मिश्रजी के मन में एक बहुत गहरी पीड़ा थी। वह पीड़ा उनके मन में आखिरी समय तक बनी रही। वह पीड़ा थी सरदार पटेल विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग द्वारा की गई उनकी घोर उपेक्षा। सरदार पटेल विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग ने उन्हें पूरी तरह से भुला दिया था। उनके अपने ही लोग उन्हें भूल गए थे। सेवा-निवृत्ति के बाद सन् 1991 से2013 के बीच यानी 22 वर्षों में मिश्रजी एक या दो बार ही विभाग में गए होंगे। इसका उन्हें बहुत दुख था। भारी सदमा पहुँचा था इससे उन्हें। उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि रात-दिन एक करके वे जिस विभाग को इतना समृद्ध कर रहे हैं; देश के नक्शे पर ला रहे हैं - अकेले के दम पर - वही विभाग उन्हें इस तरह से भूल जाएगा! वह सारी घटना उनके लिए एक दुःस्वप्न बनकर रह गई थी, जिसे वे भरसक याद नहीं करना चाहते थे; परंतु भूल भी नहीं पाते थे। प्रायः उनके मुँह से निकल ही जाता था कि - ‘विश्वास नहीं होता, लोग ऐसे भी हो सकते हैं!’ उनके मुँह से निकला यह वाक्य न जाने कितनी बार मैंने सुना है। मैं तो बहुत कुछ का प्रत्यक्षदर्शी रहा हूँ। उनकी पीड़ा को बहुत गहराई से महसूस करता रहा हूँ।


डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

भाषाचिन्तक

40, साईं पार्क सोसाइटी

बाकरोल – 388315

जिला आणंद (गुजरात)


अप्रैल 2024, अंक 46

  शब्द-सृष्टि अप्रैल 202 4, अंक 46 आपके समक्ष कुछ नयेपन के साथ... खण्ड -1 अंबेडकर जयंती के अवसर पर विशेष....... विचार बिंदु – डॉ. अंबेडक...