शुक्रवार, 28 मई 2021

मई - 2021, अंक – 10

 


शब्द सृष्टि,  मई - 2021, अंक – 10


विचार स्तवक

शब्द संज्ञान – डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

व्यंग्य – एक आदर्श भारतीय गाँव – संपत सरल

चोका – ज्योत्स्ना प्रदीप

आलेख – अमीर खुसरो के साहित्यिक अवदान का महत्व – डॉ. हसमुख परमार

कविता – हम पक्षी हैं प्यार के – त्रिलोक सिंह ठकुरेला

लोककथा – मेहंदी – अनिता मंडा

मुकरियाँ – अमीर खुसरो / भारतेन्दु / त्रिलोक सिंह ठकुरेला

आलेख – हिन्दी व्यंग्य के प्रमुख हस्ताक्षर – डॉ. भावना ठक्कर

कविता – खुशीपुर का सफ़र – प्रीति अग्रवाल

लघुकथा – (1) चौथा बंदर – शरद जोशी / (2) धरती का काव्य – श्यामनंदन शास्त्री

परिचय – काका हाथरसी – डॉ. पूर्वा शर्मा

विचार स्तवक

 


 




हास्य, प्रेम की भाषा है। होमर

 

अगर मुझमें हमेशा हास्य की भावना नहीं होती तो ना जाने मैं कब का आत्महत्या कर लेता। महात्मा गाँधी

 

आपकी मुस्कान आपके चेहरे पर भगवान के हस्ताक्षर हैं, उसे अपने आँसुओं से धुलने या क्रोध से मिटने ना दें। ब्रह्माकुमारी शिवानी

 

हमेशा दूसरों को प्रसन्न रखने की बात सोचते रहो। इस नुस्खे से तुम चौदह दिनों में स्वस्थ हो जाओगे। एलफ्रेड एडलर

 

आशा, बिन फूल के मधु बनाने  वाली मधुमक्खी है। ईगरसोल

 

आरोग्य –  यह मात्र शरीर का ही नहीं बल्कि आत्मा का भी आभूषण है। टेनिसन

शब्द संज्ञान




डॉ. योगेन्द्र नाथ मिश्र

 1. गिरीश / गिरिश

गिरीश तथा गिरिश दोनों संस्कृत के शब्द हैं। दोनों सही हैं। गिरीश हिंदी में चलता है,जिसका अर्थ है हिमालय तथा शंकर।

लेकिन गिरिश हिंदी में नहीं चलता। यह अलग बात है कि अज्ञान के कारण कोई गिरीश की जगह गिरिश लिख दे।

1. गिरीश में दीर्घ संधि है - गिरि+ईश।

2. गिरिश में समास है - गिरौ शेते इति गिरिश।

यह शिव का विशेषण है। इसका प्रयोग रघुवंश में कालिदास ने किया है।

यह जानकारी मुझे मेरे गुरु रीतिकाल के आचार्य पं. विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने सन् 1977में दी थी।

उनके पौत्र श्री गिरिशचंद्र मिश्र के विवाह का निमंत्रण पत्र काशी विद्यापीठ और बीएचयू के अध्यापकों सहित अन्य कई लोगों को देने की जिम्मेदारी मेरी थी। 

निमंत्रण पत्र देखकर नाथपंथ के विशेषज्ञ डॉक्टर नागेंद्रनाथ उपाध्याय थोड़ी उलझन में पड़ गए। दबी जबान से उन्होंने मुझसे कहा कि मिश्र जी के निमंत्रण पत्र में भाषा की भूल मेरी समझ में नहीं आ रही है। निमंत्रण पत्र में गिरिश लिखा हुआ था।

मुझे भी बात समझ में नहीं आई।

यह बात मैंने गुरुजी को बताई। अपने स्वभाव के अनुकूल वे बड़े जोर से हँसे। फिर बोले - खा गए न गच्चा हिंदी वाले! अरे भाई, गिरिश भी होता है।

फिर उन्होंने मुझे ऊपर वाली व्याख्या बताई।

 

 2. सच्चाई / सचाई

आलिमजी का एक पोस्ट है, जिसकी चर्चा के केंद्र में मुख्य दो विषय हैं -

1. सच्चाई सही है या सचाई?

2. सच शब्द संज्ञा है या विशेषण? या दोनों?

आलिमजी के अनुसार -

सच्चा+आई=सच्चाई 

सच+आई=सचाई 

लेकिन ऐसा नहीं है। सच्चाविशेषण है। उसके साथ ‘-आई’ (भाववाचक बनाने वाला) प्रत्यय जुड़ने से भाववाचक संज्ञा सच्चाईबनती है। 

कुछ लोग उच्चारण की सुगमता के कारण सच्चाईकी जगह सचाईबोलते हैं तथा सचाई लिखते भी हैं।

सच्चाई तथा सचाई का यही संबंध है।

रचना प्रक्रिया की दृष्टि से सच्चाईही सही है। लेकिन बोलने तथा लिखने में सचाई रूप भी चलता है।

सचाई सचके साथ ‘-आईप्रत्यय जुड़ने से नहीं बना है। कारण कि भाववाचक प्रत्यय ‘-आईविशेषण तथा क्रिया (धातु) के साथ जुड़ता है। संज्ञा के साथ नहीं जुड़ता। 

सचसंज्ञा है। 

लेकिन आलिमजी सचको सिर्फ संज्ञा मानने के पक्ष में नहीं हैं। कारण कि वे सचको अंग्रेजी के true तथा truth के साथ जोड़कर देखते हैं। true विशेषण है तथा truth संज्ञा है। इस कारण वे सच को संज्ञा तथा विशेषण दोनों मानते हैं। 

लेकिन ऐसा नहीं हो सकता। कोई भी शब्द किसी एक ही वर्ग में रखा जा सकता है। एक ही शब्द संज्ञा तथा विशेषण दोनों  नहीं हो सकता। 

हाँ, प्रयोग एक से अधिक वर्गों में हो सकता है। अमीर, गरीब, गोरा, काला जैसे शब्द मूलतः विशेषण हैं। लेकिन इनका प्रयोग संज्ञा के रूप भी होता है -

1. अमीर आदमी/गरीब आदमी (विशेषण)

2. अमीर किसी के सगे नहीं होते। (संज्ञा)

मेरी बात ध्यान से सुनो।’ 

ध्यान शब्द संज्ञा है। लेकिन इस वाक्य में इसका प्रयोग क्रियाविशेषणके रूप में हुआ है।

अब सचके कुछ प्रयोग देखते हैं -

सच बोलो/सच का बोलबाला/सच ही सदा जीतता है/सच को स्वीकार करो/सच कभी नहीं हारता/हिम्मत हो तो सच का मुकाबला करो/सच तो सच ही होता है।

आलिमजी के अनुसार कोशग्रंथ भी सच को विशेषण मानते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। बृहत् हिन्दी शब्दकोश के अनुसार.सच संज्ञा है। सच विशेषण है ही नहीं।

आलिमजी के इस पोस्ट पर श्री अभिनंदन जी ने कई मौलिकटिप्पणियाँ की हैं। कुछ नमूने देखिए -

1. सच संज्ञा न होकर विशेषण ही है/ 2. सच क्रिया की विशेषता रीति के रूप में बता रहा है। अतः रीतिबोधक क्रियाविशेषण है/ 3. झूठ भाववाचक संज्ञा है। सच को भी भाववाचक संज्ञा के रूप में माना गया है/ 4. सच को संज्ञा रूप कहने से नकारा नहीं जा सकता।

इस पर क्या किसी टिप्पणी की जरूरत है?

 

 3. वचन

वचन एक व्याकरणिक शब्द है।

वचन का अर्थ है संख्या।

किसी शब्द के जिस रूप से किसी पदार्थ की (जिसके लिए वह प्रयुक्त होता है) संख्या का बोध होता है, उसे वचन कहते हैं।

हिंदी में दो वचन हैं - १. एकवचन तथा २. बहुवचन।

यहाँ तक तो सब ठीक है। परंतु एक परेशानी पैदा करते हैं कुछ व्याकरण लेखक तथा प्रतियोगी परीक्षाओं के प्रश्नपत्र बनाने वाले महानुभाव।

वे लोग कुछ शब्दों को नित्य बहुवचन कहते हैं।

उपकार प्रकाशन द्वारा प्रकाशित एक पुस्तक में प्राण, दर्शन, आँसू, हाथ, हस्ताक्षर, बाल जैसे शब्दों को नित्य बहुवचन कहा गया है।

यह जरा विचारणीय है।

ऐसे लोग एक बात भूल जाते हैं कि ‘शब्द के रूप’ तथा ‘शब्द के प्रयोग’ में अंतर है।

वचन का संबंध शब्द के रूप से है। किसी शब्द का वचन उसके रूप से तय होता है। 

जैसे - उसके प्राण निकल गए।

इस वाक्य में प्राण शब्द का ‘प्रयोग’ बहुवचन में भले ही हुआ है। 

लेकिन ‘रूप’ की दृष्टि से प्राण शब्द एकवचन में ही है।

यह ध्यान रखना चाहिए कि सभी संज्ञा शब्द अपने मूल रूप में एकवचन में ही होते हैं। उनके बहुवचन रूप प्रत्यय जोड़कर बनाए जाते हैं।

अगर हस्ताक्षर, प्राण, हाथ, बाल, आँसू आदि बहुवचन हैं, तो हस्ताक्षरों, प्राणों, हाथों, बालों, आँसुओं क्या हैं?

 

 4. अकर्मक क्रियाएँ

अँखुवाना, अँगड़ाना, अकड़ना, अकबकाना, अकुलाना, अगराना, अघाना, अचकचाना, अटकना, अटपटाना, अड़ना, अलसाना, इतराना, उकताना, उखड़ना, उगना, उघड़ना, उचकना, उचटना, उछलना, उजड़ना, उझकना, उठँगना, उठना, उड़ना, उतरना, उतराना, उपटना, उफनना, उबरना, उभड़ना/उभरना, उमड़ना, ऊँघना, औंधना, कँपना, कलपना, कुढ़ना, कुम्हलाना, कुलबुलाना, कुलाँचना, कूकना, कूजना, कूदना, खँखारना, खिसकना, खुलना, गड़ना, गरजना, गरना, गलना, गाजना, गिरना, गुँथना, गुजरना, गुनना, गुर्राना, घटना, घबराना, घहरना, घिरना, घुघुवाया, घुटना, घुनना, घुमड़ना, घुरघुराना, घुलना, घूमना, चकपकाना, चकराना, चटकना, चढ़ना, चिड़चिड़ाना, चिढ़ना, चिपकना, चिरना, चिलकना, चिल्लाना, चीखना, चुकना, चुनचुनाना, चुभना, चुरना, चुलबुलाना, चूकना, चेतना, चौंकना, छँटना, छकना, छटकना, छटपटाना, छपना, छलना, छाना, छिड़ना, छिदना, छिनना, छिपना, छिलना, छींकना, छीजना, छूटना, जँचना, जकड़ना, जगमगाना, जटाना, जनना, जमना, जाना, जीना, जुटना, जुड़ना, झँपकना, झझकना, झड़ना, झनझनाना, झपकना, झरना, झलकना, झिलमिलाना (झलमलाना), झल्लाना, झहरना, झिझकना, झुँझलाना, झुकना, झुलसना, झूमना, झूलना, झेंपना, टँगना, टकराना, टनटनाना, टपकना, टर्राना, टलना, टहकना, टहलना, टिकना, टीसना, टुनटुनाना, टेकना, टेरना, टोकना, ठगना, ठनकना, ठनठनाना, ठनना, ठमकना, ठहरना, ठिठकना, ठुकना, ठुनकना, ठुनठुनाना, डकारना, डगना, डगमगाना, डगरना, डबडबाना, डरना, डहकाना, डूबना, डोलना, ढरकना, ढलना, ढहना, ढुकना, ढुलकना, तकना, तड़कना, तड़तड़ाना, तड़पना, तपना, तरना, तरसना, तुनकना, तैरना, थकना, थमना, थरथराना, थहराना, थिरकना, थिरना, थूकना, दगना, दनदाना, दफनाना, दबना, दमकना, दरकना, दलकना, दहकना, दहलना, दहाड़ना, दिखना, दीपना, दुखना, दुलराना, दौड़ना, धँसना, धड़कना, धधकना, धसकना, धुँधलाना, धुँधुँवाना, धुमिलाना, धुलना, धौंकना, नँगियाना, नजराना, नथना, नरमाना, नहाना, नाचना, निकलना, निपटना, निबहना, निभना, पकना, पचना, पटकाना, पटना, पड़ना, पथराना, पनपना, परपराना, पादना, पिघलना, पिचकना, पिछड़ना, पिटना, पिसना, पिहकना, पुतना, पैठना, फँसना, फटना, फड़कना फबना, फरकना, फरफराना, फलना, फिरना, फिसलना, फुदकना, फुसफुसाना, फूटना, फैलना, बँटना, बकना, बचना, बजना,  बटुरना, बड़बड़ाना, बनना, बरसना, बर्राना, बसना, बहकना, बहना बहलना, बिखरना, बिखियाना, बिगड़ना, बिचकना, बिछना, बिदकना, बिफरना, बिरझना, बिलखना, बिलबिलाना, बिसरना, बुझना, बूड़ना, बैठना, बोलना, बौराना, भागना, भीगना (भींजना), भटकना, भुगतना, भुनभुनाना, भुरभुराना, भौंकना (भूँकना), भूलना, मँजना, मटकना, मरना, महकना, महमहाना, मातना, मानना, मिचलाना, मिटना, मिमियाना, मिलना, मुँड़ना, मुकरना, रंभाना, रपटना, रमना, रहना, राँचना, रिझना, रिरियाना, रिसना, रीतना, रँधना, रुकना, रुझना, रूठना, रेंकना, रेंगना, रोना, लँगड़ाना, लगना, लचकना, लजाना, लटकना, शरमाना, सँभलना, सँवरना, सकना, सकुचाना, सुगबुगाना (सगबगाना), सजना, सटना, सठियाना, सड़ना, सधुवाना, सनकना, सनना, सनसनाना, समझना, समाना, सरकना, सरसराना, सहना, सिकुड़ना, सिटपिटाना, सिधारना, सिमटना, सिलना, सिसकना, सिसकारना, सिहरना, सिहाना, सीझना, सुरसुराना (सुड़सुड़ाना), सुधरना, सुलगना, सुलझना, सुस्ताना, सोना, हँसना, हकबकाना, हकलाना, हटना, हड़बड़ानाहदसना, हरकना, हलकना, हलहलाना, हारना, हिचकना, हिचकिचाना, हिनहिनाना, हिलना, हँकारना, होना।

डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

भाषाचिन्तक

40, साईं पार्क सोसाइटी

बाकरोल – 388315

जिला आणंद (गुजरात)


व्यंग्य

 

एकआदर्श भारतीय गाँव

(व्यंग्य सुनने-देखने के लिए 👆क्लिक करें)

संपत सरल

आज भी जो ये मानते हैं कि भारत की आत्मा गाँवों में बसती हैमेरे ख़याल से उन्होंने गाँव उतने ही देखें हैं जितनी कि आत्मा।

जिस आदर्श गाँव  का जिक्र आज मैं करने जा रहा हूँ वैसे तो वह राजधानी दिल्ली से दसेक किलोमीटर पश्चिम में है।

चूँकि रास्ते में शराब के कई ठेके पड़ते हैं अतः यह दूरी घटती-बढ़ती रहती है।

कहते हैं उक्त आदर्श गाँव  किसी जालिम सिंह नामक डाकू ने बसाया थाजो की निहायत ही ईमानदार और परोपकारी डाकू थेक्योंकि निर्वाचित नहीं थे।

हालाँकि बाद में उन्होंने भी डाकू जीवन से VRS लेकर पॉलिटिक्स join कर ली थी। उनको यह समझ आ गया होगा कि एक डाकू को जिनके यहाँ डकैती करने जाना पड़ता है चुनाव जीत लेने पर वे ही लोग घर बैठे दे जाते हैं।

यों भी अपराध व राजनीति में वोटिंग का ही अंतर तो रह गया है।

संसद पर जिन आतंकियों ने हमला किया था सुरक्षा प्रहरियों ने उन्हें गोली मारने से पहले निश्चित ही कहा  होगा कि मानते हैं आप लोग बहुत बड़े अपराधी हैंलेकिन चुनाव जीते बिना अंदर नहीं जाने देंगे।

आदर्श गाँव  में दशों  दिशाएँ तीनों मौसम, बारहों महीने व सातों वार होते हैं

बस  एक तो गाँव के उत्तर में हिमालय नहीं है और तीनों तरफ से समुद्र से घिरा हुआ नहीं है।

गाँव  वालों का दावा है कि अगर डाकू जालिम सिंह आज जीवित होते तो यह दोनों चीजें भी गाँव  में होती।

गाँव  के लोग किफायती इस हद तक हैं कि किसी को मिस्ड काल भी अपने फोन से नहीं करते हैं। और दरियादिल ऐसे कि मिस्ड कॉल करने के बाद फोन करके पूछते रहते हैं की मिस्ड कॉल मिला क्या।

गाँव में कुल तेरह पर्यटक स्थल हैं तीन शराब के ठेकेएक मंदिरएक प्राइमरी स्कूलएक पुलिस चौकीदो कुएँ  तथा पाँच शमशान घाट।   

सरकारी ठेको के बावजूद  हस्त निर्मित शराब को ही वरीयता दी जाती है ताकि ग्लोब्लाइजेशन  के इस भीषण दौर में स्वदेशीपन बना रहे।

गाँव के अधिकांश लोग शराब पीते हैं कई लोग नहीं भी पीते हैं। जो नहीं पीते हैं वो पीने वालो को समझते बुझाते रहते हैं। उनके समझाय से जब पीने वाले नहीं समझते हैं तो दुखी होकर वे भी पीने लगते हैं।

लोगो में सरकारी नौकरियों के प्रति बड़ा मोह हैंसबका प्रयास रहता है कि  काम ऐसा हो जिसमे काम न होजहाँ तक मेहनत मजदूरी  का सवाल हैं मेहनत करने वाले को मजदूरी नहीं मिलती। और जिसे मजदूरी मिल जाती है वो मेहनत बंद कर देता हैसबके आपसी सम्बन्ध गठबंधन सरकारों जैसे हैं अर्थात स्वार्थ ही दो लोगों को जोड़ता है।

उम्र का फासला भी रिश्तों में बाधक नहीं बनता, दिन में जो बेटे का क्लासफेलो  होता हैशाम को वही बाप का ग्लासफेलो  होता है।

गाँव में जबसे हैंडपंप लगे हैं दोनों कुएँ शर्त लगाकर कूदने के काम आ रहे हैं।

स्कूल उतनी ही देर चलता है जितनी देर मिड-डे मील चलता है।

पुलिस चौकी को लेकर मतभेद हैं, कि अपराध बढ़ने से चौकी खुली है या चौकी खुलने से अपराध बढ़े हैं।

पाँच श्मशान घाटों से स्वतः सिद्ध है कि गाँव में पाँच जातियाँ  रहती हैं। इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि मुर्दे के राख हो चुकने पर भी उसकी जाति राख न हो जाए। एक दफा ‘’ जाति के लोगों ने अपना एक शव गफलत में ‘’ जाति के श्मशान घाट में जला दिया। बसफिर क्या था। ‘’ जाति वालों ने फटाफट अपना एक व्यक्ति मारा और उसे ‘’ जाति के श्मशान घाट में जलाकर हिसाब चुकता किया। इससे विवाद इतना बढ़ा कि दोनों जातियों ने अपने दो-दो लोग और मारकर एक-दूसरे के श्मशान घाट में जलाए। अंततः जैसा कि होता है राजनेताओं ने हस्तक्षेप किया। दोनों जातियों से चार-चार लोग मरवाकर आठों मुर्दे स्वयं की उपस्तिथि में उनके अपने-अपने श्मशान घाट में जलवाए तब जाकर कहीं आग बुझी।

एक मात्र मंदिर का जीर्णोद्धार डाकू जालिम सिंह ने कराया था। कहते हैं कि एक दिन पुजारी ने उन्हें फटकार दिया था कि मूर्ख! लूट का माल यूँ ही नहीं पचेगाथोड़ा दान-पुण्य भी किया करो। पुजारी की बात ऐसी चुभी कि डाकू जालिम सिंह ने एक रात पास-दूर के पाँच-सात मंदिरों को लूटा और उसी श्रमधन से इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया।

घरों में दो चीजे सब के यहाँ फायनेंनसित है – मोटर साइकिल और टेलीविज़न। मोटर साइकिल इसलिए कि गाँव सड़क मार्ग से शहर जा सके और टेलीविज़न इसलिए कि शहर आकाश मार्ग से गाँव आ सके। टी.वी. ने तो ज्ञान के क्षेत्र में क्रांति कर दी। कक्षा में मास्टर जी महाभारत के रचयिता का नाम पूछते हैं तो बच्चे बी. आर. चोपड़ा बताते हैं।

जो भी हो गाँव वालों में परिहास वृत्ति लाज़वाब है। चरणदास जी हड़बड़ी में ज़रा छोटे जूते खरीद लाए, दुकानदार ने बिका हुआ सामान वापस नहीं लिया क्योंकि दिनभर में एक ही बिका। लाचार चरणदास जी को ठाँसे गए जूते काट रहे हैं और वो लंगडाते हुए चल रहे हैं।  रास्ते में टकरा गाया रामधन। पूछ बैठा – चरणदास जी यह जूते कहाँ से मार लाय! (मतलब कितने के पड़े?) चरणदास झल्ला कर कहा – पेड़ से तोड़े। रामधन बोला – महाराज कच्चे तोड़ लिए।


संपत सरल

आलेख


अमीर ख़ुसरो के साहित्यिक अवदान का महत्व

डॉ.हसमुख परमार

अमीर ख़ुसरो का जन्म सन् 1256 में  एटा जिले (उ.प्र.) के पटियाली नामक गाँव में हुआ और देहावसान हुआ इनका सन् 1325 में। एक मान्यतानुसार ख़ुसरो के जन्मजीवन और मृत्यु तीनों का संबंध एक ही स्थान दिल्ली से रहा है। अमीर ख़ुसरो का मूल नाम या पूरा नाम अबुल हसन यमीनुद्दीन ख़ुसरो था। प्रसिद्ध शेख निजामुद्दीन औलिया के इस प्रिय शिष्य की साहित्यसंगीतगायकी जैसे विषय क्षेत्रों में प्रारंभ से ही विशेष रुचि रही। “अबुल हसन यमीनुद्दीन अमीर ख़ुसरो 14 वीं सदी के लगभग दिल्ली के निकट रहने वाले एक प्रमुख कविशायरगायक और संगीतकार थे। उनका परिवार कई पीढ़ियों से राजदरबार से संबंधित था। स्वयं अमीर ख़ुसरो ने आठ सुल्तानों का शासन देखा था। अमीर ख़ुसरो प्रथम मुस्लिम कवि थेजिन्होंने हिंदी शब्दों का खुलकर प्रयोग किया है। वह पहले व्यक्ति थेजिन्होंने हिंदीहिंदवी और फारसी में एक साथ लिखा था। उन्हें खड़ीबोली के आविष्कार का श्रेय दिया जाता है।”1

ख़ुसरो के रचनाकर्म में इनके ग्रंथों की संख्या लगभग सौ के आसपास बताई जाती हैपर आज उपलब्ध ग्रंथों की संख्या 20-22 से ज्यादा नहीं है। ख़ुसरो की मुख्य भाषा फारसी होते हुए भी इन्होंने हिंदी में भी विपुल मात्रा में साहित्य  सृजन किया। हिंदी-फारसी दोनों भाषाओं के साहित्य में इनका योगदान अविस्मरणीय है। फिरदौसीशेख सादिक जैसे फारसी के दिग्गज़ कवियों की पंक्ति में ख़ुसरो का नाम लेना इनके फारसी साहित्य में तथा हिंदी साहित्य के आरंभिक काल के एक प्रतिनिधि कवि के रूप में इनकी गणना इनके हिंदी साहित्य में विशेष स्थान व महत्व को रेखांकित करता है।

आदिकालीन हिंदी साहित्य को प्रमुखतपाँच वर्गों में विभक्त किया गया है। 1. सिद्ध साहित्य 2. नाथ साहित्य 3.जैन साहित्य 4.रासो साहित्य और 5. हिंदवी तथा इतर साहित्य। आदिकाल की इन पाँच काव्य प्रवृत्तियों में अमीर ख़ुसरो और इनके सर्जन की चर्चा हिंदवी तथा इतर साहित्य के अंतर्गत की जाती है। डॉ. नगेंद्र द्वारा संपादित ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में आदिकाल के लौकिक साहित्य नामक वर्ग में ख़ुसरो की पहेलियों को लिया गया है। आ. रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्येतिहास के आदिकाल जिसे वह वीरगाथा काल कहते हैंजिसमें इन्होंने ख़ुसरो व इनके साहित्य का परिचय ‘फुटकल रचनाएँ’ वाले प्रकरण में दिया है।

  अमीर ख़ुसरो की हिंदी रचनाएँ :

खालिक बारीहालात-ए-कन्हैयागीतदोहेकव्वालीहिंदी गज़लपहेलियाँ (बूझ पहेलियाँ बिनबूझ पहेलियाँ)कह मुकरियाँ,  दो सखुनेनिस्बतें अर्थात् संबंधढकोसले इत्यादि।

          फारसी हिंदी कोश को लेकर ख़ुसरो का ‘खालिक बारी’ विशेष उल्लेखनीय है। “इन्होंने खालिक बारी के नाम से एक फारसी हिंदी का कोश भी बनाया हैउसमें भी हिंदी का रूप मिलता है।”2

हालात-ए-कन्हैया’ के संबंध में कहा जाता है कि “अपने गुरु निजामुद्दीन द्वारा स्वप्न में भगवान श्री कृष्ण के दर्शन देने के उपरांत इनके आदेश पर ख़ुसरो ने श्री कृष्ण की स्तुति में इसे हिंदवी भाषा में लिखा।” असल में हिंदी साहित्य में ख़ुसरो की प्रसिद्धि का मुख्य आधार इनके द्वारा रचित पहेलियाँ व मुकरियाँ ही रही है। इन पहेलियों व मुकरियों में विनोद के साथ-साथ व्यंग्य का पुट भी मिलता है।

  ख़ुसरो का साहित्यिक महत्व :

·         खड़ीबोली को काव्य की भाषा बनाने वाला हिंदी का प्रथम कवि

·         हिंदी की पहली आवाज

·         हिंदी रचनाओं में खड़ीबोली के साथ-साथ ब्रज तथा हिंदी-फारसी मिश्रित भाषा का प्रयोग

·         हास्य रस के प्रथम कवि

·         कव्वाली तथा गज़ल को ज्यादा प्रचलित व प्रसिद्ध करने का श्रेय

·         प्रसिद्ध संगीतकार

·         आदिकाल के प्रतिनिधि कवियों में गणना

·         निरूपित विषय वस्तु में विस्तार व विविधता

·         उक्ति वैचित्र्य का गुण

हिंदी साहित्य के आदिकाल की रचनाओं में भाषा की दृष्टि से भी पर्याप्त वैविध्य मिलता है। इस समय खड़ीबोली को काव्य की भाषा बनाने वाले पहले कवि अमीर ख़ुसरो ही है। इनकी रचनाओं में खड़ीबोली का वह रूप दृष्टिगत होता है जो आधुनिक खड़ीबोली का है। अतः वे खड़ीबोली के जनक माने जाते हैं। इस तरह हिंदी साहित्य के इतिहास में खड़ीबोली के प्रतिष्ठाता कवि के रूप में ख़ुसरो का विशेष महत्व है। इन्होंने ठेठ खड़ीबोली में पहेलियाँमुकरियाँ आदि मनोरंजन प्रधान साहित्य का सृजन किया है। एक उदाहरण दृष्टव्य है -

एक नार दो को ले बैठी। टेढ़ी होके बिल में पैठी।।

जिसके बैठे उसे सुहाय। ख़ुसरो उसके बल बल जाय।।

(पायजामा)

ख़ुसरो की रचनाओं में खड़ीबोली और ब्रजभाषा उभय रूप मिलते हैं। इनके गीत व दोहे विशेषत: ब्रजभाषा में है। कतिपय दोहे -

(1) उज्जल बरनअधीन तनएक चित्त दो ध्यान।

          देखत में तो साधु हैनिपट पाप की खान।

(2) ख़ुसरो रैन सुहाग कीजागी पी के संग।

          तन मेरो मन पीउ कोदोउ भए एक रंग।

(3) गोरी सोवे सेज परमुख पर डारै केस।

          चल ख़ुसरो घर आपनेरैन भई चहुं देश।

(हिंदी साहित्य का इतिहासआ. रामचंद्र शुक्ल)

फारसी-हिंदी के मिश्रित भाषारूप का प्रयोग भी देखें –

जे हाल मिसकी मकुन तगाफुल दुराय नैना बनाय बतियाँ

कि ताबे हियां न दारम ऐ जां न लेहु काहे लगाय  छतियाँ ।

अमीर ख़ुसरो बड़े विनोदप्रियहाजिरजवाबी व सहृदय व्यक्ति थे। अपने स्वभाव के अनुकूल इन्होंने ज्यादातर मनोरंजक साहित्य की रचना की। डॉ. रामकुमार वर्मा के मतानुसार “अमीर ख़ुसरो की विनोदपूर्ण प्रवृत्ति हिंदी साहित्य के इतिहास की एक महान निधि है। मनोरंजन और रसिकता का अवतार यह कवि अपनी मौलिकता एवं विनोदप्रियता के कारण सदैव स्मरणीय रहेगा।” जनजीवन से सीधे जुड़कर काव्य रचना करने वाले इस कवि की लेखनी का मुख्य उद्देश्य ही जनता का मनोरंजन करना था। जनता के मनोरंजन हेतु ही इन्होंने जीवन के गंभीर क्षेत्रों व विषयों की अपेक्षा हल्के-फुल्के विषयों का चयन किया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के विचार से “ये बड़े ही विनोदीमिलनसार और सहृदय थेइसी से जनता की सब बातों में पूरा योग देना चाहते थे। जिस ढंग के दोहेतुकबंदियाँ और पहेलियाँ आदि साधारण जनता की बोलचाल में इन्हें प्रचलित मिलीउसी ढंग के पद्यपहेलियाँ आदि कहने की उत्कंठा इन्हें भी हुई। इनकी पहेलियाँ और मुकरियाँ प्रसिद्ध है। इनमें उक्ति-वैचित्र्य की प्रधानता भीयद्यपि कुछ रसीले गीत और दोहे भी इन्होंने कहे हैं।” इसमें कोई संदेह नहीं कि ख़ुसरो की कही हुई बातें आज भी हास्य-व्यंग्य संबंधी साहित्य में विशेष स्थान की अधिकारी रही है।

विषय वैविध्य भी ख़ुसरो साहित्य की एक प्रमुख विशेषता रही है। “लोक जीवन के विशद पर्यवेक्षणज्ञान के अनुरूप ख़ुसरो की हिंदी रचनाओं की विषय-वस्तु विशद और वैविध्यपूर्ण है। उनमें भारतीय प्रकृतिमौसमपशु-पक्षीजीव-जंतुपहनावाआभूषणशृंगार प्रसाधनअस्त्र-शस्त्रआमोद-प्रमोदशिल्पवाद्य से लेकर रोजमर्रा जीवन की न जाने कितनी व्यवहारोपयोगी वस्तुओं - हंडियालोटाचूल्हाचक्कीमथानीपंखापर्दाडोलीझूला आदि भी समायी है।”3

एक प्रसिद्ध संगीतकार होने के कारण ख़ुसरो की कई रचनाओं में संगीतात्मक्ता का गुण भी पाया जाता है। गीत-संगीत के प्रेमियों में ख़ुसरो की निम्न पंक्ति काफी मशहूर रही है –

लाज सरम सब छीनी ओ मोसै नैना मिलाइ के।

 पहेलियाँ

पहेली एक तरह से प्रश्नात्मक रूप में होती हैजिसमें किसी वस्तु का घुमा-फिराकर वर्णन किया जाता है अर्थात् इसमें वस्तु के गुणों का वर्णन प्रत्यक्ष रूप से न करके अप्रत्यक्ष रूप से किया जाता हैजिस पर सोच-विचार करके इसका सही उत्तर दिया जाता है। हिंदी शब्द सागर के अनुसार “ऐसा वाक्य जिसमें किसी वस्तु का लक्षण घुमा-फिराकर अथवा किसी भ्रामक रूप में दिया गया हो और उसी लक्षण के सहारे उसे बूझने अथवा उसके नाम बतलाने का प्रस्ताव होपहेली कहलाता है।” पहेलियाँ लोक के मनोरंजन का विषय होती है। मनोविनोद हेतु इसका प्रयोग किया जाता है। साथ ही इसके प्रयोग का एक उद्देश्य सामने वाले की बुद्धि की परीक्षा लेना होता है।

अमीर खुसरों ने अपनी पहेलियों द्वारा जनता का अच्छा मनोरंजन किया। इनके द्वारा रचित पहेलियाँ दो प्रकार की है - बूझ पहेलियाँ और बिन बूझ पहेलियाँ। बूझ पहेली में उसका उत्तर पहेली के अंदर ही होता है और बिनबूझ पहेली में उत्तर पहेली में नहीं होताइसका उत्तर पाठक को दिमागी कसरत करके देना पड़ता है। डॉ. विजयपाल सिंह के मतानुसार “बूझ पहेली के प्रकार को ‘अंन्तरर्लिपिका’ कहते हैं। इसका उत्तर पहली में छिपा होता है। जिस पहेली का उत्तर पहेली में न होने के कारण बाहर से उत्तर-अर्थ दिया जाता हैइस तरह की बिन बूझ पहेली को बहिर्तिदिया’ कहते हैं।

  बूझ पहेली

हाड की देही उज्जवल रंग।

लिपटा रहा नारी के संग।।

चोरी की ना खून किया।

मेरा सिर क्यों काट लिया?

      नाखून

 

·         बिन बूझ पहेली

श्याम बरन पितांबर कांधे

मुरली धरे न होय

बिन मुरली वह नाद करत है

बिरला बूझै कोय।

      भौंरा


·         कह मुकरियाँ

मुकरी चार पंक्तियों की वह कविता है जिसकी अंतिम पंक्ति में घटस्फोट होता है। हिंदी में इस लोकप्रिय काव्य रूप की विकास यात्रा में सर्वप्रथम नाम अमीर ख़ुसरो का लिया जाता है। “अधिकांश विद्वान मुकरी को पहेली का ही एक प्रकार मानते है। पहेली की तरह मुकरी भी श्रोता के बुद्धि विकास के साथ उसका मनोरंजन करती है। पुरातन मुकरियाँ देखने पर स्वत: स्पष्ट होता है कि मुकरी दो अंतरंग सखियों के बीच हुआ संवाद हैजिसमें पहली सखी अपनी दूसरी सखी के सामने अपनी बात कुछ इस प्रकार रखती है कि उसे अर्थभ्रम हो जाता है। श्रोता सखी ज्यों ही अर्थ ग्रहण करना चाहती हैंत्यों ही वक्ता सखी दूसरा अर्थ करके उसे हतप्रभ कर देती है। यद्यपि यह दो पुरुष मित्रों या स्त्री-पुरुष का संवाद भी हो सकता है।”4

ख़ुसरो की कुछ मुकरियाँ

1

जब मेरे मंदिर में आवे

सोते मुझको आन जगावै।

पढ़त फिरत वह विरह के अक्षर

ऐ सखि साजन! ना सखि मच्छर।।

2

मेरा मोसे सिंगार करावत

आगे बैठ के मान बढ़ावत।

बासे चिक्कन न कोउ दीसा

ऐ सखि साजनना सखि सीसा।।

  दो सखुन

मूलतः फारसी भाषा के ‘दो सखुन’ शब्द का अर्थ कथन या उक्ति होता है। इसमें दो अलग-अलग प्रश्न होते है और इन दोनों का उत्तर एक ही दिया जाता है। पर उत्तर में दिए गए शब्द के दो अर्थ होते हैं जो उपरोक्त पूछे गए प्रश्नों के योग्य उत्तर बताते हैं।  “दो सखुन तीन पंक्तियों का होता है। उसमें प्रथम दो पंक्तियों में दो अलग-अलग तरह के प्रश्न होते हैं और तीसरी पंक्ति में उनका एक सामान्य-सा उत्तर होता है जो उन दोनों प्रश्नों पर खरा उतरता है। अतः दो सखुन में अनिवार्यत: श्लेष रहता है।”4

 ख़ुसरो के दो सखुन

1

घोड़ा अडा क्यों?

पान सड़ा क्यों?

- फेरा न था।

2

पंडित प्यासा क्यों?

गधा उदास क्यों?

- लोटा न था।

3

जोरू क्यों मारी?

ईख क्यों उजाडी?

- रस न था

निस्बतें

अरबी भाषा के इस शब्द का अर्थ है संबंधबराबरी या तुलना। “यह भी एक प्रकार की पहेली या बुझौवल कही जा सकती है। इसमें दो चीजों में संबंधतुलना या समानता ढूंढनी या खोजनी होती है। निस्बतों का मूल आधार है एक शब्द के कई अर्थ।”

·         आम और जेवर में क्या निस्बत है?

उत्तर – कीरी

·         बादशाह और मुर्ग में क्या निस्बत है?

उत्तर – ताज

 ढकोसला

खीर पकाई जतन से और चरखा दिया चलाय

आया कुत्ता खा गयातू बैठी ढ़ोल बजाय।

      ला पानी पीला

डॉ. सायना हसन खान ने अपने पीएच.डी. शोध प्रबंध – ‘अमीर ख़ुसरो की हिन्दी रचनाएँ : पाठ संकलन और समीक्षात्मक अध्ययन’ – में ख़ुसरो के विविध साहित्य रूपों से संबंधित अनेकों रचनाओं का संकलन तथा इन पर समीक्षात्मक द्रष्टि से विचार किया है। भोलानाथ तिवारी की ‘अमीर ख़ुसरो और उनका साहित्य’ पुस्तक में ख़ुसरो के व्यक्तित्व व कृतित्व की विस्तृत चर्चा की गई है।

ख़ुसरो की हिन्दी रचनाओं में गज़लकव्वाली व गीत भी काफी लोकप्रिय रहे है।

  गज़ल

(1)           जब यार देखा नैन भर दिल की गई चिन्ता उतर

ऐसा नहीं कोई अजब राखे उसे समझाय कर ।

(2)           ख़ुसरो कहे बाताँ गजब दिल में न लावे कुछ अजब,

कुदरत खुदा की है अजब जब जीव दिया गुल लाय कर ।

कव्वाली

छापा तिलक तज दिन्हीं रेतो से नैना मिला के।

प्रेम बटी का मदवा पिलाके

मनवारी कर दीन्हीं रेमो से नैना मिला के।

ख़ुसरो निजाम पै बलि-बलि जइए

मोरे सुहागन कीन्हीं रेमौसे नैना मिला के।

  गीत

काहे को बियाहे बिदेस

सुन बाबुल मोरे।

हम तो बाबुल तोरे बागों की कोयल

कुहकत धर धर जाऊँ

सुन बाबुल मोरे

हम तो बाबुल तेरे खेतो की चिड़ियां

चुग्गा चुगतउडि जाऊँ,

सुन बाबुल मोरे।  

संदर्भ सूची –

1.    अमीर ख़ुसरो : परिचय तथा रचनाएँसं. सुदर्शन चोपड़ा

2.    हिंदी साहित्य का इतिहास डॉ. विजयपाल सिंह

3.    भक्तिकाव्य पुनर्पाठप्रोफेसर दयाशंकर त्रिपाठीपृष्ठ – 14

4.    आनंद मंजरीत्रिलोकसिंह ठकुरेलाअपनी बात से

5.   हिंदी साहित्य का संक्षिप्त सुगम इतिहास डॉ. पारुकांत देसाईपृष्ठ – 10


 

डॉ. हसमुख परमार

एसोसिएट प्रोफ़ेसर

स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर

जिला- आणंद (गुजरात) – 388120



 

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