शनिवार, 16 जुलाई 2022

जुलाई – 2022, अंक – 24

 


शब्द सृष्टि  

जुलाई – 2022, अंक – 24


विचार स्तवक –‘गोदान’ से

प्रश्न शृंखला – 3. प्रेमचंद और उनका साहित्य

पुस्तक चर्चा – प्रेमचंद और गोर्की (संपादक –शचीरानी गुर्टू) – डॉ. हसमुख परमार

आलेख  – प्रेमचंद और उनकी परंपरा – डॉ. पूर्वा शर्मा 

संस्मरण – प्रेमचंदजी की कला और उनका मनुष्यत्व  – श्रीइलाचन्द्र जोशी

कहानी – चोरी– प्रेमचंद

निबंध – हँसी– प्रेमचंद

शब्द संज्ञान– डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र 

विशेष – नयी काव्य शैली ‘तेवरी’: आंदोलन और स्वरूप – डॉ. ऋषभदेव शर्मा

दोहे / कविता– बादल गाएँ गीत – डॉ. गोपाल बाबू शर्मा

चित्र कविता– 1. गुरु-सतगुरु 2. अजब चित्रकार – डॉ. अनु मेहता 

हाइकु (भोजपुरी) – मेघ मल्हार – इन्द्रकुमार दीक्षित

कहानी – रेवा के सपने – डॉ. धीरज वणकर

काव्यास्वादन– बहुत दिनों के बाद (नागार्जुन) – डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

आलेख

 


प्रेमचंद और उनकी परंपरा

डॉ. पूर्वा शर्मा

अमरता अर्थात् कभी भी मृत्यु का वरण नहीं करना; सदैव जीवित रहने का भाव सिर्फ़ जीवन-मरण से संबंधित नहीं है। लगभग हर क्षेत्र में कुछ ऐसे विरले व्यक्तित्व होते हैं जो अपने सत्कर्मों से, अपने जीवनोपयोगी-समाजोपयोगी कार्यों के चलते दिवंगत होने के पश्चात् भी बहुसंख्य लोगों के दिलो-दिमाग में कायम रहते हैं। मसलन हम देख सकते हैं भारतीय राजनीति में महात्मा गाँधी को और आधुनिक हिन्दी साहित्य, विशेषतः हिन्दी कथा साहित्य के क्षेत्र में मुंशी प्रेमचंद को। उभय की मानवतावादी दृष्टि तथा जीवनाभिमुख कार्यों की कीर्ति एवं उपयोगिता हर समय-हर युग में बरक़रार रही है। ताउम्र दोनों क्रमशः भारतीय समाज तथा सामाजिक साहित्य के सर्वांगी विकास हेतु कार्यरत रहे-समर्पित रहे। अपने-अपने क्षेत्र में अपने चिरस्मरणीय-अविस्मरणीय योगदान से उनकी उपयोगिता एवं महत्त्व आज भी स्वयं सिद्ध है। डॉ. सुरेश सिन्हा के शब्दों में “न हम राजनीति के क्षेत्र में गाँधी जी को भुला सकते हैं और न साहित्य के क्षेत्र में प्रेमचंद को ही भुला सके। संयोग यह कि न हम राजनीति के क्षेत्र में दूसरा गाँधी पा सके और न साहित्य के क्षेत्र में दूसरा प्रेमचंद ही, दोनों ही अमर है-अजर है।” (हिन्दी उपन्यास : उद्भव और विकास, डॉ. सुरेश सिन्हा, पृ. 138)

महज अकादमिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि गैर आकादमिक क्षेत्रों में भी पढ़े जाने वाले हिन्दी कथा लेखकों में प्रेमचंद निश्चित रूप से सबसे ऊपर रहे हैं। इस तरह हिन्दी के इस कथा लेखक की लोकप्रियता का व्याप ज्यादा रहा है। हिन्दी कथा साहित्य में ही नहीं, भारतीय कथा साहित्य में उनका स्थान सर्वोपरि है। इससे भी आगे विश्व विख्यात कथा लेखकों में उनका नाम शुमार है।

प्रेमचंद-साहित्य के पाठक इस तथ्य से तो भली-भाँति अवगत है ही कि हिन्दी कथा साहित्य के क्षेत्र में एक ऐतिहासिक कोण से प्रेमचंद और उनके लेखन की विशेष महत्ता रही है। हिन्दी उपन्यास में प्रेमचंद का प्रवेश मतलब कि हिन्दी उपन्यास-हिन्दी कथा साहित्य के एक नए युग का प्रारंभ। हिन्दी उपन्यास के वास्तविक युग की नींव प्रेमचंद ने ही रखी यह कहना अतिशयोक्ति बिल्कुल नहीं होगी। किसी ने ठीक ही कहा है कि प्रेमचंद हिन्दी उपन्यास की वयस्कता की प्रभावशाली उद्घोषणा है। इस महान लेखक ने हिन्दी कथा साहित्य की धारा का रूप और रूख़ दोनों बदल दिए। हिन्दी औपन्यासिक इतिहास की इस युगांतकारी घटना के संबंध में रामदरश मिश्र लिखते हैं – “प्रेमचंद ने पहली बार उपन्यास के मौलिक क्षेत्र, स्वरूप और उद्देश्य को पहचाना। पहचाना ही नहीं उसे भव्य समृद्धि प्रदान की, साथ ही काफ़ी ऊँचाई तक ले गए।” (हिन्दी उपन्यास : एक अंतर्यात्रा, रामदरश मिश्र, पृ. 29) सामाजिक सरोकार इस विश्व प्रसिद्ध लेखक की महत्ता का दूसरा महत्त्वपूर्ण आधार रहा है। अपने युग एवं समाज की वास्तविकता को अपने लेखन की मुख्य विषय वस्तु के रूप में चयन करने वाले प्रेमचंद जी का साहित्य तत्कालीन युग और समाज का बहुत ही साफ़-सुथरा प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करता है।

जिस समय प्रेमचंद का साहित्य-जगत में प्रवेश हुआ उस समय उपन्यास साहित्य में ऐयारी-तिलिस्म, जासूसी, चमत्कार, राजकुमार-राजकुमारियों की रोमानी दुनिया ही उपन्यास का आकर्षण थी। प्रेमचंद ने उपन्यास को इस तिलस्मी-रोमानी दुनिया से निकालकर साद्देश्यता और यथार्थता की भूमि प्रदान की। प्रेमचंद ने उपन्यास के स्वरूप, क्षेत्र और उद्देश्य को पहचाना। हिन्दी को भी कहानी वे और ऊँचाई पर ले गए।  प्रेमचंद ने कथा साहित्य को प्राचीन गल्प के उद्देश्य (उपदेश अथवा मनोरंजन) से ऊपर ले जाने का प्रयत्न किया और वह उसमें सफल हुए। प्रेमचंद ने स्वयं कहा है – “...उसका उद्देश्य चाहे उपदेश करना न हो; पर गल्पों का आधार कोई-न-को दार्शनिक तत्त्व या सामाजिक विवेचना अवश्य होता है। ऐसी कहानी जिसमें जीवन के किसी अंग पर प्रकाश न पड़ता हो, जो सामाजिक रूढ़ियों की तीव्र आलोचना न करती हो, जो मनुष्य में सद्भावों को दृढ़ न करें या जो मनुष्य में कुतूहल का भाव न जाग्रत करे, कहानी नहीं है।” (प्रेम द्वादशी, पृ. 4)

सामाजिक यथार्थ प्रेमचंद साहित्य की प्रधान प्रवृत्ति रही है। यथार्थवादी कलाकार की धर्मिता का बराबर निर्वाह करने वाले इस लेखक की यथार्थ की पकड़ काफ़ी मजबूत थी । उन्होंने अपने उपन्यासों एवं कहानियों में यथार्थ के दोनों आयामों यानी सामाजिक और व्यक्तिगत यथार्थ को उभारा। इतना ही नहीं प्रेमचंद ऐसे कथाकार है जिन्होंने समकालीन परिस्थितियों, परिवेश में एक साधारण मनुष्य को कथा नायक का गौरव प्रदान किया। यही प्रेमचंद की परंपरा रही – सामाजिक यथार्थ की कलात्मक प्रस्तुति। प्रेमचंद ने साहित्य को वास्तविकता की ज़मीन प्रदान की। अपने समय एवं समाज के यथार्थ की बुनियाद एवं व्याप्ति की गहरी पहचान रखने वाले प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों एवं कहानियों में यथार्थ के जटिल और सुन्दर दोनों रूपों को बड़ी ईमानदारी के साथ जाना-पहचाना और निरूपित किया। प्रेमचंद के साहित्य में उस समय के भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक,  राजनैतिक, धार्मिक एवं आर्थिक दशा का वास्तविक चित्रण हुआ है। कथासाहित्य में किसान, स्त्री, मजदूर, शोषित, पीड़ित, दलित, वंचित आदि की उपस्थिति प्रेमचंद साहित्य में बखूबी दिखाई देती है।

ग्राम्य-जीवन, ग्राम्य-संस्कृति और उससे संबंधित समस्याएँ, मर्यादाएँ, दुःख, झूठ, अंध श्रद्धा, अशिक्षा, दासता, दीन अवस्था, कर्ज का बोझ, देहात का मौसम आदि का चित्रण प्रेमचंद के साहित्य में प्रतिबिंबित होता है। प्रेमचंद ने किसान और मजदूर वर्ग के जीवन, उनकी समस्याओं का जीवंत चित्रण किया। ज़मीदारी एवं सामंतवादी प्रथा के चलते किसान से मजदूर बनने, उनके शोषण की व्यथा-कथा भी उनके साहित्य में बखूबी चित्रित हुई है।

प्रेमचंद के साहित्य में किसान एवं मजदूर जैसे निम्न वर्ग के अतिरिक्त विधवा विवाह, वृद्ध विवाह, वेश्या वृत्ति, कुण्ठा एवं मानसिक रोग से ग्रस्त आदि मध्यम वर्गीय समस्याओं  का चित्रण भी बड़ी कुशलता से हुआ है।

प्रेमचंद का दृष्टिकोण मानवतावादी था। मानव मूल्यों की स्थापना के लिए प्रेमचंद ने  उपन्यास के अंत में कल्पित आदर्शवादी समाधान का रास्ता अपनाया। प्रेमचंद किसी एक विचारधारा से प्रभावित होकर नहीं बल्कि जनभावना के लिए लिखते रहे।

प्रेमचंद ने शिक्षा एवं शिशु संवेदना पर आधारित कथाओं का मनोवैज्ञानिक एवं रोचक चित्र प्रस्तुत किया है।  उन्होंने अपने कथासाहित्य में स्वाधीनता आंदोलन से संबंधित, राष्ट्रीयता का बोध कराती, ऐतिहासिक यथार्थ एवं औपनिवेशिक शासन की न्याय व्यवस्था आदि के नग्न सत्य को उजागर करते कई प्रसंगों की सृष्टि बड़ी नवीनता से की है । उन्होंने उस समय के इतिहास का सजीव चित्रण किया है। प्रेमचंद ने कहा है कि – “साहित्यकार बहुधा अपने देश काल से प्रभावित होता है। जब कोई लहर देश में उठती है तो साहित्यकार से उससे अविचलित रहना असंभव-सा हो जाता है।”

प्रेमचंद की परंपरा मतलब

·       सामाजिक यथार्थ की परंपरा

·       यथार्थ के साथ-साथ लेखन में जीवन के आदर्श के संस्पर्श की परंपरा

·       साहित्य में जीवन की व्याख्या एवं आलोचना की परंपरा

·       पीड़ितों-शोषितों-गरीबों के मानसिक संबल की परंपरा

·       किसान-मजदूर-शोषित-पीड़ित-वंचित समाज की कथा साहित्य में उपस्थिति एवं प्रतिनिधित्व की परंपरा

·       ग्रामीण जीवन के सर्वांगी निरूपण की परंपरा

·       शहरी जीवन की वास्तविकता के चित्रण की परंपरा

·       सामाजिक जीवन-सत्यों को उजागर करने की साहस की परंपरा

·       सामाजिक जीवन के साथ-साथ वैयक्तिक जीवन के चित्रण की भी परंपरा

·       वैचारिकता का व्यावहारिकता में परिणत होने की परंपरा

·       सरलीकरण का साहित्य में आद्यंत निर्वाह की परंपरा

·       यथार्थ के जटिल और सुन्दर दोनों रूपों की प्रस्तुति की परंपरा

प्रेमचंद की सृजनात्मक प्रतिभा तथा उनके साहित्य की संवेदना ने प्रारंभ से ही हिन्दी कथा लेखन को प्रेरित और प्रभावित किया है। वैसे तो पूरी तरह से प्रेमचंद का अनुसरण-उनकी परंपरा का निर्वाह इतना आसान कार्य नहीं है जितना कि लगता है। बावजूद, प्रेमचंद की परंपरा के कई ऐसे राही हैं जिन्होंने प्रेमचंद की विचारधारा, उनके लेखन के सामाजिक सरोकारों तथा शैली-शिल्प का अनुसरण करते हुए उनकी सामाजिक यथार्थ की इस सशक्त परंपरा को निरंतर विकसित किया है। इस तरह प्रेमचंद साहित्य की विषय-वस्तु के साथ-साथ हिन्दी कहानी-उपन्यास लेखन के इतिहास में भी प्रेमचंद के प्रभाव की मौजूदगी को-प्रेमचंद जी की प्रासंगिकता को बखूबी देखा जा सकता है।

प्रेमचंद अपने आप में एक संस्था-एक युग थे। अपने समकालीन अनेक लेखकों को अपने हाथों से सँवारने वाले इस लेखक का जादू अपने युग के लगभग सभी साहित्यकारों पर सवार था और उनका यह प्रभाव आज भी बना रहा है।

ऐतिहासिक क्रम से देखें तो प्रेमचंद युग के कथा साहित्य में प्रेमचंद की परंपरा के सर्जकों में विश्वंभरनाथ शर्मा ‘कौशिक’ तथा पाण्डेय बैचेन शर्मा ‘उग्र’ का नाम विशेष उल्लेखनीय है। विश्वंभरनाथ शर्मा ‘कौशिक’ तो प्रेमचंद स्कूल के ही लेखक रहे हैं। प्रेमचंदोत्तर युग में नागार्जुन, भैरवप्रसाद गुप्त, शिवप्रसाद सिंह, शैलश मटियानी, मार्कंडेय, भीष्म सहानी इत्यादी के नाम इस क्रम में लिए जा सकते हैं। पिछले कुछ दशकों में, विशेषतः समकालीन उपन्यास तथा इक्किसवीं सदी के कथा साहित्य के अंतर्गत संजीव, हरियशराय, स्वयं प्रकाश मिश्र, भगवानदास मोरवाल, महुआ माजी, तेजिंदर प्रभृति उपन्यासकारों जिन्हें प्रेमचंद की सामाजिक प्रतिबद्धता-प्रेमचंद की रचनाओं में चयनित विषय-वस्तु-प्रेमचंद की भाषा-शैली से प्रभावित कहा जा सकता है। इन लेखकों ने प्रेमचंद की परंपरा का अनुसरण करने के साथ-साथ इसका विस्तार भी किया है। 

 


डॉ. पूर्वा शर्मा
वड़ोदरा

काव्यास्वादन

 


बहुत दिनों के बाद (नागार्जुन)

डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

इस कविता के रचयिता नागार्जुन हैं। नागार्जुन जमीन से जुड़े हुए कवि थे। उनको गाँव तथा गाँव के लोग बहुत प्रिय थे।

इस कविता का नायक मूलतः गाँव का रहने वाला है।

परंतु वह बहुत समय से रोजी रोजगार के चलते शहर में जा कर रहता है। गाँव तथा शहर के जीवन में बहुत अंतर होता है। शहर में रहते हुए भी कविता का नायक गाँव को भूल नहीं पाया है।

इसलिए जब उसे गाँव जाने का मौका मिलता है, तब वह बहुत खुश होता है। कविता के नायक के मन की खुशी इस कविता में व्यक्त हुई है।

शहर में खेत तो होते नहीं। खेती कहाँ से होगी। इसलिए कविता का नायक जब गाँव पहुँचता है, तब चारों तरफ खेतों में लहराती फसल को देखता है, तो उसका मन खुशी से झूम उठता है। वह कहता है – आज मैंने पकी सुनहली फसलों की मुस्कान बहुत दिनों के बाद देखी है।

पकी हुई फसल का रंग पीला हो जाता है। सोने का रंग भी पीला होता है। इसी लिए कवि ने पकी फसलों को सुनहली (सोने के रंग जैसी) कहा है।

मुस्कान खुशी का प्रतीक है। खुश होने पर ही कोई मुस्कराता है। फसल पेट भरती है। सुख देती है। इसलिए पकी फसल कविता के नायक को मुस्कुराती हुई लगती है।

दूसरे दृश्य में कविता का नायक किशोरियों यानी युवतियों को धान कूटते देखता है। किशोरियाँ धान कूटते हुए मधुर स्वर में गीत गा रही थीं। काम करते हुए गीत गाने से थकावट नहीं होती। वातावरण बहुत आनंददायक होता है।

चावल जिस अनाज से निकलता है, उसे धान कहा जाता है। धान से चावल निकालने के लिए धान को ओखली में कूटा जाता है। ओखली मोटी लकड़ी का एक साधन होती है। ओखली में गहरा गड्ढा होता है। उसी में धान डालकर डंडे जैसे मूसल से धान को कूटा जाता है।

मौलसिरी एक पेड़ का नाम है। उसमें छोटे-छोटे बहुत सुंदर फूल लगते हैं। फूल बहुत सुगंधित होते हैं। कविता का नायक कहता है कि आज बहुत दिनों के बाद मैंने मौलसिरी के ढेर सारे ताजे फूलों को सूँघा। शहरों में बासी फूल मिलते हैं। वह भी थोड़ी मात्रा में। उन्हें खरीदना पड़ता है। परंतु गाँव में एकदम ताजे फूल मिलते हैं। उन्हें खरीदना नहीं पड़ता। ताजे फूलों में ताजी खुशबू होती है। उसका आनंद ही कुछ अलग होता है।

शहर की तरह गाँव में पक्के रास्ते या सड़कें नहीं होतीं। शहर की सड़कें गरमी से गरम हो जाती हैं। शहरों में धूल बहुत कम होती है। परंतु गाँवों में तो धूल भरी पगडंडी होती है।

पगडंडी की धूल की तुलना कवि ने चंदन से की है। चंदन में शीतलता (ठंडक) होती है। गाँव की धूल से कवि को भी तथा कविता के नायक को भी बहुत प्रेम है। इसी लिए गाँव की धूल का स्पर्श होने से कविता के नायक को बहुत प्रसन्नता होती है।

तालमखाना एक पौधा होता है। वह गाँव में ही होता है। शहर में तो होता नहीं। उसके बीज (फल) खाने में बड़े स्वादिष्ट होते हैं। गाँव जाने के बाद कविता के नायक को तालमखाने के मीठे फल खाने का मौका मिला।

गन्ना भी गाँव में ही होता है। गन्ना शहर में भी मिलता है। परंतु उसे खरीदना पड़ता है। जबकि गाँव में तो गन्ना अपने खेत में ही होता है। जितना चाहे उतना हम चूस सकते हैं। कविता के नायक ने गन्ना चूसने का भी आनंद लिया।

हमारी पाँच इद्रियों के पाँच विषय होते हैं – रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श। रूप आँख का विषय है। रस जीभ का विषय है। गंध नाक का विषय है। शब्द कान का विषय है। स्पर्श छूने का विषय है।

ये सारे विषय गाँव में एक साथ मिलते हैं। कविता के नायक को इन सारे विषयों का आनंद लेने का मौका गाँव में मिला। इसी लिए कविता का नायक गाँव जाकर बहुत प्रसन्न हुआ। गाँव में उसे बहुत आनंद आया।

कविता

बहुत दिनों के बाद

नागार्जुन

बहुत दिनों के बाद

अब की मैंने जी-भर देखी

पकी-सुनहली फसलों की मुसकान

बहुत दिनों के बाद

 

बहुत दिनों के बाद

अब की मैं जी-भर सुन पाया

धान कुटती किशोरियों की कोकिल-कंठी तान

बहुत दिनों के बाद

 

बहुत दिनों के बाद

अब की मैंने जी-भर सूँघे

मौलसिरी के ढेर-ढेर से ताजे-टटके फूल

बहुत दिनों के बाद

 

बहुत दिनों के बाद

अब की मैं जी-भर छू पाया

अपनी गँवई पगडंडी की चंदनवर्णी धूल

बहुत दिनों के बाद

 

बहुत दिनों के बाद

अब की मैंने जी-भर तालमखाना खाया

गन्ने चूसे जी-भर

बहुत दिनों के बाद

 

बहुत दिनों के बाद

अब की मैंने जी-भर भोगे

गंध-रूप-रस-शब्द-स्पर्श सब साथ-साथ इस भू पर

बहुत दिनों के बाद

 

हाइकु (भोजपुरी)

 



मेघ मल्हार

इन्द्रकुमार दीक्षित

1

चढ़े असाढ़

गिरल लवन्नर

जोतऽ बियाड़ ।

2

बाड़ऽ  कसाई

सानी ना पानी,कब

 हर नधाई! ।

3

दुब्बर भाई!

जरे बियाड़, कैसे

 धान रोपाई ।

4

जरेला चाम

सहि  ना जाला अब

अतना घाम ।

5

देवी- देवता

सब केहू आ जाई

खाए नेवता ।

6

बादर भाई!

तोहरे बिनु पानी

के बरसाई ।

7

मेघ मल्हार

सब कर लालसा

पुरव  यार ।

8

बादर भाई!

बे- पानी, क गावत

बाड़ऽ  बधाई ।

9

हे डीह बाबा!

चलऽ सहर धरऽ

गाँव  में का बा?

 



इन्द्रकुमार दीक्षित

देवरिया

चित्र कविता

 


1. गुरु-सतगुरु



 2. अजब चित्रकार 










संस्मरण

 



प्रेमचंद जी की कला और उनका मनुष्यत्व

श्री इलाचन्द्र जोशी

जब प्रेमचंद जी ने पहले-पहल हिन्दी में लिखना प्रारम्भ किया था तब मैं एक स्कूली लड़का था पर तत्कालीन हिन्दी साहित्य की सभी सामयिक बातों के सम्बन्ध में खासी जानकारी रखता था। उन दिनों प्रेमचंद जी की कहानियाँ अक्सर ‘सरस्वती’  में निकला करती थीं। उस युग में हिन्दी में कहानियों की जो मिट्टी खराब की जा रही थी उसे देखते हुए मेरे आश्चर्य और हर्ष का ठिकाना न रहा। जब मैंने देखा कि अकस्मात्‌ एक ऐसे लेखक का आविर्भाव हुआ है जिसके भाव, भाषा और शैली में निरालापन और चमत्कार के अतिरिक्त एक ऐसी विशेषता वर्तमान है जो अपनी सहृदयता से बरबस पाठक के हृदय को मोह लेती है तब से मैं जिस किसी भी पत्र में प्रेमचंद जी की कहानी छपी हुई पाता उस पर भुक्खड़ की तरह झपट पड़ता।

शीघ्र ही प्रेमचंद जी की कहानियों के दो संग्रह निकले- ‘नवनिधिऔर सप्तसरोज। जहाँ तक मुझे याद है, ‘नवनिधिकी कहानियाँ अधिकांशत: ऐतिहासिक थीं। तथापि उनका विषय- निरूपण ऐसा सुन्दर था कि लेखक का रचना-कौशल देखकर वास्तव में चकित रह जाना पड़ता था और उनमें भावों को खूबियाँ ऐसे अच्छे ढंग से व्यक्त की गई थीं, कि कोई भी पढ़कर मुग्ध हुए बिना न रह सकता था। मैंने इस पुस्तक को अपनी स्कूली अवस्था में कम-से-कम बारह बार पढ़ा होगा। इसके बाद सप्तसरोजनामक संग्रह मेरे देखने में आया। इस संग्रह ने हिन्दी के कहानी-साहित्य में एक पूर्णत: अभिनूतन युग की सूचना दी। इसमें आधुनिक विश्व-साहित्य की कहानी-कला के टेकनिक’  के पूर्ण प्रदर्शन के अतिरिक्त अन्तस्तल में प्रवेश करने वाली मार्मिक गहनता तथा सरल स्पष्ट वास्तविकता के बैकग्राउण्ड’  में प्रतिफलित होने वाली स्निग्ध सुन्दर सहदयता की अपूर्व मनोहर अभिव्यंजना हृदय में एक मधुर वेदना की गुदगुदी-सी पैदा करती थी। प्राय: बीस वर्ष पहले मैंने सप्तसरोजकी कहानियाँ पढ़ी थीं और एक ही बार उन्हें पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ था, तथापि अभी तक उसकी कुछ कहानियाँ मेरे स्मृति- पटल में अत्यन्त उज्जवल तथा सुस्पष्ट रूप से अंकित हैं। सौत’, ‘बड़े घर की बेटी’, ‘पञ्च परमेश्वर’ आदि कहानियाँ साहित्य संसार में सदा अमर होकर रहेंगी। ऐसी सुन्दर छोटी कहानियाँ हिन्दी में न उस युग के पहले कभी लिखी गई थीं, न उसके बाद ही कोई ऐसी कहानी मुझे पढ़ने को मिली जिनमें टेकनिकऔर सहृदयता का ऐसा सामञ्जस्य पाया जाता हो।

इसके बाद ‘सेवासदन’ प्रकाशित हुआ। हिन्दी के उपन्यास-साहित्य में यह निर्विवाद रूप में युगान्तरकारी रचना थी। इसमें पात्रों के सुन्दर मनोवैज्ञानिक चरित्र-चित्रण के अतिरिक्त एक नवीन आदर्श को अवतारणा कलाकार की आन्तरिक समवेदना के साथ अभिव्यक्ति की गई थी। इस उपन्यास ने मेरे मन में एक नई अनुभूति और अनोखी प्रेरणा उत्पन्न कर दी।

सेवासदन’  प्रकाशित होने के शायद तीन-चार वर्ष बाद प्रेमाश्रम’ प्रकाशित हुआ। इस बीच साहित्य ओर कला के सम्बन्ध में मेरे विचारों में बहुत कुछ परिवर्तन और विवर्तन हो गया था। प्राच्य तथा पाश्चात्य कला के प्राचीन तथा नवीन भावों के अध्ययन और मनन के बाद मेरे विचारों की धारा एक विचित्र उलटी-सीधी गति से तरंगित हो रही थी। अतएव मेरी ऐसी मानसिक अवस्था में जब प्रेमचंद जी का प्रेमा श्रम दीर्घ छ: सौ पृष्ठव्यापी विस्तृत तथा विशालकाय आकार में प्रकाशित होकर सामने आया तो मैं अपने फेवरिटलेखक की इस नई कृति को अत्यन्त उत्सुकता से पढ़ने लगा। पर मुझे खेद हुआ जब मैंने उक्त रचना अपने मन की आशाओं के अनुरूप न पाई। इस रचना से मुझे लेखक की प्रतिभा के विराट्‌ रूप से परिचय अवश्य हुआ, पर उसमें कला का निर्वाह मैंने अपने मन के अनुरूप न पाया। उन दिनों मेरी रगों में कच्ची उम्र का नया खून जोश मार रहा था। प्रेमाश्रम’ के सम्बन्ध में तत्कालीन साहित्यलोचकों से मेरा मतभेद होने पर मैं रह न सका और अत्यन्त प्रबल आक्रोश के साथ परिपूर्ण शक्ति से मैं उन पर बरस पड़ा। इस पर आलोचना-प्रत्यालोचना का जो लम्बा चक्कर चला, उससे तत्कालीन साहित्य के ऐतिहासिक गगन में जो क्रांतिकारी बवण्डर मचा था, उससे उस युग के पाठक भली-भाँति परिचित हैं। आज मैं अपनी उस असहनशीलता के कारण लज्जित हूँ। पर यदि विचारपूर्वक उदार दृष्टि से देखा जाय, तो हमारे साहित्य के उस नवीन क्रांतिकारी युग में मेरे भीतर कला-सम्बन्धी प्राच्य तथा पाश्चात्य भावों के विचित्र सम्मिश्रण से रासायनिक क्रिया-प्रतिक्रिया ने जो तहलका मचा रखा था उसके फलस्वरूप मेरे विचारों में उग्रता तथा असहनशीलता आनी अनिवार्य थी।

प्रेमचंद जी की कला के सम्बन्ध में यह कड़वी धारणा मेरे मन में कुछ समय तक रही। पर मैं उनकी प्रतिभा के बृहद रूप पर बराबर जोर देता चला आया- मैंने उसे कभी अस्वीकार नहीं किया। 1927 में जब प्रेमचंद जी माधुरीका सम्पादन कर रहे थे तो उनसे मैं लखनऊ में प्रथम बार मिला। उनके दर्शन मात्र से ही मैं सहम-सा गया। उनका चमकता हुआ विस्तृत ललाट, अन्तर्भेंदिनी तथा सुगंभीर और शान्त आँखों, मोटी भौंहें और बडी-बड़ी मूँछें मिलकर एक ऐसे विचित्र व्यक्तित्व को व्यक्त करती थीं जो पूर्णतः भारतीय होने पर भी अपने भावलोक के एकाकीपन में एक निराली वैदेशिक विशेषता रखता था। जहाँ तक मुझे याद है, रवीन्द्रनाथ ने ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के सम्बन्ध में कहा था कि यद्यपि वह अपने बाल्य-जीवन में पूरे बंगाली थे और बंगालियों के प्रति उनके मन में पूर्ण सहानुभूति थी तथापि अपने अन्तर्जीवन में वह एकदम अ-बंगाली थे और अपने सतेज व्यक्तित्व तथा उदार सदाशय स्वभाव के कारण वे स्वजातियों से पूर्णत: भिन्‍न जान पड़ते थे। प्रेमचंद जी को देखते ही मेरे मन में वही धारणा जम गई। मैंने युक्तप्रान्त में अपेन परिचित प्रतिष्ठित मित्रों से उनमें एक विशिष्ट विभिन्‍नता पाई। जार के युग में नाना कड़वे अनुभवों से निष्पेषित, प्रताड़ित तथा प्रपीड़ित रूस के प्रतिभाशाली मनीषियों के अतल व्यापी अव्यक्त विक्षोप की सघन गहनता उनके व्यक्त्वि में लक्षित होती थी। यदि गौर किया जाय तो प्रेमचंद जी तथा मैक्सिम गोर्की की बाह्याकृतियों में भी एक आश्चर्यजनक साम्य दिखाई पडता है। दोनों के फोटो उठाकर दोनों का व्यक्तित्व मिलाकर देखिये। आप हैरत में पड़ जायेंगे कि दोनों देशों की भौगोलिक परिस्थिति, सभ्यता तथा संस्कृति में मूलत: भिन्‍नता हाने पर भी दोनों देशों के आधुनिक साहित्य के दो विशिष्ट प्रतिनिधियों की मुखाकृतियों में प्रकट होने वाले व्यक्तित्व में इतनी अधिक समानता पाई जाती है।

केवल बाह्य समता ही नहीं, गोर्की और प्रेमचंद जी के भीतरी व्यक्तित्व में भी कुछ कम समता नहीं पाई जाती। जिस प्रकार गोर्की ने दलित मानवता के सुख-दु:ख की वास्तविकता अनुभव प्राप्त करके अपनी उस सच्ची सहृदयतापूर्ण तथा संवेदनामुलक अनुभूति का अपनी क्रियात्मक रचनाओं में अत्यन्त सुन्दर रूप से कलात्मक परिपूर्णता के साथ अभिव्यक्त किया उसी प्रकार प्रेमचंद जी ने भी भारत की पीड़ित शोषित तथा उपेक्षित ग्रामीण जनता की आत्मा से अपनी अंतररात्मा का पूर्ण संयोग संघटित करके उनका यथार्थ चरित्र चित्रित करके अपनी कलामयी अनुभूति का परिचय दिया है।

यद्यपि सामयिक पत्रों में प्रेमचंद जी की कला-सम्बन्धी धारणा से मेरा मतभेद कुछ कड़वे रूप में व्यक्त हो चुका था, पर जब मैं उनसे मिला तो उन्होंने अपनी बातों में किसी सामान्य संकेत से भी यह बात प्रकट न होने दी कि मेरे विचारों से मतभेद होने के कारण मेरे प्रति उनके मन में किसी प्रकार का द्वेषभाव उत्पन्न हुआ है। प्रारम्भ में उन्होंने कुछ संकोच के साथ बात अवश्य कीं, पर कुछ ही देर बाद वह ऐसे खुले कि दोनों को ऐसा अनुभव होने लगा जैसे हम लोगों की बड़ी पुरानी मैत्री हो। यह बात प्रेमचंद जी के हृदय की असाधारण उदारता के कारण ही सम्भव हुईं थी। उस दिन से मेरा हृदय प्रेमचंद जी के प्रति श्रद्धा और सम्भ्रम के भाव से झुक गया। हिन्दी के बहुसंख्यक साहित्यिकों में विचार-विभिन्‍नता के कारण जो पारस्परिक असहनशीलता व्यक्तिगत रागद्वेष के रूप में अत्यन्त संकीर्णतापूर्वक व्यक्त होती रहती है , उसका लेश भी मैंने प्रेमचंद जी में नहीं पाया। उनके साथ घण्टे भर की बातचीत से मैं समझ गया कि हम दोनों को कलात्मक अभिव्यक्ति की अन्तर्धाराएँ दो विभिन्‍न दिशाओं की ओर प्रवाहित हुई हैं। प्रेमचंद जी वास्तविक और व्यक्त जीवन की कठोरता के भीतर आदर्शवाद के मूल प्राण की खोज करके उसे जनता के सम्मुख रखना चाहते हैं, और में अव्यक्त की अज्ञात माया की मोहिनी के फेर में पड़कर, वास्तविक जीवन के अन्तराल में छिपी छायात्मिका प्रकृति के रहस्य की ओर निरुद्देश्य दौड़ा चला जा रहा हूँ। तथापि इस कारण मैं हम दानों की मूलात्माओं के सम्पूर्ण सहयोग तथा संवेदनात्मक अनुभूति के मार्ग में किसी प्रकार की बाधा पड़ने का कोई कारण मुझे नहीं दिखाई दिया।

इसके बाद प्रेमचंद जी से मैं केवल एक बार थोड़े समय क लिए मिल पाया था। पर उनके प्रति श्रद्धा का जो भाव मेरे मन में एक बार जम गया था वह स्थिर रहा और सदा अमिट होकर रहेगा।

जनता प्रेमचंद जी को केवल एक ऊँचे दर्जे के कलाकार के रूप में जानती है, पर कला के अतिरक्त उनमें मनुष्यत्व कितना अधिक था, इस बात से बहुत कम लोग परिचित हैं। अपनी रचनाओं में उन्होंने जिन दलितात्माओं के निर्यातन का निदर्शन किया है उनके प्रति उनकी केवल मौखिक सहानुभूति नहीं थी, बह अपनी उस सहानुभूति को अनेक बार वास्तविक जीवन में व्यावहारिक रूप में प्रकट करके हमारे कलाकारों के लिए एक महत्‌ आदर्श छोड़ गये हैं। कला की मार्मिक अनुभूति का वास्तविक मूल्य यहीं पर है। उन्होंने अपने जीवन में जिन कष्टों का अनुभव किया उसे एक तरह से पीड़ितों को यथार्थ रूप में समझने मे सहायता पाई, और केवल समझ कर ही वह चुप नहीं रहे, बल्कि अपनी घोर आर्थिक सकंट की दशा में भी वह समय-समय पर संकटापन्न परिस्थिति में पड़े हुए परिचित अथवा अपरिचित व्यक्तियों को यथासामर्थ्य व्यावहारिक सहायता पहुँचाने के लिए सदा उद्यत रहते थे। हिन्दी की साहित्यिक मण्डलियों के घोर स्वार्थपूर्ण वातावरण की संकीण मनोवृत्ति को ध्यान में रखते हुए जब मैं प्रेमचंद जी के इस उदार मनुष्यत्व की सदाशयता पर विचार करता हूँ तो मेरे हृदय में विव्हल श्रद्धा गदगद होकर उमड़ उठती है।

 

(प्रेमचंद रचनावली-20 से साभार)


श्री इलाचन्द्र जोशी


 

निबंध

 



हँसी

प्रेमचंद

एक प्रसिद्ध दार्शनिक का कथन है कि मनुष्य हँसने वाला प्राणी है और यह बिलकुल ठीक बात है क्योंकि श्रेणियों का विभाजन विशेषताओं पर ही आधारित होता है और हँसी मनुष्य की विशेषता है। यों तो मानव हृदय की भावनाएँ अनेक प्रकार की होती हैं मगर आनंद और शोक का स्थान इनमें सबसे प्रधान हैं। अन्य भावनाएँ इन्हीं दोनों के अंतर्गत आ जाती हैं। उदाहरण के लिए निराशा, लज्जा, दुख, क्रोध, घृणा ये सब शोक के अंतर्गत आ जायेंगे। उसी प्रकार अहंकार, वीरता, प्रेम आदि आनंद की श्रेणी में। मनुष्य का जीवन इन्हीं दो प्रतिकूल भावनाओं में विभाजित है। आनंद का प्रकट लक्षण हँसी है, शोक का रोना। हँसने और खुश रहने की इच्छा सर्वसामान्य है। रोने और शोक से हर व्यक्ति बचता है। हँसना और रोना मनुष्य के जन्मजात गुण हैं, अर्जित गुण नहीं। बच्चा पैदा होते ही रोता है और उसके थोड़े ही दिनों बाद एक ख़ामोश-सी मुस्कराहट उसके चेहरे पर दिखाई देने लगती है। अन्य भावनाएँ समझ बढ़ने के साथ-साथ पैदा होती जाती हैं।

कुछ विद्वानों ने यह पता लगाने का प्रयत्न किया है कि कुछ जानवर भी हँसने में आदमियों के साथीदार हैं। वे यह तो स्वीकार करते हैं कि जानवरों की हँसी स्वतः नहीं होती मगर जो प्रेरणाएँ मनुष्य के हृदय में हँसी उत्पन्न करती हैं उनमें किसी न किसी हद तक वह भी ज़रूर शरीक हैं। कुत्ता अपने मालिक को जब कई दिन के बाद देखता है तो दुम हिलाता हुआ उसके पास चला जाता है बल्कि उसके बदन पर चढ़ने की कोशिश करता है और एक क़िस्म की आवाज़ उसके मुँह से निकलने लगती है। जिन कुत्तों को गेंद उठा लाने की शिक्षा दी जाती है वे गेंद उठाते समय कभी-कभी खुद भी अपने पैरों से गेंद को और आगे ढकेल देते हैं। जब कई कुत्ते साथ खेलने लगते हैं तो उनकी चुहल और शरारत की कोई सीमा नहीं रहती। जिन लोगों ने इन कुत्तों के चेहरों को ध्यान से देखा है वे कहते हैं कि आँखों में एक शरारत-भरी झलक, गालों का सिकुड़ना और दाँतों का बाहर निकल आना, जो हँसी के अनिवार्य लक्षण हैं, वे सभी एक बहुत हल्की-सी शक्ल में कुत्तों के चेहरे पर भी दिखाई देने लगते हैं।  कभी-कभी कुत्ते मुर्गियों को सिर्फ़ डराने के लिए दौड़ाया करते हैं। बिल्ली एक बहुत गंभीर जानवर है मगर वह भी चूहों को खिलाते वक़्त अपनी जन्मजात हास्यप्रियता का परिचय देती हैं। और बंदरों के बारे में तो कितने ही पशु-विज्ञान के विद्वानों का विश्वास है कि वे हँसते भी हैं और मज़ाक समझते भी हैं। अगर बंदर को मुँह चिढ़ाओं तो वह कितना झल्लाता है। अगर उसे छेड़ने के लिए उसके साथ दिल्लगी करो तो वह नाराज़ हो जाता है। उसे यह पसंद नहीं कि कोई उसका मज़ाक़ उड़ाए। कहने का मतलब यह कि कुत्ते, बिल्ली, बंदर की हँसी खामोश और बेआवाज़ होती हैं मगर उनमें हँसी-दिल्लगी की चेतना होती हैं।

बच्चे की हँसी भी शुरू में बेआवाज़ और किसी क़दर जानवरों से मिलती हुई होती हैं। मगर उम्र के दूसरे महीने में उसमें फैलाव और तीसरे महीने में आवाज़ पैदा हो जाती है। तब उसे गुदगुदाओगे तो खिलखिलाता है और दूसरों को देख कर हँसता है। गुदगुदाने से हँसी क्‍यों आती है, कुछ विद्वानों ने इसकी भी व्याख्या की है। एक प्रोफ़ेसर का ख्याल है कि जब मनुष्य विकास की आरंभिक स्थिति में था उस समय माँ बच्चे के शरीर पर से मक्खियाँ उड़ाने या दूसरे कीड़े को भगाने के लिए उसी तरह हाथ फेरती थी जिस तरह आजकल गायें अपने बच्चों को चाटती हैं। इसी तरह हाथ फेरने से बच्चे को बहुत कुछ आराम मिलता है। लिहाजा आजकल भी जब नर्मी से शरीर पर हाथ फेरा जाता है तो उसी तरह इंसान को वही आराम याद आता है और वह हँसने लगता है। यह खयाल सही हो या ग़लत मगर आदमी की हँसी का विकास उसकी इंसानियत के साथ ही होता है। एक मज़ेदार बात है कि होंठ या शरीर की एक जरा-सी हरकत इंसान को घंटों हँसाती हैं।

वहशी क़ौमें भावनाओं की प्रौढ़ता की दृष्टि से बहुत कुछ बच्चों से मिलती हैं। यही कारण है कि उनको हँसी भी बच्चों की हँसी से मिलती-जुलती होती है। बच्चे कभी-कभी ख़ामखाह हँसते हैं। उनकी हँसी लाज-संकोच की परवाह नहीं करती। वहशियों की भी यही हालत है.। सभ्य लोग अपनी हँसी पर बहुत संयम करते हैं लेकिन बर्बरों में यह संयम कहाँ। वह जब हँसते हैं तो खूब खुल-कर। खूब क़हक़हे लगाते हैं, तालियाँ बजाते हैं, चूतड़ पीटने लगते हैं और नाचते हैं, यहाँ तक कि कभी-कभी उनको आँखों से आँसू बहने लगते हैं। हँसते-हँसते मर जाना इससे चाहें एक क़दम और आगे बढ़ा होता हो। कोई अपरिचित चीज़ देखकर वह खूब हँसते हैं। बोर्नियो द्वीप में एक मिशनरी को पियानो बजाते देख कर वहाँ के बर्बर निवासी हँसने लगते हैं। सभ्य लोगों की एक-एक हरकत उन बरबरों की हँसी का सामान हैं। उनके कपड़े, उनका मुँह-हाथ धोना, यह सब बातें उन्हें अजीब मालूम होती हैं और यह अजीब मालूम होना हँसी की मुख्य प्रेरणाओं में से एक है। एक बार एक हब्शी सरदार इंगलिस्तान में पहुँचा और एक कारखाने की सैर करने के लिए चला। मैनेजर ने मेहरबानी से उसे कारखाना दिखाना शुरू किया। संयोग से एक जगह मैनेजर का कोट किसी चर्खी की पकड़ में आ गया और बेचारे मैनेजर साहब कोट के साथ दो-तीन चक्कर खा गये। कर्मचारियों ने दौड़कर किसी तरह उनकी जान बचायी मगर हब्शी सरदार हँसते-हँसते लोट गया। उसने समझा कि मैनेजर साहब ने उसे तमाशा दिखाने के लिए क़लाबाज़ियाँ खायीं और इस घटना के बाद वह जब तक इंगलिस्तान में रहा उसने कई बार मैनेजर साहब से वही दिलचस्प तमाशा दिखाने का तक़ाज़ा किया। कुछ असभ्य जातियों में रईसों के दरबार में अब भी मसख़रे या विदूषक रक्‍खे जाते हैं।

पुराने ज़माने में दरबारी विदूषकों का रिवाज हिन्दुस्तान और योरप में प्रचलित था। यहाँ तक कि वे दरबार का आभूषण समझे जाते थे। उनके बगैर दरबार सूना रहता था। इस सभ्यता के युग में भी वही रिवाज एक दूसरी शकल में मौजूद है जिसे थियेटरों में देख सकते हैं। एस्किमो एक जंगली क़ौम है। उनके यहाँ रिवाज है कि जब किसी मुक़दमे का फ़ैसला होने लगता है तो दोनों विरोधी पक्ष के लोग एक-दूसरे को गंदी-गंदी गालियाँ सुनाना शुरू करते हैं। कभी-कभी पद्य-बद्ध गालियाँ दी जाती हैं। हाकिम इजलास और दूसरे तमाशाई इन तुकबंदियों पर खूब हँसते हैं और आखिरकार उसी पक्ष की विजय होती है जो गालियों की गंदगी और बेशर्मी के लिहाज़ से तमाशांइयों को ज्यादा खुश कर दे। न्याय की अच्छी कसौटी निकाली है। ऐसे देश में गालियाँ बकना निश्चय ही कानूनदानी से अच्छा और फ़ायदेमन्द घन्धा है और काश हमारे देश के कुंजड़े और भटियारे वहाँ पहुँच जायें तो यकीनन है कि उन्हें किसी अदालत में हार न हो। अभी पशु-विज्ञान के किसी पंडित ने यह छानबीन नहीं की लेकिन हँसी और निर्लज्जता में कोई कार्य-कारण संबंध अवश्य है। हिन्दुस्तान में शादी- ब्याह में, दावतों में गंदी और शर्मनाक गालियाँ गाने का रिवाज कितना बुरा मगर सब तरफ़ कितना प्रचलित और लोकप्रिय हैं। यहाँ तक कि कितने ही लोगों को गालियों के बगैर ब्याह का मज़ा ही नहीं आता और जब तक कानों में गंदी-गंदी गालियों की पुकारें नहीं आती खाने की तरफ़ तबियत नहीं झुकती।

हर एक देश या जाति का साहित्य उस देश की सर्वोतम भावनाओं और विचारों का संग्रह होता है और हालाँकि किसी जाति के साहित्य में हँसी-दिल्लगी को वह स्थान नहीं दिया जायगा जिसका उसे सर्वसाधारण में अपने प्रचलन की दृष्टि से अधिकार है और प्रेम की भावनाओं को उससे ऊँचा स्थान दिया जाता है जो एक सीमाबद्ध भावना है और जिसका प्रभाव मानव जीवन के एक विशेष अंग तक सीमित है, तब भी यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि उनका प्रभाव हर एक साहित्य पर स्पष्ट है और चूँकि हँसने-हँसाने की इच्छा हर दिल में रहती है, हास्य-कृतियाँ पसंद भी की जाती हैं। अंग्रेज़ी में शेक्सपियर का मसखरा फ़ॉल्स्टाफ़, स्पेनी लिटरेंचर का डॉन कुइक्ज़ोट और उर्दू लिटरेचर का खोजी कैसे ग़म भुला देनेवाले हैं। कितने रंज और ग़म के सताये हुए दिल उनके एहसानमंद हैं। यह कहने में कोई अत्युक्ति नहीं कि गद्य हो या पद्य, हँसी-दिल्लगी उसकी आत्मा है और उसके बगैर वह रूखी-सुखी और बेमज़ा रहती है।

हँसी के अनेक उद्दीपक हैं। संस्कृत में हँसी के प्रकारों, उनकी व्याख्या और उनके उद्दीपकों आदि को बड़े विशद और विस्तृत ढंग से बयान किया गया है। अंग्रजी में ऐसी विशद सैद्धान्तिक चर्चा इस विषय पर नहीं हैं। इन उद्दीपकों में विशेष ये हैं।

१--किसी चीज़ का अनोखापन जैसे बंदर का कोट-पतलून पहनना।

२—किसी अच्छी चीज़ का फ़ौरन किसी बुरी सूरत में जाहिर होना जैसे मुँह चिढ़ाना।

३--कोई शारीरिक दोष जैसे कानापन या लंगड़ाकर चलना।

४--मानव विशेषताओं में कोई असाधारण बात जैसे शेखी मारना या भोलापन।

५--किसी चीज़ का अपने साधारण रूप से अलग हटना जैसे मुंह में कालिख लगना।

६—अशिष्टता।

७--छोटी-मोटी दुर्घटनाएँ जैसे किसी का लड़खड़ाकर गिर पड़ना।

८—निर्ल्लज शब्दों का प्रयोग।

--हर तरह की अतिशयोक्ति या हद से आगे बढ़ जाना जैसे भारी-भरकम पेट या बहुत  ऊँचा क़द।

१०--गुप-चुप बातें।

११--चीज़ों की तरह आवाज़ में भी अजनबीपन, अनोखापन जैसे बेसुरा गीत।

१२--दूसरों की नक़ल करना।

१३--कोई द्वयर्थक वाक्य।

उपरोक्त वर्गीकरण को ध्यान से देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि हँसी का उद्दीपन विशेषतः किन्‍हीं दो वस्तुओं के विरोध पर आधारित है। एक लड़का अपने बाप का ढीलाढाला कोट पहन लेता हैं और उसे देखते ही फ़ौरन हँसी आती है। अफ़ीमचियों की कहानियाँ हँसी का एक न चुकनेवाला खज़ाना हैं। अकबर और बीरबल के चुटकुले भी दिलों को गरमाने के लिए आज़माए हुए नुस्खे हैं और ख्वाजा बदीउज़्ज़माँ उफ़ खोजी ( खुदा की उन पर रहमत हो ! ) को तो उर्दू लिटरेचर का सबसे बड़ा शोकसंहारक कहना चाहिए। हाजी बगलोल भी उन्हीं के मुरीदों में शामिल हैं। शायरी के दोषों और त्रुटियों को सरशार ने हँसी-दिल्लगी का कैसा फड़कता हुआ लिबास पहनाया है। ख्वाज़ा साहब की गँवई बातचीत, उनका शेर पढ़ना, डींग मारना, ये सब हंसने के अक्सीर नुस्खे हैं। छन्द-शास्त्र की भूलें, स्त्रीलिंग और पुल्लिंग की ग़लतियाँ जो शायरी में ऐब समझी जाती हैं वे पढ़े-लिखे आदमियों के लिए हँसी का सामान हैं। उर्दू कवियों की सौन्दर्य की अतिशयोक्ति भी मजाक़ की हद तक जा पहुँचती है। नाभी की गहराई को अगर बरेली का कुआँ कहें तो ख़ामखाह हँसी आयेगी।

विद्वानों ने हँसी को छ श्रेणियों में विभाजित किया है :

१--होंठों ही होंठों मे मुस्कराना। २--खुलकर मुस्कराना। ३--खिल- खिलाना ४--जोर से हँसना ५--कहक़हे लगाना ६--हँसते-हँसते पेट में बल पड़ जाना और आँखों से आँसू बहने लगना।

इनमें पहली और दूसरी किस्मों का स्थान सबसे ऊँचा है, तीसरी और चौथी को मध्यम और पाँचवी और छठीं किस्में सबसे निकृष्ट समझी जाती हैं और उनकी गिनती अशिष्टता में होती हैं। जिस समय गालों पर हल्की-सी शिकन पड़ती है, नीचे के होंठ फैल जाते हैं, दाँत नहीं दिखाई देते हैं, आँखें चमकने लगती हैं, उसे होंठों ही होंठों में मुस्कराना कहते हैं। जिस हँसी में मूँह, गाल और आँखें फूली हुई नज़र आती हैं और दाँतों को लड़ियाँ किसी क़दर दिखाई देने लगती हैं उसे खुलकर मुस्कराना कहते हैं। खिलखिलाने की व्याख्या करने की ज़रूरत नहीं। इसमें आँख कुछ सिकुड़ जाती है। क़हक़हा लगाना अशिष्टता है, खासतौर पर बड़े-बूढ़ों के सामने ज़ोर से हँसना बुरी बात है। डाक्टरी दृष्टि से क़हक़हा तंदुरस्ती के लिए बहुत अच्छा माना गया है। इससे सीने और फेफड़ों को ताक़त पहुँचती है और तबीयत खिल उठती है। मनोविज्ञान के पंडितों का विचार है कि हँसी खुली हुई तबीयत की पहचान है और जिस आदमी के इरादे नेक न हो और जिसके हृदय को शांति और इत्मीनान हासिल न हो वह कभी खुलकर नहीं हँस सकता।

हम ऊपर लिख आये हैं कि संस्कृत साहित्य में हँसी-दिल्‍लगी के बारे में बड़ी गहरी छान-बीन के साथ विचार किया गया है। उपरोक्त विचार बड़ी हद तक उसी के हैं। अब हम कुछ हास्य-रस के संस्कृत श्लोकों का अनुवाद लिख कर इस लेख को समाप्त करेंगे। उर्दू हास्य की शैली से हम परिचित हैं, संस्कृत साहित्य के भी कुछ उदाहरण देखिए :

१-यह देखिए कुक्कुट मिश्र आए। आपने अपने गुरू से कुल पाँच दिन शिक्षा पाई। सारा वेदांत तीन दिन में पढ़ा है और न्याय को तो फूल की तरह सूँघ डाला है।

२--विष्णु शर्मा नामक किसी दुश्चरित्र विद्वान की बुराईयों की गई है--- विष्णु शर्मा हाय-हाय करके रोते और कहते थे कि मेरे जिस मस्तक पर मन्त्रों से पवित्र किया गया पानी छिड़का गया था उसी पर प्रेमिका के पवित्र हाथों ने तड़ातड़ चपत लगाई।

३--एक कोमल भावनाओं से अपरिचित ब्राह्मण अपनी प्रेमिका से कहता हैं--ऐ देवी, मेरे यह होंठ सामवेद गाते-गाते बहुत पवित्र हो गये हैं। इन्हें तुम जूठा मत करो। अगर तुमसे किसी तरह नहीं रहा जाता तो मेरे बाये कान को ही मुँह में लेकर चुबलाओ।

४---ज़बान कट नहीं जाती, सर फट नहीं जाता, तब फिर जो कुछ मुँह में आये कह डालने में हर्ज ही क्या है। निर्ल्लज व्यक्ति विद्वान बनने में आगा-पीछा क्‍यों करे।

५—दो औरतों वाले मर्द की हालत उस चूहें की सी होती है जिसके बिल में साँप है और बिल के बाहर बिल्ली।

६---दामाद दसवाँ ग्रह है। वह हमेशा टेढ़ा और तीखा रहता है, हरदम पूजा की माँग किया करता है और हमेशा कन्याराशि पर चढ़ा रहता है।

७--जैनियों का मज़ाक़ उड़ाते हुए एक लेखक कहता है कि ये लोग एकांत में भी सुन्दरी के लाल-लाल होंठों से बचते रहते हैं क्योंकि होंठ में दाँत लगने से उन्हें मांसाहार का आरोप लगने का भय हैं।

८--एक ज़िन्दादिल बुड्ढा कहता है--क्या करें सिर के बाल सफ़ेद हो गये हैं, गालों पर झुर्रियाँ पड़ गई हैं, दाँत टूट गये हैं पर इन सब बातों का मुझे कुछ दुख नहीं। हाँ, जब रास्ते में मृगनयनी सुन्दरियाँ मुझे देखकर पूछती हैं, “बाबा किधर चले ?” तो उनका यह पूछना मेरे दिल पर बिजलियाँ गिरा देता है।

-        ज़माना, फरवरी १६१६

(‘विविध प्रसंग’ से साभार)

अप्रैल 2024, अंक 46

  शब्द-सृष्टि अप्रैल 202 4, अंक 46 आपके समक्ष कुछ नयेपन के साथ... खण्ड -1 अंबेडकर जयंती के अवसर पर विशेष....... विचार बिंदु – डॉ. अंबेडक...