बुधवार, 4 मई 2022

मई – 2022, अंक – 22

 


शब्द सृष्टि

 मई – 2022, अंक – 22


प्रश्न शृंखला 

1. साहित्यशास्त्र – डॉ. हसमुख परमार

विमर्श

भाषा और व्याकरण – डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र 

पुस्तक चर्चा

आशा के कमल (दोहा संग्रह - आशा सक्सेना) – जय प्रभा यादव  

रचनाएँ

कविता – चालबाज़ चाँद – डॉ. कुँवर दिनेश सिंह  

दोहे – डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा

लघुकथा – वजह – प्रीति अग्रवाल

फ़िल्म समीक्षा – कौन थी मीरा? (फ़िल्म - मीरा, निर्देशक - गुलज़ार) – अनिता मंडा

चित्र कविता – 1. डॉ. अनु मेहता 2. डॉ. पूर्वा शर्मा


डॉ. गोपाल बाबू शर्मा विशेष 


संस्मरण – सफ़र : जाने से पहले… आने के बाद… – डॉ. पूर्वा शर्मा

आलेख

‘तीस हजारी दावत’: व्यापक जीवनानुभवों को व्यक्त करती लघुकथाएँ – डॉ. धर्मेन्द्र राठवा

डॉ.गोपाल बाबू शर्मा के व्यंग्य-संग्रह ‘क़िस्सा नंगा-झोरी का’ से गुजरते हुए – डॉ.सैयद सब्बीरहुसेन कायमअली

काव्यास्वादन

डॉ. गोपाल बाबू शर्मा की दो कविताएँ (1. माँ 2. प्यारी माँ) – विकास मिश्रा 

निबंध – सफलता के सोपान – डॉ. गोपाल बाबू शर्मा

भेंट-वार्त्ता – एक अर्द्ध साहित्यिक इण्टरव्यू – डॉ. गोपाल बाबू शर्मा

संस्मरण

 



सफ़र : जाने से पहले आने के बाद

डॉ. पूर्वा शर्मा

आगरा ! एक ऐसा शहर जो संगमरमर की बेहद खूबसूरत इमारत ‘ताजमहल’ के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध है। इस शहर का दूसरा आकर्षण है वहाँ का ‘पेठा’। मंत्र-मुग्ध करने वाला प्रेम-सौन्दर्य का नायाब नमूना ताजमहल और स्वादिष्ट-रसीले पेठे पर्यटकों के आकर्षण के केंद्र में रहे हैं। लेकिन मेरे लिए इन कारणों के अलावा इस शहर के आकर्षण का एक और विशेष कारण रहा है – वहाँ बसी एक साहित्यिक प्रतिभा।

ताजनगरी का गहरा संबंध हिन्दी की कई प्रमुख साहित्यिक हस्तियों जैसे – सूरदास, रहीम, बाबू गुलाब राय, डॉ. रामविलास शर्मा, रांगेय राघव आदि से रहा है। हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने वाले आगरा के साहित्यकारों की सूची काफ़ी लंबी है। इस सूची में एक नाम है – ‘डॉ. गोपाल बाबू शर्मा’। प्रसिद्ध व्यंग्यकार, कवि, लघुकथाकार, निबंधकार, शोधकर्ता, समीक्षक .... और न जाने क्या-क्या? सही मायने में गोपाल बाबू एक सर्जक होने के साथ-साथ एक सरल हृदय एवं प्रभावी व्यक्तित्व वाले व्यक्ति है।

पिछले ढाई-तीन वर्षों से गोपाल बाबू से मिलने जाने हेतु आगरा-यात्रा बार-बार स्थगित हुई, कभी कोरोना तो कभी कुछ अन्य कारण से। पिछले कुछ दिनों में भी यह प्लान तकरीबन दो बार बना और ध्वस्त भी हो चुका। इस बार कोई पूर्व तैयारी को चल पड़ना मुझे उचित लगा। कहते हैं न कि संयोग के बिना कुछ नहीं होता, लेकिन न जाने क्यों विश्वास होने लगा कि इस बार संयोग बनेगा ही और यह फिर टलेगा नहीं।

जिनसे आप आज तक कभी मिले न हो, पहली बार मिलने के लिए जा रहे हैं; इतना ही नहीं उनके बारे में कुछ अधिक जानकारी भी न हो। परंतु उनसे मिलने की उत्कंठा बहुत प्रबल हो। ऐसे में मन में एक विचित्र बेचैनी महसूस होती है। हाँलाकि कुछ वर्षों से उनके साथ  फोन पर संपर्क बना हुआ था जिसके कारण मुझे एक बात का विश्वास हो गया कि मुझे उनसे मिलने की जितनी उत्सुकता थी, उतनी ही या उससे ज्यादा उन्हें मुझसे मिलने की।

और फिर वह दिन आ ही गया जब मुझे आगरा के लिए निकलना था, बारह-पंद्रह घंटे का सफ़र तय करना था। अब मैंने जल्दी-जल्दी सफ़र पर जाने की तैयारी शुरू कर दी। बस ! अब तो मेरे मन में उनकी कही बातें ही गूँज रही थीं – ‘मिलना जरूरी है.... मेरे पास वक्त बहुत कम है...पता नहीं मुलाकात हो पाएगी भी या नहीं....इत्यादि’। पूरे सफ़र में भी यही सारे विचार मन में चलते रहे। मन में उनसे मिलने की ख़ुशी तो थी ही, साथ में एक अजीब-सी बैचैनी भी थी। उत्सुकता बढ़ती जा रही थी,  मन में बस एक ही ख़याल कि जितनी जल्दी सफ़र पूरा हो उतनी जल्दी वहाँ पहुँच सकूँ और प्रतीक्षा की घड़ियाँ शीघ्र अति शीघ्र समाप्त हों।

सुबह, पहुँचने से कुछ घंटों पहले फोन बजा, दूसरी ओर उनकी आवाज़ थी कि – ‘कहाँ तक पहुँची? कितनी देर में आओगी? सफ़र में कोई तकलीफ़ तो नहीं ?’ मैंने जवाब में कहा कि – सब ठीक है, जल्दी ही आपसे मिलती हूँ।

फिर कुछ घंटों के बाद मैंने आगरा की हवा में साँस ली और कुछ देर में, मैं अपने उस आगरा के आकर्षण के समक्ष थी। फिर मुलाकात के वह अनमोल क्षण भी पलक झपकते ही बीत गए। और देखते ही देखते मैं इस शहर से विदा भी हो गई। वापसी में मेरी आँखों के सामने बीते हुए क्षण एक चलचित्र की तरह चलते चले जा रहे थे।

आदरणीय डॉ. गोपाल बाबू शर्मा जी से मेरा परिचय उन दिनों हुआ था जब मैं पीएच.डी. कर रही थी खैर ! पीएच.डी. तो पूरी हो गई लेकिन उससे ज्यादा सुखद बात यह रही कि उनसे संपर्क बना रहा। कई बार वे फ़ोन पर बात करते-करते भाषा-साहित्य संबंधी जानकारियाँ और सुझाव मुझे देते रहते।

मैं यात्रा से वापस लौट चुकी थी लेकिन मेरा मन तो अभी भी वहीं भ्रमण कर रहा था। आगरा की गलियों में घूमते हुए मैंने पुनः अपने आप को आदरणीय शर्मा जी के ड्राइंग रूम में उनके समक्ष पाया। और मुझे वहाँ पर घट रही सभी बातें स्मरण होने लगी। शर्मा जी के बारे में मैं आपको क्या बताऊँ! अपनी बढ़ती उम्र के चलते वे घर में भी कम ही घूम-फिर पाते हैं और सहारे से चलते हैं। लेकिन जैसे ही मेरे कदम उनके घर के गेट की तरफ बढ़े, दीवार के सहारे से धीरे-धीरे चलते हुए कोई घर के बाहर मुख्य द्वार तक आता हुआ दिखाई दिया... मैं समझ गई कि वे गोपाल बाबू ही है। मेरे लिए यह उनकी पहली झलक थी। शायद कोई टेलीपेथी ही रही होगी कि बिन किसी आहट के या बिन बेल बजाए उन्हें पता चल गया।

उनसे मिलने पर चहरे पर एक चमक स्वाभाविक ही थी। मन बेहद ख़ुशी का अनुभव कर रहा था और फिर उनसे बातों का सिलसिला शुरू हुआ। उन्होंने अपने कुछ पुराने किस्से सुनाने आरंभ किए, कुछ साहित्य की बातें, कुछ कॉलेज में पढ़ने-पढ़ाने की बातें और कुछ इधर-उधर की बातें। इस छोटी-सी मुलाकात में गोपाल बाबू के स्वाभाव एवं व्यवहार ने मुझे बेहद प्रभावित किया। उनके लेखन से गुजरते हुए मैंने उनको जितना समझा उससे कहीं ज्यादा आज उनको जानने-पहचानने एवं समझने का अवसर मिला। अल्पकालीन संवाद गोष्ठी में इस साहित्यिक शख़्सियत की विचारधारा, सृजन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता एवं समर्पण भाव का, साथ ही उनकी ज्ञाननिष्ठा, विद्यानुराग एवं शिष्यवत्सलता आदि का बोध; बेशक मेरे जीवन के अविस्मरणीय क्षण रहेंगे।  

बातें करते-करते समय कब पंख लगा कर उड़ गया पता ही नहीं चला और शाम होने लगी और मेरे जाने का समय भी हो गया। विदाई का वह क्षण मेरे लिए उतना ही मुश्किल रहा जितना कि उनके लिए।

 



डॉ. पूर्वा शर्मा

वड़ोदरा 

 

 

दोहे

 





डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा

 

गाँव, शहर खलिहान में, चँहु दिशि घूमे घाम ।

अलसाई दोपहर को, रुचे न कोई काम ।।

 

रुत गरमी की आ गई, लिए अगन-सा रूप ।

भोर हुए भटकी फिरे, चटख सुनहरी धूप।।

 

सूरज के तेवर कड़े, बरसाता है आग ।

पर मुस्काए गुलमोहर , पहन केसरी पाग ।।

 

लगें बताशा अम्बियाँ, बड़ी जायकेदार ।

भरी बाल्टियाँ ला धरीं, दादा जी ने द्वार ।।

 

बड़ी बेरहम ये गरम, हवा उड़ाती धूल

मुरझाया यूँ ही झरा, विरही मन का फूल ।।

 

तपता अम्बर हो गई, धरती भी बेहाल ।

सूनी पगडंडी डगर, किसे सुनाएँ हाल ।।

 

लथपथ देह किसान की, बहा स्वेद भरपूर ।

चटकी छाती खेत की, बादल कोसों दूर ।।

 

दिनकर निकला काम पर, करे न कोई बात ।

कितने मुश्किल से कटी, यह गरमी की रात ।।

 

उमड़-उमड़ कर जो कभी, खूब सींचती प्यार ।

सूख-सूख नाला हुई, वह नदिया की धार ।।



 

डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा

एच-604 , प्रमुख हिल्स, छरवाडा रोड ,वापी

जिला- वलसाड(गुजरात) 3961

चित्र कविता

 






भेंट-वार्त्ता

 



एक अर्द्ध साहित्यिक इण्टरव्यू

डॉ. गोपाल बाबू शर्मा

पंखे के नीचे कुर्सी पर बैठ मैंने कमीज़ के दो बटन खोले, “मैंने आपका सम्पादकीय जब लिया उधार, दोस्तों से लिया पढ़ा है। स्पष्ट ही उसके मुख्य पात्र विनोद आप ही हैं। लेख के अन्त में आपने आश्वस्त किया है कि आप अपने लड़कों की शादी करेंगे, सौदा नहीं। तब तो आपके दोनों बच्चे विद्यार्थी थे, अब तो उनके बच्चे भी हैं। कृपया बताएँ कि क्या वाकई आपने उनकी शादियों में सौदा नहीं किया? सौदे से मेरा तात्पर्य दहेज लेने से है।”

रोशनलाल सुरीरवाला ने धीरे-धीरे गम्भीर स्वर में कहना आरम्भ किया, “हमारे घर की फाइल कभी गुप्त नहीं रही। आपके सामने यह पृष्ठ खोलता हूँ। आपके इस प्रश्न का उत्तर मात्र ‘हाँया ‘नामें देना ग़लत होगा और भ्रमोत्पादक भी। बड़े बेटे की शादी में हमने छोटे-छोटे काम तो दृढ़ता से किए, जैसे सगाई-लगुन नहीं ली, भात और खेत नहीं लिए, बहू की मुँह दिखाईनहीं ली, बाद में सादों से भी इन्कार कर दिया, किसी बड़ी रकम से हाथ नहीं लगाया; किन्तु एक बात में चूक गए।”

किस बात में?”

दहेज में स्कूटर आ गया।” रोशनलाल सुरीरवाला ने आसन मुद्रा बदली, “हुआ यों कि विदा के समय लड़की की दादी अड़ गई। बहुत कहा-सुनी की, समझाया, किन्तु हमारे सम्मानित समधी जी बिना किसी छोटे-बड़े और अपने पराये का लिहाज़ किए भावावेश में हमारे पैरों से लिपट गये, “माँ की यह भेंट तो आपको स्वीकार करनी ही पड़ेगी।” शर्मा जी, उस क्षण हमें बड़ी शर्म आई और अन्ततः हार माननी ही पड़ी। स्कूटर ने पौरी में खड़े होकर साँस ली ही थी कि हमारे सिर पर जूते पड़ने लगे, ‘आप तो कहते थे कि कुछ नहीं लेंगे, फिर यह स्कूटर कैसे आ गया?’ और सच कहें शर्मा जी, हमारे मन के भी एक कोने में यह खुशी थी कि छोटी-छोटी चीजें किस्तों में लेने वाले हमने एक समूचा नया स्कूटर एक बार में ही मुफ़्त मार दिया था।”

और दूसरे बेटे के विवाह में?”

‘“बड़े बेटे के विवाह में सावधान और सतर्क रहते हुए भी हम मात खा गये थे, अतः छोटे बेटे के विवाह में हम रैड एलर्टथे; किन्तु इसकी नौबत ही नहीं आई, क्योंकि लड़की और उसके पिता ने दहेज न देने की पहले ही कसम खा ली थी, अतः दहेज के नाम पर हमारे पास मात्र एक दीवाल-घड़ी के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। पलंग तक नहीं; न हमने माँगा, न उन्होंने दिया और यह उचित ही था। हमें कोई शिकायत नहीं है। असल में यह कसम ही हमारी विवाह-स्वीकृति का आधार बनी।”

फिर भी लड़की इन्जीनियर है और विवाह पूर्व से ही सर्विस में है, अतः उसका एकत्र किया हुआ पैसा तो मिला ही होगा।”

“वह तो हमारे समधी-मित्र के पास सुरक्षित है।”

तब भी आपको हजारों रुपये की मन्थली रैकरिंग इनकम तो हुई ही।”

रोशनलाल जी किंचित् हँसे, “आप भी औरों की तरह रहे, शर्मा जी लड़की की योग्यता और सर्विस क्या छिपी थी? फिर किसी ने कन्या-जनक की शर्तों पर शादी क्यों नहीं की? शादी के बाद तो हमारे बहू-बेटे अपनी गृहस्थी का दायित्व मिलकर निभा रहे हैं। इसमें रैकरिंग इनकम से हमारा क्या सम्बन्ध ?”

 बिना दहेज शादी करने में आप इसलिए समर्थ हो गये, क्योंकि आप के कोई लड़की न थी।”

शायद! परन्तु जब लड़की है ही नहीं, तो यह आरोप सोलहों आने सही कैसे माना जा सकता है? किन्तु यह तथ्य एक सौ एक पैसे सही है कि हम दहेज लेने की स्थिति में थे, लेकिन लिया नहीं।”

“क्या इन शादियों को आदर्श विवाहकहा जा सकता है?”

शायद नहीं। दूसरे लोगों ने तो और भी कमाल किए हैं। मैं तो बस इतना जानता हूँ कि मैंने अपने बेटों का सौदा नहीं किया। असल में शादी के सन्दर्भ में आदर्शशब्द विवरण सहित परिभाषा-सापेक्ष है।”

दोस्तों ने आपको आर्थिक सहायता ही दी है या कभी साहित्यिक सृजन में योगदान भी किया है?”

डॉ. श्रीकृष्ण वार्ष्णेय मेरे हमेशा दूसरे श्रोता रहे, जो मुझे महत्त्वपूर्ण परामर्श देते थे...

दूसरे क्यों?”

भई, पहली श्रोता और आलोचिका तो मेरी श्रीमती जी हैं, जो आधी रात मुझे कचौड़ी-बरूले बनाकर खिलाती थीं, तभी तो मैं लिखता था। ‘लँगड़ी भिन्न लगभग मैंने एक रात एक लेख की दर से पूरी की। टेलीफून की मुसीबतमेरी नहीं, आचार्य मुरारीलाल जी की है। घोड़ेवाला मेहमानभी उन्हीं का है, मैं तो मात्र नक़्शानवीस था। अभिमन्यु : दाक्षिण्य पर्वकभी पूरा न होता, यदि उसमें प्रो. खानचन्द्र गुप्त के अनुभव न पिरोये गये होते। भुलक्कड़ भाई साहबऔर क़िस्सा गंगाराम पटेलमें मैंने डॉ. श्रीकृष्ण वार्ष्णेय के साथ थोड़ी सी गुस्ताखी की है।”

सच बताइए, क्या आपने किसी लेखक की नक़ल की है?”

पूर्ववर्ती साहित्य किसी भी लेखक की दादालाई सम्पत्ति होती है, जिसका किसी न किसी रूप में प्रयोग होता ही है। लेखक सुना हुआ भी प्रयोग करता है। सम्भव है सुनाने वाले ने भी कहीं पढ़ा-सुना हो। कभी-कभी एक ही विचार एकाधिक लेखकों को भी आ सकता है। यह शोधकर्ता की खोज का विषय है कि वह इस संयोग को तलाश करे। वैसे विद्वान्सः मूर्खाः भवन्तिके काफी चुटकुले सुने हुए हैं। ठाकुर टैंकसिंहका प्रारम्भिक सम्वाद भी सुना हुआ है। पहली गित्तल आप कुछ भूल गये जी’ का विचार कहीं पढ़ा था, इसीलिए वह पुस्तक में शामिल नहीं की। बच्चेकहानी का कथानक मूलतः मेरा नहीं है। शायद इसी नाम से इसी कथानक पर कोई दूसरी कहानी भी मिल जाए।”

“क्या आपका लिखा भी किसी ने मारा है?”

मेरा यह सौभाग्य कहाँ? किन्तु कभी-कभी मेरे दृष्टान्त और पैराग्राफ ज्यों के त्यों दिखाई पड़ जाते हैं। एक बार साप्ताहिक हिन्दुस्तानमें टाँग में मोच आईहास्य-व्यंग्य किन्हीं चतुर्वेदी ने मेरे निबन्ध आँख आईकी तर्ज पर लिखा था। लगभग आधा लेख मेरा था। नक़ल की सीमा यह थी कि आँखों में डालने वाली दवा टाँग पर लगा दी गई थी। रामानन्द दोषीके बाद एक बार कादम्बिनीमें मेरी गित्तल बहसवादीकिन्हीं माथुर के नाम से प्रकाशित हुई थी। किसी भी सम्पादक ने मेरा प्रतिवाद नहीं छापा। मैं समझता हूँ कि प्रारम्भ में यह सब चलता है, बाद में लेखक का व्यक्तित्व और अस्तित्व उभरता-निखरता है।”

लगता है कि कहानियों के पात्र आप वास्तविक जीवन से लेते हैं। एक-दो उदाहरण दीजिए?”

बिना यथार्थ की नींव के कल्पना का महल खड़ा नहीं हो सकता। बीज ही वृक्ष में बदलता है। केन्द्रीय बिन्दु हाथ आते ही प्रारम्भ और अन्त कल्पना में तैयार हो जाता है, फिर मध्य भाग समय-सापेक्ष रह जाता है। यह समय दो-चार दिन भी हो सकता है और दस साल भी। नगेन्द्र की बेईमानी सहित वैदेहीका अन्त काल्पनिक है। किन्तु परीक्षा-प्रतियोगिता यथार्थ है। आज वैदेही का मुझे पता नहीं, किन्तु नगेन्द्र और चन्दन दोनों नगर-निवासी थे और एक ही विश्वविद्यालय के उपकुलपति रह चुके थे। अब दोनों का देहान्त हो चुका है और उनकी सन्तानें उच्च पदों पर आसीन हैं। छटंकीकभी-कभी घर आती है। औरतों के बीच उसकी दौड़ देखकर ही कहानी का जन्म हुआ था। बोझकहानी का अन्त काल्पनिक है, किन्तु सम्वादों और अतीत के चित्रों में सच्चाई का काफी अंश है।”

“पाठकों की कौन सी प्रशंसा आपको सर्वप्रिय लगी ?”

जयपुर से एक पाठक ने लिखा था, ‘शरत की विराजबहूसमाप्त करने के बाद आपकी ‘छोटी बहू’ एक सिटिंग में ही पढ़ गया। यह वाक्य मुझे आज भी खुशी से भर देता है। लगता है, शरत ने मेरा प्रणाम स्वीकार कर लिया।”

क्या रचना का अस्वीकृत होना उसके स्तर का मापदण्ड है?”

आजकल तो कतई नहीं। हंससे लौटी कहानी चील-कौएका ग्रन्थायनअलीगढ़ से प्रकाशित हिन्दी कहानी : 1986-90’ में चयन हुआ। असल में आज किस सम्पादक के पास समय है कि रचना पढ़े? प्रकाशन का आधार लेखक का परिचित होना अथवा स्थापित होना है, किन्तु रामानन्द दोषीइसका अपवाद थे। वे लेख को बाकायदा पढ़ते थे और आवश्यकता समझने पर लेखक से संशोधन करा लेते थे। उन्होंने कादम्बिनीमें मेरे कई व्यंग्य और रेखाचित्र प्रकाशित किए। दुर्भाग्य से मैं उनसे मिल नहीं सका। जब साहस कर दिल्ली पहुँचा तो वे मृत्यु शैया पर थे। चुल्लू भर चमचा-चरित’ ‘धर्मयुगमें प्रकाशित हुआ तो धर्मवीर भारती का प्रशंसा से भरा एक लम्बा पत्र आया, जिसमें एक और व्यंग्य भेजने का आग्रह था। तब मैंने क्लर्क-क्रन्दनभेजा।”

क्या किसी बड़े लेखक का वरदहस्त आपको मिला?”

नहीं, क्योंकि बड़े लेखक दूसरे लेखकों को पढ़ते ही नहीं हैं। उदाहरण के लिए रवीन्द्रनाथ त्यागी द्वारा सम्पादित पुस्तक उर्दू-हिन्दी हास्य-व्यंग्य’ 1978 में प्रकाशित हुई। 1976 तक मेरे 116 लेख पुस्तकाकार प्रकाशित हो चुके थे; किन्तु भूमिका में त्यागी जी लिखते हैं, ‘पेशेवर हास्य-व्यंग्यकारों के अतिरिक्त बाकी कलाकार भी यदा-कदा हास्य-व्यंग्य लिखते रहे और उसमें से कुछ इतने ऊँचे दर्जे का है कि कुछ कहा नहीं जा सकता।’ ‘इस सन्दर्भ में विशेष रूप से उल्लेखनीयबीस धुरन्धर लेखकों में लेख सहित मेरा नाम भी शामिल है।” रोशनलाल सुरीरवाला हँसे, ‘हुआ यह होगा कि किसी पत्रिका में मेरे उक्त लेख एक भारतीय मन्त्री का भौगोलिक वर्णन पर उनकी कृपा-दृष्टि पड़ गई और बस ।”

“नहीं लगता कि आपको जितनी ख्याति मिलनी चाहिए थी, उतनी नहीं मिली ?”

शर्मा जी, यह तो प्रत्येक लेखक को लगने वाली यह बीमारी है, जिसे मधुमेह की माँति नियन्त्रण में तो रखा जा सकता है; किन्तु ठीक नहीं किया जा सकता। शरत तक को यह रोग था। तभी तो उन्होंने लिखा है कि वर्तमान काल ही साहित्य का सुप्रीम कोर्ट नहीं है।”

आजकल आप क्या लिख रहे हैं?”

लगता है कि मरने के बाद सब रद्दी के भाव में बिक जाएगा। अतः बिखरे हुए को समेट रहा हूँ। चाहता हूँ कि किसी प्रकार प्रकाशित हो जाये तो कुछ उम्र मिले। वैसे कॉलिज-जीवन पर ‘पतन के पंखउपन्यास लिख रहा हूँ। ऊपर वाले से यदि पाँच-छह साल की छूट मिल गई तो शायद पूरा हो जाए।”

“इस अंक से आपको क्या लाभ मिलेगा ?”

राष्ट्रीय लिबास (अण्डरवीयर बनियान) में रोशनलाल सुरीरवाला सहसा खिलखिला पड़े, “मैं एक बार पुनः पत्नी के सम्मुख सिद्ध कर सकूँगा कि में बदसूरत हूँ, मूर्ख नहीं।”

इसी समय बहू रानी चाय ले आयीं। मैंने कमीज़ के बटन बन्द किए और नमकीन प्लेट की ओर चम्मच बढ़ा दी, “मैं चाय नहीं पीता।”

प्रसंगवश : अगस्त, 1994

(श्री सुरीरवाला पर केन्द्रित अंक)

(हिन्दी गद्य के विविध रंग से साभार)



डॉ. गोपाल बाबू शर्मा
आगरा 

 

 

 

निबंध

 



सफलता के सोपान

डॉ. गोपाल बाबू शर्मा

सामान्यतः यह माना जाता है कि उसी का जीवन सफल है, जिसका संसार में यश फैले और जिसकी सभी सराहना करें –

जाको जस है जगत् में, जगत् सराहै जाहि ।

ताको जीवन सफल है, कहत अकब्बर साहि ॥

यश प्राप्त करने के अनेक मार्ग हैं, अनेक साधन हैं। कोई धन के क्षेत्र में यश प्राप्त करता है, तो कोई विद्या के क्षेत्र में। किसी की सराहना त्याग, तपस्या  और बलिदान के कारण होती है, तो किसी की सद्धर्म और परोपकार के कारण।

सफलता के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न विद्वानों के भिन्न-भिन्न विचार हैं। जब हम इस बात पर मनन करते हैं कि सफल में जीवन का रहस्य क्या है, जीवन सफलता कैसे मिलती है? तो इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आत्मनिर्भरता, आलस्य-हीनता, साहस और धैर्य, लक्ष्य के प्रति एकाग्रता-निष्ठा, आत्मविश्वास आत्मनियंत्रण आदि अनेक गुण सफलता प्राप्ति के आधार स्तम्भ हैं।

जीवन में सफलता पाने के लिए आत्मनिर्भरता का होना अत्यावश्यक है। जो व्यक्ति अपने भरोसे पर कार्य करते हैं, वे अवश्य सफल होते हैं। जो लोग दूसरों का मुँह ताकते हैं या भाग्य का सहारा ढूँढ़ते हैं, वे सदैव अपने को कार्य करने में असमर्थ पाते हैं और सफलता उनसे दूर रहती है। इसीलिए कबीर ने मनुष्य को आत्मनिर्भर बनने की शिक्षा दी है –

कर बँहियाँ बल आपनी, छाँड़ि पराई आस ।

जाके आँगन है नदी, सो कत मरत पियास ॥

सफलता की कामना करने वाले व्यक्ति को आलस्य से कोई नाता नहीं रखना चाहिए, क्योंकि आलस्य सफलता का सबसे बड़ा शत्रु है –

आलस्यं हि मनुष्याणाम् शरीरस्थो महान् रिपुः।’

 

जो व्यक्ति आलसी होते हैं, वे हर कार्य को कल पर टालते रहते हैं। उनका कोई कार्य समय पर पूरा नहीं होता। फलस्वरूप उन्हें कभी भी सफलता नहीं मिलती।

प्रायः लोग यह चाहते हैं कि हाथ-पाँव न हिलाने पड़ें और अलाउद्दीन के जादुई चिराग़ की तरह ऐसा सुनहरा अवसर उन्हें मिल जाए कि वे मनचाही चीज़ पर अधिकार कर लें, लेकिन यह कैसे मुमकिन है? बिना प्रयास के सफलता शायद ही मिले। अवसर कोई पकी पकाई खीर नहीं है कि झट से उसे खा लिया जाए। अवसर की कभी कमी नहीं रहती। जिनके आँख, कान, मन-मस्तिष्क खुले हैं, उनके सामने बढ़िया से बढ़िया अवसर हाथ बाँधे खड़े रहते हैं, केवल उन्हें जानने-पहचानने की ज़रूरत है।

आर्कमिडीज ने देखा कि पानी से भरे बर्तन में किसी वस्तु के डूबने से कुछ पानी बाहर निकल जाता है। बस, इसी से उसने पदार्थों के आयतन जानने का तरीका ढूँढ निकाला। पेड़ से सेब को गिरता देख आइजक न्यूटन को पृथ्वी की आकर्षण शक्ति के सिद्धान्त का पता चल गया। गैलीलियो को गिरजाघर में ऊँचाई पर लटका लैम्प हवा में झूलता दिखाई दिया, तो उसने पैण्डुलम वाली घड़ी बना डाली। बिस्तर पर पड़े बीमार एलियास ने पत्नी को कष्टपूर्वक पुराने-फटे कपड़े को सीते हुए देखा, तो उसका हृदय करुणा से भर उठा और अन्त में वह ऐसी मशीन बनाने में सफल हो गया, जो आसानी से जल्दी-जल्दी कपड़े सीं सके।

सफलता पाने के लिए साहस और धैर्य भी बहुत जरूरी हैं। साहस से अत्यन्त कठिन कार्य भी पूर्ण हो जाते हैं। साहस के अभाव में व्यक्ति या तो किसी कार्य को प्रारम्भ ही नहीं करता, और यदि किसी प्रकार प्रारम्भ भी कर देता है, तो वह ज़रा सी भी बाधा उत्पन्न होने पर उसे छोड़ देता है। इस तरह वह सफलता पाने से वंचित रहता है। जो व्यक्ति साहसी होते हैं, वे विघ्न-बाधाओं का सामना करते हुए अपने उद्देश्य तक पहुँचते हैं और सफलता प्राप्त करते हैं। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने भी मनुष्य को सदैव साहसी होने का उपदेश दिया है –

कुछ तो उपयुक्त करो तन को,

नर हो, न निराश करो मन को।

साहस के साथ-साथ मनुष्य में पर्याप्त धैर्य भी होना चाहिए। प्रत्येक कार्य के पूरा होने में कुछ समय लगता है। ऐसी स्थिति में धैर्य नहीं खोना चाहिए। धैर्य-हीन व्यक्ति या तो कार्य को अधूरा छोड़ देते हैं या फिर उसे इतने उतावलेपन से करते हैं कि उन्हें सम्पूर्ण सफलता नहीं मिलती। निम्नलिखित दोहा मनुष्य को धैर्यपूर्वक कार्य करने की ही प्रेरणा देता है –

धीरे-धीरे होत है, धीरे सब कुछ होय।

माली सींचे केवड़ा, रितु आए फल होय ॥

लुईस लामूर के अनुसार, “सफलता इंचों में हासिल की जाती है, मीलों में नहीं। थोड़ी अभी प्राप्त कीजिए, पाँव जमाते जाइए, बाक़ी आगे धीरे-धीरे प्राप्त करते जाइए।”

मनुष्य का लक्ष्य निश्चित होना चाहिए तथा उसके प्रति निष्ठा भी आवश्यक है। जो व्यक्ति लक्ष्य निश्चित किए बिना आगे बढ़ते हैं, वे इधर-उधर भटक जाते हैं और किसी कार्य को पूरा नहीं कर पाते। उन्हें सदैव असफलता ही हाथ लगती है, इसीलिए कहा गया है

एकै साधै सब सधै, सब साधै सब जाय ।

जो तू सींचे मूल को, फूलै फलै अघाय ॥

कभी-कभी मनुष्य को असफलता का भी मुँह देखना पड़ जाता है। ऐसी स्थिति में निराश हो उठना और मन में कुढ़ते रहना ठीक नहीं। मनुष्य का दृष्टिकोण हमेशा आशावादी होना चाहिए। बर्तन आधा खाली हैके बजाय यह क्यों न देखा जाय कि वह आधा भरा हुआ है। किसी एक असफलता से घबराकर हार मान बैठना, निष्क्रिय हो जाना अपने साथ अन्याय करना है। घोड़े पर सवारी करने वाला ही तो गिरता है, फिर उसका दुख क्यों? देखना चाहिए कि ग़लती कहाँ हुई, कैसे हुई? ग़लती को सुधार कर सही निर्णय लेने में ही समझदारी है। यदि इंजीनियर या डॉक्टर न बन सके, तो न सही। उनके अलावा भी अन्य बहुत से क्षेत्र हैं, जिनमें आदमी उत्साहपूर्वक आगे बढ़ सकता है।

सफलता के लिए मनुष्य में आत्मविश्वास की भावना का होना बहुत ही आवश्यक है। आत्मविश्वास का अभाव व्यक्ति में निराशा का भाव ही उत्पन्न करता है और दूसरे लोग भी उसकी मदद को आगे नहीं आते। कवि नज़ीर ने ठीक ही कहा है –

जो अपने उबरने की करता नहीं खुद कोशिश,

उस डूबने वाले पर हँसता है ज़माना भी।

ईसा मसीह का भी अपने भक्तों से यही कहना था कि आत्मविश्वास के बिना तुम मुझसे भी कोई लाभ नहीं उठा सकते। आत्मविश्वास की शक्ति असम्भव को भी सम्भव बना देती है। स्कॉट के राजा राबर्ट ब्रूस की कहानी सर्वविदित है। वह अपना सारा राज-पाट हार गया। भागकर उसने एक खण्डहर में शरण ली। उसने वहाँ एक मकड़ी को दीवार से बार-बार गिरते देखा, किन्तु अन्त में मकड़ी ने जाला बना ही लिया। राजा ने मकड़ी से प्रेरणा ली। उसने प्रयत्नपूर्वक दुश्मनों का सामना किया और जीतने में सफल हुआ।

मनुष्य को जीवन में अनेक बार अपनी आलोचना सुननी-सहनी पड़ती है। आलोचना से घबराना नहीं चाहिए। आलोचना भी उन्नति में सहायक होती है। वह सहज ही व्यक्ति के दोषों-दुर्गुणों को दूर कर चरित्र को निर्मल बनाती है। अतः उसका सहर्ष स्वागत करना चाहिए। कबीर ने कहा है

निन्दक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय।

बिन पानी साबुन बिना, निरमल करे सुभाय ॥

कालिदास अनपढ़ थे, पर उनकी विदुषी पत्नी के ताने ने उनमें पढ़ने और योग्य बनने की चाह जगा दी। वे संस्कृत के महान् कवि बने। यह जानना चाहिए कि कौन-सी आलोचना आदमी को बेहतर बनाने के लिए है और कौन-सी ईर्ष्यावश आघात पहुँचाने के लिए? पहली प्रकार की आलोचना को स्वीकार कर अपनी कमियों को दूर करें, किन्तु दूसरे प्रकार की आलोचना पर ध्यान देने की ज़रूरत नहीं। दूसरों की उपलब्धियों से जलकर आलोचना करने से खुद को भी बचाना चाहिए।

आत्म-नियन्त्रण सफलता की एक महत्त्वपूर्ण सीढ़ी है। अपने कुविचारों को रोकना, अपने मन को वश में रखना, दूसरों की भड़काने वाली बातों को शान्तिपूर्वक सह जाना अपने ही हित में है। महाकवि गेटे के अनुसार, “जिसने आत्म-नियन्त्रण कर लिया, मानो उसने सफलता प्राप्त कर ली।”

सफलता पाने में सच्चरित्रता का महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। धन और स्वास्थ्य से भी बढ़कर चरित्र की महिमा है। चरित्र की शक्ति के सामने दुनिया की बड़ी से बड़ी ताक़त भी झुक जाती है। महात्मा गाँधी, अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन, रूजवेल्ट आदि ऐसे ही महान् चरित्रवान् व्यक्ति थे, जिनका लोहा विरोधियों को भी मानना पड़ा था।

उत्तम स्वास्थ्य, सत्याचरण, कर्त्तव्य-शीलता, पारस्परिक सहयोग, सहानुभूति, उदारता, कृतज्ञता आदि अन्य गुण भी सफलता पाने के लिए अपेक्षित गुण हैं।

जीवन में सफलता प्राप्त करना मनुष्य के लिए गौरव की बात है। सफलता से रहित जीवन निरर्थक माना गया है। जीवन में सफलता प्राप्त करने वाले व्यक्ति ही महान् कहे जाते हैं। सफलता जीवन को सरस, सुन्दर और मधुर बनाती है। अतः प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है कि वह सफलता के रहस्य को समझे और सफलता के लिए जिन गुणों की आवश्यकता होती है, उनसे अपने जीवन को सम्पन्न बनाए ।

(‘जीना सीखें’ निबंध संग्रह से साभार)

 



डॉ. गोपाल बाबू शर्मा

आगरा

 

 

 

लघुकथा

 



वजह

प्रीति अग्रवाल

आ गए आप...,’ साक्षी की आँखों की लौ कुछ पल को चमकी, फिर निस्तेज हो गई।

रोज़ की तरह सचिन का मोबाईल उनके कानों में गढ़ा हुआ था, ‘आप निश्चिंत रहिए, जब आप से कह दिया कि काम हो जाएगा तो बस हुआ समझिए...हाँ, बस आप आपना वायदा याद रखियेगा....

ड्राइवर ने जाते हुए वही दोहरा दिया जो वो करीब करीब रोज ही कहता था, ‘मैडम, साहब कह रहे थे वो खाना खा कर आये हैं, आप भी खाकर सो जाइये, उनकी एक मीटिंग है वो उसमे बिज़ी रहेंगे....

साक्षी ने अनमनी-सी हामी भर दी।

अगले दिन सचिन साक्षी को देखते ही व्यंग्य कसते हुए बोले, ‘पता नहीं तुम्हारे चेहरे पर हमेशा बारह क्यों बजे रहते हैं.... किस बात की कमी है तुम्हें.....गाड़ी, बंगला, ज़ेवर , कपड़े, सब तो है तुम्हारे पास, फिर भी ये मायूसी भरा चेहरा लेकर घूमती हो......सारा मूड खराब हो जाता है।

साक्षी धीमी सी आवाज़ में बोली, ‘जहाँ इतना दिया है, एक चीज़ और दे दो....’

अब भला तुम्हें और क्या चाहिए..

मुस्कुराने की वजह...।

 



प्रीति अग्रवाल

कैनेडा

अप्रैल 2024, अंक 46

  शब्द-सृष्टि अप्रैल 202 4, अंक 46 आपके समक्ष कुछ नयेपन के साथ... खण्ड -1 अंबेडकर जयंती के अवसर पर विशेष....... विचार बिंदु – डॉ. अंबेडक...