गुलमोहर के फूल
श्रीरामपुकार शर्मा
वसंत के रंगोत्सव के कुछ पहले से ही लेकर तप्त गर्म माहों तक !
सिर्फ गर्मी ही क्यों ? बल्कि
पावस के गाढ़े कजरारे गगन से बरसते जल-झालरों तक और कभी-कभार मधुर हिम-आघातों को
सहते और उनका अभिनन्दन करते हुए पितृ-पक्ष तक अपने रक्त-पीताभ व नारंगी रंगों के
सुंदर पुष्प-स्तबकों से सुसज्जित गाढ़े चादर को ओढ़े गुलमोहर वृक्ष अनायास ही
प्रकृति-प्रेमियों की आँखों में एक अजीब-सी शीतलता का मधुर अहसास करवाते रहता है ।
कुछ दिन पूर्व ही जब उष्ण गर्मी की निष्ठुरता से आहत लगभग समस्त
पादप-पुंज कुम्हलाकर हताश और मरणासन्न हो गये थे । तब भी यह हँसमुख गुलमोहर उन
हताश निर्बलों से भिन्न सदा मुसकुराता ही रहा । यह अपवाद ही बना रहा । इसके
मकरंदयुक्त रक्त-पीताभ व नारंगी रंगों के पुष्प-स्तबक इसकी अन्तः प्रसन्नता को
लहरा-लहराकर अभिव्यक्त करते रहे और गर्मी की उष्ण निष्ठुरता पर मधुर मुस्कान भरी
उपहास करते ही रहे हैं । भारतीय तपस्वियों की तप्त साधना और अवधुतों की महान
आत्मशक्ति को अपने अन्तः में संयोजित कर विपत्ति काल में भी यह गुलमोहर अपने मधुर
और नयनाभिराम रंगीन कोमलांगी पुष्पों से चित्रित दिग्विजय पताका को फहराते हुए
चतुर्दिक जीवन के सुखद सन्देश को फैलाते रहा है । इसके सुंदर रक्ताभ पुष्प-स्तबक
वसंत के आगमन के साथ ही इसकी डालियों पर आकर अपना मजबूत डेरा जमा लेते हैं, फिर तो किसी बेशर्म अतिथि की भाँति कई महीनों
तक इसके हरित-प्रांगण में दिखते ही रहते हैं । जाने का नाम ही नहीं लेते हैं ।
उष्ण झंझावत और इन्द्र के भीषण बज्र कोप जैसी प्रताड़ना-उलाहना को भी ये चुपचाप
सहते हुए शरद के सुरम्य शीतल काल के आगमन तक वृक्ष की गजसुंढ़ स्वरूपिणी शाखाओं पर
जबरन झुला झूलते ही रहते हैं । कौन क्या कहता है ? कौन क्या
सोचता है ? उसकी ये परवाह नहीं करते । इससे इनका कोई मतलब ही
नहीं । ये स्वयं केंद्रित हैं । दुनिया को लेकर चले, तो जीना
ही दुर्भर हो जाएगा । पर सच में ये सुंदर नयनाभिराम रक्तिम पुष्प हर परिस्थिति में
लहलहाते हुए लोगों को विभिन्न परिस्थितियों में सदा खुशहाल जीवन जीने के महामंत्र
को प्रसारित करते रहते हैं ।
गुलमोहर के सदाबहार आकर्षणीय पुष्प ऊपर से इतने कोमल होते हैं कि पक्षियों के पद-स्पर्श मात्र से ही
डंठल को छोड़ गिर जाते हैं, पर अन्तः
से ये इतने मजबूत होते हैं कि दीर्घकाल तक अपने स्थान पर जमें ही रहते हैं । किसी
के बाह्य
स्वरूप को देखकर लोग अक्सर धोखा खा ही जाते हैं । फिर तो संताप की कोई गुंजाइश भी
नहीं होनी चाहिए । लेकिन इन कोमल पुष्पों का अपना एक अलग ही सिद्धांत है । होना भी
चाहिए, सिद्धांतविहीन तो ‘बिनु पेंदी के लोटे’ के समान
ही तो होते हैं । जिधर ढाल दिखा, ढल गए । पर इनका सिद्धांत
है, प्रेम के समक्ष नतमस्तक, पर कठोरता
के समक्ष अडिग रहना !
हरीतिमा युक्त सघन वनस्थली में लाल रक्त-पीताभ प्रज्ज्वलित
पुष्पों से सुसज्जित किसी लोहित ‘राज-छत्रक’ को अपने शीश पर धारण किये हुए गुलमोहर
‘अरण्य-सम्राट’ की भाँति दूर से ही वन-प्रेमी शैलानियों की दृष्टि को अनायास अपनी
ओर आकर्षित कर लेता है । यह एक ऐसा जीवट स्थावर है, जो भीषण गर्मी में भी शुष्क व कठोर भूमि के अन्तः से अपने प्राण रस को
जबरन खिंच कर चतुर्दिक पसरी अपनी गजसुंढ़-सी शाखाओं सहित सर्वदा अपने आप को शान्त व
संतुलित बनाए अतुलित सौन्दर्य-सम्पदा को सगर्व धारण किये रहता है । जबकि पास के कई
पादप समूह तप्त उष्णता से पराजित होकर अपने सिर को झुकाए, इसे
ईर्ष्या भरी नजरों से देखते ही रहते हैं । ‘कितनी विचित्र बात है न !’
गुलमोहर की पुष्प-पल्वित क्रिया द्रुतगति से फैलने वाले किसी
जीवाणु की भाँति ही बहुत शीघ्रता से फैलती है । एक पुष्प के खिलने मात्र से एक ही
सप्ताह के अंतराल में पूरा का पूरा वृक्ष ही गाढ़े लाल रंगों से आवृत हो जाता है ।
दूर से ही सघन हरीतिमा वनस्थली के बीच यह वृक्ष अपने लाल तप्त अंगारों के समान
आकर्षक पुष्पों को धारण किये हुए ‘अग्नि वृक्ष’ जैसे अपने नाम की सार्थकता को
सिद्ध करता है । इसके फूल से मकरंद की अच्छी प्राप्ति होती है, जिसकी लालसा में मक्खियाँ, मधु-मक्खियाँ तथा कुछेक छोटे पक्षी इसके फूलों पर अक्सर मँडराते दिख जाते
हैं ।
ग्रीष्मकालीन झुलसाते सौर्य-तेज से लगभग समस्त वनस्पति व प्राणी
जहाँ ‘त्राहि-माम्’ के मौन-मूक शोर कर रहे हों, वहीं यह गुलमोहर उस अपरिमित तेज को आत्मसात् कर, भारतीय
अनासक्त साधकों की सौम्य छवि को धारण किये हुए दूसरों के मनोबल को संबलता प्रदान
करते रहता है । ऐसी ही मध्यकालीन सामाजिक और धार्मिक विडंबनायुक्त उष्णता को
आत्मसात् कर भारतीय संतों ने अपनी ‘अमृत-वाणी’ से दीन-दुर्बल, व्यथित, आक्रांत और विदीर्ण हृदय वाले लोगों के जीवन
में नूतन प्राण रस का संचार करते रहे थे, जिससे हमारी
जीवंतता बनी हुई है ।
सूर्य सदृश दुनिया देखे अनुभवी पिता की ताप-तीव्रता को सहन कर
ही तो कोई पुत्र समाज में आत्म संबलता को प्राप्त कर जगत में अपने परिचय को
स्थापित करता है । सम्भवतः लू-भरी भीषण गर्मी गुलमोहर की सहनशक्ति ( ।mmunity) की परीक्षा लेने की कोशिश करती है ।
परन्तु स्वर्ण जब तपने से डर जाय, तो फिर वह कुंदन या फिर
किसी के गले और माथे का गहना कैसे बनेगा ? दृष्टांत भी
प्रत्यक्ष ही है । तप्त अंगारों के समान रक्त फूलों से सुसज्जित अद्भुत किरीट को
अपने शीश पर धारण कर ही यह गुलमोहर सबकी आँखों का अप्रतिम बना हुआ है । सबके आँखों
का तारा बनने के लिए इसे भी आखिर तपना तो पड़ेगा ही । यही परम सत्य भी है । ‘जो तपा
नहीं, वह खरा नहीं ।’
तभी तो तपा और खरा गुलमोहर के रक्तिम पुष्प भगवान श्रीकृष्ण के
दिव्य मुकुट के श्रृंगार में अपनी अहम भूमिका का निर्वाहन करते हुए
‘कृष्ण-चूड़ामणि’ जैसे नाम को प्राप्त किया है । अपनी अतुलित सौन्दर्य धनराशि तथा
दीर्घ जीवंतता के कारण ही ये ‘अमर-पुष्प’ अर्थात ‘स्वर्ग का फूल’ की विशेष संज्ञा
को भी प्राप्त किये हुए हैं । तो फिर प्राकृतिक सौन्दर्य की अभिवृद्धि में भला यह
सहायक क्यों न हो सकता है ? कुछ
जन-जाति की महिलाओं के शीर्ष-चूड़ामणि गुलमोहर के पुष्पों द्वारा ही निर्मित हुआ
करते हैं ।
अपने रक्त-पीताभ लुभावन सुंदर पुष्पों के कारण ही गुलमोहर अब
हरीतिमा युक्त सघन वन की सीमाओं को लाँघ कर शहरी बाग़-बगीचों के साथ ही साथ राजपथों
के पार्श्व में भी अपनी उपस्थिति को दर्ज कराने लगा है । राजपथों पर आवागमन करते
श्रांत पथिकों पर गुलमोहर अपने लुभावन सुंदर पुष्पों को बरसाकर उन्हें क्लांति से मुक्ति
प्रदान करता है । यह सही बात है कि इसके पत्ते नन्हे-नन्हे होते हैं, परन्तु जीव-जन्तुओं को अपनी शीतलता प्रदान करने
के क्षेत्र में ये कोई कसर नहीं छोड़ते हैं । आप इससे प्राप्त शीतलता की तुलना बरगद
और पीपल से करने की भूल तो मत करिए । आखिर आकार-प्राकार का भी तो कुछ महत्व होता
ही है !
माना जाता है कि यह गुलमोहर वृक्ष भारतीय न होकर एक विदेशी पादप
है । इसका सम्बन्ध हिन्द महासागर में दक्षिण अफ्रीका के पूर्वी तट पर स्थित
महासागरीय द्वीपीय देश ‘मेडागास्कर’ (मलागासी गणराज्य) से है । ‘तो इससे क्या हुआ ?’ भारत के हृदय की विशालता को भी तो देखिए । जो
भी मित्र या शत्रु, इसके विराट प्रांगण में आए, इसने अपने वेद-वाणी और सिद्धांत ‘विश्व-बंधुत्व’ को अपनाते हुए किसी को भी
दुत्कारा नहीं, बल्कि सभी को अपना ही लिया है । इतिहास गवाह
है कि इसने तो अपने शत्रुओं को भी ‘अतिथिदेवो भवः’ के उच्चासन पर आसीन किया है ।
शक, हुण, कुषाण, सहित
तुर्क, मुग़ल, ईसाई आदि विविध विधर्मी व
विदेशियों को अपनी भारतीयता के इन्द्रधनुषी रंगों में रंग कर सबको एकाकार किया है
। अब तो उन्हें पहचान पाना कोई सरल काम है क्या ? नहीं,
कदापि नहीं ! यह बात अलग है कि कोई विश्वासघात पर ही उतर जाय,
तो फिर आतिथेय का क्या दोष ?
अपने अंगारिक रक्तिम पुष्पों के कारण ही गुलमोहर वृक्ष को ‘सेंट
किट्स’ तथा ‘नेविस’ जैसे उष्ण-आर्द्र कटिबन्धीय सामुद्रिक द्वीपीय देशों में
‘फ्लेम ट्री’ यानी ‘अग्नि-वृक्ष’ के नाम से भी जाना जाता है । इसके रक्तिम पुष्पों
को वहाँ ‘राष्ट्रीय पुष्प’ के रूप में समादृत है । ‘हो भी क्यों न ? आखिर विषुववृत्त और कर्क रेखा के मध्य
अक्षांशों के तप्त अंगारयुक्त भौगोलिक क्षेत्र से ही तो इसका सम्बन्ध है, न । फिर इन क्षेत्रों में भला इससे सुंदर और आकर्षक कौन-सा फूल ही है,
जिसे वहाँ की राष्ट्रीयता का महत्व प्राप्त हो ?
भारतीय संस्कृति और संस्कृत साहित्य में गुलमोहर को सुंदरता, प्रेम, ऊर्जा और जीवन की
रंगीन खुशहाल मनोवृतियों का प्रतीक माना गया है । फलतः संस्कृत के परम ज्ञानी
पंडितों ने इसकी सुंदरता के अनुकूल ही इसे ‘राज-आभरण’ अर्थात, ‘राजसी आभूषणों से सजा हुआ वृक्ष’ माना है । क्यों ? सही
है न । भला ‘राजसी आभूषण’ इसके अतिरिक्त और कौन होगा ?
गुलमोहर की फली लंबी, बेलनाकार, लचीले और प्रारंभ में हरे रंग की होती है,
कालांतर में परिपक्व होने पर ये और लंबी, तलवारनुमा
और गहरे भूरे रंग की सूखी लकड़ी के रूप में परवर्तित हो जाती हैं । ये बड़ी मजबूत
हुआ करती हैं । परंतु इनकी अधिकार लिप्सा और माया-मोह इन्हें कोई लालची दुकानदार
या फिर कोई स्वार्थी नेता की भाँति पेड़ से जबरन जोड़े ही रहता है। नई फलियाँ अपने
आसन ग्रहण हेतु डालों पर आकर खड़ी रहकर बेचैन होती रहती हैं, पर
ये हैं कि जबरन आसान पर जमें हुए ही रहते हैं । भाई ! अब तो उन नवगतों के लिए आसान
छोड़ दो । पर न छोड़ेंगे । अजर-अमर होने का भ्रम, जो ये अपने
मन में पाल रखे हैं । कौन समझाए कि जो आया है, वह जाएगा ही ।
पर ये हठी न मानेंगे । भले ही झाड़ दिए जाएं । ये अपनी बेइज्जती स्वयं अपने आप ही
करवाते हैं और दोष नई पीढ़ी को देते हैं । शायद इन्हें अपने कठोर बीजों की शक्ति पर
अभिमान है । पर वे बीज तो एकत्र होना ही नहीं जानते हैं । स्वयं एक-एक कर बिखर
जाया करते हैं ।
जो भी हो, पर
पुष्पों की सौन्दर्य-बोधता के आधार पर इस गुलमोहर के सम्मुख भला कौन-सा दूसरा
वृक्ष सामने खड़ा होने का साहस करेगा ! कोई ‘दो दिन की चाँदनी, फिर अँधेरी रात’ कहावत वाले छोटे-छोटे कोमलांगी पुष्पीय पौधों के सतह
गुलमोहर की तुलना करना कुछ बेईमानी की ही बात होंगी ।...... पर हाँ ! स्मरण हो आया
। ‘आचार्य द्विवेदी’ बाबा के ‘शिरीष’ से मैं करबद्ध क्षमा याचना करता हूँ ।
श्रीरामपुकार शर्मा
24,
बन बिहारी बोस रोड,
हावड़ा – 711101.
(पश्चिम बंगाल)
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