शुक्रवार, 4 मार्च 2022

मार्च 2022, अंक- 20

 



शब्द सृष्टि

मार्च 2022, अंक- 20


शब्द संज्ञान – डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

प्रासंगिक

स्मृति शेष लता मंगेशकर – राजा दुबे

कविता

1.मातृभाषा 2. स्त्री शक्ति – डॉ.अनु मेहता 

आलेख

समाजवाद के पुरोधा : डॉ. राममनोहर लोहिया – डॉ.हसमुख परमार 

हिन्दी लोकगीतों में होली के विविध रंग – डॉ. पूर्वा शर्मा

क्षणिकाएँ – प्रीति अग्रवाल

लघुकथा – वेदना की तरंगें – विभा रश्मि

चित्र कविता – डॉ. पूर्वा शर्मा

विशेष

दक्षिण गुजरात की चौधरी जनजाति का लोकवाद्य : देवडोवळी – विमल चौधरी  

साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत : चन्द्रभान ख़याल

हीरक कविता (DIAMOND POETRY) – ऋषभदेव शर्मा

आलेख

 


समाजवाद के पुरोधा : डॉ. राममनोहर लोहिया

डॉ. हसमुख परमार

          आधुनिक भारतीय समाज तथा राजनैतिक इतिहास में स्वतंत्रता संग्राम के सशक्त सेनानी, जुझारू नेता एवं प्रखर समाजवादी चिंतक - विचारक के रूप में विशेष पहचान व प्रसिद्धि प्राप्त करने वाले डॉ. राममनोहर लोहिया का जन्म 23 मार्च, 1910 को जिला फैजाबाद (उ.प्र.) के अकबरपुर में हुआ था। पिता हीरालाल और माता का नाम चंदा देवी। प्राइमरी से पीएच.डी. तक की शिक्षा क्रमशः अकबरपुर, बंबई, बनारस, कलकत्ता तथा बर्लिन की विविध शैक्षिक संस्थाओं से प्राप्त की। सन् 1932 में बर्लिन विश्वविद्यालय से शोधकार्य कर डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। अनेक सिद्धांतो, क्रांतियों व लोककल्याण संबंधी कार्यों के प्रणेता डॉ. लोहिया के व्यक्तित्व की पहचान दादा धर्माधिकारी के शब्दों में –

          लोहिया का व्यक्तित्व पाँच सिद्धांतों से समृद्ध है- मानव करुणा, विरोध करने की अदम्य योग्यता, जनता में विश्वास, राष्ट्रीय सीमाओं की चिंता किए बिना सतत प्रतिरोध की क्षमता। इसके अलावा उनमें प्रतिभा और वाद-कौशल भी था। ये सभी विशेषताएँ उन्हें सप्तधातु की मूर्ति का आभास देती है। (प्रस्तावना से, डॉ. राममनोहर लोहियाः जीवन और दर्शन, इंदुमति केलकर, पृ. 11)

          भारतीय राजनीति में समाजवाद की मजबूत ज़मीन तैयार करने वाले लोहिया जी का व्यक्तित्व बहुआयामी था। सादा जीवन और उच्च विचार, सदैव कर्मठ, सत्य तथा अपनी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध तथा सतत संघर्ष व विद्रोह करने वाले, सामाजिक समता के पक्षधर, पूर्णता तथा उच्च लक्ष्य के आग्रही एवं मौलिक बुद्धिमता के धनी इस महान व्यक्तित्व को विद्वानों ने अपने-अपने नजरिये से देखा है।

          ‘‘लोहिया के प्रत्यक्ष संपर्क में आए लोगों में अनेक विद्वान, लेखक, कलाकार, राजनेता, जज, वकील आदि थे और उन्होंने लोहिया के व्यक्तित्व को अलग-अलग कोणों से देखा। किसी को उनमें मानवता के महान गुण-करुणा, सहानुभूति, समता का भाव दिखाई दिया। किसी ने उन्हें अद्भुत विचारक - चिंतक के रूप में देखा। किसी ने उन्हें अच्छे वक्ता के रूप में देखा।’’ (डॉ. राममनोहर लोहियाः वर्तमान संदर्भ में, मस्तराम कपूर, पृ. 19)

          महात्मा गाँधी तथा गाँधीवादी विचारों से प्रभावित डॉ. लोहिया की स्वाधीनता आंदोलन में महती भूमिका रही, जिसके चलते कई बार जेल गए। 1928 में उन्होंने कलकत्ता में साइमन कमिशन के विरोधी आंदोलन में भाग लिया। 1934 से कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य के रूप  में स्वाधीनता संग्राम में विशेष योगदान देने वाले लोहिया ने 1942 के ‘भारत छोड़ो ’ में सक्रिय रूप से भाग लेते हुए इस आंदोलन का भूमिगत रहकर संचालन किया। आजादी के बाद कांग्रेस से बाहर विपक्ष के एक कद्दावर नेता के रूप में वे क्रमशः सोशलिस्ट पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी से जुडे रहे। 1967 तक संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष रहने वाले लोहिया जी 1963 से 1967 तक लोकसभा के सदस्य रहे।

          डॉ. लोहिया की विचार संपदा असाधारण थी। भारतीय समाज, संस्कृति, राजनीति, इतिहास, साहित्य, कला प्रभृति के गहन अध्ययन व चिंतन ने उनके मस्तिष्क को सृजनशील बनाया था। उनके चिंतन संबद्ध विषयों में काफी विस्तार व वैविध्य है। ‘‘मूलतः लोहिया राजनीतिक विचारक, चिंतक और स्वप्नदृष्टा थे, लेकिन उनका चिन्तन राजनीति तक ही कभी सीमित नहीं रहा। व्यापक दृष्टिकोण, दूरदर्शिता उनकी चिन्तनधारा की विशेषता थी। राजनीति के साथ-साथ संस्कृति, दर्शन, साहित्य, इतिहास, भाषा आदि के बारे में भी उनके मौलिक विचार थे।’’ (आमुख से, लोहिया के विचार, सं. ओंकार शरद)

          डॉ. राममनोहर लोहिया का लेखन, संपादन व भाषण उनके दर्शन तथा नीतियों व कार्यों की विस्तृत जानकारी देता है। उनके अंग्रेजी लेखन का हिन्दी अनुवाद भी उपलब्ध है। कांग्रेस सोशलिस्ट, जन, मैनकाइंड पत्रों का संपादन। अनेक पुस्तकों व लेखों में लोहिया ने विविध विषयों से संबंधी अपने विचारों को व्यक्त किया है। यथा, समाजवादी चिंतन, मार्क्स, गाँधी और समाजवाद, इतिहासचक्र, जातिप्रथा, विदेशनीति, भारत-चीन और उत्तरी सीमाएँ, राजनीति में फुर्सत के क्षण, भारत विभाजन के दोषी पुरुष, अंग्रेजी हटाओ, देश-विदेश नीतिः कुछ पहलू, धर्म पर एक दृष्टि, संसदीय आचरण, हिन्दू बनाम हिन्दू, सिविल नाफरमानीः सिद्धांत और अमल।



          साथ ही लोहिया विषयक लेखन-संपादन भी लोहिया के व्यक्तित्व व चितंन के विविध आयामों से परिचित कराता है। ‘‘लोहिया की कहानी, उनके साथियों की जबानी। दो खंडों में प्रकाशित इस पुस्तक के संपादक है- श्री हरिश्चंद्र तथा उनकी पत्नी पद्मिनी जी। दोनों ने बड़ी मेहनत से जगह - जगह जाकर लोहिया के नए पुराने साथियों के इन्टरव्यू लिए और उन्हें पुस्तक के रूप में छापा।’’ ओमप्रकाश दीपक, इंदुमति केलकर, रजनीकांत वर्मा तथा ओंकार शरद ने लोहिया जी की जीवनी लिखने का सराहनीय कार्य किया। (डॉ. राममनोहर लोहियाः वर्तमान संदर्भ में, पृ. 20)

अन्य पुस्तकें - लोहिया के विचार (सं. ओंकार शरद), डॉ. राममनोहर लोहियाः वर्तमान संदर्भ में (मस्तराम कपूर), डॉ. राममनोहर लोहियाः जीवन और दर्शन (इंदुमति केलकर), डॉ. राममनोहर लोहिया का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद (डॉ. प्रयाग नारायण त्रिपाठी), डॉ. लोहिया का समाजवाद (प्रो. रामगोपाल यादव), डॉ. राममनोहर लोहिया-समाजवाद का पुनरावलोकन (प्रीति सिंह), लोहिया (एक प्रामाणिक जीवनी-ओंकार शरद), गाँधी, आम्बेडकर, लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएँ (डॉ. रामविलास शर्मा), डॉ. लोहिया और उनका जीवन दर्शन (कुमार मुकुल), डॉ. राममनोहर लोहिया का आर्थिक चिंतन  (डॉ. जी.एल.प्रजापति, डॉ. अशोक कुमार)



          प्रगतिशील सोच के पर्याय डॉ. लोहिया ने जातिभेद, स्त्री-पुरुष असमानता, रंगभेद, सांप्रदायिक वैमनस्य जैसी सामाजिक समस्याओं का सख्त विरोध करते हुए उन पर कड़ा प्रहार किया। भारतीय समाजवादी आंदोलन के कीर्तिस्तंभ लोहिया ने मार्क्स और गाँधी की विचारधारा में अपनी दृष्टि से कुछ संशोधन करके भारतीय परिवेश के अनुसार समाजवाद का एक नया स्वरूप प्रस्तुत किया, जिसे समाजवाद का नवदर्शन कहा जाता है। ‘‘1952 में सोशलिस्ट पार्टी के पंचमढी सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए लोहिया ने जो भाषण दिया, उसे बाद में भारत में समाजवाद की ‘नई सैद्धांतिक नींव के रूप में देखा और माना गया। इस सम्मेलन के पहले तक सोशलिस्ट पार्टी का जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में जो रूप था, वह कट्टर मार्क्सवादी था। लोहिया ने ऐलान किया कि वह न मार्क्सवादी है और न ही गाँधीवादी और साथ-साथ यह भी कहा कि वह न मार्क्स विरोधी है और न ही गाँधी विरोधी।’’ (आलेख-गाँधी-लोहिया और आधुनिक सभ्यता, किशन पटनायक, अंतिमजन पत्रिका, नवम्बर-दिसम्बर-2021, पृ. 18)

समाजवाद से आशय, लोहिया जी की दृष्टि से-

·       समाजवाद की दो शब्दों में परिभाषा देनी हो तो वे हैं- समता और सम्पन्नता..... इन दो शब्दों में समाजवाद का पूरा मतलब निहित हैः देशकाल के अनुसार सम्भव मतलब और आदर्श के अनुसार सम्पूर्ण मतलब।

·       ऊँचों के बारे में क्रोध भी समाजवाद नहीं है और नीचे के बारे में अलगाव भी। शोषण के विरोध में क्रोध और छोटों के प्रति करुणा का नाम समाजवाद है।

यूरोपीय समाजवाद को ऐशियाई देशों के लिए उपयुक्त न मानने वाले लोहिया ने ऐशियाई समाजवाद की विभावना को प्रस्तुत किया।

समाज में समानता तथा व्यक्ति की स्वतंत्रता को विशेष महत्व देने वाले लोहिया के चिंतन व उनके द्वारा किए गए कार्यों में सप्तक्रांति दर्शन विशेष उल्लेखनीय रहा है। डॉ. लोहिया के सप्तक्रांति कार्यक्रम में (1) स्त्री-पुरुष समानता (2) रंगभेद को खत्म करना (3) जन्म और जाति आधारित भेदभाव को समाप्त करना (4) विदेशी जुल्म को खत्म करना (5) आर्थिक असमानता मिटाना (6) हथियारों के इस्तेमाल पर रोक और सिविल नाफरमानी के सिद्धांत का समर्थन (7) निजी आजादी पर होने वाले आघात का मुकाबला करना।

          किसी व्यक्ति का समाज में महत्व व प्रतिष्ठा उसके जन्म के आधार पर नहीं बल्कि कर्म पर आधारित हो। इस बात के प्रबल समर्थक डॉ. लोहिया जातिप्रथा को समाप्त करने के लिए आजीवन सक्रिय रहे।

·       जो समूह और जातियाँ तिरस्कृत हैं उन्हें विशेष रूप से और सहाय देकर उठाना होगा।

·       आर्थिक गैर बराबरी और जाति-पाँति जुड़वा राक्षस हैं.....

और अगर एक से लड़ना है तो दूसरे से भी लड़ना जरूरी है।

डॉ. लोहिया के समाजवादी आंदोलन के अंतर्गत विविध कार्यक्रमों में जातितोडो कार्यक्रम भी महत्वपूर्ण था। जातिप्रथा को समाप्त करने के लिए उनकी एक विशेष नीति रही। ‘‘समाजवादी आंदोलन में लोहिया संभवतः अकेले व्यक्ति थे जो जाति की समस्या के प्रति अत्यंत संवेदनशील थे। उनका मानना था कि जातिप्रथा हमारी लम्बी गुलामी का एक बड़ा कारण रही है। अपनी पुस्तक ‘जातिप्रथा’ में उन्होंने जातिप्रथा का जो सम्यक विवेचन किया, वह एक प्रकार से डॉ. भीमराव अंबेडकर की प्रसिद्ध पुस्तक ‘जातिप्रथा का विनाश’ का अगला चरण था।’’ (डॉ. राममनोहर लोहियाः वर्तमान संदर्भ में, पृ. 134)

          लोहिया जी का मानना था कि जातिगत भेदभाव को दूर करने के लिए आर्थिक बराबरी का होना जरूरी है। जातिप्रथा के खिलाफ लडाई घृणा व आक्रोश से नहीं बल्कि विश्वास के माहौल में होनी चाहिए।

          स्त्री-पुरुष समानता तथा स्त्रियों को आत्मनिर्भर होने की बात करने वाले डॉ. लोहिया ने अपने समय में स्त्री सशक्तिकरण के संबंध में बहुत ही क्रांतिकारी विचार प्रस्तुत किए। भारतीय स्त्री के समक्ष द्रौपदी के पात्र का आदर्श रखते हुए वे कहते हैं-

भारतीय नारी द्रौपदी जैसी हो, जिसने कि कभी भी किसी पुरुष से दिमागी हार नहीं मानी। नारी को गठरी के समान नहीं बल्कि इतनी शक्तिशाली होनी चाहिए कि वक्त पर पुरुष को गठरी बना अपने साथ ले चले।

स्त्री-स्वतंत्रता के बड़े हिमायती लोहिया के विचार से-

‘‘आधुनिक पुरुष स्त्री को एक ओर सजीव, क्रान्तिपूर्ण और ज्ञानी चाहता है, दूसरी और अधीनस्थ भी। पुरुष की यह परस्पर विरोधी भावनाएँ बहुत ही विडम्बनापूर्ण, काल्पनिक एवं अवास्तविक है। क्योंकि परतंत्रता की स्थिति में ज्ञान व सजीवता का प्रार्दुभाव कैसे वह कर सकता है। या तो औरत को बनाओ परतंत्र, तब मोह छोड दो। औरत को अच्छा बनाने का। या फिर बनाओ स्वतंत्र। तब वह बढ़िया होगी, जिस तरह से मर्द बढ़िया होगा।’’

लोहिया की राजनीति तथा उनके समाजवादी चिन्तन में उनकी अर्थनीति अनिवार्य रूप से जुड़ी हुई थी। कुछ महान अर्थशास्त्रियों की तरह उनका भी मानना था कि विकास की पहचान महज़ आर्थिक वृद्धि और धन-संपत्ति का संचय नहीं परंतु मनुष्य अपनी मूलभूत जरूरतों को पूरा कर अपने जीवन को बेहतर बना सके।

‘‘आजाद हिन्दुस्तान की राजनिति में सिर्फ लोहिया ही अकेले नेता थे जिनके एजंडे में भारत की अर्थव्यवस्था और समाज के पश्चिमीकरण की योजना का मुकाबला करने और उसका प्रतिकार करने के लिए जनता को एकजुट करने का हठीला आग्रह था। ‘छोटी मशीनें’ और ‘छोटे उद्योग’ जैसे आर्थिक शब्द और पद लोहियाने गढे। ‘विकेन्द्रीकरण’ शब्द के चलन को उन्होंने लोकप्रिय बनाया।..... ‘‘हम अमेरिका और रूस की बृहतकार मशीनें नहीं चाहते और न ही प्राचीन भारत के जीर्ण उपकरण, न स्वचालित कीघा और न ही चरखा, हम तो बिजली द्वारा चलाए जाने वाली छोटी इकाई वाली मशीन चाहते हैं। हम महात्मा गाँधी का प्रेत नहीं, उनके सिद्धांत चाहते हैं।’’ (अंतिम जन-पत्रिका, नवम्बर-दिसम्बर-2021, पृ. 22)

लोहिया का स्पष्ट कहना था कि देशवासियों की रोजी रोटी संबंधी समस्या को हल करना सरकार का प्रमुख कार्य है। राजनीति का अर्थ और प्रमुख उद्देश्य लोगों का पेट भरना है। टेक्नोलोजी के विषय पर लोहिया के विचार अंततः गाँधी के विचारों से ही मेल खाते हैं। उनकी अर्थनीति में खेतिहर भूमि के पुनर्वितरण, उद्योगों की दृष्टि से आर्थिक विकेन्द्रीकरण तथा बडे उद्योगों के स्थान पर छोटे उद्योगों को महत्व जैसे मुद्दों को देखा जा सकता है।

डॉ. लोहिया के राजनीतिक विचारों में- ग्राम, मंडल, प्रांत एवं केन्द्र ये चार राजनीतिक व्यवस्था के मुख्य आधार और इन चारों का परस्पर घनिष्ठ संबंध, एक दूसरे के विकास में भागीदार। चौखंभा योजना में इन चारों को समान महत्व। प्रत्येक व्यक्ति के मौलिक अधिकारों को ज्यादा महत्व देने वाले लोहिया जी का मानना था कि व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए ये अधिकार बहुत जरूरी। इन अधिकारों में- ‘‘बौद्धिक स्वतंत्रता का अधिकार, अन्यायपूर्ण कानूनों के विरोध का अधिकार पर ये विरोध अहिंसात्मक और शांतिपूर्ण ढंग से होना चाहिए। धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, समता का अधिकार।’’

लोहिया के भाषाई चिंतन की मूल जमीन उनके द्वारा चलाया गया अंग्रेजी हटाओ आंदोलन था। अंग्रेजी का विरोध करते हुए लोहिया जी ने देशी भाषाओं को विशेष तवज्जो दिया। इनकी भाषानीति का मूल स्वर था कि मातृभाषाएँ - प्रांतियभाषाएँ शिक्षा का माध्यम बने और जीवन व समाज के विभिन्न क्षेत्रों में इन भाषाओं को विशेष दर्जा मिले। अंग्रेजी के सार्वजनिक प्रयोग तथा अनिवार्यता का उन्होंने सख्त विरोध किया। लोहिया की अंग्रेजी विरोधी इस नीति की कई अंग्रेजी प्रेमियों द्वारा काफी निंदा की गई। ‘‘लोहिया और उनकी सोशलिस्ट पार्टी ने अंग्रेजी का विरोध कर अंग्रेजी जानने वाले प्रबुद्ध वर्ग के सारे आक्रमण और व्यंग्यबाणों को झेला। लोहिया की भाषानीति को समझने वाले और उसकी प्रशंसा करने वाले गाँधिवादियों और साहित्यिक व्यक्तियों की संख्या इतनी कम थी कि उन्हें अंगुलियों पर गिना जा सकता है।’’ (वही)

दरअसल अंग्रेजी जानने-सिखने व बोलने-लिखने को लेकर लोहिया को आपत्ति नहीं थी। वे स्वयं बहुत अच्छी अंग्रेजी जानते थे। अंग्रेजी में लिखते भी थे। मैनकाइंड जैसी अंग्रेजी पत्रिका का उन्होंने संपादन किया। उनका अंग्रेजी विरोध विशेषतः दो बातों को लेकर था। एक – यदि अंग्रेजी लोगों पर ज्यादा हावी हो गई तो उनकी अपनी भाषाएँ गौण हो जाएगी। लोहिया जी का मानना था कि अंग्रेजी विदेशी भाषा होने के नाते देश को नुकसान नहीं पहुँचा रही बल्कि सत्ता में एक छोटे समुदाय का इस भाषा में कुशलता प्राप्त कर यह एक सामंती वातावरण पैदा करती है। साथ ही सरकारी कामकाज में अंग्रेजी के प्रयोग से देश के विशाल जनसमुदाय की प्रजातंत्र में शत प्रतिशत भागीदारी संभव नहीं है। अंग्रेजी को सामंती भाषा बताते हुए इसके प्रयोग से आम जनता को होने वाले नुकसान की ओर संकेत किया।

‘‘अंग्रेजी हिन्दुस्तान को ज्यादा नुकसान इसलिए नहीं पहुँचा रही है कि वह विदेशी है, बल्कि इसलिए कि भारतीय प्रसंग में वह सामन्ती है। आबादी का सिर्फ एक प्रतिशत छोटा सा अल्पमत ही अंग्रेजी में ऐसी योग्यता हासिल कर पाता है कि वह उसे सत्ता या स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करता है। इस छोटे से अल्पमत के हाथ में विशाल जन समुदाय पर अधिकार और शोषण करने का हथियार है अंग्रेजी।’’ (लोहिया के विचार, सं. ओंकार शरद, पृ. 135)

अंग्रेजी की अपेक्षा अपनी रीजनल लैंग्वेज को ही ज्यादा महत्व देते हुए लोहिया जी ने हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के विभिन्न क्षेत्रों में प्रयोग पर विशेष बल दिया। उनका अधिकांश लेखन - चिंतन अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी में हुआ। ‘‘हिन्दी भाषा को तो उन्होंने सैकडों नए शब्द दिए। हिन्दी की अभिव्यक्ति क्षमता में उनका योगदान भी अदभुत है। कई-कई घंटे लगातार भाषण करने पर भी वे अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते थे। वे राजनीति, समाजशास्त्र, विज्ञान आदि जटिल अभिव्यक्तियों को भी हिन्दी में सरल बनाकर पेश करते थे। वे गणित, भौतिकी, रसायन आदि सभी विज्ञान विषयों तथा मानविकी के विषयों की शिक्षा हिन्दी तथा भारतीय भाषाओं के माध्यम से देने की वकालत करते थे।’’ (डॉ. राममनोहर लोहियाः वर्तमान संदर्भ में, मस्तराम कपूर)

धर्म के संबंध में काफी उदार दृष्टिकोण रखने वाले लोहिया जी सर्वधर्म समभाव पर आधारित धर्म निरपेक्ष राज्य के समर्थक रहे। धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को विशेष महत्व देते हुए धर्म के आधार पर लोगों में भेदभाव करना उन्हें स्वीकार्य नहीं था। वे सदैव विविध धार्मिक संप्रदायों में एकता पर बल देते थे। न्याय, उदारता और दृढ़ता से लोहिया विभिन्न धार्मिक संप्रदायों के लोगों में परस्पर वैमनस्य के कारणों को ढूंढते और उसके समाधान हेतु प्रयत्नशील रहे।

मेरा बस चलता तो मैं हर हिन्दू को सिखलाता कि रजिया, जायसी, शेरशाह, रहिमन उनके पुरखे हैं। उसी समय हर मुसलमान को सिखाता कि गजनी, गोरी और बाबर उनके पुरखे नहीं, बल्कि हमलावर हैं। - लोहिया

भारत की भव्य संस्कृति तथा यहाँ के धार्मिक प्रतीकों से अत्यधिक प्रभावित लोहिया अपने एक लेख में राम, कृष्ण तथा शिव के संबंध में लिखते हैं- ‘‘हे भारत माता हमें शिव का मस्तिष्क दो, कृष्ण का हृदय दो तथा राम का कर्म और वचन दो। हमें असीम मस्तिष्क और उन्मुक्त हृदय के साथ जीवन की मर्यादा से रचो।’’ उत्तर प्रदेश के चित्रकूट में लगने वाले रामायण मेला की परिकल्पना लोहिया जी ने की थी।

कार्ल मार्क्स, महात्मा गाँधी, अम्बेडकर आदि महान चिंतकों के चिंतन से साहित्य जगत विशेष प्रभावित रहा। इन महान चिंतकों की पंक्ति में लोहिया का नाम भी लिया जाता है। हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के कई साहित्यकार लोहिया चिंतन से प्रभावित रहे। हिन्दी में इलाहाबाद का परिमल ग्रुप तथा इसके बाहर के अनेकों नाम मिलते हैं जिन्हें लोहिया से प्रभावित कहा जा सकता है। ‘‘हिन्दी के अलावा असमिया के वीरेंद्रकुमार भट्टाचार्य, कन्नड के स्नेहलता रेड्डी, मराठी के आचार्य अत्रे, विजय तेंदुलकर, तेलुगु के पट्टाभिराम रेड्डी आदि जो लोहियावादी लेखक कहे जा सकते हैं।’’ (वही)

इसमें कोई संदेह नहीं कि लोहिया ने अपने दर्शन व कार्यों से पीडित, शोषित, दलित, पिछडे समाज तथा युवा वर्ग में आत्मविश्वास, बल, तेज जैसे गुणों को पैदा करने का ऐतिहासिक व सराहनीय कार्य किया। उनका मानना था कि ‘‘आज मेरे पास कुछ नहीं है सिवाय इसके कि हिन्दुस्तान के साधारण और गरीब लोग सोचते हैं कि मैं शायद उनका आदमी हूँ।’’ अपने विचारों व मान्यताओं पर दृढ़ रहने वाले लोहिया को पूरा विश्वास था कि उनकी बातें लोग जरूर सुनेंगे। ‘‘लोग मेरी बात सुनेंगे, शायद मेरे मरने के बाद, लेकिन किसी दिन सुनेगें जरूर।’’

वर्तमान सामाजिक जीवन तथा राजनीतिक व आर्थिक स्थिति से जुड़ी कई समस्याओं का समाधान लोहिया दर्शन में मिल सकता है। उनका चिंतन उनके समय में जितना प्रासंगिक था, उतना ही, बल्कि उससे कहीं ज्यादा आज के समय में भी सार्थक व प्रासंगिक कहा जा सकता है।

          अंत में डॉ. वीरेन्द्रसिंह यादव के शब्द - ‘‘आज डॉ. लोहिया जी के एक-एक शब्द न केवल भारतीय राजनैतिक मानचित्र पर सही उतर रहे हैं बल्कि विश्व के रंगमंच पर जो कुछ घट रहा है उसमें डॉ. लोहिया जी की दृष्टि समाहित है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और भारत के समाजवादी आन्दोलन में डॉ. राममनोहर लोहिया का एक विशिष्ट स्थान रहा है। भारत की राजनीति में परिवर्तन की पहल डॉ. लोहिया ने ही की थी। आदर्श को कोरेपन से मुक्त करके उसे व्यावहारिक रूप प्रदान करने के लिए सारा देश उनका ऋणी रहेगा। लोहिया के विचारों में भारतीय के साथ-साथ वर्तमान परिस्थितियों के बुनियादी कर्तव्यों की सर्वथा मौलिक शक्ति दिखाई देती है। डॉ. नीलम संजीव रेड्डी (पूर्व राष्ट्रपति) के शब्दों में कहे तो ‘इस देश में अनेक नेता हुए, लोहिया केवल एक हुआ।’’ (‘कृतिका’ पत्रिका जनवरी - जून-2019 आलेख- डॉ. राममनोहर लोहिया के विचारों की प्रासंगिकता, डॉ. वीरेन्द्रसिंह यादव, पृ. 195)

 


डॉ. हसमुख परमार

एसोसिएट प्रोफ़ेसर

स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर

जिला- आणंद (गुजरात) – 388120

आलेख

 


हिन्दी लोकगीतों में होली के विविध रंग

डॉ. पूर्वा शर्मा

लोकगीत, लोककथा, लोकगाथा, लोकनाट्य एवं लोकसुभाषित प्रमुख लोक विधाएँ हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रारंभ से ही संवेदना, शैली एवं मात्रा-परिमाण की दृष्टि से लोकगीत को लोकसाहित्य की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विधा के रूप में स्वीकार किया गया है। “लोकसाहित्य के अंतर्गत लोकगीत का प्रमुख स्थान है। जनजीवन में उसकी प्रचुरता तथा व्यापकता के कारण इसकी प्रधानता स्वाभाविक है। लोकसाहित्य के जिन विभिन्न प्रकारों का उल्लेख पहले किया गया है, उनमें पचास प्रतिशत से भी अधिक लोकगीतों की संख्या समझनी चाहिए।” (भरथरी लोकगाथा की परंपरा, डॉ. रामनारायण धुर्वे, पृ. 49)

लोकसाहित्य के मर्मज्ञों ने अलग-अलग आधारों पर लोकगीतों का वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। इन अध्येताओं ने मनुष्य जीवन में संपादित किए जाने वाले विविध संस्कार, प्रकृति के अंतर्गत  विविध महीने और ऋतुएँ, धार्मिक जीवन से जुड़े विविध देवी-देवता-व्रत-त्यौहार, साहित्य के अलग-अलग रस, समाजव्यवस्था में विविध जातियाँ, श्रमजनित विविध क्रियाएँ प्रभृति को ध्यान में रखते हुए गीतों के विभिन्न भेद-उपभेद निर्धारित किए हैं। वैसे तो हर प्रकार के लोकगीत का लोक में विशेष महत्त्व रहा है, किंतु यदि होली से संबंधित गीतों की ओर दृष्टिपात किया जाए तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इन गीतों का रंग, मिज़ाज़ एवं गाने वालों का उत्साह कुछ अलग ही होता है। लोक की धार्मिक भावना, इनके आनंद-उत्साह-उमंग, सामाजिक-पारिवारिक जीवन संबंधी संदेश आदि के मामले में होली-गीत बेजोड़ है।

लोकगीतों के वर्गीकरण में हम देखते हैं कि होलीगीत को ज्यादातर ऋतुगीतों की श्रेणी में रखा गया है, अपितु होली हमारे प्रमुख त्यौहारों में से एक है और इस त्यौहार के अवसर पर लोक में गाए जाने वाले गीतों को यदि त्यौहार संबंधी गीतों में स्थान दें तो अनुचित नहीं कहा जा सकता। “इस त्यौहार (होली) से संबंधी गीतों को एक तरह से पर्व या उत्सव संबंधी गीतों की कोटि में रखा जा सकता है। किंतु इन गीतों व त्यौहारों का संबंध फाल्गुन महीने एवं वसंतऋतु से होने के कारण इनको फाग-फगुआ या कहीं-कहीं वसंत गीत नाम देकर इन्हें ज्यादातर ऋतु संबंधी गीतों में स्थान दिया गया है।” (लोकगीत : स्वरूप एवं प्रकार,डॉ. हसमुख परमार, पृ. 64)

दिवाली, होली, रामनवमी, जन्माष्टमी आदि त्यौहार भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग है। ये त्यौहार हमारे जीवन में विशेष महत्त्व रखते हैं। बड़े ही आनंद-उत्साह से मनाया जाने वाला होली का त्यौहार होलिका दहन के साथ-साथ एक दूसरे को रँगने और इन रंगों में अपनी समस्याओं, राग-द्वेष आदि को भूलाकर मस्ती में खो जाने वाला त्यौहार है। इस माहौल में कंठ से अनेक गीत फूट पड़ते हैं।  “होली के अवसर पर गाए जाने वाले इन गीतों की गति, उनकी भाषा का बंध, स्वरों का संधान अत्यंत मीठा होता है। होली के गीत गाते समय ढोल, मंजीरे, झाँझ आदि बजाए जाते हैं। लगभग सारे गीत उमंग एवं उत्साह के साथ गाए जाते हैं।” (हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास, खंड-16, पृ. 68 )

अनेक स्थानों पर वसंत पंचमी के दिन से ही होली के गीत गाने का प्रारंभ हो जाता है। “आगरा के गाँवों में बसंत से ही होली आरंभ हो जाती है। जगह-जगह पर फाग गाए जाते हैं।” इसी तरह भोजपुरी होली गीत के सन्दर्भ में “माघ मास की शुक्ल पंचमी (वसंत पंचमी) के दिन से फगुआ का गान प्रारंभ किया जाता है।” (उद्धृत हिन्दी लोकगीतों का सांस्कृतिक अध्ययन, डॉ. गिरीशसिंह पटेल पृ. 202)



होली के गीत भारत की लगभग सभी बोलियों में मिलते हैं। इन गीतों में वसंत एवं फाग की  प्राकृतिक शोभा के साथ-साथ त्यौहार से प्रभावित-उत्साहित लोक जीवन की विभिन्न भावानुभूतियाँ व्यक्त होती हैं। होली के गीतों में धार्मिक-पौराणिक विविध पात्रों से जुड़े प्रसंग एवं होली खेलते पात्रों का वर्णन मिलता है।  विशेषतः प्रेम-शृंगार से संबद्ध पौराणिक पात्रों के जीवन प्रसंगों को होली के गीतों में गाया जाता है। श्रीकृष्ण द्वारा गोपियों के चीर हरण वाले प्रसंग का वर्णन निम्न मालवी गीत में देखिए –

“सँवारे को चरित सुनो री।

इक समे ब्रज को सब सखियाँ करत फिरत होरी होरी।

मज्जन हेत धँसी जमुना में कोई साँवरी कोई गोरी,

करत फिरत जल में झकझोरी।।

सँवारे को चरित सुनो री।।1।।

ताही समय ब्रज राज सरवरो आय तहाँ पहुँचोरी,

लेकर चीर कदम के ऊपर चढ़ि गयो, नन्द किशोर

मुदित आनंद भयो री।

सँवारे को चरित सुनो री।।2।।”

(उद्धृत, मालवा के लोकगीत सं. डॉ. आशा पाण्डे, डॉ. दिलीप चौहाण, पृ.120-121)

एक और मालवी गीत में पति-पत्नी के दाम्पत्य जीवन के मधुर क्षणों की प्रस्तुति शंकर-पार्वती के होली खेलने के वर्णन के माध्यम से हुई है –

“गोरा तेरा भाग बड़ा शिवशंकर खेले होरी।।टेक।।

बरस दिना के बारह महीना, मस्त महीना की होरी।

देखो री मस्त महीना की होरी।।

अरुन वरन को रंग बनायो, कनक की पिचकारी।

भर पिचकारी बदन पर डारी, भीज गई गोरा प्यारी।।”

(उद्धृत, मालवा के लोकगीत सं. डॉ. आशा पाण्डे, डॉ. दिलीप चौहाण, पृ.120-121)



राधा-कृष्ण, कृष्ण-गोपियाँ एवं राम-सीता के होली खेलने का वर्णन लगभग सभी भाषा-बोलियों के होली गीतों का विशेष आकर्षण रहा है। रंग भरी पिचकारियों के साथ हवा में उड़ते अबीर-गुलाल में मुरली, डफ, मंजीरा आदि वाद्यों की धुन पर थिरकते कृष्ण-राधा के और राम-सीता से संबंधित कुछ गीत देखिए –

बजे नगारा दसों जोडी, हाँ, राधा किशन खेलै होरी

दूनौ हाथ धरै पिचकारी, धरे पिचकारी, धरे पिचकारी

* * * *

आज बिरज में होरी रे रसिया-होरी रे,

रसिया बरजोरी रे रसिया... आज बिरज में।

कउन के हाथ पिचकारी सोहे

कउन के हाथ कमोटी रे रसिया.... आज आज बिरज में

कान्हा के हाथ पिचकारी सोहे

राधा जी के हाथ कमोटी रे रसिया

आज बिरज में होरी रे रसिया।।

* * * *

चलो बरसाने खेलो होरी,

ऊँचो गाँव बरसाने

कहिए तहाँ बसै राधा गोरी।

पाँच बरस के कुँवर कन्हैया

सात बरस की राधा गोरी।

* * * *

 

होरी खैलै रघुवीरा अवध में होरी।

केकरा हाथ कनक पिचकारी,

केकरा हाथ अबीरा।

राम के हाथ कनक पिचकारी

सीता के हाथ अबीरा

होरी खैले रघुबीरा अवध में होरी।

होली के गीतों में धार्मिक पात्रों का उल्लेख तो मिलता ही है, साथ ही कई ऐसे गीत मिलते हैं जिनमें शृंगार की अभिव्यंजना हुई है। शृंगार को उद्दीप्त करने में वैसे भी वसंत की भूमिका अहम होती है, युवा वर्ग के साथ-साथ वृद्ध भी इस प्रभाव से मुक्त नहीं रहते –

“होली मयँ बाबा दिवर लगैं।”

(लोकसाहित्य का शास्त्रीय अनुशीलन, डॉ. महेशगुप्त, पृ. 143)

शृंगार संबंधित एक और गीत इस प्रकार है –

“होली खेलन आओ रे रंगीलो साजन,

ऊँचो खालो जोत के तू क्या बोओ रे

ऊँचो खालो जोत के मैंने बाग लगाओ रे

निब्बू, नारंगी, केतकी,  चम्पा की कलियाँ रे।

* * * *

कोठे ऊपर कोठारी हुआँ चोर पहुँचो रे

मैं तोसे पूछऊँ  मलनियाँ  तेरो क्या-क्या लूटो रे

माल खजाना छोड़ के मेरो जोबन लूटो रे।।

(लोकसाहित्य का शास्त्रीय अनुशीलन, डॉ. महेशगुप्त, पृ. 143)

वसंत के आते ही हर तरफ सुन्दर पुष्पों के खिलने और वातावरण में सुगंध फ़ैलने से चारों ओर खुशनुमा माहौल नज़र आता है। इस ऋतु के साथ होली के त्यौहार के आने से लोकजीवन में पूरी तरह से हर्षोल्लास छा जाता है। वसंत के आगमन के साथ लोगों पर होली का रंग चढ़ने लगता है और इस उत्साह उमंग से भरे इन लोगों के कंठ से होली की मस्ती, नशा एवं वसंत की मादकता-सुन्दरता आदि से भरी विविध अनुभूतियाँ गीतों के माध्यम से प्रकट होती है। ऐसे माहौल में विविध वाद्य यंत्रों का बजना, होली का आनंद एवं नशा, वसंत के रंग में रंगी प्रकृति, मनुष्य एवं मनुष्येतर जीवों पर इसका प्रभाव, होली खेलने का नयनाभिराम दृश्य जैसे कई विषय बिन्दुओं को रेखांकित करने वाले एक कवि का मालवी गीत का स्मरण यहाँ होता है जिसे बताना यहाँ अप्रासंगिक नहीं होगा –

झाँझ मँजीरा ढपली बाजे, बाजे ढम ढम ढोल,

कुदरत के भी मस्ती चढ़गी, देखो आँख्या खोल,

आनंद आयो रे,

हाँ, के आनंद आयो रे

अब नवो नसों होली को छायो रे,

आनंद आयो रे।

* * * *

घणी खुशी में छोरा छोरी, हाथों में पिचकारी हे,

तरे तरे का रंग उडाया, बणग्या वी फुलवारी हे

फूल कली, ने कली फूल में, बईग्या सब बेभोल

आनंद आयो रे।

(अक्षत पत्रिका, बसंत-2018, सं. डॉ. श्रीराम परिहार, गीत - नवो नसों होली को, डॉ. शिव चौरसिया, पृ. 51)

होली के गीत स्त्री-पुरुष दोनों द्वारा गाए जाते हैं। समूह में गाए जाने वाले इन गीतों में पर्याप्त विषय-वैविध्य प्राप्त होता है। इस संदर्भ में राजस्थानी होली गीतों को लेकर ‘जैसलमेर के शृंगारिक लोकगीत’ पुस्तक के लेखक भूराराम सुथार का मत है – “होली के पर्व पर पुरुषों द्वारा गाये जाने वाले गीतों को ‘फाग’ और स्त्रियों के गीतों को ‘लूर’ के नाम से जाना जाता है।”

कबीर और जोगीडा भी होलीगीत के ही भेद हैं। होली के अवसर पर गाये जाने वाले उन गीतों को कबीर के नाम से जाना जाता है जिनमें गालियाँ गाई जाती हैं। अररर अररर भइया, सुन लेउ मोर कबीर। ‘जोगीडामें विविध वाद्यों को बजाते हुए नाच-गान के साथ एक टोली गाँव में घर-घर घूमती है। कबीर गीत के संबंध में डॉ. श्रीधर मिश्र का मत है – “ये कबीर बड़े अश्लील होते हैं। जैसे उनको एक सुन्दर मौका मिला हो और वे अपने मन की कसक निकाल रहे हो। यह एक ऐसा अवसर है कि जब समाज लोगों की दमित यौन भावना को सामाजिक एवं अश्लील मानते हुए भी उस दिन उसकी अभिव्यक्ति की छूट देता है।”  (लोकसाहित्य विमर्श, डॉ. द्विजराम यादव, डॉ. विजय कुमार, पृ. 76)

होली के पर्व की विविध रस्में एवं कहीं-कहीं जीवन दर्शन का पुट भी इन गीतों में मिलता है।

शृंगार वर्णन के अंतर्गत संयोग-वियोग दोनों पक्षों की उपस्थिति इन गीतों में दिखाई देती है। अपने पिया के संग होली खेलने का आनंद कुछ और ही होता है –

“होली खेलूं, होली खेलूं सांवरिया के संग

पकडे गुलाल मले हाथ पर

अरे हाँ, भौं में भर देंगे रंग,

होली खेलूं सांवरिया के संग”

जहाँ एक ओर अपने प्रियतम के साथ होली खेलने का आनंद है वहीं दूसरी ओर विरहाग्नि में जलने वाली प्रिया को यह त्यौहार, वसंत की यह मादक ऋतु और अधिक कष्ट दे रही है। वियोगिनी की इस पीड़ा की अनुभूति को निम्न गीत में देखा जा सकता है –

“पिया बिन बैरिन होरी आई।

विरहिणी की दशा का मर्मस्पर्शी वर्णन इस राजस्थानी गीत में प्रकट हुआ है  

“फागण आय गयो,

ओरां रा सायबा चंग बजावै जी

ज्यारी गीत ज गाये घर नार।

ओरां रा सायबा घरा बसै

ओरां रा सायबा होली खेलै

ज्यारे लूट रमै घर नार

फागण आय गयो।”

राष्ट्रीय भावधारा से भी होली गीत अछूते नहीं रहे हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति की चाह, स्वतंत्रता संग्राम, देश प्रेम, स्वातंत्र्य सेनानियों का स्मरण एवं इनके साहस और बलिदान के कई संदर्भ इन गीतों में वर्णित है। निम्न गीत में स्वतंत्रता संग्राम के वीर कुँवर सिंह के पराक्रम को बहुत सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है –

भोजपुरी अइसे होली मचाई

गोली बारूद के रंग बनाए  तोपन की पिचकारी

बीच भोजपुर में फाग मचल वा

खेलें कुँवर सिंह भाई।

(लोकसाहित्य विमर्श, डॉ. द्विजराम यादव, डॉ. विजय कुमार, पृ. 76)

उत्तर भारतीय होली गीतों में व्यक्त राष्ट्रीय भावना के संबंध में डॉ. गिरीश सिंह पटेल का मत है – “इस प्रदेश (उत्तर भारत) में पाए जाने वाले होली गीतों में राष्ट्रीय भावना जगाने वाले गीत भी पाए जाते हैं। इनमें हमारे देश की परंपरा, संस्कृति के बारे में गीत गाये जाते हैं। महात्मा गाँधी, नहेरु, महाराणा प्रताप, शिवाजी महाराज, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई आदि से संबंधित लोकगीत गाए जाते हैं, भले ही इनकी संख्या कम हो पर इनकी गायन शैली रोचक एवं ओजपूर्ण होती है। इन्हें सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं, लगता है कि श्रोता हाथ में ढाल-तलवार लेकर रणभूमि में उतर जाए और दुश्मनों की बोटी-बोटी कर डाले।”

इस प्रकार हम देख सकते हैं कि लोकजीवन से जुड़े होली के लोकगीत सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है ही, साथ ही यह लोक की विविध अनुभूतियों को गहनता एवं तीव्रता से अभिव्यक्त करने में भी सक्षम है।

 


डॉ. पूर्वा शर्मा

वड़ोदरा

 

 

 

 

अप्रैल 2024, अंक 46

  शब्द-सृष्टि अप्रैल 202 4, अंक 46 आपके समक्ष कुछ नयेपन के साथ... खण्ड -1 अंबेडकर जयंती के अवसर पर विशेष....... विचार बिंदु – डॉ. अंबेडक...