सोमवार, 15 अगस्त 2022

अगस्त – 2022, अंक – 25

 


शब्द सृष्टि,  अगस्त – 2022, अंक – 25

आज़ादी के महापर्व की अशेष शुभकामनाओं सहित……


स्वाधीनता दिवस पर विशेष

विचार स्तवक

स्वतंत्रता के मायने – डॉ. मदनमोहन शर्मा

परिचय – स्वाधीनता संग्राम की कुछेक वीरांगनाएँ – डॉ. पूर्वा शर्मा

तिरंगा-भारतमाता (चित्र कविता) – कुमार गौरव अजीतेंदु , अनिता मंडा

हाइगा – चिन्मय शुक्ला

स्वतंत्रता आंदोलन में हिन्दी साहित्यकारों की भूमिका (आलेख) ) – डॉ. जयंतिलाल बी. बारीस

देश (कविता) – त्रिलोक सिंह ठकुरेला

नवांकुर की दिशा (लघुकथा) – कुमार गौरव अजीतेंदु

अद्भुत हिंदुस्तान (कविता) – गौतम कुमार सागर

प्रवासी मन (कविता) – प्रीति अग्रवाल

शहादत (कविता) – चिन्मय शुक्ला

भारतमाता का जयगान (कविता) – डॉ. ऋषभदेव शर्मा

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व्याकरण विमर्श – डॉ. योगेंद्रनाथ मिश्र

आलेख – महाभारत : एक विरासत– डॉ. हसमुख परमार

पुस्तक चर्चा – खींचो न कमानों को(डॉ. ऋषभदेव शर्मा ) : फर्क तो पड़ता है जी, नाम से भी! – डॉ. योगेंद्रनाथ मिश्र

विशेष – स्मृति शेष भूपिंदर – राजा दुबे

लोरी – डॉ. ज्योत्सना शर्मा

हाइकु (छत्तीसगढ़ी) – रमेश कुमार सोनी


परिचय



स्वाधीनता संग्राम की कुछेक वीरांगनाएँ

डॉ. पूर्वा शर्मा

 

मातंगिनी हाजरा (गाँधी बूढ़ी)

 

(19 अक्टूबर,1870 - 29 सितम्बर,1942)

क्या देश प्रेम के लिए कोई उम्र होती है ? नन्हा बालक हो या वृद्ध व्यक्ति, देशप्रेम का रंग किसी उम्र का मोहताज नहीं, वो तो सर चढ़कर बोलता है। गाँधी बूढ़ी के नाम से प्रसिद्ध ‘मातंगिनी हाजरा’ एक ऐसी वीरांगना थी जिन्होंने 62 वर्ष की आयु में देश में हो रहे स्वाधीनता आंदोलन में वर्ष1932 में पहली बार भाग लिया।

पूर्वी बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश) मिदनापुर जिले के होगला ग्राम में एक अत्यन्त निर्धन परिवार में जन्मी मातंगिनी हाजरा का विवाह 12 वर्ष की आयु में 62 वर्षीय विधुर त्रिलोचन हाजरा से हुआ। विवाह के छह वर्ष के उपरांत मात्र 18 वर्ष की आयु में वह निःसन्तान ही विधवा हो गयीं। विधवा होने के बाद कुछ समय तक मतंगिनी अपने पिता के घर रही। उस समय विधवा विवाह ज्यादा प्रचलन में नहीं था। दूसरा उनका सौतेला पुत्र जो उनसे उम्र में बड़ा था, उनसे बहुत घृणा करता था। बाद में मातंगिनी अपने पति के विशाल घर के पास ही एक अलग झोपड़ी में रहने लगीं। मजदूरी करके जीवनयापन करने लगीं।

1932 में वे नमक सत्याग्रह से जुड़ी और पुलिस की लाठियों का सामना करते हुए लहूलुहान होने के बावजूद बेहोशी की हालत में भी ‘वंदे मातरम’ का स्वर उनके मुख से बंद न हुआ। 1933 में तामलुक में गर्वनर एण्डरसन के विरोध प्रदर्शन में मातंगिनी हाजरा काला झण्डा लिए सबसे आगे खड़ी थी। इस नेतृत्व के परिमाणस्वरूप उन्हें छ माह का कारावास भोगना पड़ा। उनकी इस पहली जेल यात्रा ने उनके ज्ञान चक्षु खोल दिए और वहाँ से बाहर निकलकर उन्होंने अस्पृश्यता निवारण, कौमी एकता, ग्रामोद्योग जैसे कई रचनात्मक कार्य किए। दलितों, पीड़ितों, गरीबों के दुःख दूर करने का प्रयास किया।  वह स्वयं भूखी रहकर भिखारियों को भोजन दे देती। उनका कहना था कि ‘मेंरी मौत किसी रोग से नहीं होगी, मैं तो अपने देश की खातिर अपनी जान दूँगी’। इस तरह की निःस्वार्थ भावना के चलते बंगाल में मातंगिनी को गाँधी बूढ़ी के नाम से जाना जाने लगा।

गाँधी बूढ़ी की देशभक्ति की ज्वाला दिन-ब-दिन प्रगाढ़ होती चली गई।1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के चलते एक सभा का आयोजन हुआ। 29 सितम्बर, 1942 के दिन लगभग 5000 लोगों की रैली में गाँधी बूढ़ी भी शामिल हुई। कुछ देर बाद पुलिस की बंदूकों से गोली बरसने लगी और मातंगिनी उस रैली के बीच से निकलकर आगे आ गईं। तिरंगा अपने हाथ में लेकर वे नारे लगाने लगी। जैसे ही उनके बाएँ हाथ में एक गोली लगी उन्होंने तिरंगे को दूसरे हाथ में ले लिया और फिर उनके दाएँ हाथ में भी गोली लगी।  इसी के साथ तीसरी गोली उनके माथे पर लगी। और वे वहीं पर लुढ़क पड़ी। इसी के साथ तिरंगा उनके रक्त से सनकर लाल हो गया। गाँव की एक अनपढ़, सत्याग्रही वृद्धा पर स्वतंत्रता का प्रगाढ़ रंग देश की आज़ादी की सार्थकता को दर्शाता है। 

बहुरिया रामस्वरूपा देवी (बिहार की लक्ष्मी बाई)

(9 अगस्त,1884 - 23 नवम्बर,1953)

बिहार के भागलपुर के तिरमुहान गाँव के अति सम्पन्न परिवार में बाबू भूपनारायण सिंह के यहाँ जन्मीं रामस्वरूपा नौ वर्ष की बाल्यावस्था में ही हरिमाधव प्रसाद सिंह के साथ वैवाहिक बन्धन में बँध गईं। पति हरिमाधव प्रसाद सिंह छात्र जीवन से ही स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े थे जो कि एक महान स्वतंत्रता सेनानी बने। इसी कारण रामस्वरूपा देवी के हृदय में क्रांति का सुलगना स्वाभाविक था। हिन्दी, अंग्रेजी और उर्दू का अच्छा ज्ञान रखने वाली बहुरिया मैट्रिक तक पढ़ी थी।

1930 ई. के नमक सत्याग्रह के दौरान बहुरिया के पति हरिमाधव प्रसाद की गिरफ्तारी हुई और  उन्हें हजारीबाग जेल की यात्रा करनी पड़ी। स्वतंत्रता की लड़ाई को गति देने के लिए बहुरिया अपने पति के घर अमनौर आई और परंपरा के अनुसार उन्हें हवेली के भीतर रहना पड़ा। लेकिन उनके हृदय में सुलग रही क्रांति की आग ने उन्हें इस दीवार से बाहर आने पर मजबूर किया। इसी के साथ उन्होंने गाँव-गाँव घूमकर गाँधी जी के अहिंसक सत्याग्रह के संदेश को अनेक जगह पर पहुँचाया। बहुरिया अब ब्रिटिश सरकार के लिए खतरा बन चुकी थी। उनके खिलाफ़ गिरफ्तारी का वारंट जारी हुआ। अपने क्रांतिकारी पति से वह हजारीबाग जाकर जेल में मिली। उस समय ब्रिटिश हुकूमत ने कांग्रेस को गैर-कानूनी घोषित कर दिया था। राहुल सांकृत्यायन से विमर्श कर उन्होंने गिरफ्तारी देने का निर्णय लिया। जब पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया तो क्रांतिकारी जनता सड़क पर लेट गयी। पुलिस की लाख कोशिशों के बावजूद लोग नहीं उठे तब अंग्रेज अधिकारियों ने उन पर गाड़ी चलाने का आदेश दिया। बहुरिया इस नाजुक स्थिति को देखकर जीप गाड़ी से कूद पड़ी और बोली – “क्या मेंरी इच्छा के बिना एक कदम भी आगे ले जा सकते हो? उन्होंने लोगों को संबोधित करते हुए कहा – “भाइयों! आप मेंरी चिंता न करें। मैं पकड़ी गई तो कोई बड़ी बात नहीं…….. मैं कुछ ही दिनों में आपके बीच आ जाऊँगी।” गाँधी इरविन समझौते के बाद देश के अन्य सत्याग्रहियों के साथ इन्हें भी रिहा किया गया।

1932 ई. में गया में भारतीय महिला कांग्रेस का अधिवेशन में सभाध्यक्ष सरोजनी नायडू नहीं आ सकी तो अध्यक्षता रामस्वरूपा देवी को ही करनी पड़ी। उनके उत्तेजक भाषण के कारण उन्हें पुनः गिरफ्तार कर लिया गया।

19 अगस्त, 1942 को छपरा जिले के मढौरा थाना क्षेत्र में एक सभा में बहुरिया ने अपना ओजस्वी भाषण प्रारंभ किया और अंग्रेजों ने अंधाधुंध गोलियाँ बरसाई। जनता में भ्रम फैल गया कि बहुरिया को गोली लगी और देखते ही देखते खेत में छुपे हुए हजारों स्वतंत्रता सेनानी अंग्रेज सिपाहियों पर पत्थर, ईंट आदि लेकर टूट पड़े। इसमें सात सिपाहियों को मारकर नारायणी नदी में फेंक दिया। बाद में कांग्रेस के नेताओं के कहने पर बहुरिया ने समर्पण कर दिया और उन्हें भागलपुर जेल भेज दिया गया।

आज़ाद भारत के बिहार के पहले विधानसभा चुनाव में वह भारी मत से विजयी हुई। लेकिन वे देश की सेवा अधिक दिनों तक कर न सकीं और नवम्बर 1953 में वह नश्वर शरीर छोड़ चली । देश की सेवा करने वाली इस ‘बिहार की लक्ष्मीबाई’ को शत-शत नमन।  

नेली सेनगुप्त

 

(12 जनवरी,1886 - 23 अक्टूबर,1973)

अपने देश, अपनी मिट्टी की खातिर जान की बाजी लगा देने वाले अनेक भारतवासियों ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अपना योगदान दिया। लेकिन जो भारत में जन्मा न हो फिर भी भारत के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दें ऐसे बिरले व्यक्तित्व को पाकर हमारा देश गर्वित है।

नेली सेनगुप्त एक ऐसी ही वीरांगना है जिनका जन्म फ्रेडरिक विलियम ग्रे और एडिथ हेनरीटा ग्रे दंपति की बेटी के रूप में कैम्ब्रिज (इंग्लैंड) में हुआ। जन्म से भले ही वह एक अंग्रेज थी लेकिन स्वतंत्रता संग्राम में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। स्वतंत्रता सेनानी जतिंद्र मोहन सेनगुप्त इंग्लैंड में अपनी पढ़ाई के दौरान नेली से मिले और दोनों ने प्रेम विवाह कर लिया। विवाहोपरांत वे भारत आ गई और उन्होंने अपना जीवन भारत की सेवा में ही समर्पित कर दिया।  

1921 के असहयोग आंदोलन में नेली ने अपने पति का साथ दिया। 1931 में एक गैरकानूनी सभा को संबोधित करने के लिए नेली को चार महीने के लिए दिल्ली में जेल जाना पड़ा। उनके पति जतिंद्र को 1932 में पूना, दार्जिलिंग एवं राँची में कैद रखा गया और 1933, राँची में उनकी मृत्यु हो गई।

नेली सेनगुप्त, ऐनी बेसेंट (1917) और सरोजिनी नायडू (1925) के बाद कांग्रेस अध्यक्ष पद (1933) संभालने वाली तीसरी महिला थीं।

स्वतंत्रता के बाद वे पूर्वी पाकिस्तान के चटगाँव में अपने पति के पैतृक घर में रही और वहाँ हिंदू अल्पसंख्यकों की देखभाल करने लगीं। 1954 में वह पूर्वी पाकिस्तान विधान सभा के लिए निर्विरोध चुनी गईं। अपनी बीमारी के चलते वह  इलाज हेतु कोलकाता आईं, जहाँ उनका 1973 में निधन हुआ। पद्म विभूषण से सम्मानित नेली ने स्वतंत्रता संग्राम में राजनीतिक एवं क्रांतिकारी कार्यों में सशक्त भूमिका निभाई।

हीरा लक्ष्मी बेटाई

‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा’ का नारा देने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे क्रांतिकारी ने अनेक लोगों को स्वाधीनता संग्राम से जुड़ने के लिए प्रेरित किया। इनमें महिलाएँ भी शामिल थीं। ‘आज़ाद हिन्द फौज’ की स्थापना के लिए अपने सभी जेवर के साथ मंगलसूत्र देने वाली एक महिला को देखकर नेताजी बहुत प्रसन्न हुए लेकिन उन्होंने उसका मंगलसूत्र लौटते हुए कहा कि तुम्हारे सौभाग्य की यह निशानी मैं नहीं ले सकता। नेताजी के आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उन्हें पता चला कि इस महिला के पति हेमराज रणछोड़ दास बेटाई तो अपनी लाखों की संपत्ति पहले ही नेताजी के चरणों में अर्पित कर चुके थे।  

निडर, साहसी, दयालु नारी हीरा लक्ष्मी आज़ाद हिन्द फौज के घायल सैनिकों की रंगून के अस्पताल में देखभाल करती थी। 1945 में जब नेताजी घायल सैनिकों से मिलने अस्पताल में आए तो वहाँ पर हमला हुआ। वहाँ से नेताजी को सही सलामत निकालकर सुरक्षित स्थान  पर  पहुँचाने की जिम्मेदारी लक्ष्मी पर आई जो उन्होनें बखूबी निभाई। द्वितीय विश्व युद्ध बाद 1945 में आज़ाद हिन्द फौज के सैनिकों को गिरफ्तार कर लिया गया और उनका अभियान असफल हो गया। इस के पश्चात बेटाई दम्पत्ति का सर्वस्व खो गया और वे कलकत्ता में रहकर घड़ी की दुकान शुरू कर अपना जीवन यापन करने लगे।

पूर्णिमा पकवासा (डांग की दीदी)

(5अक्टूबर,1913 - 26 अप्रैल, 2016)

इसमें कोई संदेह नहीं कि स्त्रियों की स्थिति में सुधार हेतु गाँधी जी ने अनेक कार्य किए। गाँधी जी का मानना था कि स्त्रियों को निर्भय एवं बहादुर बनाना बहुत आवश्यक है। गाँधी जी के इन विचारों से प्रभावित होकर अनेक स्त्रियाँ भी स्वाधीनता आंदोलन में कूद पड़ीं। इनमें एक उल्लेखनीय नाम है – पूर्णिमा पकवासा। गाँधी जी के विचारों एवं बातों से अत्यधिक प्रभावित पूर्णिमा के मन में उनसे मिलने की इच्छा जाग्रत हुई, जो कि नमक सत्याग्रह के दौरान पूरी हुई। उनके पिता एवं चाचा स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े थे। जिस घर की वातावरण में स्वतंत्रता संग्राम की महक हो उस घर के किसी भी सदस्य पर उसका असर न हो यह संभव नहीं। इस तरह देश भक्ति की भावना उन्हें विरासत में मिली। 1930 में दांडी यात्रा के दौरान पकड़े जाने वाले लोगों में अन्य महिला कार्यकर्ताओं के साथ पूर्णिमाबहन भी शामिल थी। छ माह की जेल की सजा के दौरान उनके साथ कस्तूर बा, मणिबहन पटेल आदि थीं, जिन्होंने उन्हें अंग्रेजी भाषा से भी परिचित कराया।

युवतियों को बहादुर एवं सजग बनाने वाली गाँधी जी की बात पूर्णिमा के मन में घर कर गई और उन्होंने अमरेली की व्यायाम शाला में कसरत की शिक्षा ली। इसके अतिरिक्त उन्होंने मिलिट्री तालिम भी ली, जिसमें उन्होंने राइफल, ब्रेनगन, स्टेनगन आदि को चलाने एवं जीप आदि वाहन चलाने की शिक्षा भी ग्रहण की। इसके बाद पूर्णिमा जी ने पंचमढ़ी में 78 युवतियों को प्रशिक्षित करते हुए शारीरिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान भी दिया।

महिलाओं में स्वरक्षण एवं आत्मसम्मान के साथ उनके व्यक्तिगत गुणों के विकास के लिए पूर्णिमा बहन ने 1954 में  ‘शक्तिदल’ की स्थापना की। 1970 में ‘शक्तिदल’ को ‘ऋतंभरा विश्व विद्यापीठ’ में रूपांतरित किया गया। आदिवासी कन्याओं की शिक्षा के लिए  1975 में ‘ऋतंभरा कन्या विद्यामंदिर की स्थापना की गई। इस संस्था ने विशेषतः डांग क्षेत्र की कन्याओं के लिए बहुत कार्य किया। इसी कारण इन्हें ‘डांग की दीदी’ के नाम से भी जाना जाता है। अपनी 102 वर्ष की आयु में पूर्णिमा बहन ने स्वाधीनता संग्राम में तो योगदान दिया ही साथ में महिलाओं के विकास हेतु अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य भी किए।

 



डॉ. पूर्वा शर्मा

वड़ोदरा

 


आलेख

 


महाभारत : एक विरासत

(डॉ. नरेन्द्र कोहली के उपन्यासों के विशेष संदर्भ में)

डॉ. हसमुख परमार

          ‘महाभारत’ भारतीय संस्कृति और साहित्य का प्राचीन व प्रसिद्ध उपजीव्य ग्रंथ है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि प्रत्येक भारतीय साहित्यकार कहीं न कहीं भारतीय संस्कृति को ही अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहा है। और यह भारतीय संस्कृति ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ जैसे महान ग्रंथों से निरंतर प्रवाहित होती रही है। उभय, भारतीय मनीषा के वे ग्रंथ हैं जिसने विगत ढाई-तीन हजार वर्षों के हमारे सामाजिक-धार्मिक-सांस्कृतिक जीवन को गढ़ा है। समस्त भारतीय साहित्य में स्रोत ग्रंथ के रूप में निर्विवाद स्वीकृत इन दोनों ग्रंथों ने भारतीय साहित्य तथा भाषाओं को विपुल मात्रा में प्रतीक, बिम्ब, मिथक, सोच, दृष्टि, मुहावरे प्रभृति के रूप में आधार सामग्री दी है।

          काव्यरूप की दृष्टि से महर्षि वेदव्यास प्रणीत ‘महाभारत’ एक बृहदाकार महाकाव्य है। इस आर्षकाव्य के सृजन व लेखन की कहानी भी बड़ी रोचक है। ‘‘वेदव्यास जी ने हिमालय की तलहटी की एक गुफा में तपस्या में संलग्न तथा ध्यान योग में स्थित होकर महाभारत की घटनाओं का आदि से अंत तक स्मरण कर मन ही मन में ‘महाभारत’ की रचना कर ली। परंतु इसके पश्चात उनके सामने एक गंभीर समस्या आ खड़ी हुई कि इस काव्य के ज्ञान को सामान्य जन तक कैसे पहुँचाया जाये? क्योंकि इसकी जटिलता और लम्बाई के कारण यह बहुत कठिन था कि कोई इसे बिना गलती किए वैसा ही लिख दे जैसा कि वे बोलते जाएँ। इसलिए ब्रह्माजी के कहने पर व्यास जी गणेश जी के पास पहुँचे। गणेश जी लिखने को तैयार हो गये, किंतु उन्होंने एक शर्त रखी कि वह कलम एक बार उठा लेने के बाद काव्य समाप्त होने तक के बीच में नहीं रुकेंगे। व्यास जी मानते थे कि यह शर्त बहुत कठिनाइयाँ उत्पन्न कर सकती हैं। अतः उन्होंने भी अपनी चतुरता से एक शर्त रखी कि कोई भी श्लोक लिखने से पहले गणेश जी को उसका अर्थ समझना होगा। गणेश जी ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। इस तरह व्यास जी बीच-बीच में कुछ कठिन श्लोकों को रच देते थे, तो जब गणेश जी उनके अर्थ पर विचार कर रहे तो उतने समय में ही व्यास जी कुछ और नये श्लोक रच देते। इस प्रकार संपूर्ण महाभारत तीन वर्षों के अंतराल में लिखा गया।’’ (hi.m.wikipidia.org/w)

          इस विषय के संबंध में एक मान्यता यह भी है कि महाभारतके रचयिता महर्षि वेदव्यास कोई व्यक्तिवाची नाम नहीं है, अपितु वह एक पदनाम है। कहने का मतलब यह कि इस नाम के कई महर्षि-विद्वान-कवि हुए हैं और उन सब के कृतित्व का योग महाभारतहै जो ‘जय’ काव्य (एक बूँद) से प्रारम्भ होकर अंत में महाभारत रूपी महोदधि में रूपायित हुआ है।

          धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक, दार्शनिक व राजनीतिक विषयों से संदर्भित ‘महाभारत’ विश्व का सबसे बृहत् महाकाव्य है। विषयवस्तु के विस्तार और वैविध्य के लिहाज से सर्वाधिक समृद्ध काव्य के बारे में कहा गया है कि ‘यन्न भारते तन्न भारते’ अर्थात जो यहाँ (महाभारत में) निरुपित व चित्रित है वह कहीं न कहीं अवश्य मिला जाएगा और जो यहाँ नहीं है वह अन्यत्र कहीं भी नहीं मिलेगा।

‘‘धर्मे चार्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ्

यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत् क्वचित।।’’

          महाभारत को पंचमवेद कहा गया। इसे भारत के सांस्कृतिक विषयों का विराट कोश तथा आचार की संहिता के रूप में भी देखा गया है। विषयवस्तु की विशालता और वैविध्य को लेकर महाभारत के विशिष्ट अध्येता डॉ. जे. आर. बोरसे का मत देखिए- ‘‘महाभारत संस्कृत साहित्य का एक बृहद् विश्वकोश है। वेदव्यास जी ने स्वयं अपनी संहिता के विषयों का निरूपण ब्रह्मा जी से किया था, जो इस प्रकार है- इसमें वैदिक औऱ लौकिक सभी विषय हैं। इसमें वेदांत सहित उपनिषद, वेदों का क्रिया-विस्तार, इतिहास, पुराण, भूत, भविष्य और वर्तमान के वृत्तांत, बुढ़ापा, मृत्यु, भय, व्याधि आदि के भाव-अभाव का निर्णय, आश्रम और वर्णों का धर्म, पुराणों का सार, तपस्या, ब्रह्मचर्य, पृथ्वी, चन्द्र, सूर्य, गृह, नक्षत्र और युगों का वर्णन, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, अध्यात्म, न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, दान, देवता और मनुष्यों की उत्पत्ति, पवित्र तीर्थ, पवित्र देश, नदी, पर्वत, वन, समुद्र, पूर्वकल्प, दिव्यनगर, युद्ध-कौशल, विविध भाषा, विविध जाति, लोक व्यवहार और सब में व्याप्त परमात्मा का भी वर्णन है। ..... इसके अध्ययन से केवल तात्कालीक सामाजिक, पारिवारिक, वैयक्तिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, शैक्षणिक, भौगोलिक परिस्थितियों का परिचय ही प्राप्त नहीं होता; अपितु धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक तत्वों का सांगोपांग ज्ञान भी प्राप्त होता है।’’ (स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी काव्य में महाभारत के पात्र, डॉ. जे.आर.बोरसे, पृ. 68)

          महाकाव्य के एक प्रमुख लक्षण- ‘सर्गबद्धो महाकाव्यम्’ के संदर्भ में हम देखते हैं कि कई महाकाव्य ऐसे हैं जिनमें सर्ग के लिए अन्य नामों का प्रयोग हुआ है। जैसे कांड, पर्व, समय, खंड आदि। महाकाव्य ‘महाभारत’ में पर्व है। इस काव्य की प्रबंध योजना में पूरा ग्रंथ कुल अठारह पर्वों में लिखा गया है। यथा-आदिपर्व, सभापर्व, वनपर्व, विराटपर्व, उद्योगपर्व, भीष्मपर्व, द्रोणपर्व, अम्वमेधिक पर्व, महाप्रस्थानिक पर्व, कर्णपर्व, शैल्यपर्व, सौप्तिकपर्व, स्त्रीपर्व, शांतिपर्व, अनुशासन पर्व, आश्रमवासिक पर्व, मौसलपर्व और स्वर्गारोहण पर्व। इन पर्वों का नामकरण उसके कथानक के मुख्य पात्र या घटना के आधार पर है।

          हमने पहले भी इस बात का उल्लेख किया है कि ‘महाभारत’ भारतीय साहित्य के स्रोत ग्रंथों में प्रमुख है। इस धर्मग्रंथ पर, इस स्मृतिग्रंथ पर, इस शास्त्र पर, इस आख्यान पर तथा इस आर्षकाव्य के महत्व के बारे में अनगिनत साहित्यकारों ने, इतिहास-पुराण के अध्येताओं तथा चिंतकों ने अपने महत्वपूर्ण विचार प्रस्तुत किए हैं। आचार्य हजारीप्रसाद व्दिवेदी के मतानुसार ‘‘भारतीय दृष्टि  से महाभारत पाँचवा वेद है, इतिहास है, स्मृति है, शास्त्र है और साथ ही काव्य है। कम से कम दो हजार वर्षों से यह भारतीय जनता के मनोविनोद, ज्ञानार्जन, चरित्र निर्माण और प्रेरणा प्राप्ति का साधन रहा है।’’ (हिन्दी साहित्य की भूमिका, आचार्य हजारी प्रसाद व्दिवेदी, पृ. 183)

          महाभारत को भारतीय साहित्य तथा संस्कृति के प्रमुख उपजीव्य ग्रंथ के रूप में देखते हुए डॉ. रामधारीसिंह दिनकर लिखते हैं- ‘‘महाभारत पिछले दो हजार वर्षों से समस्त भारतीय साहित्य का उपजीव्य रहा । महाभारत से प्रेरणा लेकर लिखे गये काव्यों की संख्या संस्कृत में भी बड़ी थी और हिन्दी काव्य में भी इसकी संख्या विशाल है। महाभारत भारतीय संस्कृति का आधार ग्रंथ है।...... महाभारत ने देश के विभन्न भागों में फैली विचारधाराओं और संस्कृतियों को एक स्थान पर लाकर इस प्रकार गुंफित कर दिया है कि कालिदास से लेकर आजतक के सभी भारतीय भाषाओं के कवि महाभारत की कथाओं पर काव्य रचना कर रहे हैं।’’ (संस्कृति के चार अध्याय, डॉ. रामधारीसिंह दिनकर, पृ. 161-162)

          चक्रवर्ती राजगोपालाचारी का राजनीति के साथ-साथ विविध सांस्कृतिक विषयों तथा रामायण, महाभारत, गीता जैसे महान ग्रंथों के अनुवाद व अध्ययन के क्षेत्र में भी विशेष योगदान रहा है। महाभारत के संबंध में उनका मत है- ‘‘महाभारत केवल एक महाकाव्य ही नहीं है, यह एक रोमांचक कहानी है जिसमें नायक-नायिकाओं तथा देवताओं की वीरतापूर्ण कहानियों को निरूपित किया गया है। वह एक ऐसा साहित्य है जिसमें जीवन के मूल्यों को उकेरा गया है, उसमें सामाजिक एवं नैतिक विचारों का दर्शन है, मानवजीवन की कठिनतम समस्याएँ हैं किंतु इन सब के ऊपर है गीता, जो विश्व के प्रारंभ से लेकर अभी तक के ग्रंथों में महान है’’

          महाभारत का नायक कौन इस प्रश्न के उत्तर को लेकर हम तीन तरह से विचार कर सकते हैं। एक-तात्विक दृष्टि  से देखें तो युधिष्ठर इस काव्य का नायक है। पांडवों में सबसे बड़े भाई युधिष्ठिर जो अपनी सत्यता के कारण धर्मराज के नाम से जाने जाते हैं। दो - महाभारत के अलग-अलग पर्वों की कथावस्तु में केन्द्रीय भूमिका के कारण हम भीष्म, कर्ण, अर्जुन, द्रोण आदि को उन पर्वों के नायक के रूप में देख सकते हैं। इन पात्रों के नाम पर पर्वों का नामकरण भी हुआ है। तीन-पूरे महाभारत में केन्द्रीय भूमिका कृष्ण की ही रही है। अतः समूचे महाभारत का यदि कोई नायक है तो वह है कृष्ण। महाभारत के युद्ध में पांडवों को विजय दिलाने (अधर्म पर धर्म की विजय) के पीछे कृष्ण की अहम भूमिका रही। कृष्ण के नायक के साथ कई प्रकार की महानताएँ जुड़ी हैं। मसलन great warrior of the time, great politician of the time, great philosopher of the time and a very unique example of great lover and friend of the time.

          हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल में महाभारत के कथानक पर आधारित साहित्य का सृजन करने वाले प्रमुख सर्जकों में डॉ. नरेन्द्र कोहली का नाम विशेष उल्लेखनीय है। दरअसल हिन्दी में पौराणिक उपन्यास की विभावना को स्पष्ट करने में कोहली जी का उपन्यास साहित्य विशेष सहायक रहा है। उनके उपन्यास मूलतः रामायण और महाभारत पर आधृत हैं। महाभारत के कथानक पर आधारित नरेन्द्र कोहली की औपन्यासिक रचनाओं में बंधन, अधिकार, कर्म, धर्म, अंतराल, प्रच्छन्न, प्रत्यक्ष, निर्बन्ध और आनुषंगिक मुख्य हैं। इन उपन्यासों को उन्होंने उपन्यास श्रृंखला ‘महासमर’ के नाम से लिखा है।

          महासमर की संवेदना व उद्देश्य को रेखांकित करते हुए हिन्दी उपन्यास के विशिष्ट अध्येता गोपाल राय लिखते हैं- ‘‘महासमर के प्रथम खंड यानी बंधन के आवरण पृष्ठ पर लिखीं पंक्तियाँ यह संकेत करती हैं कि मानव सभ्यता तथा संस्कृति की संपूर्ण जातीय स्मृति की पृष्ठभूमि में मानवता के शाश्वत प्रश्नों का साक्षात्कार महासमर का प्रतिपाद्य है। मनुष्यता से जुड़े अनेकों प्रश्नों को महासमर में उठाए गए हैं। महाभारत की कथा मानवीय सम्बन्धों के वैविध्य की दृष्टि  से इतनी समृद्ध है कि उसकी संभावनाओं की सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती । नरेन्द्र कोहली ने महासमर में उन संभावनाओं को सर्जनात्मक रूप देने की कोशिश की है जिसमें उन्हें पर्याप्त सफलता भी मिली है।’’... महासमर मार्मिक प्रसंगों की उद्भावना, युगीन प्रश्नों पर तर्कपूर्ण चिन्तन और पात्रों के मनोद्वंद्व के अंकन की दृष्टि  से एक उल्लेखनीय उपन्यास है। यह महाभारत की पुनः प्रस्तुति या पौराणिक मानवेतर प्रसंगों की व्याख्या मात्र नहीं, वरन एक जीवन्त रचना-संसार है, जिसके प्राणी मानवीय संवेदनाओं से पूर्ण हैं।’’ (हिन्दी उपन्यास का इतिहास, गोपाल राय, पृ. 349)

          भारतीय संस्कृति की अमूल्य थाती महाभारत; भारतीय जीवन, चिंतन, दर्शन, तथा व्यवहार को मूर्तिमंत रूप में प्रस्तुत करता है। हमारे जीवन की ऐसी कोई समस्या नहीं है जिसका समाधान इस यथाथर्वादी काव्य में न हो। अनेकों कथानकों, कथासूत्रों, अनेक चिन्तन कणिकाओं से भरे हिन्दू धर्म और हिन्दू समाज के इस विश्वकोश का जितनी बार मंथन किया जाएगा, उसमें से हमें नये विचार और दृष्टि मिलती जाएगी। वैसे इस ग्रंथ की केन्द्रीय विषय वस्तु कौरव और पांडवों के युद्ध का वर्णन है परंतु इसमें पग पग पर इतनी कथाएँ है जिससे हमें धर्म, नीति, राजनीति, आचार-व्यवहार की पूरी शिक्षा मिलती है। धर्म, राजनीति, समाज, अर्थ, मोक्ष आदि से सम्बद्ध विविध शास्त्रों के इस महाभारत में तत्संबंधी विचारों, सूत्रों व उपदेशों के अनेकानेक प्रसंग हैं।

‘‘अर्थशास्त्रमिदं प्रोक्तं धर्मशास्त्रमिदं महत्।

कामशास्त्रमिदं प्रोक्तं व्यासेनामिति बुद्धिना ।।’’

(उद्धृत-महाभारत में संचार सूत्र, डॉ. श्रीकांत सिहं, पृ. 42)

          यहाँ आलेख की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए हम ऐसे कुछेक प्रसंगों व पात्रों से संबंधित कतिपय बातों का उल्लेख करेंगे जिसमें हमारे लिए दिशा-निर्देश का संकेत है।

      बाहरी आक्रमण के समय अपनी आंतरिक शत्रुता को भूलकर अपनों के साथ मिलझुलकर बाहरी आक्रमण का सामना करना। इस तरह अपने आंतरिक कलह में हम भले एक-दूसरे के विरोधी हैं, परंतु बाहर से यदि कोई हमारे दोनों पक्षों में से किसी को हानि पहुँचाता है तो हम दो अलग-अलग न होकर एक है। इस बात का संकेत हमें महाभारत के एक प्रसंग में मिलता है, जिसमें चित्रसेन द्वारा दुर्योधन तथा उनकी मंडली को कौरव-स्त्रियों सहित बंदी बना लेने की खबर जब धर्मराज युधिष्ठिर तक पहुँचती है तब वे अर्जुन और भीम को आदेश देते हैं कि वे तत्काल वहाँ जाकर उनको मुक्त करा लाएँ। इस प्रसंग में युधिष्ठिर कहते हैं- ‘‘हमारे आंतरिक युद्ध में वे सौ और हम पाँच हैं, किंतु आक्रमण जब बाहर का हो तो हम एक सौ पाँच है।’’ युधिष्ठिर का यह कथन हमें अपने आंतरिक सामाजिक राजनीतिक मामलों में मार्गदर्शन देता है। (प्रच्छन्न, डॉ. नरेन्द्र कोहली, पृ. 81)

      ‘यक्ष-प्रश्न प्रसंग’ महाभारत का एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रसंग है। इसमें यक्ष और युधिष्ठिर के बीच हुए संवाद, जिसमें यक्ष द्वारा युधिष्ठिर से पूछे गए प्रश्न तथा युधिष्ठिर द्वारा दिए गए उत्तर का वर्णन है। इस प्रसंग में एक तो धर्मराज की धर्मदृष्टि का उत्तम उदाहरण मिलता है तो दूसरी ओर इन प्रश्नों में अगाध ज्ञान भरा है, जो कई समस्याएँ और उसके समाधान का मार्ग प्रशस्त करते हैं। यह प्रश्न सिर्फ अध्यात्म, दर्शन और धर्म से ही संबंद्ध नहीं बल्कि यह हमारी व्यावहारिक जिन्दगी से भी जुड़े हुए हैं, जीवन, संसार, सृष्टि, ईश्वर, प्रकृति, ज्ञान, बुराई प्रभृति विषयों से जुड़े हुए है।

यक्ष के प्रश्न तथा इन प्रश्नों के युधिष्ठिर द्वारा दिए गए उत्तर इस प्रकार हैं-

o   पृथ्वी से भारी क्या है? - माता

o   आकाश से ऊँचा कौन है? – पिता

o   वायु से भी अधिक गति किसकी है? - मन की

o   तिनकों से भी अधिक संख्या किसकी है? - चिंताओं की

o   प्रवासी का मित्र कौन है? – सहयात्री

o   गृहवासी का मित्र कौन है? - उसकी पत्नी

o   संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? - संसार में प्रत्येक जीव को मरते देखकर व्यक्ति इस भ्रम में जीता है कि उसकी मृत्य कभी नहीं होगी, यह संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य है। (प्रच्छन्न, डॉ. नरेन्द्र कोहली, पृ. 313-316)

आज यह ‘यक्ष-प्रश्न’ हमारी भाषा में एक रूढ़ प्रयोग बन गया है। हमारे जीवन में जब कोई ऐसी समस्या आती है, कोई ऐसा प्रश्न आता है जिसका समाधान, उसका उत्तर किसी के पास नहीं होता तो उसे यक्ष प्रश्न की संज्ञा दी जाती है।

अपने प्रश्नों का युधिष्ठिर से सही उत्तर मिलने के पश्चात यक्ष ने युधिष्ठिर से कहा कि मैं तुम्हारे इन चार मृत भाइयों में से किसी एक को ही जीवित करूँगा, बताओ किस भाई को जीवित करूँ? इस पर युधिष्ठिर ने नकुल को जीवित करने की इच्छा प्रकट की। संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन को नहीं, असाधारण बलशाली योद्धा भीम को भी नहीं बल्कि नकुल को जीवित करने की युधिष्ठिर की इच्छा को जानकर यक्ष पूछता है नकुल क्यों इस पर युधिष्ठिर जो बात बताते हैं, उसमें उनकी धर्मदृष्टि की पराकाष्ठा दृष्टिगोचर होती है। ‘‘मेरी दो माताएँ है। कुंती का एक पुत्र मेरे रूप में जीवित है। यदि मैं कुंती के ही दूसरे पुत्र को जीवित कराने का आग्रह रखूँगा, तो माता माद्री के प्रति वह क्रूरता होगी। मैं अनृंशसता का व्रती हूँ यक्ष। किसी के प्रति नृशंस नहीं होना चाहता।’’ (प्रच्छन्न, डॉ. नरेन्द्र कोहली, पृ. 317)

      महाभारत की कथा का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण पात्र विदुर जो एक अत्यंत नीतिपूर्ण और न्यायोचित सलाह देने वाले थे। जीवन-जगत के व्यवहार में राजा और प्रजा के दायित्वों की उचित व्याख्या करने वाले इस विचारक की नीति-विदुरनीति की प्रासंगिकता आज भी बनी रही है। ‘‘महाभारत की कथा के महत्वपूर्ण पात्र विदुर कौरव वंश की गाथा में अपना विशेष स्थान रखते हैं। और विदुर नीति जीवन-युद्ध की नीति ही नहीं, जीवन-प्रेम, जीवन-व्यवहार की नीति के रूप में  अपना विशेष स्थान रखती है। राज्य-व्यवस्था, व्यवहार और दिशा निर्देशक सिद्धांत वाक्यों को विस्तार से प्रस्तावना करने वाली नीतियों में जहाँ चाणक्य नीति का नामोल्लेख होता है, वहाँ सत्-असत् का स्पष्ट निर्देश और विवेचन की दृष्टि  से विदुरनीति का विशेष महत्व है।’’ (hi.m.wikipedia.org/w)

      धर्मशास्त्र के साथ-साथ महाभारत हमारा एक महान नीतिशास्त्र भी है औऱ समाजशास्त्र भी। सांप्रत जीवन की वैयक्तिक, सामाजिक व राजनीतिक कोई भी समस्या हो उसका निदान उसके केन्द्र में स्थित ‘गीता’ में मिल जाता है। युगों युगों से यह किसी विशेष धर्म या जाति या वर्ग के लिए ही नहीं बल्कि मनुष्यमात्र के लिए उपयोगी व हितकारी है।

      कभी-कभी बिना सोचे-समझे क्रोध व आवेश में या हास-परिहास में किया गया वाणी का दुरुपयोग कितना विनाशक और विध्वंसकारी हो सकता है उसका उदाहरण भी महाभारत में मिल जाता है। जिसके कारण द्यूत हुआ, द्रोपदी का अपमान हुआ, पांडवों को वनवास हुआ और अंततः महाभारत हुआ। यह घटना यह है कि द्रौपदी परिहास में यह कह बैठती है कि ‘‘अंधे का पुत्र भी अंधा होता है।’’ (धर्म, डॉ. नरेन्द्र, कोहली, पृ. 342)

      महाभारत में शकुनि के पात्र के जरिए हम देखते हैं कि एक दुश्चरित्र की गतिविधियाँ शनै: शनै: एक घर-गृहस्थी की दीवारों को कितनी खोखली कर देती हैं। दुर्योधन आदि को गलत बातों की शिक्षा मामा शकुनि ही देते हैं और उस कुशिक्षा के चलते उनका जो चरित्र-विकास होता है जिसके चलते एक नामांकित और यशस्वी राजवंश का नामोनिशान मिट जाता है।

अंत में प्रो. के.जी. सुरेश के विचार से ‘‘मानव अस्तित्व से सम्बद्ध समस्त जिज्ञासाओं का समाधान यदि किसी ज्ञानपुंज में समाहित है तो उसका नाम है महाभारत। महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित इस सर्वकालिक, कालजयी कृति का सम्पूर्ण आख्यान वह पथ प्रदर्शक मार्ग है जिसका अनुगमन और अनुपालन मानव के इहलोक और परलोक में मुक्ति के द्वार खोलता है, सत-चित आनंद की अनुभूति का संचरण कराता है, मानव से महामानव की संकल्पना को परिपूर्ण और चरितार्थ करता है। दिव्यता और अलौकिकता से परिपूर्ण भारतीय मनीषा के सर्वश्रेष्ठ वाङ्मय की उपमा से युक्त महाभारत वह महाग्रंथ है जिसमें संपूर्ण जीवन-दर्शन-उसकी विधाएँ, कलाएँ, भूत-भविष्य और वर्तमान की चिरंतन गति का दिग्दर्शन होता है।’’ (महाभारत के संचार सूत्र, डॉ. श्रीकांत सिंह, पुस्तक के आमुख से, पृ. 04) ज्ञान के अखूट भंडार महाभारत के रूप में भारतीय मनीषा, भारतीय जीवन दर्शन की विरासत को जानना-सँभालना हो तो विद्वानों को चाहिए कि इस ग्रंथ को निरंतर खंगालते रहें, उसका मंथन और दोहन करते रहें, उन्हें ज्ञान-विज्ञान का नवनीत प्राप्त होगा ही।

 


डॉ. हसमुख परमार

एसोसिएट प्रोफ़ेसर

स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर

जिला- आणंद (गुजरात) – 388120

 

हाइगा

 












चित्र कविता

 तिरंगा





भारतमाता





विशेष

 



स्मृति शेष भूपिन्दर

राजा दुबे

पार्श्वगायन हो या फिल्मों में संगीत देना या फिर केवल गिटार से कुछ फिल्मी गानों में विलक्षण प्रभाव उत्पन्न करना, हर फन में माहिर पार्श्वगायक भूपिन्दर अपनी श्रेष्ठ कलात्मक प्रतिभा के कारण बेहद लोकप्रिय पार्श्वगायक और संगीतकार के रूप में पहचाने गये।  दिलकश गीतों का गायन तो इस शख्सियत की पहचान रही। भूपिन्दर के गाये गीतों में फिल्म ‘बाज़ार’ का एक गीत - "करोगे याद तो हर बात याद आयेगी .." गाते समय भूपिन्दर  सा'ब को अपने पिता और सुप्रसिद्ध संगीतकार नत्थेसिंह की याद जरूर आई होगी जो अपने बेटे को एक परफेक्ट कम्पोज़र बनाना चाहते थे और इसीलिए वे उन्हें संगीत सिखाते समय छोटी-छोटी चूक पर बहुत मारते थे और इसी मार के चलते भूपिन्दर संगीत से परहेज़ करने लगे लेकिन प्रारब्ध से कोई कैसे भाग सकता है, भूपिंदर भी नहीं भाग पाए और वे  अपनी आवाज के बल पर बॉलीवुड में छा गये । ‘बाज़ार’ फिल्म के इस लोकप्रिय गीत के लेखक सागर सरहदी कहते हैं कि इस गीत का समग्र प्रभाव भूपिंदर के डूब कर तल्लीनता के साथ गाने से उभरकर आया। इतने सालों बाद आज़ भी यादों के गलियारों में टहलने वालों के लिए यह गीत एकदम मुफीद माना जाता है ।

भूपिन्दर द्वारा गाये गानों की संख्या भले ही सीमित है मगर उन गीतों की लोकप्रियता अत्यधिक रही है और उनके गाये गीतों पर यह जुमला एकदम फिट बैठता है कि उनके गाये गीत एक से बढ़कर एक हैं । फिल्म बाज़ार का सागर सरहदी का लिखा गीत - " करोगे याद तो हर बात ..." या फिर किनारा फिल्म का गुलज़ार का लिखा गीत - " नाम गुम जाएगा.." या फिर उन्हीं का लिखा फिल्म परिचय का गीत ," बीती ना बिताई रैना .." आज भी श्रोताओं के मनपसन्द गीतों की फेहरिस्त में शीर्ष पर हैं । भूपिंदर के पार्श्वगायन के लिए इससे बड़ा काम्प्लीमेन्ट और क्या होगा कि आज के दौर के सबसे बेहतरीन गीतकार गुलज़ार ने अनोखे गायक भूपिंदर के बारे में एक बात कही थी कि " मेरा बस चले तो मैं भूपिंदर की आवाज़ का ताबीज़ बनाकर पहन लूँ " । भूपिन्दर के अवसान के साथ वह दिलकश आवाज़ भी खामोश हो गई है मगर खामोश होने से पहले इस आवाज़ ने दिल को छूने वाले इतने सारे नग़मे, नज़्म और ग़़ज़ल के रूप में दिए हैं, जिन्हें याद कर ज़माना भूपिंदर पर फ़ख़्र करेगा । ‘दिल ढूँढता है फिर वही फुरसत के रात-दिन’ या ‘एक अकेला इस शहर में’ या ‘फिर कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता’ जैसे कितने ही कालजयी गीत गाने वाले भूपिंदर की जोड़ी गुलज़ार के साथ खूब जमी । गुलज़ार सरीखे गीतकार भूपिंदर की आवाज़ के साथ उनकी बनाई धुनों के भी कायल थे ।

भूपिंदर का जन्म पंजाब प्रांत के पटियाला में 06, फरवरी 1940 में हुआ था। उनके पिता नत्थेसिंहजी भी बहुत बड़े संगीतकार थे, इसलिए वे  संगीत के बीच में ही पले-बढ़े। हालाँकि उनके पिता बहुत सख्त थे और संगीत के शिक्षण के प्रति कड़े अनुशासन से उन्हें बचपन में संगीत से वितृष्णा हो गई थी। लेकिन धीरे-धीरे वो संगीत को पसन्द करने लगे । किशोरावस्था में ही उन्होंने ग़ज़ल गाना शुरू कर दिया था। उन्हें आकाशवाणी के एक कार्यक्रम में गजल गाने का मौका मिला और इसके बाद उन्हें दिल्ली के दूरदर्शन केंद्र में भी गजल गाने का मौका मिला। वर्ष 1980 के दशक में भूपिंदर सिंह ने बांग्लादेश की गायिका मिताली सिंह से शादी कर ली। साथ में दोनों ने कई कार्यक्रम किए, जिनसे उनकी शोहरत को चार चाँद लग गए। भूपिन्दर जगजीत सिंह, गुलाम अली और  हरिहरन आदि को अपना आदर्श मानते थे लेकिन दुष्यन्तकुमार के भी बडे़ मुरीद थे। वो कहते थे कि संगीत को किसी सरहद में नहीं बाँधा जा सकता। गीत अच्छे हों, संगीत में मिठास हो तो हर कान को भाता है।

भूपिंदर को दिल्ली शहर बहुत रास आया । दिल्ली में रहकर उन्होंने गिटार और वायलिन बजाना सीखा। वर्ष 1968 में संगीतकार मदन मोहन ने आल इंडिया रेडियो पर उनका कार्यक्रम सुनकर उन्हें  दिल्ली से मुम्बई बुला लिया। सबसे पहले उन्हें फिल्म ‘हकीकत’ में मौका मिला जहाँ, उन्होंने इस फिल्म की एक ग़ज़ल - " होके मजबूर मुझे उसने बुलाया होगा " मोहम्मद रफी सा'ब के साथ गाई । यह ग़ज़ल तो हिट हो गई, लेकिन उन्हें इससे कोई खास पहचान नहीं मिली। इसके बाद भूपिन्दर सिंह ने स्पेनिश गिटार और ड्रम पर कुछ गजलें पेश की। वर्ष 1968 में अपनी लिखी और गाई हुई गजलों की एलपी (लांग प्लेइंग) रिकार्ड रिलीज की जो ज्यादा ध्यान नही खिंच पाई । लेकिन इस नए प्रयोग को जब उन्होंने दूसरी एलपी  रिकार्ड में  पेश किया तो सबका ध्यान उनकी ओर आकर्षित हुआ । इसके बाद "वो जो शहर था" नाम से वर्ष 1978 में जारी तीसरी एलपी रिकार्ड से उन्हें खासी शोहरत मिली। गीतकार गुलजार ने इसके गाने वर्ष 1980 में लिखे थे।

रिक्तता को भरने की अनुभूति जगाती थी भूपिन्दर की आवाज़

फिल्मों और फिल्म संगीत पर आधिकारिक तौर पर लेखन करने वाले सुप्रसिद्ध समीक्षक यतीन्द्र मिश्र ने अपनी फेसबुक वाल पर भूपिन्दर सिंह के बारे में लिखा कि एक आवाज़, जो माइक्रोफोन से निकलकर अपने भारी एहसास में रिक्तता को भरती सी लगती थी। कहीं पहुँचने की बेचैनी से अलग, बाकायदा अपनी अलग सी राह बनाती हुई, जिसे निर्वात में गुम होते हुए भी ऑर्केस्ट्रेशन के ढेरों सुरों के बीच दरार छोड़ देती थी।  सत्तर-अस्सी के दशक में ऐसे कई गीतों के गायक जिन्होंने जब भी गाया, सुनने वाले को महसूस हुआ -जैसे कुछ गले में अटका रह गया है। एक कभी न कही गई दुःख की इबारत, जिसके सहारे जज़्बात की शाख पर गीतकारों ने कुछ फूल खिला दिए थे। याद कीजिए- 'आज बिछड़े हैं कल का डर भी नहीं / जिंदगी इतनी मुख्तसर भी नहीं…' (थोड़ी सी बेवफाई), 'करोगे याद तो हर बात याद आएगी…' (बाज़ार), 'एक अकेला इस शहर में…’ (घरौंदा), 'फिर तेरी याद नए दीप जलाने आई…’ (आई तेरी याद), 'ज़िंदगी, जिंदगी मेरे घर आना…’ (दूरियाँ) , सब एक से बढ़कर एक।

भूपिंदर किसी भी गीत को गाने के पहले गले की कितनी तैयारी करते थे यह  हर उस गाने में भी अलग से सुनी जा सकती थी जहाँ उनके करने के लिए बहुत ज़्यादा नहीं था, उनकी छोटी सी मौजूदगी भी कहीं दर्ज़ रह जाती थी। एस. डी. बर्मन के संगीत में लता मंगेशकर के ‘ज्वैलथीफ’ फिल्म के गीत - ‘होठों पे ऐसी बात मैं दबा के चली आई’ या मदन मोहन के लिए 'हकीकत'  में मो. रफ़ी, मन्ना डे और तलत महमूद जैसे दिग्गजों के संग 'होके मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा...' गाना अविस्मरणीय हो गया ।भूपिन्दर सिंह ऐसे बहुत थोड़े, मगर अमर गीतों में खुद की आवाज़ को हौले से दर्ज़ होने देते थे। उनकी यही पहल उनको बड़ा गायक बनाती थी ।उनके उन्मुक्त गानों पर झूमने के भी कई बहाने होते थे । मिताली के संग के कुछ गीतों में आप उन दोनों को सुनिए- 'राहों पे नज़र रखना/ होठों पे दुआ रखना/ आ जाए कोई शायद / दरवाज़ा खुला रखना…' मगर अब वो दरवाज़ा खुला ही रहने वाला है। भूपी भला अब कहाँ लौटने वाले हैं? हम बस उनकी यादों में उन गानों की प्लेलिस्ट में डूबते-उतराते रहेंगे । वे अब नहीं हैं मगर उनकी सोज़ भरी गायकी आज़ भी हमारे बीच  है।

भूपिंदर का गिटार वादन  का जलवा भी खूब रंग लाया

भूपिन्दर शौकिया गिटारवादक नहीं थे । गिटार वादन का उन्होंने बाकायदा शिक्षण प्राप्त किया था और वे गिटार  से किसी भी फिल्मी गीत में विलक्षण प्रभाव उत्पन्न करने की कला में पारंगत थे । चेतन आनन्द की फिल्म ‘हँसते जख्म’  में एक गाना है-  ‘तुम जो मिल गए हो तो ये लगता है ...’ इस गाने में गिटार भूपिंन्दर सिंह ने ही बजाया था.।यहीं से उनके गिटार का जलवा लोगों ने देखा फिर उन्होंने जो कुछ किया वह इतिहास है। ‘यादों की बारात " फिल्म के प्रसिद्ध गाने -  ‘चुरा लिया है तुमने जो दिल को ..’ में गिटार भूपिंदर सिंह ने बजाया था। इतना ही नहीं फिल्म हरे रामा, हरे कृष्णा के गीत - ‘दम मारो दम ..’ , शोले फिल्म के गीत - ‘मेहबूबा मेहबूबा ..’  और अमर प्रेम फिल्म के गीत ‘चिन्गारी कोई भड़के ..’  में भी भुपिन्दर ने गिटार वादन किया था ।



राजा दुबे 

एफ - 310 राजहर्ष कालोनी ,

अकबरपुर

कोलार रोड

भोपाल 462042

 

अप्रैल 2024, अंक 46

  शब्द-सृष्टि अप्रैल 202 4, अंक 46 आपके समक्ष कुछ नयेपन के साथ... खण्ड -1 अंबेडकर जयंती के अवसर पर विशेष....... विचार बिंदु – डॉ. अंबेडक...