रविवार, 25 जुलाई 2021

अंक – 12, प्रेमचंद-स्मृति अंक

 


शब्द सृष्टि,  जुलाई - 2021अंक – 12

प्रेमचंद-स्मृति अंक

प्रेमचंद जयंती पर विशेष


विचार स्तवक – प्रेमचंद के विचार / प्रेमचंद के साहित्यिक महत्त्व संबंधी विद्वानों के मत-अभिमत / प्रेमचंद की रचनाओं से उद्धृत विचारोक्तियाँ

प्रेमचंद के पत्र – जैनेन्द्र कुमार को / उपेन्द्रनाथ अश्क को

संस्मरण – एक शांत नास्तिक संत – जैनेन्द्र / प्रेमचंदजी के साथ दो दिन – बनारसीदास चतुर्वेदी / स्मरण प्रेमचंद – महादेवी वर्मा

जीवनी-अंश – ‘कलम का सिपाही’ से.... – अमृतराय

प्रेमचंद की रचनाओं के कुछ अंश – (क) कहानी-अंश – 1.ईदगाह 2.दो बैलों की कथा / (ख) उपन्यास-अंश – 1.गोदान 2. निर्मला

कहानी – बोध – प्रेमचंद

कहानी – बड़े घर की बेटी – प्रेमचंद

लेख – बातचीत करने की कला – प्रेमचंद 

परिचय – शिवरानी के प्रेमचन्द और प्रेमचंद की शिवरानी : संदर्भ - ‘प्रेमचन्द : घर में’ – डॉ. दयाशंकर त्रिपाठी

आलेख – प्रासंगिकता के निकष पर प्रेमचंद और उनका साहित्य – डॉ. हसमुख परमार

आलेख – प्रेमचंदः रचनाशीलताः समाजलक्षी अभिगम – डॉ. मदनमोहन शर्मा

आलेख – प्रेमचंद की कथा कृतियों का फ़िल्मी रूपांतरण – डॉ. पूर्वा शर्मा

आलेख – भ्रष्टाचार को उजागर करती प्रेमचंद की कहानियाँ आलेख – डॉ. मायाप्रकाश पाण्डेय

आलेख – प्रेमचंद के रचना संसार में लोक और मनोविज्ञान की समरसता – अनिता मंडा

आलेख – हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता को प्रेमचंद की देन – डॉ. गिरीश रोहित

आलेख – प्रेमचंद जयंती के अवसर पर.... प्रेमचंद जी को हम क्यों याद करें ? – डॉ. हसमुख परमार

प्रेमचंद विषयक छाया चित्र

प्रेमचंद विषयक छाया चित्र

 

प्रेमचंद

प्रेमचंद और शिवरानी देवी 

प्रेमचंद 1907 

प्रेमचंद 1907 

प्रेमचंद 1924 

अजंता सिनेटोन के अनुबंध पर हस्ताक्षर करते हुए 

प्रेमचंद 1925

प्रेमचंद, ऋषभचरण, जैनेन्द्र कुमार 


प्रेमचंद स्मारक, लमही 

प्रेमचंद स्मारक, लमही 

प्रेमचंद स्मारक, लमही

प्रेमचंद का अंतिम चित्र 

प्रेमचंद  का पैतृक निवास स्थल 

प्रेमचंद स्मृति द्वार, लमही 

लमही की कोठरी जिसमें प्रेमचंद का जन्म हुआ; 

हिन्दी कवि त्रिलोचन एवं चेक विद्वान् स्मेकल 


लमही का एक पुराना दृश्य 


प्रेमचंद का अपना बनाया मकान


प्रेमचंद की पुत्री कमला देवी 

महताब राय 

प्रेमचंद के पुत्र – श्रीपतराय

प्रेमचंद के पुत्र – अमृतराय


प्रेमचंद की हिन्दी हस्तलिपि 

प्रेमचंद की अंग्रेजी हस्तलिपि 

प्रेमचंद सपरिवार

(कुर्सी पर बायें से) रामजी, बेटी कमला, शिवरानी देवी, प्रमचंद,

(नीचे) दोनों लड़के धन्नू और बन्नू   

प्रेमचंद (बीमारी के अंतिम दिनों में)  

शिवरानी देवी 1962 

शिवरानी देवी, चि. विनोदकुमार और प्रबोधकुमार

प्रेमचंद की पुत्री कमला देवी और उनके बच्चे 



हंस एवं जागरण 
हंस 

हंस 
आखिरी तोहफ़ा (1939)  मुन्शी प्रेमचंद 

चौगान ए हस्ती (1935) - मुंशी प्रेमचंद

ग़बन (1939) - मुंशी प्रेमचंद

क़िस्सा-ए-गुल-ओ-सनोबर 




आलेख

 

प्रेमचंद के रचना संसार में लोक और मनोविज्ञान की समरसता

अनिता मंडा

भारतीय साहित्य जगत के महान कथाकार प्रेमचंद का लेखन हिन्दी साहित्य की एक ऐसी विरासत है, जिसके बिना हिन्दी के विकास का अध्ययन पूरा नहीं हो सकता। प्रेमचंद के पूर्ववर्ती हिन्दी उपन्यासकारों ने सजीव मानव को केंद्रीय पात्र न बनाकर घटनाओं व बाह्य व्यवहारों पर ही ध्यान केंद्रित किया हुआ था। प्रेमचंद ने सजीव मानव के हृदय का चित्र, उसके मन की  प्रवृत्तियों को हमारे सामने रखा। प्रेमचंद के लिए किसी आलोचक ने कहा है “हमारे जीवन का शायद ही कोई पहलू छूटा हो, जिसकी गुत्थियों को प्रेमचंद ने सुलझाने की चेष्टा न की हो। प्रेमचंद भारतीय जीवन के विभिन्न अंगों से परिचित थे।” भक्तिकाल में जिस प्रकार तुलसीदास जी ने जीवन को समग्रता से देखा था वही कार्य आधुनिक काल में प्रेमचंद ने किया। प्रेमचंद के पात्र आम जन-जीवन से जुड़े हैं। अधिकांश ग्रामीण हैं और गरीबी से संघर्ष कर रहे हैं।

प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को बनारस के पास लमही नामक स्थान पर हुआ। धनपतराय मूल नाम था पर धन का ही अभाव था। आरंभिक शिक्षा उर्दू, फ़ारसी में मदरसे में हुई। 7 वर्ष की अवस्था में माता का निधन हो गया। विमाता से कभी बनी नहीं। प्रेमचंद की कहानियों में विमाता से संघर्ष के बीज यहीं से दिखने लगते हैं। 15 वें वर्ष में विवाह हुआ; वो भी इनके लिए सुखद न रहा। 16 वें साल में पिता का साया सिर से उठ गया। अब धनपतराय के पास विमाता, पत्नी व दो सौतेले भाइयों की जिम्मेदारी थी और पढ़ने लिखने का शौक था। ट्यूशन पढ़ाकर, स्कूल में नौकरी करके जीवन निर्वाह करते हुए लेखन में भी हाथ आजमाते रहे। लिखने की शुरुआत उर्दू से की। 1907 में हमखुर्मा व हमसवाब रचनाएँ नवाबराय नाम से लिखी। 1907 में ही टैगोर की कहानियों का अनुवाद उर्दू में करते हुए यह ख्याल आया कि उन्हें भी कहानियों में हाथ आजमाना चाहिए। पाँच कहानियों का संग्रह सोजे-वतन1909 में आया और देशभक्ति आधारित होने के कारण छह महीने के अंदर ही जब्त हो गया।

          प्रेमचंद का रचनाकाल 1907 से 1936 तक है, इस दौरान उन्होंने तकरीबन 400 कहानियाँ लिखी। इनमें से 300 कहानियाँ मानसरोवर के आठ भागों में सम्मिलित हैं। लगभग 15 उपन्यास लिखे; इनमें से ‘गोदान’ तो उनकी कालजयी कृति है। अपने अंतिम समय में वे ‘मंगलसूत्र’ नामक उपन्यास लिख रहे थे जिसमें एक लेखक का संघर्ष लिख रहे थे। माना जाता है कि इसमें स्वयं की कहानी ही लिख रहे थे। उनका पहला उपन्यास ‘सेवासदन’ 1918 में प्रकाशित हुआ। 1925 में ‘निर्मला’, 1931 में ‘गबन’, 1932 में ‘कर्मभूमि’ तथा 1936 में ‘गोदान’ रचा। वो अपनी प्रत्येक नई कृति में उत्तरोत्तर प्रगति कर रहे थे; परिपक्व हो रहे थे।

प्रेमचंद का रचनात्मक कार्य इतना विशद और महत्त्वपूर्ण है कि हिन्दी कहानी तथा उपन्यास के क्षेत्र में 1918 से 1936 तक के कालखण्ड को प्रेमचंद युग कहा जाता है।

हिन्दी में प्रेमचंद के समकालीन लेखकों जयशंकर प्रसाद, राजा राधिकारमण प्रसाद, सुदर्शन, कौशिक जी, शिवपूजन सहाय, राहुल सांकृत्यायन, पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ का नाम तो हुआ लेकिन प्रेमचंद जैसी ख्याति नहीं मिली। क्योंकि जितनी गहराई से लोक की नब्ज़ प्रेमचंद ने पकड़ी थी वहाँ तक इनमें से कोई न पहुँच सके।

भारत में अन्य भाषाओं में प्रेमचंद के समय रबीन्द्रनाथ टैगोर को प्रसिद्धि मिल चुकी थी, 1913 में उनको गीतांजलि के लिए नोबेल मिल चुका था। बांग्ला से उनकी रचनाओं का कई भाषाओं में अनुवाद हो रहा था। प्रेमचंद भी उनसे प्रभावित थे। बांग्ला भाषा के ही शरतचंद्र चट्टोपाध्याय उपन्यास जगत में धूम मचाये हुए थे। उनकी लोकप्रियता के कारण ही उनके उपन्यास शीघ्रता से अनूदित हो रहे थे। प्रेमचंद के समय उर्दू में अलामा इकबाल की प्रसिद्धि भी चरम पर थी। परन्तु हिन्दी में उपन्यास व कहानी कला में कोई बहुत उत्कृष्ट काम उस समय तक नहीं हुआ था। अय्यारी और तिलिस्म जैसे विषयों पर काल्पनिक कहानियाँ लिखी जा रही थी जिनका कि लोक से कोई लेना देना नहीं था। हिन्दी कहानियों को असली संसार से जोड़ा प्रेमचंद ने। जाती-व्यवस्था, धर्म के नाम पर कर्मकांड, वर्ण-व्यवस्था का विकृत रूप, किसानों की दुर्दशा, मजदूरों में परिवर्तित होते किसान; भूमिहीन किसानों का ऋण के जाल से न निकल पाना ये सब दर्द अपनी लेखनी में पिरोए कलम के सिपाही प्रेमचंद ने।

आधुनिक समय में मनोविज्ञान के क्षेत्र  में तीव्रता से विकास हुआ है। प्रेमचंद के बाद जैनेंद्र, कमलेश्वर के समय तो अलग से मनोवैज्ञानिक कहानी की धारा ही चल निकली लेकिन इसका वास्तविक प्रारम्भ प्रेमचंद के समय हो चुका था। उन्होंने जीवन की जटिलताओं, संघर्षों को अपने लेखन का विषय बनाया जिससे अनायास ही मनोवैज्ञानिकता उनके लेखन में आ गई क्योंकि संघर्ष तथा जीवन की जटिलता का सम्बंध मानव मन से होता है।

प्रेमचंद का शुरुआती लेखन आदर्शवादी मूल्यों को लेकर चलता है। उनके सामने हिन्दी में कोई मार्गदर्शन करने वाली परम्परा नहीं थी। हिन्दी भाषा को जनोन्मुखी बनाने का महत्त्वपूर्ण कार्य भी प्रेमचंद के लेखन से हुआ। प्रारंभिक कहानियों बड़े घर की बेटी, पंच-परमेश्वर, नमक का दरोगा, परीक्षा, रानी सारंधा, ममता, अमावस्या की रात्रि में प्रेमचंद एक आदर्श अपने सामने रखकर चलते हैं। भारतीय संयुक्त परिवार की व्यवस्था में उनका विश्वास पक्का है इसलिए बड़े घर की बेटी कहानी में मुख्य पात्र आनन्दी को झुकता हुआ दिखाते हैं। आनन्दी बड़े घर यानी धनवान घर की है तो उसे संसाधन बहुलता से प्रयोग करने का अभ्यास है। एक दिन इसी बात पर देवर लालबिहारी सिंह से कहासुनी हो जाती है। आनन्दी का पति श्रीकंठ सिंह इसे अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बना लेता है और कहता है कि इस घर के अब टुकड़े होकर ही रहेंगे। बात को फैलता देख प्रेमचंद आनन्दी से बात आई गई करवा देते हैं और आनन्दी के ससुर कहते हैं बड़े घर की बेटी है आनन्दी इसलिए घर को टूटने से बचा लिया। यहाँ हमें आनन्दी के मन का अंतर्द्वंद नहीं दिखता। ऐसा लगता है लेखक ने पहले से ही ठान रखी है कि यही परिणाम करवाना है। यहाँ संयुक्त परिवार की प्रतिष्ठा स्थापित कर प्रेमचंद ने दिखाया है कि संयुक्त परिवार ही श्रेष्ठ व्यवस्था है। बाद की कहानियों में प्रेमचंद का आदर्शों से मोहभंग हुआ है। वो धीरे-धीरे यथार्थवादी हुए हैं।

एक स्थान पर कहानी कला का विचार करते उन्होंने कहा है “यों कहना चाहिये कि वर्तमान आख्यायिका या उपन्यास का आधार ही मनोविज्ञान है। घटनाएँ और पात्र तो उसी मनोवैज्ञानिक सत्य के स्थिर करने के लिये ही लाये जाते हैं, उनका स्थान बिलकुल गौण हैं । उदाहरणतः मेरी सुजान भगत, मुक्ति मार्ग, पत्र परमेश्वरी, शतरंज के खिलाड़ी महातीर्थ सभी कहानियों में एक न एक मनोवैज्ञानिक रहस्य को खोलने की चेष्टा की गई है । “ इससे स्पष्ट है कि प्रेमचंद कहानियों के लिये मनो वैज्ञानिकता के महत्त्व को अच्छी तरह अनुभव कर रहे थे। विकसित काल की कहानियों में हम रख सकते हैं : वज्रपात, मैकू, माता का हृदय, मुक्ति का मार्ग, शतरंज के खिलाड़ी, आत्माराम।

मनोवैज्ञानिक कहानियों में हैं: मिस पद्मा, अलग्योझ्या, नशा, सुजान भगत, क़फ़न, मनोवृत्ति व घासवाली।

यहाँ हम प्रेमचंद की कुछ कहानियों के पात्रों पर बात करेंगे जिससे कि समझ सकें कैसे वो अपने पात्रों के माध्यम से मानव मन तक उतरते हैं।

एक कहानी है बड़े भाई साहब’ (1910) मध्यम वर्गीय घरों में दो भाइयों के बीच कैसा सम्बंध होता है, बड़ा भाई छोटे भाई पर कैसे अधिकार जमाता है व उसे समझाने की जिम्मेदारी उठाता है बहुत सुंदर ढंग से लिखा गया है। दोनों भाइयों की अवस्था में पाँच वर्ष का अंतर है। बड़ा धीर-गम्भीर; छोटा इसका एकदम उलट, बड़े भाई साहब छोटे को पतंग उड़ाने से मना करते हैं लेकिन है तो वह भी 15-16 बरस का किशोर ही। एक पतंग कटकर सामने आ जाती है और बड़े भाई अपने को रोक नहीं पाते। दोनों भाई ख़ुशी ख़ुशी होस्टल में चले जाते हैं। उस समय में परिवारों में बड़े भाई का जो स्थान था, आदर था, छोटों के लिए सदाशयता के संस्कार थे वह सब इस कहानी से व्यक्त हो रहा है। बड़े भाई पढ़ते बहुत हैं परन्तु हर बार फेल हो जाते हैं, छोटा भाई मस्ती करता है, खेल कूद में व्यस्त रहता है परंतु अव्वल आ जाता है। फिर भी वह हर बार बड़े भाई की बात आदरपूर्वक सुनता है। यही सुंदर संस्कार और इसके पीछे बड़े भाई को राम की तरह आदर देने की भारतीय परिवारों की प्रवृत्ति दिखाई है।

बालमनोविज्ञान पर प्रेमचंद की कितनी गहरी पकड़ है यह देखने को हम चर्चा करते हैं कहानी ईदगाह’ (1933) की। ईद के अवसर पर हाट-बाजार में मेला लगा है। बच्चे घर से पैसे ले जाते हैं जिनसे अपनी पसन्द की चीज़ें खरीदते हैं। कोई मिट्टी के खिलौने लेता है कोई मिट्ठी गोलियाँ तो कोई जलेबी लड्डू वगैरह। हामिद को उसकी दादी ईद पर तीन पैसे देती है। महज़ चार साल का हामिद पूरे मेले में घूम कर अपनी खिलौनों और मिठाई की इच्छा को दबाकर दादी के लिए चिमटा खरीदता है। यह देख कर कि चार साल का हामिद कितना जिम्मेदार हो गया है; दादी की आँखें भर आती हैं। मजबूरियों ने हामिद को असमय परिपक्व बना दिया। वह अपना बचपन न जी सका। अमीना दादी उसे प्यार करती है परंतु मन ही मन अपनी मजबूरी पर ख़ून के आँसू रोती है।

“और उसे गोद में उठाकर प्यार करने लगी। सहसा उसके हाथ में चिमटा देखकर वह चौंकी। “यह चिमटा कहाँ था?” “मैंने मोल लिया है।” “कै पैसे में?” “तीन पैसे दिये।” अमीना ने छाती पीट ली। यह कैसा बेसमझ लड़का है कि दोपहर हुई, कुछ खाया न पिया। लाया क्या, चिमटा! बोली, “सारे मेले में तुझे और कोई चीज़ न मिली, जो यह लोहे का चिमटा उठा लाया?” हामिद ने अपराधी-भाव से कहा, “तुम्हारी उँगलियाँ तवे से जल जाती थीं, इसलिए मैंने इसे लिया।” बुढ़िया का क्रोध तुरंत स्नेह में बदल गया, और स्नेह भी वह नहीं, जो प्रगल्भ होता है और अपनी सारी कसक शब्दों में बिखेर देता है। यह मूक स्नेह था, ख़ूब ठोस, रस और स्वाद से भरा हुआ। बच्चे में कितना त्याग, कितना सदभाव और कितना विवेक है! दूसरों को खिलौने लेते और मिठाई खाते देखकर इसका मन कितना ललचाया होगा! इतना ज़ब्त इससे हुआ कैसे? वहाँ भी इसे अपनी बुढ़िया दादी की याद बनी रही।

असमय परिपक्वता कैसे आती है ईदगाहइस पर बहुत सुंदर कहानी है। जिस समाज में बच्चों को बड़ा बन जाना पड़े; उस समाज के मुँह पर ईदगाह एक तमाचे की तरह है।

बालमनोविज्ञान की भाँति ही प्रेमचंद को वृद्ध मनोविज्ञान पर भी गहरी दखल है। बूढ़ी काकीमें पात्र हैं बूढ़ी काकी का भतीजा बुद्धिराम, उसकी पत्नी रूपा व उनके बेटे बेटी सुखराम व लाडली। बूढ़ी काकी खाने की ख़ूब शौकीन हैं, चटपटा खाने को तरसती हैं। हालाँकि बुद्धिराम को अपना उत्तराधिकारी बनाते हुए यह फैसला हुआ था कि वह बूढ़ी काकी की देखरेख करेगा परन्तु व्यवहार में वह व्यवस्था नहीं हो पाई थी। बूढ़ी काकी की सारी चेतना जिह्वा में केंद्रित हो गई है। खाना समय पर न मिलने पर वह चीखती चिल्लाती है। एक लाडली ही ऐसी है जिसे बूढ़ी काकी से सहानुभूति है। एक बार बुद्धिराम के बेटे सुखराम की सगाई का कार्यक्रम होता है। पूड़ी व पकवानों की महक बूढ़ी काकी को खींच लाती है। रूपा सब लोगों के सामने ही काकी पर चीख पड़ती है। काकी कोठरी में जाती हुई स्वयं को ही कोसती है। कोठरी में काकी को लगता है कि समय काफी हो गया है; हो सकता है वो लोग उसे भूल गए होंगे, वह पुनः आँगन के बीच आ जाती है।

बूढ़ी काकी बेवा है अतः उसकी परछाई से सब वस्तुओं को बचाकर रखना है इसलिए उसे बुद्धिराम झिड़कते हुए ले जाता है और उसकी कोठरी में बंद कर आता है। अब बूढ़ी काकी इतनी अपमानित हो चुकी है कि दिन भर बाहर नहीं निकलती। पकवानों की महक उसकी भूख और जगा देती है। रात को लाडली को काकी की याद आती है। वो अपनी बचाई हुई पूड़ियाँ काकी को देती है परंतु इससे उसकी भूख बुझती नहीं बल्कि और भड़क उठती है। काकी लाडली को जूठी पत्तलों के पास ले चलने को कहती है। रूपा की जब नींद खुलती है वह लाडली को नदारद पाकर ढूँढ़ने लगती है। फिर जो दृश्य रूपा की आँखों के सामने आता है उसे देख रूपा स्तब्ध रह जाती है। उसके मुँह से निकलता है – “किसी गाय की गरदन पर छुरी चलते देखकर जो अवस्था उसकी होती, वही उस समय हुई। एक ब्राह्मणी दूसरों की झूठी पत्तल टटोले, इससे अधिक शोकमय दृश्य असंभव था।” यहाँ रूपा को प्रायश्चित अवश्य होता है। अचानक उसका हृदय परिवर्तन होता है। वह थाल सजा कर अपनी चचेरी सास को भोजन करवाती है।

बूढ़ी काकी’ कहानी में समाज की ज्वलन्त वृद्ध-समस्या का यथार्थ चित्रण है। बड़े-बूढ़े जब असहाय हो जाते हैं और समाज के लिए उपादेयता समाप्त हो जाती है तब उनके साथ यथोचित बर्ताव नहीं होता। उन्हीं से प्राप्त संसाधनों का उपयोग अगली पीढ़ी करती है परंतु उनको उपेक्षित कर देती है। प्रेमचंद की दृष्टि जहाँ भी विसंगति है, अन्याय है वहाँ पहुँच जाती है।

प्रेमचंद की सबसे चर्चित व परिपक्व कहानी है कफ़न। यह उनकी अंतिम कहानियों में से एक है। 1936 तक आते-आते वो आदर्शवाद का झुनझुना छोड़कर कठोर नंगे यथार्थवाद को दिखाने लगे थे। यहाँ चेखोवियन शैली का अनुसरण करते हुए टू द पॉइंटलिख रहे थे। कफ़न में मात्र तीन पात्र हैं घीसू और माधव पिता पुत्र हैं। बुधिया माधव की पत्नी है। वर्ष भर पहले विवाह हुआ है; अब प्रसव पीड़ा से तड़प रही है। घर में कुछ है नहीं। गरीबी इतनी है कि घीसू को याद आता है कि बीस साल पहले किसी विवाह में भरपेट भोजन किया था। उस समय जो पकवान खाये थे उनका स्वाद अब भी उसे याद है। माधव ने तो कभी भरपेट स्वादिष्ट भोजन किया ही नहीं। तीसरी पीढ़ी बुधिया के गर्भ में पल रहा बच्चा है; परन्तु भुखमरी और साधनहीनता के चलते वो पैदा होने से पहले ही दम तोड़ देता है। गरीबी इतनी है कि कोई उधार देने को भी तैयार नहीं। घीसू और माधव बाहर बैठकर सेंके हुए आलू खा रहे हैं। घीसू माधव को कहता भी है कि भीतर जाकर देख आ क्या हालत है बहू की। लेकिन माधव को लगता है कि वह भीतर गया तो घीसू उसके हिस्से के आलू खा जाएगा। भूख ने दोनों को संवेदनहीन बना दिया है। जिसने कभी पेटभर न खाया हो उससे संवेदनशील होने की उम्मीद भी नहीं की जा सकती। प्रेमचंद की भाषा-शैली इतनी सुंदर है कि परिस्थितियों को सही उभार दे रही है।

“घर में तो पैसा इस तरह गायब था, जैसे चील के घोंसले में माँस?”

“जमींदार साहब दयालु थे। मगर घीसू पर दया करना काले कम्बल पर रंग चढ़ाना था।”

“कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते जी तन ढाँकने को चीथड़ा भी न मिले, उसे मरने पर नया कफ़न चाहिए।”

गरीबी, बेरोजगारी व निकम्मेपन की हद कफ़न कहानी में है, साथ रह रही एक इंसान की पीड़ा से भी किसी का हृदय नहीं पसीजता। उसकी मृत्यु भी पेट भर भोजन पाने का अवसर बन जाती है।

पूस की रातकहानी किसानों की बुरी दशा का जीवंत दस्तावेज़ है। हल्कू अपने कुत्ते जबरा के साथ रात को खेतों की रखवाली करता है। हल्कू तीन रुपये रजाई के लिए बचाता है लेकिन ब्याज चुकाने में चले जाते हैं और हल्कू को हाड़ कँपा देने वाली सर्दी में रात को खेतों में बिना रजाई के रहना पड़ता है। जबरा कुत्ता बहुत बदबू मारता है क्योंकि नहाता नहीं है लेकिन जानलेवा सर्दी में हल्कू को उसका सानिध्य सुखकर लगता है वो जबरा से लिपटकर सो जाता है। गर्माहट से उसकी आँख लग जाती है और खेतों को पशु चर जाते हैं। इस पर हल्कू को पश्चाताप होने के स्थान पर संतोष होता है कि चलो कल से इस ठंडी में रात को खेतों में नहीं रहना पड़ेगा। क्योंकि इतनी मेहनत करके भी वो अपने लिए एक कम्बल तक नहीं जुटा पाता। इससे तो मजदूरी करने वाले सुखी हैं। रातभर खेतों में ठंड में जागना नहीं पड़ता। जमीदारों, सूदखोरों के अत्याचार, दिनरात की मेहनत के बावजूद किसानों की दयनीय दशा आदि का यथार्थ चित्रण प्रेमचंद ने अपनी कहानियों उपन्यासों में किया है।

1930 की उनकी कहानी है, ‘आहुति।’ कहानी की नायिका कहती है, “अगर स्वराज आने पर भी संपत्ति का यही प्रभुत्व रहे और पढ़ा-लिखा समाज यों ही स्वार्थांध बना रहे तो मैं कहूँगी कि ऐसे स्वराज का न आना ही अच्छा है....कम से कम मेरे लिए तो स्वराज का यह अर्थ नहीं है कि जॉन की जगह गोविंद बैठ जाए। मैं ऐसी व्यवस्था देखना चाहती हूँ, जहाँ कम से कम विषमता को आश्रय न मिल सके।”

छुआछूत और वर्ण-व्यवस्था के विकृत रूप को उजागर करने वाली कहानी है सद्गति। इस कहानी में प्रेमचंद एकदम टू द पॉइंट’  लिखते हैं। सीमित पात्र हैं पंडित घासीराम, पंडिताइन और चमार दुःखीराम। दुःखीराम कोई मुहूर्त निकलवाने पंडित घासीराम के पास जाता है। पंडित अपनी शोषणकारी मनोवृत्ति के चलते देर तक कठिन परिश्रम करवाता है। भूखा प्यासा चमार पंडित के घर पर ही दम तोड़ देता है। यहाँ प्रेमचंद ने दलित चेतना दिखाई है। चमार समाज के सारे लोग एकता कर लेते हैं कि शव को वो नहीं हटाएँगे। आख़िर एक इंसान के जीवन का सवाल है। नतीजतन पंडित घासीराम को स्वयं ही उसका शव हटाना पड़ता है। विकृत वर्ण-व्यवस्था के चलते घीसू पंडित की संवेदना दुःखीराम चमार के प्रति एकदम समाप्त हो गई है। उसे यह अनुभूति ही नहीं होती कि वो भी उसी के भाँति हाड़-माँस का बना इंसान है।

प्रेमचंद ने अपने जीवन में विमाता का सानिध्य पाया था, उसकी झलक उनकी कहानियों में भी दिखती है। अल्गोझ्यामें जब दस बरस के रग्घू की माता का निधन हो जाता है; उसे विमाता के बुरे बर्ताव से दो-चार होना पड़ता है। परन्तु पिता के निधन के बाद वह अपने भाइयों की पिता तुल्य संरक्षण देता है। रग्घू के निधन से अनाथ हुए उसके पत्नी बच्चों को पन्ना व उसका परिवार अपनाता है। ग्रामीण परिवेश में संयुक्त परिवार एक प्रकार का जीवन बीमा था।

एक कहानी है गिलाजो कि अपने अलग शिल्प के कारण ज़हन में जगह बना लेती है। पूरी कहानी में पत्नी का एकालाप है। आज से कितना पहले प्रेमचंद इस शिल्प को कहानी में ले आए यह रोचक है।

प्रेमचंद की सर्वोत्तम कृत्ति ‘गोदान’ तो है ही तत्कालीन भारत की प्रतिछवि। स्वतंत्रता से पहले के भारत से, भारत के गाँवों से परिचित होना हो तो गोदान इसके लिए सर्वाधिक प्रमाणिक कृति है। गोदान औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत किसान का महाजनी व्यवस्था में चलने वाले निरंतर शोषण तथा उससे उत्पन्न संत्रास की कथा है। होरी और धनिया के जीवन की साध है एक गाय का दान करना। इसी किसानी व्यवस्था के चलते वे शोषण की चक्की में पीसते रहते हैं।गोदान ग्राम्य जीवन और कृषि संस्कृति का महाकाव्य है। इसमें प्रगतिवाद, गांधीवाद और मार्क्सवाद (साम्यवाद) का पूर्ण परिप्रेक्ष्य में चित्रण हुआ है। समाज सुधार आंदोलन, स्वाधीनता संग्राम आदि सब गतिविधियों पर प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों में बहुतायत में लिखा है। दहेज, अनमेल विवाह, पराधीनता, लगान, छुआछूत, जातिभेद, विधवा-विवाह आदि पर कहानियों में तो आवाज़ उठाई ही है। ऐसा प्रतीत होता है प्रेमचंद की कहानियाँ छोटी-छोटी नदियाँ हैं जिनका समावेश गोदान रूपी सागर में हो गया है। किसान होना मर्यादा का सवाल है। गोबर को संकोच है कि वह किसानी में कुछ नहीं पा रहा तो मजदूर बन जाये। यही कार्य पूस की रातका हल्कू बिना किसी संकोच के करता है। किसान की मर्यादा को ढोते-ढोते थक चुके हल्कू को मजदूर बनने में कोई बुराई नहीं दिखती।

कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर और प्रेमचंद की विश्वदृष्टि में इतना साम्य है कि भ्रम होता है, यह कौन कह रहा है, रवीन्द्र या प्रेमचंद! उदाहरण के लिए प्रेमचंद का यह अंशः “राष्ट्रीयता वर्तमान की कोढ़ है, उसी तरह जैसे मध्यकालीन युग की कोढ़ सांप्रदायिकता थी। अर्थ के प्रश्न को हल कर देना ही राष्ट्रीयता के किले का ध्वंस करना है....हम संपत्ति के लिए जीते हैं, उसी के लिए मरते हैं, हम विद्वान बनते हैं संपत्ति के लिए, गेरुआ वस्त्र धारण करते हैं संपत्ति के लिए। घी में आलू मिलाकर क्यों बेचते हैं? दूथ में पानी मिलाकर क्यों बेचते हैं? वेश्याएँ क्यों बनती हैं और डाके क्यों पड़ते हैं? एकमात्र कारण संपत्ति है। जब तक संपत्तिहीन समाज का गठन नहीं होगा, जब तक संपत्ति व्यक्तिवाद का अंत नहीं होगा, संसार को शांति नहीं मिलेगी।”

लेखक संजीव प्रेमचंद के लिए लिखते हैं  “कबीर के बाद यह प्रेमचंद का ही जिगरा था, जिन्होंने ‘मोटेराम शास्त्री’, ‘सवा सेर गेहूँ’, ‘सद्‍गति’, ‘ठाकुर का कुआँ’, ‘कफन’, ‘रंगभूमि’ और ‘गोदान’ में ब्राह्मणवाद को पूरी तरह बेनकाब किया, जिसने ‘गोदान’ में  एक दलित बाला सिलिया के साथ फँसे एक तिलकधारी पुरोहित मातादीन की धोती खोल दी, “तुम ब्राह्मण नहीं बना सके, हम तुम्हें चमार बना सकते हैं।” और सूअर का हाड़ उनके मुँह में ठूँस दिया।

गाँवों पर, गरीबी पर जहाँ कोई ग्लेमर नहीं दिखता उनके संघर्षों पर उन्होंने कितना लिखा आश्चर्य होता है।

प्रेमचंद का यह भी संघर्ष था कि उनके सामने हिन्दी में कहानी उपन्यास के क्षेत्र में कोई निश्चित परम्परा नहीं थी। फिर भी उन्होंने अपने दम पर न केवल इन्हें स्थापित किया बल्कि सौ साल बाद भी उतने ही प्रासंगिक भी हैं। यही प्रेमचंद की देन है। उन्हें जहाँ लोक की गहरी समझ है, गाँवों को निकटता से देखा है वहीं मानव मन की भी गहरी समझ है। इन दोनों का समायोजन उन्हें सदियों तक हिन्दी साहित्य का सिरमौर बनाये रखेगा।

अनिता मंडा

दिल्ली

 

आलेख

 

प्रेमचंद की कथा कृतियों का फ़िल्मी रूपांतरण

डॉ. पूर्वा शर्मा

गत सौ वर्षों से भी अधिक समय से हिन्दी सिनेमा दर्शकों का मनोरंजन करता रहा है। वर्ष 1913 में राजा हरिश्चंद्र की कथा पर आधारित भारत की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनी जो अवाक् (मूक) फिल्म थी। 1931 में पहली सवाक् फिल्म ‘आलम आरा’ बनी, जो पारसी नाटक पर आधारित थी। ‘मूक’ से ‘सवाक्’, ‘ब्लैक एंड व्हाइट’ से लेकर ‘कलर’ और अब ‘थ्री डी’ एवं नई-नई तकनीकों के प्रयोग से हिन्दी सिनेमा की प्रगति का सफ़र जारी है। तकनीक भले ही कितनी भी उन्नत हो लेकिन फिल्म को एक अच्छे कथानक की आवश्यकता होती ही है, उसके बगैर किसी भी फिल्म में जान नहीं आ सकती। हम देख सकते हैं कि आरंभ में ऐतिहासिक, पौराणिक, धार्मिक कथानक को लेकर फ़िल्में बनती थी साथ ही साहित्यिक कृतियों पर भी फ़िल्में निर्मित होने लगी और यह सिलसिला आजा भी जारी है।

गुलज़ार कहते हैं कि – ‘साहित्य और सिनेमा का संबंध एक अच्छे अथवा बुरे पड़ोसी, मित्र या संबंधी की तरह एक दूसरे पर निर्भर है। यह कहना जायज़ होगा कि दोनों में प्रेम संबंध है।’ अलग-अलग विधाएँ होने के बावजूद साहित्य और सिनेमा दोनों ही मनुष्य के जीवन को चित्रित/प्रतिबिम्बित करते हैं। अपनी संस्कृति, परिवेश, समाज, विचार धारा आदि को व्यक्त करने में ये दोनों ही माध्यम सक्षम है। किसी भी रचना को पढ़ते हुए पाठक अपनी कल्पनाशीलता के अनुसार लेखक की रची दुनिया में प्रवेश करता है लेकिन सिनेमा के दर्शक का कल्पनाशीलता से कोई लेना-देना नहीं होता, वह वही देख पाता है जो निर्देशक उसे दिखाता है – साहित्य एवं सिनेमा में यही मुख्य अंतर है।  

 शिक्षा का अभाव एवं गरीबी के चलते हमारे समाज का एक हिस्सा साहित्य से वंचित है, ऐसे में सिनेमा का महत्त्व बढ़ जाता है। जहाँ साहित्य नहीं पहुँच पाता वहाँ सिनेमा अपनी बात/विचार को प्रस्तुत करने में सफल होता है। दृश्य माध्यम होने के कारण साहित्य की तुलना में सिनेमा आम जनता को अधिक प्रेरित एवं प्रभावित करता है। उपन्यास सम्राट प्रेमचंद ने अपने एक लेख में कहा कि उपन्यासों एवं कहानियाँ लिखने से इतना फायदा नहीं हो रहा, इससे ज्यादा फायदा फिल्म दिखाकर हो सकता है।  फिल्म से हर जगह के लोग लाभ उठा सकते हैं। और यह बात सच भी है कि यदि हम अपनी बात या विचार को किसी फिल्म के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं तो वह ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचती तो है ही, साथ ही उनके जीवन में परिवर्तन ला सकती है और लाती भी है।  

Thomas Dixon(थॉमस डिक्शन) के उपन्यास ‘The Clansman’(द कैंसमैन1905) पर आधरित 1915 में बनी मूक अमरीकी फिल्म ‘The Birth of a Nation’(द बर्थ ऑफ़ अ नेशन) से सिनेमा में साहित्य का आरंभ माना जाता है। हिन्दी सिनेमा के इतिहास में मोहन भवनानी की ‘मिल मजदूर’ (1934) फिल्म की पटकथा प्रेमचंद ने लिखी थी।

प्रेमचंद के अतिरिक्त और भी कई साहित्यकारों ने फिल्मी दुनिया में कदम रखा जैसे – अमृतलाल नागर, धर्मवीर भारती, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, मन्नू भंडारी, भगवतीचरण वर्मा, चतुरसेन शास्त्री, भीष्म साहनी, राही मासूम रजा आदि। लेकिन इनमें से कुछ सफल हुए कुछ नहीं।

हिन्दी सिनेमा पर यदि विहंगम दृष्टिपात किया जाए तो हम देख सकते हैं कि कई भाषाओं की साहित्यिक रचनाओं को लेकर अनेक हिन्दी फिल्मों का निर्माण हुआ है। फणीश्वरनाथ रेणु के कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर बनी जो ‘तीसरी कसम’ बॉक्स ऑफिस पर अपना जादू बिखेर न सकी। यही हाल  ‘त्याग पत्र’, (जैनेंद्र), ‘चित्रलेखा’ (भगवती चरण वर्मा), ‘माया दर्पण’ (निर्मल वर्मा), ‘सारा आकाश’(राजेंद्र यादव) आदि फिल्म का भी रहा। हिन्दी के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाओं की साहित्यिक कृतियों पर आधारित फ़िल्में हिन्दी में बनी है। इस तरह की फिल्मों की सूची लम्बी है।  

हम यह नहीं कह सकते कि साहित्यिक रचनाओं पर बनी फ़िल्में हमेशा ‘सफल’  ही रही है। लेकिन कुछ समय पूर्व ही रिलीज़ हुई हरिंदर सिक्का की पुस्तक ‘कॉलिंग सहमत’ पर आधारित ‘राजी’ (2018) फिल्म की सफलता इस बात का प्रमाण है कि साहित्यिक रचनाओं पर बनी फ़िल्में भी बॉक्स ऑफिस पर रिकॉर्ड तोड़ सकती है। धर्मवीर भारती की ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’, मन्नू भंडारी की ‘रजनीगंधा’, शरतचन्द्र के उपन्यास पर लगभग चार बार बनी ‘देवदास’, कमलेश्वर की रचनाओं पर बनी लगभग सभी फ़िल्में (पति, पत्नी और वो,  मौसम आदि), चेतन भगत के उपन्यास पर बनी फ़िल्में (थ्री इडियट्स, काई पो छे, टू स्टेट्स, हॉफ गर्ल फ्रेंड) इस श्रेणी में आती है।

साहित्यिक रचनाओं को लेकर बनने वाली फिल्मों के क्रम में प्रेमचंद की रचनाओं पर आधारित फिल्मों का भी विशेष महत्त्व रहा है। प्रेमचंद की मृत्यु के 85 वर्ष पश्चात् भी उनकी रचनाओं पर सिनेमा / टेलीफिल्म आदि का निर्माण ज़ारी है। इनमें से कुछ फ़िल्में प्रेमचंद की रचनाओं पर आधारित है और कुछ उनकी रचनाओं से प्रेरित। हाल ही में मार्च 2021 में रिलीज़ हुई फिल्म ‘बैकुंठ’ इस बात का प्रमाण है कि इतने वर्षों के पश्चात् भी प्रेमचंद साहित्य का महत्त्व, उसकी प्रासंगिकता वैसी ही बनी हुई है।  

प्रेमचंद की रचनाओं को लेकर कई फिल्मों एवं टेलीफिल्मों का निर्माण हुआ जो इस प्रकार है –


द मिल मजदूर (1934) 

    श्रमिक जीवन पर केन्द्रित इस कथा को निर्देशक मोहन भवनानी ने बहुत ही जीवंत फिल्माया। इस फिल्म की कहानी प्रेमचंद जी ने लिखी साथ ही इस फिल्म में  स्वयं प्रेमचंद जी ने एक नेता की छोटी-सी भूमिका भी अदा की थी। मजदूरों के जीवन की समस्या, उन पर होने वाले अत्याचार /भेदभाव आदि का चित्रण इस फिल्म में दिखाई देता है। सेंसर बोर्ड को लेकर यह फिल्म विवादित रही। मिल मजदूरों को केंद्र में रखकर बनाई गई इस फिल्म में बहुत काट-छाँट की गई और इसके रिलीज़ में बहुत मुश्किलें आई, और तो और कई स्थानों पर रिलीज़ होने के बाद इस फिल्म को बंद करवा दिया गया। फिल्म में किए गए कुछ परिवर्तन प्रेमचंद को पसंद नहीं आए। पंजाब में इसे ‘गरीब मजदूर’ के नाम से प्रदर्शित किया गया। इन सब विवादों के चलते प्रेमचंद जी मुंबई की फ़िल्मी दुनिया छोड़कर चले आए।

सेवासदन (1938) 

    सेवासदन प्रेमचंद का प्रथम उपन्यास माना जाता है, जिसे पहले उर्दू में बाज़ार-ए- हुस्न के नाम से लिखा गया और फिर हिन्दी में रूपांतरित किया गया। उपन्यास सम्राट प्रेमचंद के देहावसान के दो वर्ष पश्चात् उनके उपन्यास सेवासदन की कथावस्तु को लेकर निर्माता-निर्देशक के. सुब्रमण्यम ने तमिल में ‘सेवासदन’ शीर्षक से ही फिल्म बनाई। इसमें वेश्या जीवन से संबद्ध जीवन की समस्याओं का सफलता पूर्वक चित्रण किया गया। सिवान के संगीत निर्देशन और सुबुलक्ष्मी एवं नतेशा अय्यर अभिनीत यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बेहद सफल रही।

स्वामी (1941)  

प्रेमचंद की कहानी ‘त्रिया चरित्र’ को लेकर ए. आर. कारदार ने ‘स्वामी’ शीर्षक से फिल्म बनाई। इंदिरा की भूमिका में सितारा देवी, अभिनेता जयराज और जीवन ने फिल्म में अपने बेहतरीन अभिनय का परिचय दिया।

हीरा मोती (1959)   

    कृष्ण चोपड़ा द्वारा निर्देशित इस फिल्म की पटकथा ‘दो बैलों की कथा’ कहानी पर आधारित है। फिल्म में मुख्य कलाकार की भूमिका निरूपा रॉय (रजिया), बलराज साहनी (झुरी) और शोभा खोटे(चंपा) ने निभाई और संगीत निर्देशन रोशन के किया। नीति विषयक मूल्यों को उभारती दो बैलों की कथा में दो बैल सीधे-सादे व्यक्तियों का प्रतीक है, जिनके संघर्ष को फिल्म में बखूबी फिल्माया गया है।    

गोदान (1966) 

प्रेमचंद के सर्वश्रेष्ठ कहे जाने वाले उपन्यास ‘गोदान’ पर आधरित इस फिल्म में होरी का किरदार राजकुमार, धनिया – कामिनी कौशल एवं गोबर का किरदार महमूद ने निभाया। रवि शंकर का संगीत एवं अंजान के गीत एवं निर्देशन त्रिलोक जेटली का था। भारतीय संस्कृति, ग्राम्यजीवन के अनेक आयामों, ग्रामीणों की सुखद-दुखद स्थितियों, उनकी व्यथा-कथा का चित्रण इसमें भली-भाँति हुआ है। यह फिल्म बहुत लोकप्रिय न हो सकी।

गबन (1966) 

मशहूर निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी ने गबन उपन्यास पर इसी शीर्षक से ही फिल्म बनाई। इस फिल्म में शैलेन्द्र एवं हसरत जयपुरी के गीतों को शंकर जयकिशन ने संगीतबद्ध किया था। फिल्म में मुख्य पात्र रामनाथ की भूमिका में सुनील दत्त एवं जालपा की भूमिका में अभिनेत्री साधना नज़र आई। इसमें लोभ, टूटते-गिरते मूल्यों और अँधेरे में भटकते मध्यम वर्ग का वास्तविक चित्रण बड़ी सजीवता के साथ किया गया है।    

ओका ऊरी कथा (1977)   

    सर्वश्रेष्ठ फिल्म का नेशनल अवार्ड (1978), नंदी अवार्ड फॉर थर्ड बेस्ट फीचर फिल्म(1977) एवं कारलावी वेरी अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल और कार्थेज फिल्म फेस्टिवल में स्पेशल आवार्ड जीतने वाली तेलगु फिल्म ‘ओका ऊरी कथा’ प्रेमचंद की कहानी कफ़न पर बनी है। कफ़न को सफलता पूर्वक पर्दे पर प्रस्तुत करने का कार्य निर्देशक मृणाल सेन ने किया। अभिनेता एम. वी. वासुदेव, प्रदीप कुमार एवं ममता शंकर ने मुख्य भूमिका निभाई थी और विजय राघव राव ने संगीत दिया था। दरिद्रता, भुखमरी एवं सामाजिक भेदभाव का जीवन जीते प्रेमचंद के पात्र घीसू, माधव एवं बुधिया की यह मार्मिक कहानी है।

शतरंज के खिलाड़ी (1977)  

    प्रसिद्ध बांग्ला फ़िल्मकार सत्यजीत रे द्वारा निर्मित ‘शतरंज के खिलाड़ी’ फिल्म को भी सर्वश्रेष्ठ फिल्म फेयर अवार्ड एवं बेस्ट सिनेमेटोग्राफी के लिए नेशनल अवार्ड प्राप्त हुआ। प्रस्तुत फिल्म प्रेमचंद की चर्चित कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ का सफल सिनेमाई रूपांतरण है। वाजिद अली शाह के समय को प्रस्तुत करती इस फिल्म में संजीव कुमार / शबाना आज़मी (मिर्ज़ा सज्जाद अली और उनकी बीवी), सईद जाफ़री / फरीदा जलाल (मीर रोशन अली और उनकी बीवी) और अमजद ख़ान ने वाजिद अली शाह का किरदार निभाया। हालाँकि मूल कहानी में वाजिद अली प्रत्यक्ष पात्र के रूप में चित्रित नहीं किया गया है लेकिन थोड़ी सिनेमाई स्वंत्रता तो हर निर्देशक ले ही लेता है।

सद्गति (1981) 

    सत्यजीत रे के निर्देशन में ही प्रेमचंद की एक और कहानी ‘सद्गति’ पर इसी शीर्षक से फिल्म का निर्माण दूरदर्शन द्वारा हुआ। इसे नेशनल फिल्म अवार्ड (स्पेशल जूरी अवार्ड, 1982) प्राप्त हुआ। इस फिल्म में ओमपुरी, स्मिता पाटिल एवं मोहन अगाशे ने क्रमशः दुखी, झुरिआ, ब्राह्मण के पात्रों को जीवंत बनाते हुए अपने सर्वश्रेष्ठ अभिनय का परिचय     दिया। एक दलित-शोषित जीवन की दयनीय दास्तान कहती इस कहानी का अंत बहुत ही हृदय विदारक है। सत्यजीत रे ने इस मर्मस्पर्शी कथा को बहुत ही बेहतरीन ढंग से दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया है।  


बाज़ार-ए-हुस्न (2014) 

    अजय मेहरा ने प्रेमचंद के उर्दू उपन्यास बाज़ार-ए-हुस्न (सेवासदन) की कथा पर आधरित ‘बाज़ार-ए-हुस्न’ नाम से ही फिल्म का निर्माण किया। प्रस्तुत फिल्म में सदन की भूमिका में ओमपुरी, सुमन की भूमिका में रश्मि घोष और किशन भूमिका में जीत गोस्वामी नज़र आए। फिल्म में गीतों को संगीतबद्ध ख़य्याम ने किया। घरेलू हिंसा, दहेज़ प्रथा आदि से जूझती सुमन के इर्द-गिर्द इस फिल्म की कथा घूमती है।

बैकुंठ (मार्च 2021) 

    कोरोना काल में हाल ही हंगामा एप पर बैकुंठ नमक फिल्म को रिलीज़ किया गया, जो कि ज्यादातर दर्शकों तक नहीं पहुँच पाई। इस फिल्म की पटकथा प्रेमचंद की ‘कफ़न’ कहानी पर आधारित है। भोजपुरी के प्रसिद्ध गीतकार भिखारी ठाकुर के गीत एवं नितेश सिंह निर्मल के संगीत ने फिल्म को प्रभावी बनाया। इस फिल्म के माध्यम से निर्देशक विश्व भानु ने आर्थिक विषमता, सामाजिक भेदभाव को आधुनिक सन्दर्भ में प्रस्तुत करने का प्रयास किया। विश्व भानु ने घीसू एवं संगम शुक्ला ने माधव एवं वान्या ने बुधिया के पात्र को बखूबी निभाया।    

गुल्ली डंडा (2010) 

    प्रेमचंद की एक और प्रसिद्ध कहानी ‘गुल्ली डंडा’ पर कल्याण सिरवी एवं हेमंत चोयल के निर्देशन में इसी शीर्षक को लेकर लघु फिल्म (18 मिनट) का निर्माण किया गया। इसमें ‘गया’ (बच्चे) नामक पात्र का किरदार जितेन्द्र चोयल ने, बड़े गया का किरदार भगदराम चौकीदार ने, कुश सिरवी ने इंजिनियर(बच्चे) एवं इमरान शेख ने इंजिनियर का किरदार निभाया। संगीत निर्देशन पी. सी. शिवन ने किया। बचपन और मित्रता का सुन्दर चित्रण इसमें दिखाई देता है।   

पंच परमेश्वर (टेलीफिल्म,1995) 

    पंच का निर्णय निष्पक्ष होता है। पंच निर्णय करते हुए मित्र-दुशमन, अपना-पराया, छोटा-बड़ा आदि कुछ नहीं देखता – इसी बात को स्पष्ट करती प्रेमचंद की कथा ‘पंच परमेश्वर’ पर निर्देशक राजेश राठी ने इसी शीर्षक से टेलीफिल्म बनाई। इसमें अशोक बुलानी, विजय ढिंढोरकर एवं उदय सहाने ने मुख्य भूमिका निभाई।  

तहरीर (टी.वी. धारावाहिक, 2004) 

    प्रसिद्ध गीतकार/ लेखक गुलज़ार ने प्रेमचंद की रचनाओं को लेकर दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले एक टीवी धारवाहिक का निर्देशन किया। इस धारावहिक की शृंखला में प्रेमचंद की कहानियों – ईदगाह, सवा सेर गेहूँ, बूढ़ी काकी, नमक का दारोगा, कफ़न, पूस की रात, हज्ज-ए-अकबर, ठाकुर का कुआँ, ज्योति आदि तथा गोदान और निर्मला जैसे उपन्यास की कथा को दर्शकों के समाने प्रस्तुत किया। गुलज़ार ने टेलीसीरियल के माध्यम से प्रेमचंद की रचनाओं को सरलता से जनता के बीच पहुँचाया।  

इसके अतिरिक्त अजय मेहरा के निर्देशन में ‘सेवासदन’ को लेकर धारावाहिक का निर्माण किया गया जिसे दूरदर्शन पर प्रसारित किया गया। एम. के रैना ने भी ‘दूध का दाम’, ‘कज़ाकी’, ‘बड़े भाई साहब’, ’मुक्ति मार्ग’  इत्यादि को लेकर टेलीफिल्म का निर्माण किया जिसे दूरदर्शन भारती पर प्रसारित किया गया।

हम देख सकते हैं कि प्रेमचंद की अनेक रचनाओं को लेकर फिल्म/ टेलीफिल्म का निर्माण हुआ है लेकिन हर सफल/प्रसिद्ध कहानी को फिल्म के रूप में भी सफलता प्राप्त हो यह जरूरी नहीं। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि किसी भी साहित्य रचना का फिल्म के रूप में हू-ब-हू रूपांतरण संभव नहीं। अनेक कलाओं जैसे कहानी, गीत, संगीत, अभिनय, निर्देशन आदि के संयोग से सिनेमा का निर्माण होता है इनमें से किसी भी तत्त्व की कमी फिल्म को कमज़ोर बना देती है।  इसलिए कई बार अच्छी पटकथा होते हुए भी फिल्म चल नहीं पाती। पात्रों का सही चयन, दमदार संवाद, बढ़िया अभिनय या निर्देशन कई ऐसे घटक है जो किसी फिल्म को दर्शकों में लोकप्रिय बना देते हैं और इनमें से किसी एक की कमी फिल्म को फ्लॉप भी बना सकता है। फिल्म में कहीं पर संवाद आवश्यक होता है तो कहीं मौन अथवा संगीत या दृश्य योजना। मन्नू भंडारी का कहना है कि कहानी (साहित्य) और पटकथा (सिनेमा) में प्रारूप का अंतर होता है, कहानीकार किसी भी शैली में (उत्तम पुरुष ,प्रथम पुरुष, डायरी फॉर्म अथवा पत्रों के फॉर्म आदि में) अपनी कहानी को प्रस्तुत कर सकता है लेकिन पटकथा लेखक को तो सारी कहानी संवाद अथवा दृश्यों में ही ढ़ालकर प्रस्तुत करनी पड़ती है। किसी भी फिल्म की सफलता या असफलता के पीछे यही सब कारक देखे जा सकते हैं। इन्हीं सब कारणों से प्रेमचंद की भी कई रचनाओं पर आधारित फ़िल्में फ्लॉप हो गई और कुछ को दर्शकों ने बहुत पसंद भी किया।   

अंततः हम इतना ही कह सकते हैं कि अपनी रचनाओं में मानवीय संवेदना, आर्थिक-सामाजिक विषमता, यथार्थवादिता आदि के सजीव चित्रण द्वारा प्रेमचंद आम जनता को जगाने का कार्य करते रहे हैं। प्रेमचंद की रचनाओं पर बनी फिल्में मनोरंजन के साथ-साथ शिक्षाप्रद भी होती है, इसलिए इनका महत्त्व बढ़ जाता है। प्रेमचंद की स्वयं की सिनेमा यात्रा इतनी सफल नहीं रही लेकिन उनके देहावसान के पश्चात् उनकी विभिन्न रचनाओं पर बनी कई फ़िल्में इस बात का प्रमाण है कि साहित्य के साथ सिनेमा में भी उनका नाम युगों-युगों तक आदर के साथ लिया जाएगा।

डॉ. पूर्वा शर्मा

वड़ोदरा 

 

अप्रैल 2024, अंक 46

  शब्द-सृष्टि अप्रैल 202 4, अंक 46 आपके समक्ष कुछ नयेपन के साथ... खण्ड -1 अंबेडकर जयंती के अवसर पर विशेष....... विचार बिंदु – डॉ. अंबेडक...