बुधवार, 30 अप्रैल 2025

अप्रैल 2025, अंक 58

 


शब्द-सृष्टि

अप्रैल 2025, अंक 58

विश्व धरोहर..... – यूनेस्को विश्व स्मृति रजिस्टर में ‘भगवद्गीता’ और ‘नाट्यशास्त्र’ के दर्ज होने के साथ वैश्विक महत्ता-मान्यता प्राप्त चौदह भारतीय दस्तावेज...... – प्रो. हसमुख परमार

हाइबन – कलरव – डॉ. पूर्वा शर्मा

व्याकरण विमर्श – ‘ठहरना’ क्रिया – डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

पुस्तक चर्चा – धूप और चाँदनी(ग़ज़ल संग्रह - राम नारायण ‘हलधर’) – रवि वैद

कविता – 1. अम्मा(गीतिका छंद) 2. सत्य बात (रोला छंद) 3. पत्र – डॉ. अनिल कुमार बाजपेयी 'काव्यांश'

पुस्तक-समीक्षा – रामायण में जनप्रिय शासन (डॉ. सुरभि दत्त) – डॉ. सुषमा देवी

आलेख – एक भारतीय आत्मा – पंडित माखन लाल चतुर्वेदी – सुरेश चौधरी

सामयिक टिप्पणी – 1.पहलगाम हमला : अमानुषिक, जघन्य और निंदनीय!2. पहलगाम नरसंहार के बाद : सिंधु में उबाल 3. पहलगाम के घाव और अटारी का बंद दरवाज़ा! – डॉ. ऋषभदेव शर्मा

तेवरी – तो बहुत ग़लत हो सकता है...... – डॉ. घनश्याम बादल

लघुकथा – गलत मन्नत – विवेक मेहता

हाइकु – अभिलाषा – प्रीति अग्रवाल

पुस्तक समीक्षा – ‘अधूरा ही रहा मोहन’ (ग़ज़ल संग्रह-सुरेंद्र कुमार सैनी) – डॉ. घनश्याम बादल

संस्मरण – जब अटल जी ने नहीं दिया आशीर्वाद – माता प्रसाद शुक्ल

दिन कुछ ख़ास है !– पृथ्वी दिवस – सुरेश चौधरी

आलेख – कन्नड़ साहित्य में मूलभूत कौशल (विशेष संदर्भ दिगंबर विद्रोहिणी : अक्क महादेवी) – डॉ. सुपर्णा मुखर्जी

दिन कुछ ख़ास है !

पृथ्वी दिवस

सुरेश चौधरी

मनोरम  धवल  चन्द्र बिम्ब से,  होती सज्जित  मञ्जूषा

फेनिल लहरों में हो महि पर,  प्रतिबिंबित चमकती उषा

विजन यामिनी के जीवन का, होता  तमस अवसान भी

अरुण  जलज  के आगमन संग , हो रहा मंगल गान भी

 

शीतल तुहिन  कणों से  समुचित,  वसुंधरा थी  पटी हुई

क्षितिज़ के रक्ताभ आँचल पर,  दृश्य  रश्मियाँ डटी  हुई

एक  यवनिका  हट  जीवन  पट, खोले  नव अनुच्छेद है

नव  प्रात  के  स्वागत  में  भूल,  गयी विगत परिच्छेद है

 

एक  मौन   वेदना   धरा   पट,   संसूचित  पर   एकाकी

प्रकृति  कष्ट  दोहन  तोषण  से,  तीव्र  आघात  प्रत्याशी

सहती  मात  वसुंधरा  नित्य, धैर्य  सित  प्रवीर असितता

जीवन  निशि  अंधकार  हर, पृथ्वी    अधीर  प्रतिकता

 

व्यूष-सुधा पान को प्रफुल्लित, आतुर  स्पंदित मन हुआ

तृषित अवनि हृदय को संतृप्त,  करता जल सिंचन हुआ

आशाएं  तो  रहीं  पल्लवित,   ऊंची  द्रुम  शाखाओं  पर

धरा  सा  सहनशील   बन  चलो,   कठोर   बाधाओं  पर

 

पृथ्वी   संवाहक   पर्यावरण,   पोषक    सन्देश    प्रेषक

जल महि  वन  हर्षित  संरक्षित, कोरोना अरि उपदेशक

दृष्टि  प्रकृति  के  प्रति  बदली है, जागृत हुआ जमाना है

हरी  भरी   वसुंधरा   महके,    दृग  को  लगे   सुहाना है

 

हैं  जलचर  वनचर   हर्षाये ,  प्रफुल्लित  लौट   आये  हैं

चित्रकार  के  चित्र  सा  बना, गिरि   कानन  मुस्काये  हैं

घाट  घाट का  नीर स्फटिक  सा, समीर  मस्त रवानी है

नील  मेघ  अम्बर  दिखा रहा,  मेघ धनु  दृग  सुहानी  है

पृथ्वी दिवस प्रत्येक वर्ष, 22 अप्रैल को मनाया जाता है। पृथ्वी दिवस हमारे ग्रह के पर्यावरण की रक्षा के लिए जागरूकता बढ़ाने और कार्रवाई करने के लिए समर्पित है। मानवीय कार्यों के परिणामस्वरूप मानवजनित प्रदूषण और हानिकारक गतिविधियाँ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पृथ्वी पर एक अपूरणीय क्षति कर रही हैं। है।

पृथ्वी दिवस (Earth Day) की शुरुआत संयुक्त राज्य अमेरिका में 1970 में हुई थी और तब से यह दुनिया भर के कई देशों में होने वाली घटनाओं और गतिविधियों के साथ एक वैश्विक आंदोलन बन गया है।

पृथ्वी दिवस (Earth Day) के विचार की कल्पना एक अमेरिकी राजनीतिज्ञ और पर्यावरण कार्यकर्ता सीनेटर गेलॉर्ड नेल्सन ने की थी, जिन्होंने उस समय के बढ़ते पर्यावरणीय मुद्दों को संबोधित करने के लिए पर्यावरण जागरूकता और कार्रवाई के एक दिन की कल्पना की थी।

पहला पृथ्वी दिवस (Earth Day), 22 अप्रैल, 1970 को मनाया गया था और यह आधुनिक पर्यावरण आंदोलन में एक महत्वपूर्ण मोड़ था। इसने पर्यावरणीय संरक्षण और संरक्षण के लिए एक एकीकृत आह्वान में, इसने संयुक्त राज्य अमेरिका में विविध पृष्ठभूमि और राजनीतिक जुड़ाव से संबंधित लाखों लोगों को एक साथ लाया।

पृथ्वी दिवस की थीम नीचे दी गई है। उम्मीदवार पृथ्वी दिवस (Earth Day) की स्कीम को देख सकते हैं और पृथ्वी दिवस मनाने के पीछे का उद्देश्य जान सकते हैं। पृथ्वी दिवस के वैश्विक आयोजक Earth Day.org (EDO), ने पृथ्वी दिवस 2023 (Earth Day 2023) के लिए एक थीम की घोषणा की है, जो “हमारे ग्रह में निवेश” है। पिछले साल के अभियान की सफलता के आधार पर, यह थीम हमारे ग्रह की भलाई और स्थिरता में निवेश बढ़ाने की आवश्यकता पर बल देती है। यह सकारात्मक बदलाव लाने और आज हम जिन पर्यावरणीय चुनौतियों का सामना कर रहे हैं उनसे निपटने में निवेश की महत्वपूर्ण भूमिका पर प्रकाश डालती है। पृथ्वी दिवस (Earth Day) की इस वर्ष की थीम “हमारे ग्रह में निवेश” व्यक्तियों, समुदायों, सरकारों और व्यवसायों को प्राथमिकता देने तथा वर्तमान और भावी पीढ़ियों के लिए हमारे ग्रह की रक्षा और संरक्षण की दिशा में कार्रवाई करने का आह्वान करती है।

पहले पृथ्वी दिवस (Earth Day) की सफलता ने संयुक्त राज्य अमेरिका में पर्यावरण संरक्षण एजेंसी (EPA) के निर्माण और स्वच्छ वायु अधिनियम, स्वच्छ जल अधिनियम और लुप्तप्राय प्रजाति अधिनियम सहित कई प्रमुख पर्यावरण कानूनों के पारित होने का मार्ग प्रशस्त किया। पृथ्वी दिवस (Earth Day) ने विश्व स्तर पर पर्यावरण संगठनों और पहलों की स्थापना के लिए भी प्रेरित किया, जो अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण आंदोलन के विकास में योगदान देता है।

अपनी स्थापना के बाद से, पृथ्वी दिवस (Earth Day) प्रतिवर्ष 22 अप्रैल को मनाया जाता है और 190 से अधिक देशों की भागीदारी के साथ एक वैश्विक कार्यक्रम बन गया है। यह लोगों, समुदायों और संगठनों को एक साथ आने और पर्यावरण जागरूकता, स्थिरता और संरक्षण को बढ़ावा देने वाली गतिविधियों में संलग्न होने के लिए एक मंच के रूप में कार्य करता है। पर्यावरण के मुद्दों के बारे में जागरूकता बढ़ाने और भविष्य की पीढ़ियों के लिए हमारे ग्रह की रक्षा और संरक्षण के लिए कार्रवाई की वकालत करने में पृथ्वी दिवस (Earth Day) एक महत्वपूर्ण घटना है।

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सुरेश चौधरी

एकता हिबिसकस

56 क्रिस्टोफर रोड

कोलकाता 700046


सामयिक टिप्पणी

पहलगाम हमला : अमानुषिक, जघन्य और निंदनीय!

डॉ. ऋषभदेव शर्मा

22 अप्रैल, 2025 को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में बैसारन की खूबसूरत वादी में आतंकियों ने निर्दोष पर्यटकों पर  हमला कर दिया। कम से कम 26 लोग मारे गए, जिनमें दो विदेशी नागरिक भी शामिल थे। अनेक घायल हुए। लश्कर-ए-तैयबा से जुड़े ‘द रेसिस्टेंस फ्रंट’ (टीआरएफ) के आतंकियों का यह क्रूर, अमानुषिक, जघन्य और निंदनीय हमला न केवल आम लोगों पर हमला है, बल्कि कश्मीर की शांति, पर्यटन और भारत के संकल्प के खिलाफ गहरी साजिश का सूचक है। यही वजह है कि हर ओर कायरतापूर्ण हमले की कड़ी निंदा और पीड़ितों के लिए न्याय की माँग की आवाज़ें उठ रही हैं।

कहना न होगा कि आतंकियों ने इस हमले का समय बहुत शातिराना ढंग से चुना। यह कोई इत्तिफाक नहीं है कि हमला उस समय हुआ जब अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वैंस भारत आए हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दो दिन की यात्रा पर सऊदी अरब में थे। आतंकियों ने भारत को दुनिया के सामने शर्मिंदगी में डालने की कोशिश की। साथ ही, यह हमला उस वक़्त हुआ जब कश्मीर में पर्यटन जोर पकड़ रहा है। अमरनाथ यात्रा भी शुरू होने वाली है। पर्यटकों को निशाना बनाकर आतंकी कश्मीर की अर्थव्यवस्था और शांति की छवि को नुकसान पहुँचाना चाहते हैं। खासकर 2019 में अनुच्छेद 370 हटने के बाद बनी सामान्य स्थिति को भंग करने की उनकी दुष्टतापूर्ण मंशा तो खैर जगज़ाहिर है ही।

ज़ाहिर है कि इस हमले से देशभर में शोक और गुस्से की लहर व्याप गई है। पहली बात तो यह कि इस भीषण त्रासदी ने भारत के इस दावे को और पुख्ता कर दिया है कि सीमा पार से आतंकवाद अभी भी एक बड़ी चुनौती है। पाकिस्तान से जुड़े समूहों, जैसे लश्कर-ए-तैयबा, पर शक है। चश्मदीदों ने बताया कि आतंकियों ने नाम पूछ-पूछ कर गैर-मुस्लिमों को निशाना बनाया, जिससे सांप्रदायिक तनाव फैलाने और कश्मीर की साझा संस्कृति को नुकसान पहुँचाने की कोशिश हुई। यह कश्मीर की मेहमाननवाजी के खिलाफ है। यह हमला पर्यटकों को डराने और स्थानीय रोजगार को नुकसान पहुँचाने की गहरी साजिश है।

दूसरी बात, यह हमला पहले के हमलों से अलग और बड़ा है। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने सही कहा है कि यह हाल के वर्षों में आम नागरिकों पर सबसे बड़ा हमला है। आतंकी पहले सुरक्षाबलों या प्रवासी मजदूरों को निशाना बनाते थे, लेकिन इस बार उन्होंने सैर-सपाटे और मौज-मस्ती के लिए आए पर्यटकों को चुना। पास में एक संदिग्ध गाड़ी और आतंकियों के सैन्य कपड़े मिलने से पता चलता है कि यह हमला बहुत सोच-समझकर किया गया। यह भी कहा जा रहा है कि  कहीं न कहीं सुरक्षा और खुफिया तंत्र से भारी चूक हुई है!

उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार इस हमले का  कड़ा और समझदारीभरा जवाब देगी। देना ही चाहिए! प्रधानमंत्री ने आतंकियों को सजा देने का वादा किया है, और गृह मंत्री ने तुरत-फुरत श्रीनगर में सुरक्षा समीक्षा की है। सेना और जम्मू-कश्मीर पुलिस का साझा अभियान जारी है। लेकिन सिर्फ सैन्य कार्रवाई काफी नहीं। पाकिस्तान पर चौतरफा कूटनीतिक दबाव जरूरी है। कश्मीर में पर्यटकों के लिए 24/7 हेल्पलाइन और सहायता अच्छा कदम है, लेकिन पर्यटक स्थलों और अमरनाथ यात्रा की सुरक्षा बढ़ानी होगी।

            दुनिया ने इस हमले की निंदा की है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप, इटली की प्रधानमंत्री जॉर्जिया मेलोनी और यूएई के क्राउन प्रिंस ने इस विषम घड़ी में भारत के साथ एकजुटता दिखाई है। भारत को इस समर्थन को आतंक के खिलाफ वैश्विक कार्रवाई में बदलना होगा। देश में भी सभी को दलगत आरोप-प्रत्यारोप से ऊपर उठकर एकजुटता प्रदर्शित करनी होगी।

अतंतः यही कि कश्मीर में शांति की राह मुश्किल है, लेकिन असंभव नहीं। इस त्रासदी को आतंकवाद के खिलाफ मजबूत रणनीति, नागरिकों की सुरक्षा और कश्मीर की खूबसूरती को बचाने के लिए प्रेरणा बनाना होगा।

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पहलगाम नरसंहार के बाद : सिंधु में उबाल

खूनी मंगलवार (22 अप्रैल, 2025) को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले में 26 निर्दोष पर्यटकों की हत्या ने पूरे देश को झकझोर दिया है। इस हमले की जिम्मेदारी 'द कश्मीर रेजिस्टेंस' नामक एक नए आतंकवादी संगठन ने ली है, जिसके पाकिस्तान स्थित आतंकी नेटवर्क से जुड़े होने के संकेत मिले हैं।

भारत सरकार ने इस बर्बर नरसंहार के जवाब में कई कड़े कदम उठाए हैं। एक, सिंधु जल संधि को निलंबित किया जा रहा है। 1960 में भारत और पाकिस्तान के बीच विश्व बैंक की मध्यस्थता से हुई यह संधि अब तक तीन बड़े युद्धों के बावजूद लागू रही थी। लेकिन अब भारत ने इसे अनिश्चितकाल के लिए निलंबित कर दिया है। आखिर सब्र की भी कोई तो सीमा होती है न! दो, वाघा-अटारी सीमा  बंद की जा रही है। यानी, भारत ने पाकिस्तान के साथ अपनी एकमात्र भूमि सीमा को बंद कर दिया है, जिससे दोनों देशों के बीच व्यापार और आवाजाही पर असर पड़ना स्वाभाविक है। क्या करें, हालिया नाज़ुक हालात में यह ज़रूरी हो गया था! तीन, पाकिस्तानी नागरिकों के वीजा रद्द किए जा रहे हैं। सार्क वीजा छूट योजना के तहत भारत में रह रहे पाकिस्तानी नागरिकों को 48 घंटे के भीतर देश छोड़ने का आदेश दिया गया है। भला यह कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है कि पाकिस्तान तो आतंकियों को पाले-पोसे और भारत भला पड़ोसी बना अपने सब दरवाजे खुले छोड़ दे! चार, राजनयिक संबंधों में कटौती की जा रही है। भारत ने इस्लामाबाद स्थित अपने उच्चायोग के स्टाफ को घटाया है और पाकिस्तानी रक्षा सलाहकारों को निष्कासित किया है। वरना और कब तक पानी सिर से गुजरने दिया जाए!

कहना न होगा कि सिंधु जल संधि का निलंबन एक ऐतिहासिक कदम है। यह संधि पाकिस्तान के लिए जीवनरेखा मानी जाती है, क्योंकि उसकी कृषि और जल आपूर्ति का अधिकांश हिस्सा सिंधु नदी प्रणाली पर निर्भर है। इस संधि के निलंबन से पाकिस्तान में जल संकट गहरा सकता है, जिससे उसकी अर्थव्यवस्था और समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ सकता है। भारत का यह निर्णय न केवल पाकिस्तान पर दबाव बनाने की रणनीति है, बल्कि यह भी संकेत देता है कि अब आतंकवाद के प्रति भारत की सहनशीलता समाप्त हो चुकी है। यह कदम अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भी यह संदेश देता है कि भारत अपनी सुरक्षा और संप्रभुता के मुद्दों पर कोई समझौता नहीं करेगा।

सयाने अनुमान लगा रहे हैं कि भारत के इन कदमों से भारत-पाकिस्तान संबंधों में और अधिक तनाव आ सकता है। पाकिस्तान ने भारत के इन निर्णयों की आलोचना की है और संभावित प्रतिकार की चेतावनी दी है! इससे दोनों देशों के बीच पहले से ही तनावपूर्ण संबंध और बिगड़ सकते हैं। इसके अलावा, सिंधु जल संधि का निलंबन अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी चर्चा का विषय बन सकता है। विश्व बैंक, जो इस संधि का मध्यस्थ था, और अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थाएँ इस पर प्रतिक्रिया दे सकती हैं। भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि उसके कदम अंतरराष्ट्रीय कानूनों और संधियों के अनुरूप हों।

अंततः, पहलगाम हत्याकांड न केवल एक आतंकवादी कृत्य है, बल्कि भारत की सुरक्षा और संप्रभुता पर सीधा हमला भी है। भारत की कड़ी प्रतिक्रिया यह दर्शाती है कि अब वह आतंकवाद के प्रति किसी भी प्रकार की नरमी नहीं बरतेगा। हाँ, इन कदमों के दूरगामी प्रभावों पर भी ध्यान देना आवश्यक है। भारत को अपनी रणनीति में संतुलन बनाए रखना होगा, ताकि वह आतंकवाद के खिलाफ सख्ती से कार्रवाई कर सके, साथ ही क्षेत्रीय स्थिरता और अंतरराष्ट्रीय संबंधों को भी बनाए रख सके। यह समय है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय भी आतंकवाद के खिलाफ एकजुट होकर कार्रवाई करे और ऐसे कृत्यों के लिए जिम्मेदार देशों पर दबाव डाले। भारत की यह पहल एक चेतावनी है कि अब आतंकवाद को सहन नहीं किया जाएगा, और इसके खिलाफ निर्णायक कदम उठाए जाएँगे –

उबला समुद्र शांति का, थामे न थमेगा;

इसको न और आँच दो, किस ओर ध्यान है!

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पहलगाम के घाव और अटारी का बंद दरवाज़ा!

पहलगाम की वादियों में 26 मासूमों की जान लेने वाली आतंकी आग की चिनगारियों ने हर भारतीय के दिल को छलनी कर दिया है। खून से सनी वह धरती आज केवल शोक में ही नहीं, बल्कि एक उफनते हुए रोष के सैलाब में भी डूबी है। इस दर्द के बीच भारत सरकार ने अटारी-वाघा सीमा बंद करने और सिंधु जल समझौते को स्थगित करने का कड़ा फैसला लिया। यह कदम न सिर्फ राष्ट्रीय सुरक्षा की पुकार है, बल्कि उन माँओं, बच्चों और परिवारों के आँसुओं को पोंछने की कोशिश भी, जिन्होंने अपने प्रियजनों को खोया है। लेकिन सवाल यह भी है कि इस फैसले के सामाजिक, आर्थिक, सामरिक, राजनीतिक और कूटनीतिक परिणाम क्या होंगे।

इस फैसले के औचित्य को समझने के लिए यह याद करना ज़रूरी है कि पहलगाम की त्रासदी कोई पहला घाव नहीं। बार-बार सीमा पार से प्रायोजित आतंकवाद ने भारत की धरती को लहूलुहान किया है। अटारी-वाघा, जो कभी दो पड़ोसियों के बीच दोस्ती का प्रतीक था, आज आतंक के साये में है। भारत का यह फैसला उस आक्रोश का प्रतीक है, जो उस समय हर भारतीय के सीने में धधक रहा है। यह पाकिस्तान को कड़ा संदेश है कि खून की होली खेलने वालों को अब बख्शा नहीं जाएगा।

सामाजिक दर्द को महसूस करने वाले याद दिला रहे हैं कि अटारी-वाघा की ‘बीटिंग रिट्रीट सेरेमनी’ हर शाम अमृतसर और लाहौर के लोगों को जोड़ती थी। वह डुगडुगी, वह जोश, वह देशभक्ति का ज्वार - अब सब खामोश है। स्थानीय लोग, जो इस सीमा पर पर्यटकों के भरोसे जीते थे, अब उदास हैं। फिर भी, पहलगाम में बिखरे शवों के सामने यह खामोशी ज़रूरी है। हर भारतीय जानता है कि सुरक्षा से बड़ा कोई सुख नहीं।

 

इस कठोर फैसले के आर्थिक पहलू की बात करें तो, बेशक सीमा बंद होने से दोनों देशों का व्यापार ठप होगा। पंजाब के किसान, छोटे व्यापारी और ट्रांसपोर्टर इसकी मार झेलेंगे। लेकिन क्या मासूमों के खून से सने चंद सिक्के हमें सुकून दे सकते हैं? भारत की मज़बूत अर्थव्यवस्था इस झटके को सह लेगी, पर पाकिस्तान की कमज़ोर अर्थव्यवस्था शायद इस आर्थिक चोट को इतनी आसानी से न झेल पाए। उनके लिए यह एक सबक है कि आतंक का रास्ता  आखिर सर्वनाश  के अंधे कुऍं तक पहुँचता है।

दरअसल वाघा बॉर्डर को बंद करना आतंकवाद की फैक्टरी चलाने वाले देश पाकिस्तान को भारत के चौतरफा सामरिक और राजनीतिक जवाब का अहम हिस्सा है।  यह फैसला भारत की आक्रामक रक्षा नीति का ऐलान है। सिंधु जल समझौते के स्थगन के साथ यह कदम पाकिस्तान के लिए बड़ा झटका है; जीवनरेखा का खंडित जो जाना है। घरेलू मोर्चे पर, यह कदम हर उस भारतीय को संतोष देगा, जो आतंक के खिलाफ कड़ा जवाब चाहता है। यह बात अलग है कि इससे इस इलाके में तनाव भी बढ़ जाएगा। यों, भारत को अब और सजगता से अपने कदम रखने होंगे।

रही कूटनीतिक असर की बात, तो यह कहा जा सकता है कि  वैश्विक मंचों पर भारत का यह कदम आतंकवाद के खिलाफ उसकी अटल आवाज़ को और बुलंद करेगा। अमेरिका, यूरोप जैसे देश, जो आतंक के खिलाफ हैं, भारत के साथ खड़े होंगे। लेकिन, यह भी ध्यान रखना होगा कि पाकिस्तान खीझभरी जवाबी कार्रवाइयों से बाज़ नहीं आएगा। अतः, भारत को अपनी कूटनीति को और धार देनी होगी, ताकि दुनिया हमारी पीड़ा और रोष को समझे।

कुल मिलाकर, पहलगाम के घाव गहरे हैं। हर भारतीय का दिल आज शोक और गुस्से से भरा है। अटारी-वाघा का बंद दरवाजा उस दर्द की गूँज है, जो हमें बार-बार निर्दोष पर्यटकों के खून की कीमत वसूलने को मजबूर करतीर है। यह फैसला सही है, क्योंकि भारतमाता के बच्चों का खून सस्ता नहीं। अब वक़्त है कि भारत एकजुट होकर  अपनी ताकत और कूटनीति से दुनिया को बताए कि हम शांति चाहते हैं, पर कमज़ोर नहीं हैं।

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डॉ. ऋषभदेव शर्मा

सेवा निवृत्त प्रोफ़ेसर

दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा

हैदराबाद



आलेख

 


एक भारतीय आत्मा – पंडित माखन लाल चतुर्वेदी

सुरेश चौधरी

यस्तु सञ्चरते देशान् यस्तु सेवेत पण्डितान् ।

तस्य विस्तरिता बुद्धिः तैलबिन्दुरिवाम्भसि ॥

- समयोचितपद्यमालिका

जैसे तेल की एक बूँद भी जल में फ़ैल जाती है वैसे ही विद्वत की विद्वत्ता और विश्व भ्रमण करने वले का अनुभव छिपा नहीं रहता, फैलता है ।

उक्त कथोक्ति बिल्कुल सटीक बैठती है पंडित माखन लाल  चतुर्वेदी जी पर। उनकी विद्वता की सुरभि कुछ यूँ फैली की छायावाद ने राष्ट्रवाद से समन्वय कर नया रूप दे दिया।

छायावाद  कल्पनाप्रधान, भावोन्मेषयुक्त कविता है भाषा और भाव के अतिरेक को कैसे प्रतीकों के रहस्य से बुना जाता है यह गुण रवींद्रनाथ ठाकुर की गीतांजली से ले छायावाद  प्रभावित हुआ । यह प्राचीन संस्कृत साहित्य (वेदों, उपनिषदों तथा कालिदास की रचनाओं) और मध्यकालीन हिंदी साहित्य (भक्ति और श्रृंगार की कविताओं) से भी प्रभावित हुई। छायावादयुग उस सांस्कृतिक और साहित्यिक जागरण का सार्वभौम विकासकाल था जिसका आरंभ राष्ट्रीय परिधि में भारतेंदुयुग से हुआ था। छायावाद के बारे में आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते हैं , 1918 से 1936 का समय प्रखर छायावाद का युग रहा। छायावाद के प्रवर्तक मुकुट बिहारी पांडे थे तो इसे शीर्षस्थ पर ले जाकर राष्ट भावना से जोड़ने का शक्तिशाली कार्य पंडित माखन लाल चतुर्वेदी ने किया।

मुझे याद है मैं कक्षा आठ का विद्यार्थी था तब इनकी रचना पुष्प की अभिलाषा पढ़ी थी जिसमें एक पुष्प के माध्यम से राष्ट्र हेतु सर्वोच्च बलिदान की महिमा बताई गयी थी। रहस्यवाद, प्रतीकवाद का इससे सुंदर उदाहरण क्या हो सकता है।

चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ,

चाह नहीं, प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ,

चाह नहीं, सम्राटों के शव पर हे हरि, डाला जाऊँ,

चाह नहीं, देवों के सिर पर चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ।

मुझे तोड़ लेना वनमाली! उस पथ पर देना तुम फेंक,

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जावें वीर अनेक

हिंदी साहित्य के ख्यातिप्राप्त कवि, लेखक और पत्रकार पंडित माखनलाल चतुर्वेदी एक महान स्वतंत्रता सेनानी भी थे।उनका नाम छायावाद की उन हस्तियों में से एक है जिनके कारण वह युग और भी विशेष हो गया। इस युग के कवि खुद को कुदरत और प्रकृति के करीब महसूस करते थे और इसी के ओत-प्रोत लिखते थे।

राजनैतिक यात्रा

इनका रजनैतिक सफर कैसे आरंभ हुआ यह भी रोचक वृतांत है :

माखनलाल चतुर्वेदी का तत्कालीन राष्ट्रीय परिदृश्य और घटनाचक्र ऐसा था जब लोकमान्य तिलक का उद्घोष- 'स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है' क्रांति कारियों  का प्रेरणास्रोत बन चुका था। दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह के अमोघ अस्त्र का सफल प्रयोग कर मोहनदास करमचंद गाँधी का राष्ट्रीय परिदृश्य के केंद्र में आगमन हो चुका था। आर्थिक स्वतंत्रता के लिए स्वदेशी का मार्ग चुना गया था, सामाजिक सुधार के अभियान गतिशील थे और राजनीतिक चेतना स्वतंत्रता की चाह के रूप में सर्वोच्च प्राथमिकता बन गई थी।

पत्रकारिता एवं राष्ट्र चेतना

माधवराव सप्रे संग्रहालय के संस्थापक विजय दत्त श्रीधर का कहना है कि “79 वर्षीय जीवन के सुदीर्घ 46 साल दादा ने पत्रकारिता को समर्पित किए। माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता का समारंभ 1907 में तब हुआ जब वे खंडवा में अध्यापक थे। एक हस्तलिखित पत्रिका निकाली-'भारतीय विद्यार्थी,' जिसने सुधीजनों का खासा ध्यान आकर्षित किया। 1908 में माधवराव सप्रे द्वारा सुसंपादित 'हिन्दी केसरी, की 'राष्ट्रीय आंदोलन और बहिष्कार' शीर्षक से निबंध प्रतियोगिता का प्रथम पुरस्कार दादा को मिला और यहीं से माधवराव सप्रे और दादा के बीच गुरु-शिष्य का जो रिश्ता कायम हुआ, वह अंतिम श्वासों तक न केवल बरकरार रहा, बल्कि एक पत्रकार के रूप में दादा के यश-सौरभ का बीच बिंदु भी बना, यद्यपि दोनों की प्रत्यक्ष भेंट 1911 में हो सकी। खंडवा के वकील कालूराम गंगराड़े ने 7 अप्रैल, 1913 को हिंदी मासिक 'प्रभा' का प्रकाशन आरंभ किया, तब दादा ही उसके संपादक बनाए गए। माखनलालजी को मानो अपना मार्ग मिल गया। 26 सितंबर, 1913 को दादा ने अध्यापक की नौकरी से किनारा कर लिया और यहीं से पूर्णकालिक पत्रकारिता का उनके जीवन का दुर्गम किंतु प्रखर अध्याय प्रारम्भ हो गया। दादा की पत्रकारिता के तेवर 'कर्मवीर' (1920 ) से भी पहले 'प्रभा' में ही बेबाकी के साथ मुखर हो उठे थे। भाषा, भाव और संकल्प की यह ताजगी और रवानी अंत तक दादा की पत्रकारिता की अकूत निधि बनी रही। 1915 में 'प्रभा' के प्रकाशन में व्यवधान आ गया। लेकिन इस वर्ष दादा के खजाने में बंधुता का एक दुर्लभ रत्न आ जुड़ा- श्री गणेश शंकर विद्यार्थी के रूप में, जो कानपुर से तेजस्वी 'प्रताप' निकाल रहे थे। उन्हीं ने 1920 में 'प्रभा' का कानपुर से पुनर्प्रकाशन  किया और इसी वर्ष जबलपुर में 'कर्मवीर' का प्रकाशन हुआ।“

कानपुर से गणेश शंकर विद्यार्थी ने 'प्रताप' का संपादन-प्रकाशन आरंभ किया। १९१६ के लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन के दौरान माखनलालजी ने विद्यार्थीजी के साथ मैथिलीशरण गुप्त और महात्मा गाँधी से मुलाकात की। महात्मा गाँधी द्वारा आहूत सन १९२० के 'असहयोग आंदोलन' में महाकोशल अंचल से पहली गिरफ्तारी देने वाले माखनलालजी ही थे। सन १९३० के सविनय अवज्ञा आंदोलन में भी उन्हें गिरफ्तारी देने का प्रथम सम्मान मिला। इस तरह वे एक छायावादी राष्ट्रीय चेतन के कवि से स्वतंत्रता संग्राम के वीर सिपाही बने।

इसलिए उनका एक उपनाम ‘एक भारतीय आत्मा’ भी पड़ गया था। उन्होंने अपनी लेखनी को अंग्रेज़ों के खिलाफ़ हथियार के तौर पर इस्तेमाल  किया था।

माखन लाल चतुर्वेदी के काव्य संसार पर शोधकर्ता और कर्मवीर विद्यापीठ खंडवा के निदेशक संदीप भट्ट बताते हैं कि माखनलाल चतुर्वेदी जी के पुण्यस्मरण पर उनके साहित्य और पत्रकारिता के गौरवशाली इतिहास से गुजरना अतुल्य अनुभव है। देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, इसे हासिल करने में स्वाधीनता सेनानियों का अतुलनीय योगदान है। ऐसे ही एक महानायक पंडित माखनलाल चतुर्वेदी भी थे। उन्होंने लेखन और पत्रकारिता में देशभक्ति को सर्वोच्च स्थान दिया। वे अकेले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने गांधी और क्रांति को साथ लेकर चले। पराधीन भारत में देशवासियों से गुलामी के विरोध में एकजुट होकर लडऩे का सतत आग्रह किया। उनका समाचार पत्र 'कर्मवीर' आज भी पत्रकारिता और मीडिया जगत का आदर्श स्तंभ है। उनकी पत्रकारिता और लेखनी अपने सर्वोच्च मानदंडों से हमारा मार्ग प्रशस्त करती है। कर्मवीर के पुन: प्रकाशन पर उन्होंने आह्वान किया, 'आइए, गरीब और अमीर, किसान और मजदूर, उच्च और नीच, जीत और पराजित के भेदों को ठुकराइए। प्रदेश में राष्ट्रीय ज्वाला जगाइए और देश तथा संसार के सामने अपनी शक्तियों को ऐसा प्रमाणित कीजिए, जिसका आने वाली संतान स्वतंत्र भारत के रूप में गर्व करें। वे कू्रर और तानाशाह अंग्रेज सरकार से निडर होकर देशभक्ति के कार्यों में अग्रणी रहे। आज देश में स्वराज है। हम आजाद हैं, लेकिन उनके विचार, संपादकीय टिप्पणियों मे व्यक्त दर्शन नई पीढ़ी के लिए आज अधिक प्रासंगिक है। दादा के राष्ट्र और समाज के कल्याण, उन्नति के प्रति व्यक्त विचारों को आज आत्मसात करें तो देश की अनगिनत समस्यों का सहज समाधान मिल जाएगा। नैतिक, सामाजिक, मानवीय संवेदनाओं से भरे मूल्यों तथा अगाध देशप्रेम के विचारों को हर भारतीय को जीवन में उतारना चाहिए।

मुख्य मंत्री पद को नकारना और सम्मान लौटाना

स्वाधीनता के बाद जब मध्य प्रदेश नया राज्य बना तो उनका नाम पहले मुख्यमंत्री के तौर पर प्रस्तावित हुआ। सबने उन्हें इस बात की सूचना दी और बधाई भी दी कि अब आपको मुख्यमंत्री के पद का कार्यभार संभालना है। अलबत्ता इस प्रस्ताव पर माखनलाल जी की प्रतिक्रिया कुछ अलग ही थी। उन्होंने सबको लगभग डांटते हुए कहा कि मैं पहले से ही शिक्षक और साहित्यकार होने के नाते ‘देवगुरु’ के आसन पर बैठा हूँ।

मेरी पदावनति करके तुम लोग मुझे ‘देवराज’ के पद पर बैठाना चाहते हो, जो मुझे सर्वथा अस्वीकार्य है। उनकी असहमति के बाद रविशंकर शुक्ल नवगठित प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री बने। ‘पुष्प की अभिलाषा’ जैसी प्रसिद्ध कविता के रचयिता माखनलाल जी न सिर्फ शब्दों से बल्कि अक्षर जीवन मूल्यों से समकालीनों के साथ बाद के दौर के साहित्यकारों के भी पूज्य आदर्श रहे हैं। उनकी अक्षर स्मृति आज भी राष्ट्र निर्माण और साहित्य के क्षेत्र में कार्य कर रहे लोगों को प्रेरणा देती है।

जीवन परिचय

माखनलाल चतुर्वेदी का जन्म 4 अप्रैल 1889 को होशंगाबाद से 14 मील दूर बाबई गाँव में हुआ था। उनके पिता श्री नंदलाल चतुर्वेदी प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक थे। पं. नंदलाल एक साहसी और स्वाभिमानी व्यक्ति थे, जिसने उनके पुत्र माखनलाल को प्रभावित किया। उनके पिता की अचानक मृत्यु हो गई, और माखनलाल की शिक्षा और देखभाल की जिम्मेदारी उनकी सात्त्विक माता श्रीमती सुकर बाई पर आ गई। “बाबाई” जैसी छोटी बस्ती में शिशु माखनलाल की शिक्षा और दीक्षा के लिए एक अच्छा ढांचा नहीं हो सकता था। परिणामस्वरूप, माँ ने अपने पुत्र के प्रति लगाव को भूलकर उसे “सिमरनी” शहर में उनके मौसी के पास भेज दिया।

सिमरनी में पले-बढ़े माखनलाल ने लगभग 10 वर्षों तक शिक्षा प्राप्त की और वहीं उन्होंने कविता लेखन की पहली प्रेरणा प्राप्त की। उन्हें बचपन से ही तुकबंदी पसंद थी। परिणामस्वरूप, तुकबंदी करते समय उनकी काव्यात्मक प्रवृत्तियों में वृद्धि हुई। हालाँकि, उन्होंने अपने जन्मजात आदर्शों के परिणामस्वरूप स्व-अध्ययन द्वारा अपने ज्ञान के आधार को बढ़ाया।

माखनलाल चतुर्वेदी जी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने ही गांव के एक प्राथमिक विद्यालय से प्राप्त की थी। अपनी प्रारंभिक शिक्षा को समाप्त करने के बाद श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी संस्कृत, बांग्ला अंग्रेजी, गुजराती और ऐसी ही अनेकों प्रकार की भाषाओं का अध्ययन किया। माखनलाल चतुर्वेदी जी ने इन भाषाओं का अध्ययन किसी विद्यालय यूनिवर्सिटी में जाकर के नहीं प्राप्त किया, उन्होंने यह शिक्षा घर पर ही अपनी कड़ी मेहनत और लगन के साथ प्राप्त की थी।

विवाह

उन्होंने 1904 ई० में 15 साल की उम्र में ग्यारसी बाई से शादी की। उन्हें 1905 ई० में बंबई के निकट एक देहात “मसन” में एक शिक्षक के रूप में नियुक्त किया गया था। उन्हें बचपन से ही देश की धरती से विशेष लगाव था। यही कारण है कि जब वे इंटरमीडिएट की परीक्षा देने जबलपुर गए तो क्रांतिकारी युवाओं से उनका जुड़ाव रहा। वह तब से बंदूकें, विस्फोटक और अन्य हथियारों को छिपाने और परिवहन में उनकी सहायता किया करते थे। 1906 ई० में कलकत्ता कांग्रेस में शामिल होने पर माखनलाल जी ने लोकमान्य तिलक की सुरक्षा के लिए कलकत्ता की यात्रा की। वहाँ से वापस जाते समय काशी में उनकी मुलाकात क्रांतिकारी नेता देवसकर से हुई। इसके परिणामस्वरूप क्रांतिकारियों के साथ उनकी बातचीत बढ़ी और उनके संबंधों का दायरा बढ़ गया था।

माखनलाल जी अपने परिवार को पर्याप्त समय नहीं दे सके क्योंकि वे दिन-रात साहित्य और राजनीति में व्यस्त रहते थे। उसका दिन काम से भरा था, और वह ज्यादातर रात पढ़ाई में बिताते थे। अपनी व्यस्त जीवन शैली के कारण वे अपने जीवन साथी ग्यारसी-बाई पर ध्यान नहीं दे पा रहे थे। ग्यारसी बाई यहां राजयक्ष्मा की शिकार हो गईं और एक दिन चिर निद्रा में हमेशा के लिए सो गईं। माखनलाल जी को उनकी वास्तविक स्थिति तब समझ में आई जब उन्हें बचाया नहीं जा सकता था। इससे माखनलाल जी को बहुत दुख हुआ।

चतुर्वेदी जी के जीवनीकार बसआ का कहना है

'दैन्य और दारिद्रय की जो भी काली परछाई चतुर्वेदियों के परिवार पर जिस रूप में भी रही हो, माखनलाल पौरुषवान सौभाग्य का लाक्षणिक शकुन ही बनता गया।'

इनका परिवार राधावल्लभ सम्प्रदाय का अनुयायी था, इसलिए स्वभावत: चतुर्वेदी के व्यक्तित्व में वैष्णव पद कण्ठस्थ हो गये। प्राथमिक शिक्षा की समाप्ति के बाद ये घर पर ही संस्कृत का अध्ययन करने लगे। इनका विवाह पन्द्रह वर्ष की अवस्था में हुआ और उसके एक वर्ष बाद आठ रुपये मासिक वेतन पर इन्होंने अध्यापकी शुरू की।

भारत की स्वतंत्रता के बाद भी उन्होंने पत्रकारिता नहीं छोड़ी, बल्कि उन्होंने साहित्य और पत्रकारिता से जुड़े रहने के लिए मध्य-प्रदेश के मुख्यमंत्री का पद ठुकरा दिया था। उनके प्रमुख कार्य हैं- ‘वेणु ले, गूंजे धरा,’ ‘हिम किरीटनी,’ ‘हिम तरंगिनी,’ ‘युग चरण,’ ‘साहित्य देवता,’ ‘दीप से दीप जले,’ ‘कैसा छन्द बना देती है,’ ‘पुष्प की अभिलाषा’ आदि हैं।

साल 1943 में उस समय का हिन्दी साहित्य का सबसे बड़ा ‘देव पुरस्कार’ चतुर्वेदी को ‘हिम किरीटिनी’ के लिए दिया गया था। इस के बाद साल 1954 में साहित्य अकादमी पुरस्कारों की स्थापना होने पर हिन्दी साहित्य के लिए प्रथम पुरस्कार उनको ‘हिम तरंगिनी’ के लिए प्रदान किया गया था।

पुष्प की अभिलाषा’ और ‘अमर राष्ट्र’ जैसी ओजस्वी रचनाओं के रचयिता इस महाकवि को सागर विश्वविद्यालय ने 1959 में डी.लिट्. की मानद उपाधि से विभूषित किया। साल 1963 में भारत सरकार ने ‘पद्मभूषण’ से अलंकृत किया। इतना ही नहीं, साल 1965 में मध्यप्रदेश शासन की ओर से खंडवा में ‘एक भारतीय आत्मा’ माखनलाल चतुर्वेदी के नागरिक सम्मान समारोह का आयोजन किया गया।

माखनलाल चतुर्वेदी जी की रचनाओं में भाषा शैली

श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी ने अपनी लेखन विधाओं में एक नई शैली का उपयोग किया श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी की इस शैली को छायावाद युग का नव छायावाद युगीन शैली कहा जाता है। उन्होंने अपनी इस शायरी का उपयोग करके छायावाद युग के आयाम को स्थापित किया।

माखनलाल चतुर्वेदी जी ने इसी शैली में में अपनी कुछ रचनाएं लिखी है, इनकी यह रचनाएं काफी प्रसिद्ध हुई क्योंकि इनकी कविताओं में एक नई शैली का प्रयोग हुआ था, जिसके कारण यह लोगों के द्वारा काफी पसंद की जाने लगी। श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी की अमर राष्ट्र कविता तो हिंदी साहित्य की अमर कविता भी माने जाने लगी, क्योंकि इस कविता ने युगो युगांतर तक को प्रेरित किया है।

श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी का हिंदी साहित्य में योगदान

श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी ने हिंदी साहित्य के विकास में काफी योगदान दिया क्योंकि उन्होंने छायावाद युग में अनेकों प्रकार की रचनाओं को प्रकाशित किया, जिसके कारण उन्होंने हिंदी साहित्य में एक नई निव रखी। श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी की कुछ महत्वपूर्ण रचनाएं, प्रकाशन के क्रम में:

          कृष्णार्जुन युद्ध (1918)

          हिमकिरिटनी (1941)

          साहित्य देवता (1942)

          हिम तरंगिणी (1949)

          माता (1952)

यह कविताएँ पत्रिकाओं के साथ प्रकाशित हुई थी जो कि काफी प्रसिद्ध हुई, इसके अलावा महाकवि माखनलाल चतुर्वेदी जी ने कुछ अन्य कविताएँ भी लिखी है।

          आज नयन के बंगले में

          उस प्रभात तू बात न मानी

          हमारा राष्ट्र

          कुंज कुटिरे यमुना तीरे

          अंजली के फूल गिर जाते हैं

          किरणों की शाला बंद हो गई चुप चुप

          गाली में गरिमा घोल घोल

          इस तरह ढक्कन लगाया रात में

माखनलाल चतुर्वेदी जी को प्राप्त पुरस्कार

          श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी को वर्ष 1983 से समय में देव पुरस्कार प्रधान कराया गया था यह पुरस्कार माखनलाल चतुर्वेदी जी को हिमकिरीटनी के लिए दिया गया था।

          वर्ष 1959 में पुष्प की अभिलाषा और अमर राष्ट्र के लिए माखनलाल चतुर्वेदी जी को महाकवि के कृतित्व को सागर विश्वविद्यालय में डि.लीट. के मानद उपाधि से विभूषित किया गया था।

          श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी को वर्ष 1954 में साहित्य अकादमी पुरस्कार के साथ सम्मानित किया गया था। साहित्य अकादमी पुरस्कार सर्वप्रथम माखनलाल चतुर्वेदी जी को ही दिया गया था।

          श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी को वर्ष 1965 में 16 जनवरी को श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी को नागरिक सम्मान समारोह में आमंत्रित किया गया। इस समारोह में श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी को आमंत्रित करने के लिए मुख्य निमंत्रण दिया गया था।

          श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी को वर्ष 1963 में भारत सरकार के द्वारा पद्म विभूषण द्वारा सम्मानित भी किया गया था।

माखनलाल चतुर्वेदी जी की मृत्यु

भारतवर्ष के महान कवि और स्वतंत्रता सेनानी माखनलाल चतुर्वेदी जी का देहांत वर्ष 1968 को 30 जनवरी को हुआ था। जिस समय माखनलाल चतुर्वेदी जी की मृत्यु हुई थी, उस समय वह केवल 79 वर्ष के थे। लोग माखनलाल चतुर्वेदी जी को इतना पसंद करने लगे थे कि लोग इनसे इस अवस्था में भी लेखन की कल्पना कर रहे थे।

धरोहर

हिंदी साहित्य को उनके दिए गए योगदान के कारण माखनलाल चतुर्वेदी के सम्मान में बहुत सी यूनिवर्सिटी ने विविध अवार्ड्स के नाम उनके नाम पर रखे हैं. मध्य प्रदेश सांस्कृतिक काउंसिल द्वारा नियंत्रित मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी देश की किसी भी भाषा में योग्य कवियों को “माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार” देती हैं. पंडितजी के देहांत के 19 वर्ष बाद 1987 से यह सम्मान देना शुरू किया गया। भोपाल, मध्य प्रदेश में स्थित माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय पूरे एशिया में अपने प्रकार का पहला विश्व विद्यालय हैं। इसकी स्थापना माखनलाल चतुर्वेदी जी के राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम में पत्रकारिता और लेखन के द्वारा दिए योगदान को सम्मान देते हुए 1991 में हुई। भारत के पोस्ट और टेलीग्राफ डिपार्टमेंट ने भी पंडित माखन लाल चतुर्वेदी को सम्मान देते हुए पोस्टेज स्टाम्प की शुरुआत की।  यह स्टाम्प पंडितजी के 88वें जन्मदिन 4 अप्रैल 1977 को ज़ारी किया गया था।

उन्हें अपने जीवन में आर्थिक रूप से बहुत संघर्ष करना पड़ा। किंतु उनका मनोबल उनके जीवन के अंत तक कम नहीं हुआ। शरीर के थके होने पर भी उन्होंने अपने मन को तरोताजा रखा। चतुर्वेदी की सांसों की पहली और आखिरी ताकत भावनाओं की यौवन थी। उनमें यौवन का जोश था। उनका जुनून बच्चों के लिए प्रेरणादायी था। 30 जनवरी 1968 ई० को उन्होंने अपने खंडवा स्थित घर में जीवन की कठिनाइयों का सामना करते हुए अपना प्राण त्याग दिया।


सुरेश चौधरी

एकता हिबिसकस

56 क्रिस्टोफर रोड

कोलकाता 700046

जुलाई 2025, अंक 61

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