गीतिका छंद
1
अम्मा
डॉ. अनिल कुमार बाजपेयी 'काव्यांश'
क्यूँ न जाने
भगवती को,
देख नैना भर
गए।
याद अम्मा आ गई
बस,
अश्रु से फिर
तर गए।।
आपकी ही भाँति
वो भी,
सादगी का रूप
थीं।
छाँव थी वो बरगदों
की,
शीत ऋतु की धूप
थीं।।
सूत की साड़ी
लपेटे,
आस्था का पुंज थीं।
फूल-सी कोमल
सुगंधित,
मोगरे का कुंज
थीं।।
दीपिका थीं
आरती की,
लक्ष्मी सम मुख
लिए।
दुःख झेले थे
उमर भर,
पर हमें सब सुख
दिए।।
पढ़ नहीं पायीं
मगर थी,
दुःख पढ़ना
जानतीं।
जो छुपा लेते
नयन उन,
अश्रु को
पहचानती।।
देखकर मुख भाव
मुद्रा,
थीं समझतीं पीर
को।
लाख हँसते हम
मगर वो,
भाँप लेतीं नीर
को।।
***
रोला छंद
2
सत्य बात
साँझ सकारे बोल,
राम सिय हनुमन हनुमन।
सुधरेगा परलोक,
रहेगा
सुखमय तन-मन।।
जीवन का
आधार,
राम जी
को ही मानो।
बिना ईश-आशीष,
नहीं कुछ मिलना जानो।।
जो देता है दान,
वही है पुण्य कमाता।
जो करते
परमार्थ,
उन्हीं को देता
दाता।।
कर मत कभी
प्रपंच,
सदा यह उल्टा
पड़ता।
जो बोते
हैं शूल,
उन्हीं पाँवों
में गड़ता।।
3
पत्र
शोर डाकिये का
सुनकर जब,
दौड़े दौड़े जाते थे ।
दरवाजे की
झिर्री पर तब,
पत्र पड़ा इक पाते थे ।।
कौन इसे पहले
ले लेगा,
दौड़ लगा गिर पड़ते थे ।
पत्र फाड़ने के
पहले ही,
झाँक झाँक के पढ़ते थे ।।
किसकी चिठ्ठी
है ये आखिर,
तब माताजी चिल्लाती ।
अपना चश्मा
पोंछ-पोंछ कर,
भागी-भागी थी आती ।।
लगती है मामा
की चिठ्ठी,
वो अंदाज लगाती थी ।
वही एक तो
लिखते हैं अब,
अपना दर्द बताती थी ।।
कभी कभी मुखड़ा
मुस्काता,
कभी कभी आँसू झरते ।
मन ही मन में
हम सब बच्चे,
खबर पूछने से डरते ।।
सिसक सिसककर
फिर माताजी,
हम सबको थी बतलाती ।
नहीं रहे अब
मामा बेटा,
कह यादों में खो जाती ।।
आज घरों के
दरवाजे पर,
कहाँ डाकिया आते हैं ।
बिन सम्बंधों
के वैसे भी,
काम सभी हो जाते हैं ।।
पर अब भी वो
पत्र लिफाफे,
रह रह याद दिलाते हैं ।
काका काकी चाचा
चाची,
ये भी रिश्ते नाते हैं ।।
डॉ. अनिल कुमार बाजपेयी 'काव्यांश'
जबलपुर
तीन भाव भूमियों की तीन सहज कविताएँ, अम्मा भाव-लोक में ले जाती हैं, सत्य भक्ति लोक में प्रवेश कराती हैं वहीं पत्र अतीत के गलियारों की यात्रा कराते हुए आनंद की अनुभूति कराती है। हार्दिक बधाई डॉ. अनिल काव्यांश जी। 💐💐
जवाब देंहटाएंसादर आभार आ शिव जी 🌹🌹🌹🌹🌹🙏🌹🙏
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