बुधवार, 30 अप्रैल 2025

पुस्तक समीक्षा

भीड़तंत्र से लोकतंत्रीय दृष्टि की ओर ले जाती पुस्तक ‘रामायण में जनप्रिय शासन’

डॉ. सुषमा देवी

भारतीय ज्ञान परंपरा के आलोक में रामायणकालीन शासन व्यवस्था को लेखिका द्वारा विविध धरातल पर विवेचित किया गया है ।  प्राचीन शासन व्यवस्था के चिंतन का विवेचन करते हुए लेखिका ने राम के मर्यादा स्वरूप को विस्तारपूर्वक विवेचित करते हुए शासन का स्वरूप न्यायप्रिय राजा के द्वारा स्थापित होते हुए दिखाया है ।  उन्होंने भारत की राजतंत्रीय प्रणाली के मूल में लोकतंत्र को पल्लवित होते हुए दिखाया है ।  वाल्मीकि रामायण के महत्व को प्रतिपादित करते हुए लेखिका इसे भारत ही नहीं, अपितु विश्व साहित्य के सर्वोत्तम महाकाव्य के रूप में प्रतिष्ठापित करती हैं ।  इसमें आर्य संस्कृति के गौरव राम के उज्ज्वल चरित्र की वृहद व्याख्या की गई है ।  जहाँ ‘रामायण’ में राजनीति, धर्मनीति तथा शासन नीति की विस्तृत व्याख्या की गई है, वहीं तुलसीकृत ‘रामचरितमानस’ में शासन तथा राजनीति से अधिक भक्ति का गहन प्रतिपादन हुआ है ।  भारतीय जीवन दर्शन में चार पुरुषार्थों में धर्म को सर्वोपरि स्थान दिया गया है ।  धर्म को शासन के मूल रूप में रखते हुए रामायण काल में धर्म के लिए शासन किए जाने का चित्रण हुआ है ।  यही कारण है कि शासन-व्यवस्था जन-जन के कल्याणार्थ समर्पित रही है ।  धर्म तत्व की रक्षा के लिए ही राम कौशल्या से कहते हैं -

‘नहीं धर्मः पूर्वं ते प्रतिकूलं प्रवर्तते ।

पूर्वेश्यमभिप्रेतो गतो मार्गोनुगम्यते।’

(रामायण में जनप्रिय शासन, डॉ. सुरभि दत्त, पृष्ठ-52)

लेखिका द्वारा राजपद के महत्व को विवेचित करते हुए उसका निरूपण इस प्रकार किया गया है- राजा को यम  के समान दंड धारण करते हुए, कुबेर के समान समृद्धि का कारक तथा वरुण के समान प्रजा पर  कल्याण वर्षा करते हुए इंद्र के समान प्रजा का अपनी संतान की भांति पालन करने वाला होना चाहिए ।  

लेखिका की गहन अध्ययन दृष्टि की परिचायक यह पुस्तक उनके इस विचार से पोषित है – ‘शासन वही सुशासन है, जहाँ राजा धर्म में स्थित रहता है और प्रजा भी धर्मपरायण होती है ।  कोई किसी का शोषण नहीं करता, सभी एक-दूसरे के पोषक, रक्षक और हितचिंतक होते हैं । ’

रामायणकालीन शासन की जनप्रियता को कालिदास की कृति ‘रघुवंश’ महाकाव्य में भी उद्धृत किया गया है -

‘प्रजानां विनायधान द्रक्षणाद भरणादपि

स पिता पितरस्तासां केवलं जन्महेतवः। ’

(रघुवंश महाकाव्य, कालिदास, 1.8)

राजपद का लक्ष्य प्रजा का रंजन, प्रसन्नता तथा उनके कल्याण से जुड़ा होता है ।  यहाँ तक कि  दंडकारण्य में पहुँचने के बाद सीता राम से यही कहती है कि- राम राक्षसों का बिना बैर के संहार न करें तथा अपने क्षत्रिय धर्म का पालन संकट में घिरे प्राणियों की रक्षा के लिए करें ।  रामायण काल में धर्म को राजा से भी ऊँचा स्थान प्रदान किया जाता था ।  राजपद का उपयोग राजा द्वारा धर्म और न्यायपूर्ण शासन व्यवस्था के लिए कठोरता और कोमलता दोनों ही धारण करने की अपेक्षा की जाती थी।  

रामायणकालीन शासन व्यवस्था की कल्याणकारी नीतियों के संदर्भ में पाश्चात्य विद्वान ग्रिफ़िथ ने रामायण के पद्य अनुवाद में राम की धर्म पर आधारित शासन व्यवस्था का उल्लेख करते हुए लिखा है-

‘राम के शासन में व्याधि और अकाल की स्थिति कभी नहीं आयी।  जनता सुखी और प्रसन्न थी ।’ 

(रामायण में जनप्रिय शासन, डॉ. सुरभि दत्त, पृष्ठ-89)

रामायणकालीन न्याय व्यवस्था का स्वरूप अत्यंत व्यापक था ।  राजा जनता ही नहीं, जीव मात्र के प्रति करुणार्द्र रहता था ।  सुग्रीव की पत्नी तारा को बलपूर्वक जब बाली अपने महल में रखता है, तो राम उसे दंडित करते हुए स्मृतियों का उदाहरण देते हुए कहते हैं-

‘मनु ने राजोचित सदाचार का प्रतिपादन करते हुए कहा है चोर आदि पापी पुरुष राजा से प्राप्त दंड से पाप मुक्त हो जाते हैं, किंतु राजा यदि पापी को उचित दंड नहीं देता, तो वह स्वयं पाप का फल भोगता है। ’  

(रामायण में जनप्रिय शासन, डॉ. सुरभि दत्त, पृष्ठ-94-95)

रामराज्य में जनता अपने-अपने धर्म का पालन करते हुए कर्मरत थी, साथ ही धर्म, अर्थ तथा काम पुरुषार्थों की प्राप्ति में सभी निमग्न रहते थे, सभी निर्भय होकर जीवन का आनंद लेते थे। लेखिका ने रामायणकालीन न्याय व्यवस्था की सूक्ष्मतम व्याख्या करते हुए राजा के लिए त्याज्य विषयों का वृहद उल्लेख किया है । जब शासन व्यवस्था विवेकशील लोगों की उचित मंत्रणा से की जाती है ।  शासन नीति पर स्वेच्छाचारिता का प्रभाव नहीं पड़ता है ।  वाल्मीकि रामायण में परिषद, समिति और संसद, इन तीन शब्दों का प्रयोग किया गया है ।   परिषद के सदस्य राज्य के प्रतिष्ठित विद्वान होते थे ।  इन्हें युवराज के चयन, युद्ध तथा शांति के निर्णय आदि के संबंध में अपने विचार स्वतंत्रतापूर्वक व्यक्त करने के अधिकार थे   सभा के प्रधान पद पर राजा होते थे, किंतु उनकी अनुपस्थिति में पुरोहित प्रधान बनता था ।  राज्य की भलाई के कार्य के लिए नियुक्त मंत्रियों के कर्तव्य का वाल्मीकि ने अत्यंत विस्तार से उल्लेख किया है -

‘उनका कर्तव्य है कि कोष खाली न हो, निष्पक्ष न्याय हो, मंत्री युद्ध और शांति नीति के ज्ञाता हो, अपनी बुद्धि के बल पर सही परामर्श दें ।  नीतिशास्त्र और आत्म-तत्व के ज्ञाता हो, उसमें कुशल हो । ’ (रामायण में जनप्रिय शासन, डॉ. सुरभि दत्त, पृष्ठ-121)

शासन नीति की सुचारू व्यवस्था की स्थापना में कभी-कभी शांति के लिए युद्ध का मार्ग अपनाना पड़ता है ।  युद्ध के लिए सेना की आवश्यकता होती है, अतः वाल्मीकि ने पाँच प्रकार की सेना का उल्लेख किया है, जिसमें मित्र बल (मित्र राजाओं की सेना), अटवी बल (वन्य जनों की सेना), मौल बल (क्षत्रिय वर्ग की सेना), भृत्य बल (वेतन पर भर्ती सेना), द्विषद बल (शत्रु सेना के भागे हुए सैनिक) आदि ।  रामायण काल में आज की तरह ‘सैंपर्स व माइनर्स’ का उल्लेख प्राप्त होता है, इनका कार्य सेना के कूच के लिए भूमि तैयार करना होता था ।

प्राचीन भारत में राजनीति को धर्म की श्रेणी में रखा जाता था ।  विश्व के लिए भारतीय राजनीति की यह बहुत बड़ी देन है ।  ‘रामायण’ में चित्रित शासन को आज भी शासन के सर्वोत्तम स्वरूप में माना जाता है ।  राजनीति में नैतिकता न हो तो राजा के निरंकुश होने की पूरी संभावना होती है ।  धर्म का सीधा संबंध नैतिकता से होता है, इसलिए प्राचीन भारत में राजनीति को धर्म कहा जाता था ।  मानव संस्कृति के विकास में धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति का मुख्य आधार राज्य को माना गया है ।  त्रिवर्ग की प्राप्ति मानव जीवन की सार्थकता मानी जाती है ।  राजा और प्रजा का संबंध पिता और संतान की तरह होता है ।  राजधर्म की रक्षा के क्रम में व्यवधान डालने वाले के लिए दंड नीति का निर्धारण किया गया है ।  रामायण में शासन की एक ऐसी कला विकसित हुई, जिसमें पूर्णरूपेण प्रजा के नैतिक, सामाजिक, आर्थिक उत्थान को केंद्र में रखा गया है ।  महात्मा गांधी का स्वप्न भारत में स्वराज की स्थापना करना था ।  वे इसे राम राज्य के आधार पर विवेचित करते हुए कहते हैं -

‘स्वराज के कितने ही अर्थ क्यों न किए जाएँ, मेरे लिए त्रिकाल सत्य एक ही अर्थ है-रामराज्य ।  यदि किसी को रामराज्य शब्द बुरा लगता है, तो मैं उसे धर्म राज्य कहूँगा । ’ (आमुख अंश से उद्धृत)

समस्त रामायण राजा का प्रजा के प्रति कर्तव्य को विवेचित करता है ।  यहाँ तक कि जनता की जीवन शैली भी पूरी तरह से धर्म से प्रेरित होती थी-

‘धर्मेंण राज्यं लभते मनुष्या स्वर्ग च धर्मेण नरः प्राष्यति ।

आयुष्य  कीर्ति च तपश्च धर्म धर्मेण मोक्ष लभते मनुष्यः । । ’ (आमुख अंश से)

वाल्मीकि के मर्यादा पुरुषोत्तम लौकिक जीवन की मर्यादाओं का निर्वाह करने वाले वीर पुरुष है ।  लेखिका कहती हैं- सनातन ‘सत्य’ यही है रामायण महाकाव्य है ।  ऋषि वाल्मीकि आदिकवि हैं और मंजुल मूर्ति राम ‘अद्वितीय कविता’ ।  

अल्लाया इकबाल के शब्दों में- ‘राम के वजूद पर हिंदुस्तान को नाज अहले वतन समझते हैं, उनको इमामे हिंद । ’ (आमुख से)

वर्तमान परिवेश में लोकतंत्र को सर्वाधिक प्रिय शासन के रूप में विश्व भर में अपनाया जा रहा है ।  लेखिका द्वारा वर्तमान जोड़-तोड़ की राजनीति को भीड़ तंत्र से तुलना करते हुए  प्राचीन भारत के नृपतंत्रीय शासन का आधार लोक कल्याण और लोकमत को बताया गया है ।  वैदिक वांग्मय में राजा के चुने जाने के संबंध में मंत्र मिलते हैं –

‘राजा को प्रजा इसलिए चुनती है, क्योंकि वह उनके कष्टों को हरता है ।  राजा प्रतिज्ञा करता है कि प्रजा रक्षण को वह अपना कर्तव्य समझेगा । ’ (रामायण में जनप्रिय शासन, डॉ. सुरभि दत्त, पृष्ठ-18)

‘रामचरितमानस’ में तुलसीदास ने आदर्श राजा का बड़ा सुंदर चित्रण किया है ।  राजा धर्म का साक्षात अवतार है ।  प्रजा के सतत पालन, पोषण और अभ्युदय हेतु ही वह शासन-सत्ता ग्रहण करता है और आजीवन उसी में तत्पर रहता है । ’ (रामायण में जनप्रिय शासन, डॉ. सुरभि दत्त, पृष्ठ-23)

हमारे प्राचीन भारतीय विद्वानों के द्वारा राजा को प्रजा का सेवक तथा उनके हितों का रक्षक बताया गया है ।  श्रीमद् भागवत पुराण में राम की प्रजा वत्सलता का भव्य वर्णन किया गया है ।

लेखिका रामायण की भूमिका को प्रासंगिक रूप में चित्रित करते हुए कहती है, कि साधनहीन  भारतीय जब विश्व के विभिन्न देशों में पहुँचे, तो उनके हाथ में ‘रामचरितमानस’ एक जीवन संबल की तरह था, जिसने उन्हें दास्य भाव से मुक्ति दिलाया ।  मोनियर विलियम्स के शब्दों में –

‘विश्व के संपूर्ण साहित्य में कुछ ऐसी कविताएँ होंगी जो रामायण से संभवतः सुंदर हो परंतु यह एकमात्र ऐसा महाकाव्य है जिनमें गौरवपूर्ण पवित्रता, शैली की स्पष्टता, सरलता और असाधारण काव्य चमत्कार, जिसके द्वारा वीरोचित घटनाओं, प्रकृति के सुंदर दृश्यों का शुभ विवेचन किया गया है ।  मानवीय भावनाओं और उसमें परस्पर संघर्ष का बहुत निकट से चित्रण के कारण यह किसी भी देश में निर्मित साहित्य से सर्वाधिक सुंदर है । ’ (रामायण में जनप्रिय शासन, डॉ. सुरभि दत्त, पृष्ठ-34)

रामायण और महाभारत भारतीयों के लिए नैतिक सिद्धांतों का अक्षय कोष तथा सांस्कृतिक जीवन का आलेख माना जाता है ।  राजा का प्रजा के प्रति कर्तव्य निर्वाह प्रजापालन, प्रजारंजन, दंड व्यवस्था आदि का रामायण में धर्म के परिप्रेक्ष्य में ही उल्लेख किया गया है ।  राजनीति का जितना विस्तृत उल्लेख रामायण में प्राप्त होता है, उतना शायद ही किसी अन्य युग में हुआ हो ।  रामायण काल में शासकों ने प्रत्येक स्तर पर वेदों, स्मृतियों का अनुसरण किया है ।  शासन ही नहीं, अपितु जनता की जीवन शैली भी धर्म से प्रेरित रही है ।  वेदों, स्मृतियों तथा पुराणों में नियत किए गए राजधर्म का इस युग में अक्षरशः पालन किया गया है ।  रामायण में धर्म को कर्तव्य मानकर तथा न्याय व्यवस्था को धर्माधारित मान कर शासन तथा जनता के द्वारा पालन किया जाता रहा है ।  इक्ष्वाकु वंश को सर्वोत्तम प्रशासन का उदाहरण माना जाता रहा है । इसी वंश के राजा राम मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम से विख्यात है । राम का राजा के रूप में चयन जनता की स्वीकृति से हुआ था ।  

लेखिका ने अपने शोध के द्वारा यह सिद्ध किया है कि राज्य की सात विशेषताएँ हैं, यथा –

1. एकता (जिसका प्रतिनिधि राजा होता है),

2. स्थिर प्रशासन (परिषद एवं मंत्रीगण),

3. कर व्यवस्था (राजकोष)

4. सैन्य बल

5. जनपद

6. सहृदय मित्र

7. जनहित आदि ।

रामायण में राम किसी की शक्ति को कम करके नहीं मानते थे ।  वे पशु, पक्षी, वन्यजीव, वन्य प्राणी आदि सबको साथ लेकर चलने वाले शासन में विश्वास करते थे ।  राम युद्ध क्षेत्र में भी आदर्श और यथार्थ पद्धति का पालन करते थे ।  हमारे शास्त्रों के अनुसार- ‘जो शासन कुशल रणनीति निर्माण से शत्रु को जनरंजन से जुड़े प्रशासनिक कार्यों के निर्वहन द्वारा जनता के हृदय को जीत लेता है, दोनों क्षेत्र पर विजय श्री उसी के साथ होती है ।  (रामायण में जनप्रिय शासन, डॉ. सुरभि दत्त, पृष्ठ-48 -49)

जबकि इन सबका त्याग करने के कारण रावण का विनाश हुआ ।  लेखिका ने रामायण को नैतिक शिक्षा का अक्षय कोष माना है ।  राजा द्वारा प्रजा के दुख दूर करने का हर संभव प्रयास किया जाता था ।  शासन का आधार धर्माधारित होने के कारण धर्म को सर्वोपरि स्थान दिया गया है ।  जब राम को वन गमन से पूर्व माता कौशल्या यह कहते हुए रोकना चाहती है, कि राम पिता की आज्ञा मानने के लिए बाध्य नहीं हैं, इस पर राम इसे धर्म विरुद्ध मानते हुए कहते हैं कि ‘केवल राजा बनने की इच्छा से यदि मैं पिता की आज्ञा की अवहेलना करता हूँ तो ऐसा राज्य धर्महीन होगा । ’ 

लेखिका रामायणकालीन जनप्रिय शासन का उल्लेख करते हुए कहती हैं कि जब राम के वनवास जाने की स्थिति में वशिष्ठ ने सीता को कोशल के राज सिंहासन पर बिठाने का प्रस्ताव यह कहते हुए रखा-

 ‘अनुष्ठाष्यति रामस्य सीता प्रकृति मासनम्। ।

 आत्मा हि दाराः सर्वेषां  दारसंग्रह वतिणाम् ।

आत्मेयमिति रामस्य पालयिष्यति भेदिनीम् । । ’

(रामायण में जनप्रिय शासन, डॉ. सुरभि दत्त, पृष्ठ-43)

रामायणकालीन शासन में मानव के लोग-परलोक, अन्तःबाह्य का परिष्कार करते हुए मानव जीवन के सर्वोच्च विकास का प्रयत्न किया गया है ।  राम वन गमन के समय लक्ष्मण के क्रोध को शांत करते हुए राम कहते हैं-

‘केवल राज्य प्राप्ति के लिए महान फलदायक धर्म पालन रूप सुयश को मैं पीछे नहीं धकेल सकता और अधर्मपूर्वक इस तुच्छ पृथ्वी का राज्य लेना नहीं चाहता । ’ (रामायण में जनप्रिय शासन, डॉ. सुरभि दत्त, पृष्ठ-44)

अंततः पाठक से यह अपेक्षा रहेगी कि वे इस पुस्तक का अध्ययन करते हुए अपनी राजनीतिक समझ का संवर्द्धन करेंगे ।  पुस्तक को लेखिका ने वर्त्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य के लिए उपयोगी बनाने का पूरा प्रयत्न किया है ।  यह पुस्तक राज्य के लिए राजा को परमावश्यक मानते हुए भी जनप्रतिनिधियों द्वारा राजा का चयन राजनीतिक संतुलन का उत्तम उदाहरण प्रस्तुत करता है ।  इस पुस्तक में टंकण त्रुटियों की यदि उपेक्षा की जाय तो लेखिका के शोधश्रम को पूर्ण अंक दिया जा सकता है ।  हिंदी अकादमी, हैदराबाद, तेलंगाना से प्रकाशित 164 पृष्ठों की यह पुस्तक रामायणकालीन शासन की जनप्रियता की मिसाल प्रस्तुत करता है ।  यह पुस्तक पाठक को निश्चय ही पढ़नी चाहिए ।  जनतंत्र को भेड़तंत्र से बाहर निकालने की यह दृष्टि प्रदान करती है ।

पुस्तक: रामायण में जनप्रिय शासन

रचनाकार: डॉ. सुरभि दत्त

प्रकाशन : हिंदी अकादमी, हैदराबाद, तेलंगाना

पृष्ठ: 164

प्रकाशन वर्ष: जनवरी 2025

मूल्य: 695/-

ISBN: 978-93-49138-25-4


समीक्षक

डॉ. सुषमा देवी

एसोसिएट प्रोफेसर,

हिंदी विभाग, बद्रुका कॉलेज,

हैदराबाद , तेलंगाना

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

मई-जून 2025, अंक 59-60(संयुक्तांक)

  शब्द-सृष्टि मई-जून 2025, अंक  59 -60(संयुक्तांक)   व्याकरण विमर्श – क्रिया - बोलना/बुलाना/बुलवाना – डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र कविता – 1 नार...