बुधवार, 30 अप्रैल 2025

आलेख

 


एक भारतीय आत्मा – पंडित माखन लाल चतुर्वेदी

सुरेश चौधरी

यस्तु सञ्चरते देशान् यस्तु सेवेत पण्डितान् ।

तस्य विस्तरिता बुद्धिः तैलबिन्दुरिवाम्भसि ॥

- समयोचितपद्यमालिका

जैसे तेल की एक बूँद भी जल में फ़ैल जाती है वैसे ही विद्वत की विद्वत्ता और विश्व भ्रमण करने वले का अनुभव छिपा नहीं रहता, फैलता है ।

उक्त कथोक्ति बिल्कुल सटीक बैठती है पंडित माखन लाल  चतुर्वेदी जी पर। उनकी विद्वता की सुरभि कुछ यूँ फैली की छायावाद ने राष्ट्रवाद से समन्वय कर नया रूप दे दिया।

छायावाद  कल्पनाप्रधान, भावोन्मेषयुक्त कविता है भाषा और भाव के अतिरेक को कैसे प्रतीकों के रहस्य से बुना जाता है यह गुण रवींद्रनाथ ठाकुर की गीतांजली से ले छायावाद  प्रभावित हुआ । यह प्राचीन संस्कृत साहित्य (वेदों, उपनिषदों तथा कालिदास की रचनाओं) और मध्यकालीन हिंदी साहित्य (भक्ति और श्रृंगार की कविताओं) से भी प्रभावित हुई। छायावादयुग उस सांस्कृतिक और साहित्यिक जागरण का सार्वभौम विकासकाल था जिसका आरंभ राष्ट्रीय परिधि में भारतेंदुयुग से हुआ था। छायावाद के बारे में आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते हैं , 1918 से 1936 का समय प्रखर छायावाद का युग रहा। छायावाद के प्रवर्तक मुकुट बिहारी पांडे थे तो इसे शीर्षस्थ पर ले जाकर राष्ट भावना से जोड़ने का शक्तिशाली कार्य पंडित माखन लाल चतुर्वेदी ने किया।

मुझे याद है मैं कक्षा आठ का विद्यार्थी था तब इनकी रचना पुष्प की अभिलाषा पढ़ी थी जिसमें एक पुष्प के माध्यम से राष्ट्र हेतु सर्वोच्च बलिदान की महिमा बताई गयी थी। रहस्यवाद, प्रतीकवाद का इससे सुंदर उदाहरण क्या हो सकता है।

चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ,

चाह नहीं, प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ,

चाह नहीं, सम्राटों के शव पर हे हरि, डाला जाऊँ,

चाह नहीं, देवों के सिर पर चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ।

मुझे तोड़ लेना वनमाली! उस पथ पर देना तुम फेंक,

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जावें वीर अनेक

हिंदी साहित्य के ख्यातिप्राप्त कवि, लेखक और पत्रकार पंडित माखनलाल चतुर्वेदी एक महान स्वतंत्रता सेनानी भी थे।उनका नाम छायावाद की उन हस्तियों में से एक है जिनके कारण वह युग और भी विशेष हो गया। इस युग के कवि खुद को कुदरत और प्रकृति के करीब महसूस करते थे और इसी के ओत-प्रोत लिखते थे।

राजनैतिक यात्रा

इनका रजनैतिक सफर कैसे आरंभ हुआ यह भी रोचक वृतांत है :

माखनलाल चतुर्वेदी का तत्कालीन राष्ट्रीय परिदृश्य और घटनाचक्र ऐसा था जब लोकमान्य तिलक का उद्घोष- 'स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है' क्रांति कारियों  का प्रेरणास्रोत बन चुका था। दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह के अमोघ अस्त्र का सफल प्रयोग कर मोहनदास करमचंद गाँधी का राष्ट्रीय परिदृश्य के केंद्र में आगमन हो चुका था। आर्थिक स्वतंत्रता के लिए स्वदेशी का मार्ग चुना गया था, सामाजिक सुधार के अभियान गतिशील थे और राजनीतिक चेतना स्वतंत्रता की चाह के रूप में सर्वोच्च प्राथमिकता बन गई थी।

पत्रकारिता एवं राष्ट्र चेतना

माधवराव सप्रे संग्रहालय के संस्थापक विजय दत्त श्रीधर का कहना है कि “79 वर्षीय जीवन के सुदीर्घ 46 साल दादा ने पत्रकारिता को समर्पित किए। माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता का समारंभ 1907 में तब हुआ जब वे खंडवा में अध्यापक थे। एक हस्तलिखित पत्रिका निकाली-'भारतीय विद्यार्थी,' जिसने सुधीजनों का खासा ध्यान आकर्षित किया। 1908 में माधवराव सप्रे द्वारा सुसंपादित 'हिन्दी केसरी, की 'राष्ट्रीय आंदोलन और बहिष्कार' शीर्षक से निबंध प्रतियोगिता का प्रथम पुरस्कार दादा को मिला और यहीं से माधवराव सप्रे और दादा के बीच गुरु-शिष्य का जो रिश्ता कायम हुआ, वह अंतिम श्वासों तक न केवल बरकरार रहा, बल्कि एक पत्रकार के रूप में दादा के यश-सौरभ का बीच बिंदु भी बना, यद्यपि दोनों की प्रत्यक्ष भेंट 1911 में हो सकी। खंडवा के वकील कालूराम गंगराड़े ने 7 अप्रैल, 1913 को हिंदी मासिक 'प्रभा' का प्रकाशन आरंभ किया, तब दादा ही उसके संपादक बनाए गए। माखनलालजी को मानो अपना मार्ग मिल गया। 26 सितंबर, 1913 को दादा ने अध्यापक की नौकरी से किनारा कर लिया और यहीं से पूर्णकालिक पत्रकारिता का उनके जीवन का दुर्गम किंतु प्रखर अध्याय प्रारम्भ हो गया। दादा की पत्रकारिता के तेवर 'कर्मवीर' (1920 ) से भी पहले 'प्रभा' में ही बेबाकी के साथ मुखर हो उठे थे। भाषा, भाव और संकल्प की यह ताजगी और रवानी अंत तक दादा की पत्रकारिता की अकूत निधि बनी रही। 1915 में 'प्रभा' के प्रकाशन में व्यवधान आ गया। लेकिन इस वर्ष दादा के खजाने में बंधुता का एक दुर्लभ रत्न आ जुड़ा- श्री गणेश शंकर विद्यार्थी के रूप में, जो कानपुर से तेजस्वी 'प्रताप' निकाल रहे थे। उन्हीं ने 1920 में 'प्रभा' का कानपुर से पुनर्प्रकाशन  किया और इसी वर्ष जबलपुर में 'कर्मवीर' का प्रकाशन हुआ।“

कानपुर से गणेश शंकर विद्यार्थी ने 'प्रताप' का संपादन-प्रकाशन आरंभ किया। १९१६ के लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन के दौरान माखनलालजी ने विद्यार्थीजी के साथ मैथिलीशरण गुप्त और महात्मा गाँधी से मुलाकात की। महात्मा गाँधी द्वारा आहूत सन १९२० के 'असहयोग आंदोलन' में महाकोशल अंचल से पहली गिरफ्तारी देने वाले माखनलालजी ही थे। सन १९३० के सविनय अवज्ञा आंदोलन में भी उन्हें गिरफ्तारी देने का प्रथम सम्मान मिला। इस तरह वे एक छायावादी राष्ट्रीय चेतन के कवि से स्वतंत्रता संग्राम के वीर सिपाही बने।

इसलिए उनका एक उपनाम ‘एक भारतीय आत्मा’ भी पड़ गया था। उन्होंने अपनी लेखनी को अंग्रेज़ों के खिलाफ़ हथियार के तौर पर इस्तेमाल  किया था।

माखन लाल चतुर्वेदी के काव्य संसार पर शोधकर्ता और कर्मवीर विद्यापीठ खंडवा के निदेशक संदीप भट्ट बताते हैं कि माखनलाल चतुर्वेदी जी के पुण्यस्मरण पर उनके साहित्य और पत्रकारिता के गौरवशाली इतिहास से गुजरना अतुल्य अनुभव है। देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, इसे हासिल करने में स्वाधीनता सेनानियों का अतुलनीय योगदान है। ऐसे ही एक महानायक पंडित माखनलाल चतुर्वेदी भी थे। उन्होंने लेखन और पत्रकारिता में देशभक्ति को सर्वोच्च स्थान दिया। वे अकेले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने गांधी और क्रांति को साथ लेकर चले। पराधीन भारत में देशवासियों से गुलामी के विरोध में एकजुट होकर लडऩे का सतत आग्रह किया। उनका समाचार पत्र 'कर्मवीर' आज भी पत्रकारिता और मीडिया जगत का आदर्श स्तंभ है। उनकी पत्रकारिता और लेखनी अपने सर्वोच्च मानदंडों से हमारा मार्ग प्रशस्त करती है। कर्मवीर के पुन: प्रकाशन पर उन्होंने आह्वान किया, 'आइए, गरीब और अमीर, किसान और मजदूर, उच्च और नीच, जीत और पराजित के भेदों को ठुकराइए। प्रदेश में राष्ट्रीय ज्वाला जगाइए और देश तथा संसार के सामने अपनी शक्तियों को ऐसा प्रमाणित कीजिए, जिसका आने वाली संतान स्वतंत्र भारत के रूप में गर्व करें। वे कू्रर और तानाशाह अंग्रेज सरकार से निडर होकर देशभक्ति के कार्यों में अग्रणी रहे। आज देश में स्वराज है। हम आजाद हैं, लेकिन उनके विचार, संपादकीय टिप्पणियों मे व्यक्त दर्शन नई पीढ़ी के लिए आज अधिक प्रासंगिक है। दादा के राष्ट्र और समाज के कल्याण, उन्नति के प्रति व्यक्त विचारों को आज आत्मसात करें तो देश की अनगिनत समस्यों का सहज समाधान मिल जाएगा। नैतिक, सामाजिक, मानवीय संवेदनाओं से भरे मूल्यों तथा अगाध देशप्रेम के विचारों को हर भारतीय को जीवन में उतारना चाहिए।

मुख्य मंत्री पद को नकारना और सम्मान लौटाना

स्वाधीनता के बाद जब मध्य प्रदेश नया राज्य बना तो उनका नाम पहले मुख्यमंत्री के तौर पर प्रस्तावित हुआ। सबने उन्हें इस बात की सूचना दी और बधाई भी दी कि अब आपको मुख्यमंत्री के पद का कार्यभार संभालना है। अलबत्ता इस प्रस्ताव पर माखनलाल जी की प्रतिक्रिया कुछ अलग ही थी। उन्होंने सबको लगभग डांटते हुए कहा कि मैं पहले से ही शिक्षक और साहित्यकार होने के नाते ‘देवगुरु’ के आसन पर बैठा हूँ।

मेरी पदावनति करके तुम लोग मुझे ‘देवराज’ के पद पर बैठाना चाहते हो, जो मुझे सर्वथा अस्वीकार्य है। उनकी असहमति के बाद रविशंकर शुक्ल नवगठित प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री बने। ‘पुष्प की अभिलाषा’ जैसी प्रसिद्ध कविता के रचयिता माखनलाल जी न सिर्फ शब्दों से बल्कि अक्षर जीवन मूल्यों से समकालीनों के साथ बाद के दौर के साहित्यकारों के भी पूज्य आदर्श रहे हैं। उनकी अक्षर स्मृति आज भी राष्ट्र निर्माण और साहित्य के क्षेत्र में कार्य कर रहे लोगों को प्रेरणा देती है।

जीवन परिचय

माखनलाल चतुर्वेदी का जन्म 4 अप्रैल 1889 को होशंगाबाद से 14 मील दूर बाबई गाँव में हुआ था। उनके पिता श्री नंदलाल चतुर्वेदी प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक थे। पं. नंदलाल एक साहसी और स्वाभिमानी व्यक्ति थे, जिसने उनके पुत्र माखनलाल को प्रभावित किया। उनके पिता की अचानक मृत्यु हो गई, और माखनलाल की शिक्षा और देखभाल की जिम्मेदारी उनकी सात्त्विक माता श्रीमती सुकर बाई पर आ गई। “बाबाई” जैसी छोटी बस्ती में शिशु माखनलाल की शिक्षा और दीक्षा के लिए एक अच्छा ढांचा नहीं हो सकता था। परिणामस्वरूप, माँ ने अपने पुत्र के प्रति लगाव को भूलकर उसे “सिमरनी” शहर में उनके मौसी के पास भेज दिया।

सिमरनी में पले-बढ़े माखनलाल ने लगभग 10 वर्षों तक शिक्षा प्राप्त की और वहीं उन्होंने कविता लेखन की पहली प्रेरणा प्राप्त की। उन्हें बचपन से ही तुकबंदी पसंद थी। परिणामस्वरूप, तुकबंदी करते समय उनकी काव्यात्मक प्रवृत्तियों में वृद्धि हुई। हालाँकि, उन्होंने अपने जन्मजात आदर्शों के परिणामस्वरूप स्व-अध्ययन द्वारा अपने ज्ञान के आधार को बढ़ाया।

माखनलाल चतुर्वेदी जी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने ही गांव के एक प्राथमिक विद्यालय से प्राप्त की थी। अपनी प्रारंभिक शिक्षा को समाप्त करने के बाद श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी संस्कृत, बांग्ला अंग्रेजी, गुजराती और ऐसी ही अनेकों प्रकार की भाषाओं का अध्ययन किया। माखनलाल चतुर्वेदी जी ने इन भाषाओं का अध्ययन किसी विद्यालय यूनिवर्सिटी में जाकर के नहीं प्राप्त किया, उन्होंने यह शिक्षा घर पर ही अपनी कड़ी मेहनत और लगन के साथ प्राप्त की थी।

विवाह

उन्होंने 1904 ई० में 15 साल की उम्र में ग्यारसी बाई से शादी की। उन्हें 1905 ई० में बंबई के निकट एक देहात “मसन” में एक शिक्षक के रूप में नियुक्त किया गया था। उन्हें बचपन से ही देश की धरती से विशेष लगाव था। यही कारण है कि जब वे इंटरमीडिएट की परीक्षा देने जबलपुर गए तो क्रांतिकारी युवाओं से उनका जुड़ाव रहा। वह तब से बंदूकें, विस्फोटक और अन्य हथियारों को छिपाने और परिवहन में उनकी सहायता किया करते थे। 1906 ई० में कलकत्ता कांग्रेस में शामिल होने पर माखनलाल जी ने लोकमान्य तिलक की सुरक्षा के लिए कलकत्ता की यात्रा की। वहाँ से वापस जाते समय काशी में उनकी मुलाकात क्रांतिकारी नेता देवसकर से हुई। इसके परिणामस्वरूप क्रांतिकारियों के साथ उनकी बातचीत बढ़ी और उनके संबंधों का दायरा बढ़ गया था।

माखनलाल जी अपने परिवार को पर्याप्त समय नहीं दे सके क्योंकि वे दिन-रात साहित्य और राजनीति में व्यस्त रहते थे। उसका दिन काम से भरा था, और वह ज्यादातर रात पढ़ाई में बिताते थे। अपनी व्यस्त जीवन शैली के कारण वे अपने जीवन साथी ग्यारसी-बाई पर ध्यान नहीं दे पा रहे थे। ग्यारसी बाई यहां राजयक्ष्मा की शिकार हो गईं और एक दिन चिर निद्रा में हमेशा के लिए सो गईं। माखनलाल जी को उनकी वास्तविक स्थिति तब समझ में आई जब उन्हें बचाया नहीं जा सकता था। इससे माखनलाल जी को बहुत दुख हुआ।

चतुर्वेदी जी के जीवनीकार बसआ का कहना है

'दैन्य और दारिद्रय की जो भी काली परछाई चतुर्वेदियों के परिवार पर जिस रूप में भी रही हो, माखनलाल पौरुषवान सौभाग्य का लाक्षणिक शकुन ही बनता गया।'

इनका परिवार राधावल्लभ सम्प्रदाय का अनुयायी था, इसलिए स्वभावत: चतुर्वेदी के व्यक्तित्व में वैष्णव पद कण्ठस्थ हो गये। प्राथमिक शिक्षा की समाप्ति के बाद ये घर पर ही संस्कृत का अध्ययन करने लगे। इनका विवाह पन्द्रह वर्ष की अवस्था में हुआ और उसके एक वर्ष बाद आठ रुपये मासिक वेतन पर इन्होंने अध्यापकी शुरू की।

भारत की स्वतंत्रता के बाद भी उन्होंने पत्रकारिता नहीं छोड़ी, बल्कि उन्होंने साहित्य और पत्रकारिता से जुड़े रहने के लिए मध्य-प्रदेश के मुख्यमंत्री का पद ठुकरा दिया था। उनके प्रमुख कार्य हैं- ‘वेणु ले, गूंजे धरा,’ ‘हिम किरीटनी,’ ‘हिम तरंगिनी,’ ‘युग चरण,’ ‘साहित्य देवता,’ ‘दीप से दीप जले,’ ‘कैसा छन्द बना देती है,’ ‘पुष्प की अभिलाषा’ आदि हैं।

साल 1943 में उस समय का हिन्दी साहित्य का सबसे बड़ा ‘देव पुरस्कार’ चतुर्वेदी को ‘हिम किरीटिनी’ के लिए दिया गया था। इस के बाद साल 1954 में साहित्य अकादमी पुरस्कारों की स्थापना होने पर हिन्दी साहित्य के लिए प्रथम पुरस्कार उनको ‘हिम तरंगिनी’ के लिए प्रदान किया गया था।

पुष्प की अभिलाषा’ और ‘अमर राष्ट्र’ जैसी ओजस्वी रचनाओं के रचयिता इस महाकवि को सागर विश्वविद्यालय ने 1959 में डी.लिट्. की मानद उपाधि से विभूषित किया। साल 1963 में भारत सरकार ने ‘पद्मभूषण’ से अलंकृत किया। इतना ही नहीं, साल 1965 में मध्यप्रदेश शासन की ओर से खंडवा में ‘एक भारतीय आत्मा’ माखनलाल चतुर्वेदी के नागरिक सम्मान समारोह का आयोजन किया गया।

माखनलाल चतुर्वेदी जी की रचनाओं में भाषा शैली

श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी ने अपनी लेखन विधाओं में एक नई शैली का उपयोग किया श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी की इस शैली को छायावाद युग का नव छायावाद युगीन शैली कहा जाता है। उन्होंने अपनी इस शायरी का उपयोग करके छायावाद युग के आयाम को स्थापित किया।

माखनलाल चतुर्वेदी जी ने इसी शैली में में अपनी कुछ रचनाएं लिखी है, इनकी यह रचनाएं काफी प्रसिद्ध हुई क्योंकि इनकी कविताओं में एक नई शैली का प्रयोग हुआ था, जिसके कारण यह लोगों के द्वारा काफी पसंद की जाने लगी। श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी की अमर राष्ट्र कविता तो हिंदी साहित्य की अमर कविता भी माने जाने लगी, क्योंकि इस कविता ने युगो युगांतर तक को प्रेरित किया है।

श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी का हिंदी साहित्य में योगदान

श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी ने हिंदी साहित्य के विकास में काफी योगदान दिया क्योंकि उन्होंने छायावाद युग में अनेकों प्रकार की रचनाओं को प्रकाशित किया, जिसके कारण उन्होंने हिंदी साहित्य में एक नई निव रखी। श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी की कुछ महत्वपूर्ण रचनाएं, प्रकाशन के क्रम में:

          कृष्णार्जुन युद्ध (1918)

          हिमकिरिटनी (1941)

          साहित्य देवता (1942)

          हिम तरंगिणी (1949)

          माता (1952)

यह कविताएँ पत्रिकाओं के साथ प्रकाशित हुई थी जो कि काफी प्रसिद्ध हुई, इसके अलावा महाकवि माखनलाल चतुर्वेदी जी ने कुछ अन्य कविताएँ भी लिखी है।

          आज नयन के बंगले में

          उस प्रभात तू बात न मानी

          हमारा राष्ट्र

          कुंज कुटिरे यमुना तीरे

          अंजली के फूल गिर जाते हैं

          किरणों की शाला बंद हो गई चुप चुप

          गाली में गरिमा घोल घोल

          इस तरह ढक्कन लगाया रात में

माखनलाल चतुर्वेदी जी को प्राप्त पुरस्कार

          श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी को वर्ष 1983 से समय में देव पुरस्कार प्रधान कराया गया था यह पुरस्कार माखनलाल चतुर्वेदी जी को हिमकिरीटनी के लिए दिया गया था।

          वर्ष 1959 में पुष्प की अभिलाषा और अमर राष्ट्र के लिए माखनलाल चतुर्वेदी जी को महाकवि के कृतित्व को सागर विश्वविद्यालय में डि.लीट. के मानद उपाधि से विभूषित किया गया था।

          श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी को वर्ष 1954 में साहित्य अकादमी पुरस्कार के साथ सम्मानित किया गया था। साहित्य अकादमी पुरस्कार सर्वप्रथम माखनलाल चतुर्वेदी जी को ही दिया गया था।

          श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी को वर्ष 1965 में 16 जनवरी को श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी को नागरिक सम्मान समारोह में आमंत्रित किया गया। इस समारोह में श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी को आमंत्रित करने के लिए मुख्य निमंत्रण दिया गया था।

          श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी को वर्ष 1963 में भारत सरकार के द्वारा पद्म विभूषण द्वारा सम्मानित भी किया गया था।

माखनलाल चतुर्वेदी जी की मृत्यु

भारतवर्ष के महान कवि और स्वतंत्रता सेनानी माखनलाल चतुर्वेदी जी का देहांत वर्ष 1968 को 30 जनवरी को हुआ था। जिस समय माखनलाल चतुर्वेदी जी की मृत्यु हुई थी, उस समय वह केवल 79 वर्ष के थे। लोग माखनलाल चतुर्वेदी जी को इतना पसंद करने लगे थे कि लोग इनसे इस अवस्था में भी लेखन की कल्पना कर रहे थे।

धरोहर

हिंदी साहित्य को उनके दिए गए योगदान के कारण माखनलाल चतुर्वेदी के सम्मान में बहुत सी यूनिवर्सिटी ने विविध अवार्ड्स के नाम उनके नाम पर रखे हैं. मध्य प्रदेश सांस्कृतिक काउंसिल द्वारा नियंत्रित मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी देश की किसी भी भाषा में योग्य कवियों को “माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार” देती हैं. पंडितजी के देहांत के 19 वर्ष बाद 1987 से यह सम्मान देना शुरू किया गया। भोपाल, मध्य प्रदेश में स्थित माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय पूरे एशिया में अपने प्रकार का पहला विश्व विद्यालय हैं। इसकी स्थापना माखनलाल चतुर्वेदी जी के राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम में पत्रकारिता और लेखन के द्वारा दिए योगदान को सम्मान देते हुए 1991 में हुई। भारत के पोस्ट और टेलीग्राफ डिपार्टमेंट ने भी पंडित माखन लाल चतुर्वेदी को सम्मान देते हुए पोस्टेज स्टाम्प की शुरुआत की।  यह स्टाम्प पंडितजी के 88वें जन्मदिन 4 अप्रैल 1977 को ज़ारी किया गया था।

उन्हें अपने जीवन में आर्थिक रूप से बहुत संघर्ष करना पड़ा। किंतु उनका मनोबल उनके जीवन के अंत तक कम नहीं हुआ। शरीर के थके होने पर भी उन्होंने अपने मन को तरोताजा रखा। चतुर्वेदी की सांसों की पहली और आखिरी ताकत भावनाओं की यौवन थी। उनमें यौवन का जोश था। उनका जुनून बच्चों के लिए प्रेरणादायी था। 30 जनवरी 1968 ई० को उन्होंने अपने खंडवा स्थित घर में जीवन की कठिनाइयों का सामना करते हुए अपना प्राण त्याग दिया।


सुरेश चौधरी

एकता हिबिसकस

56 क्रिस्टोफर रोड

कोलकाता 700046

1 टिप्पणी:

  1. माखनलाल चतुर्वेदी 'एक राष्ट्रीय आत्मा' के जीवन एवं साहित्य पर केंद्रित इस आलेख में लेखक ने गागर में सागर भरने की उक्ति को चरितार्थ किया है, छोटे आलेख में बहुत कुछ समेट लिया है. सुरेश चौधरी जी को हार्दिक बधाई 🌹🌹

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