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वाँ स्वतंत्रता दिवस
चयनित
कविताएँ (‘आज़ादी की अग्निशिखाएँ’ से)
(1)
वीरों का कैसा हो बसंत
सुभद्रा
कुमारी चौहान
(जन्म
जयंती, 16 अगस्त)
वीरों
का कैसा हो बसंत ? आ रही हिमालय से पुकार,
है
उदधि गरजता बार-बार, प्राची पश्चिम, भू,
नभ अपार,
सब
पूछ रहे हैं दिग् दिगंत, वीरों का कैसा हो
बसंत ?
फूली सरसों ने दिया रंग,
मधु लेकर आ पहुँचा अनंग,
वधु-वसुधा पुलकित अंग-अंग, है वीर वेश में किन्तु
कंत,
वीरों
का कैसा हो बसंत ?
भर
रही कोकिला इधर तान, मारू बाजे पर उधर गान,
है
रंग और रण का विधान, मिलने आए हैं आदि-अंत,
वीरों
का कैसा हो बसंत ?
गल
बाहे हो या हो कृपाण, चल चितवन हो या धनुष-बाण,
हो
रस विलास या दलित त्राण, अब यही समस्या है
दुरंत,
वीरों
का कैसा हो बसंत ?
कह
दे अतीत सब मौन त्याग, लंके ! तुझमें क्यों
लगी आग ?
ऐ
कुरुक्षेत्र, अब जाग-जाग, बतला अपने अनुभव अनंत,
वीरों
का कैसा हो बसंत ?
हल्दीघाटी
के शिलाखण्ड, ऐ दुर्ग, सिंहगढ़
के प्रचण्ड,
राजा
ताना का कर घमंड, दो जगा आज स्मृतियाँ
ज्वलंत
वीरों
का कैसा हो बसंत ?
भूषण
अथवा कवि चंद नहीं, बिजली भर दे वह छन्द
नहीं,
है
कलम बंधी,
स्वच्छन्द वही, फिर हमें बतावे, कौन हंत ?
वीरों
का कैसा हो बसंत ?
(उद्बोधन)
(2)
शहीदों की चिताओं पर
जगदम्बा
प्रसाद मिश्र
अरूजे कामयाबी पर कभी हिन्दोस्तां होगा
रिहा सैयाद के हाथों से अपना आशनां होगा ।
चखाएँगे मजा बरबादिए गुलशन का गुलचीं को
बहार आ जायगी उस दिन जब अपना बागबां होगा ।
वतन की आबरू का पास देखें कौन करता है
सुना है आज मक़तल में हमारा इम्तहां होगा ।
जुदा मत हो मेरे पहलू से ए दर्दे-वतन हरगिज़
न जाने बादे मुर्दन मैं कहाँ औ तू कहाँ होगा ।
शहीदों की चिताओं पै जुड़ेंगे हर बरस मेले
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा ।
इलाही वो भी दिन होगा जब अपना राज देखेंगे
जब अपनी ही जमीं होगी औ अपना आसमां होगा
(3)
उनको प्रणाम
नागार्जुन
जो नहीं हो सके पूर्ण–काम
मैं उनको करता हूँ प्रणाम।
कुछ कुंठित औ’ कुछ लक्ष्य–भ्रष्ट,
जिनके अभिमंत्रित तीर हुए;
रण की समाप्ति के पहले ही,
जो वीर रिक्त तूणीर हुए!
उनको प्रणाम !
जो छोटी–सी नैया लेकर,
उतरे करने को उदधि–पार;
मन की मन में ही रही¸
स्वयं, हो गए उसी में निराकार!
उनको प्रणाम !
जो उच्च शिखर की ओर बढ़े,
रह–रह नव–नव उत्साह भरे;
पर कुछ ने ले ली हिम–समाधि,
कुछ असफल ही नीचे उतरे!
उनको प्रणाम !
एकाकी और अकिंचन हो, जो भू–परिक्रमा को निकले;
हो गए पंगु, प्रति–पद
जिनके, इतने अदृष्ट के दाव चले!
उनको प्रणाम !
कृत–कृत नहीं जो हो पाए प्रत्युत फाँसी पर गए झूल
कुछ ही दिन बीते हैं फिर भी यह दुनिया जिनको गई
भूल!
उनको प्रणाम !
थी उग्र साधना, पर
जिनकाजीवन नाटक दु:खांत हुआ;
या जन्म–काल में सिंह लग्न,
पर कुसमय ही देहांत हुआ !
उनको प्रणाम !
दृढ़ व्रत औ’ दुर्दम साहस के जो उदाहरण थे मूर्ति-मंत,
पर निरवधि बंदी जीवन ने जिनकी धुन का कर दिया अंत
!
उनको प्रणाम !
जिनकी सेवाएँ अतुलनीय पर विज्ञापन से रहे दूर,
प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके कर दिए मनोरथ चूर–चूर
।।
उनको प्रणाम !
(4)
आज देश की मिट्टी बोल उठी है
शिवमंगल
सिंह सुमन
लौह-पदाघातों
से मर्दित, हय-गज-तोप-टैंक से खौंदी,
रक्तधार
से सिंचित-पंकिल, युगों-युगों से कुचली
रौंदी ।
व्याकुल
वसुंधरा की काया, नव निर्माण नयन में
छाया ।।
कण-कण सिहर उठे, अणु-अणु ने सहस्राक्ष अंबर को ताका,
शेषनाग फूत्कार उठे, साँसों से निःसृत अग्नि शलाका ।
धुआँधार नभ का वक्षस्थल,
उठे बवंडर आँधी आई,
पदमर्दिता रेणु अकुलाकर छाती पर,
मस्तक पर छाई,
हिले चरण, गति
हरण, आततायी का अंतर थर-थर काँपा,
भूसुत जगे, तीन
डग में, बावन ने तीन लोक फिर नापा ।
धरा
गर्विता हुई सिंधु की छाती डोल उठी है,
आज
देश की मिट्टी बोल उठी है ।
आज
विदेशी बहेलिए को उपवन ने ललकारा,
कातर
कंठ क्रोंचिनी चीखी, कहाँ गया हत्यारा ।
कण-कण
में विद्रोह जग पड़ा, शांति क्रांति बन
बैठी,
अंकुर
अंकुर शीश उठाए डाल-डाल तन बैठी
कोकिल
कुहुक उठी चातक की चाह आग सुलगाए,
शांति-स्नेह-सुख-हंता,
दंभी पामर भाग न पाए ।
संध्या
स्नेह संयोग सुनहला चिर-वियोग-सा छूटा,
युग-तमसा
तट खड़े मूक कवि का पहला स्वर फूटा ।
ठहर, आततायी
हिंसक पशु, रक्त पिपासु प्रवंचक
हरे भरे वन के दावानल,
क्रूर, कुटिल, विध्वंसक,
देख न सका सृष्टि शोभा वर,
सुख-समतामय जीवन
ठट्टा मार हंस रहा बर्बर सुन जगती का क्रंदन ।
घृणित,
लुटेरे, शोषक, समझा पर-धन
हरण बपौती,
तिनका-तिनका
खड़ा दे रहा, तुझको खुली चुनौती
जर्जर
कंकालों पर वैभव का प्रासाद बसाया
भूखे
मुख से कौर छीनते तू न तनिक शरमाया ?
तेरे कारण मिटी मनुजता माँग-माँग कर रोटी
नोची श्वान शृगालों ने जीवित मानव की बोटी ।
तरे कारण मरघट सा जल उठा हमारा नंदन,
लाखों लाल अनाथ लुटा अबलाओं का सुहाग-धन ।
(5)
सन् 1857 ई. में बागी सैनिकों का कौमी गीत
हम हैं इसके मालिक हिन्दुस्तान हमारा
पाक वतन है कौम का जन्नत से भी प्यारा
यह है हमारी मिल्कियत हिंदुस्तान हमारा
इसकी रूहानियत से रोशन है जग सारा
कितनी कदीम कितना नईम,
सब दुनिया से न्यारा
करती है जरखेज़ जिसे गंगो-जमुन की धारा
ऊपर बर्फीला पर्वत पहरेदार हमारा
नीचे साहिल पर बजता, सागर का नक्कारा
इसकी खानें उगल रहीं सोना हीरा पारा
इसकी शान-शौकत का दुनिया में जयकारा
आया फिरंगी दूर से ऐसा मंतर मारा
लूटा दोनों हाथ से प्यारा वतन हमारा
आज शहीदों ने है तुमको अहले वतन ललकारा
तोड़ो गुलामी की जंजीरें बरसाओ अंगारा
हिन्दु मुसलमां सिख हमारा भाई भाई प्यारा
ये है हमारी मिल्कियत हिन्दुस्तान हमारा
यह है आजादी का झंडा इसे सलाम हमारा ।।
(6)
छेल्ली प्रार्थना
(गुजराती)
झवेरचन्द
मेघाणी
हजारों वर्षनी जूनी अमारी वेदनाओ,
कलेजां चीरती कंपावती अम भयकथाओ,
मरेलांनां रुधिर ने जीवतांनां आंसुडाओ,
मरेलांना रुधिर ने जीवतांना आंसुडाओ
समर्पण ए सहु तारे कदम,
प्यारा प्रभु ओ !
अमारा यज्ञनी छेल्ली बलि: आमीन के ‘जे !
गुमावेली अमे स्वाधीनता तु फेर देजें !
बधारे मूल लेवां होय तोय मागी लेजें !
अमारा आखरी संग्रामगा साथै ज रे’जे !
प्रभुजी! पेखजो आ छे अमारुं युद्ध छेल्लुं ;
बतावो होय जो कारण अमारुं लेश मेलुं –
अमारां आंसुडां ने लोहीनी धारे धुएलुं !
दुवा मागी रहयुं जो सैन्य अग तत्पर उभेलुं ।
नथी जाण्युं अगारे पंथ शी आफत खड़ी छे ;
खबर छे आटली के मातनी हाकल पड़ी छे,
जीवे मा मावडी ए काज मखानी घड़ी छे
फिकर शी ज्यां लगी तारी अमो पर आंखड़ी छे?
जुओ आ, तात
! खुल्लां मूकियां अंतर अमारां,
जुओ, हर
जख्मथी झरती हजारो रक्तधारा ;
जुओ, छाना
जले अन्यायना अग्नि-धखारा :
समर्पण हो, समर्पण
हो तने ए सर्व, प्यारा !
भले हो रात काळी-आप दीवो लै ऊभा जो !
भले रणमां पथारी- आप छेल्लां नीर पाजो !
लड़ताने महा रणखंजरीना घोष गाजो !
मरंताने मधुरी बंसरीना सूर वाजो !
तूटे छे आभ ऊँचा आपणां आशा-मिनारा,
हजारो भय तणी भूतावळो करती हुंकारा ;
समर्पणनी छतां वहेशे सदा अणखूट धारा,
मळे नव मावडीने ज्यां लगी मुक्ति-किनारा ।
आज़ादी की
अग्निशिखाएँ
चयन एवं
संयोजन – डॉ. शिव कुमार मिश्र