शुक्रवार, 20 अगस्त 2021

पुस्तक समीक्षा

 



आनंद की अनुभूति : आनंद मंजरी

डॉ. पूर्वा शर्मा

हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने में अनेक विधाओं का योगदान रहा है। इनमें से कुछ विधाएँ बहु प्रचलित, कुछ विधाएँ अल्प प्रचलित और कुछ तो आज लगभग लुप्त-सी हो गई है। ‘मुकरी’ अथवा ‘कह मुकरी’ इसी प्रकार की विधा है जिसके बारे में कहा जा सकता है कि आज यह विधा लगभग लुप्त होने की कगार पर है। लेकिन कुछ कवियों/साहित्य प्रेमियों की बदौलत यह विधा अभी भी साँस ले रही है। सर्वविदित है कि मुकरी एक प्राचीन एवं लोकप्रिय लोक काव्य-रूप है। इस चार पद या चरण वाले सममात्रिक छंद के प्रत्येक पद में 16-16 मात्राएँ अर्थात् कुल 64 मात्राएँ होती है लेकिन क्रम विधान का पालन न करते हुए इसके अपवाद रूप में भी कुछ मुकरियाँ देखी जा सकती है। मुकरी को पहेली का एक प्रकार माना गया है। “भारतीय आचार्यों ने पहेली के सोलह प्रकार माने हैं। उनमें एक प्रकार ‘मुकरी’ से मिलता-जुलता है। पाश्चात्य विद्वान टिलियर्ड ने इसे ‘डिसगाइस्ड स्टेटमेंट’ नामक काव्य-कोटि के अंतर्गत रखा है।”  (आनंद मंजरी, भूमिका से (बहादुर मिश्र), पृ. 10)

भ्रम में डाले, कुछ उलझाए।

खुशियाँ बाँटे, मन बहलाए।

क्या बतलाऊँ तुम्हें, सहेली।

क्या सखि छलनी? नहीं, पहेली।(पृ.31)

दो व्यक्तियों के बीच होने वाले वार्तालाप की शैली वाली इस मुकरी का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन ही है, साथ ही यह श्रोता की बुद्धि के विकास एवं इसे सूचनात्मक ज्ञान देने में भी सहायता करती है। पुराने समय में लिखी गई मुकरी को देखने पर स्पष्ट होता है कि मुकरी प्रायः दो सखियों के बीच हुआ संलाप है जिसके अंतिम चरण में एक विस्फोट या विस्मय दिखाई देता है। जहाँ प्रथम वक्ता के संवाद (पहेली की तरह रखी गई बात) को सुनकर द्वितीय वक्ता (श्रोता) को अर्थ भ्रम हो जाता है और जब अंत में अर्थ खुलकर सामने आता है तो श्रोता को आश्चर्य का बोध होता है। इसमें श्रोता के उत्तर (जो अधिकांश मुकरियों में साजन होता है) को गलत ठहराते हुए वक्ता उसका सही उत्तर देता है। इस तरह इसकी अंतिम पंक्ति के प्रथम भाग में श्रोता द्वारा सुझाया उत्तर एवं द्वितीय भाग में वक्ता द्वारा दिया सही उत्तर, दोनों ही होते हैं। इस प्रश्नोत्तरी में चतुराई और शरारत दोनों ही दिखाई देते हैं। मुकरी में कहकर नटने अथवा मुकरने का भाव मुख्य होता है। परंपरागत शैली में लिखी गई मुकरियों में वक्ता एवं श्रोता स्त्रियाँ ही होती है लेकिन यह दो पुरुष अथवा स्त्री-पुरुष की संवाद-शैली में भी हो सकती है।

हिन्दी में अमीर खुसरो इस विधा विशेष के अविष्कारक माने जाते हैं। ख़ुसरो के लगभग 600 वर्षों पश्चात् भारतेंदु ने इस विधा को एक बार फिर नये रूप-रंग के साथ प्रस्तुत कर इसे प्रसिद्धि दिलाई। भारतेंदु की मुकरियों को ‘नये जमाने की मुकरियाँ’ कहा जाता है, जिसमें व्यंग्य की प्रधानता देखी जा सकती है। मुकरी लेखन की परंपरा में नागार्जुन का नाम भी लिया जाता है। आधुनिक युग के कुछ और भी रचनाकारों ने इस परंपरा के विकास में अपना योगदान दिया है, इसमें से एक नाम है – त्रिलोक सिंह ठकुरेला। ठकुरेला जी का मुकरी संग्रह ‘आनंद मंजरी’ इस बात का प्रमाण है कि इस पुरातन विधा का महत्त्व एवं प्रभाव आज भी साहित्य जगत में बना रहा है और इसके लिए ठकुरेला जी का योगदान भी स्मरणीय रहेगा।  ‘आनंद मंजरी’ में ठकुरेला जी की एक सौ एक मुकरियाँ संकलित है।

वैसे देखे तो मानव, प्रकृति एवं अध्यात्म यह तीन साहित्य के आधारभूत विषय रहे हैं। पूरे साहित्य संसार का विषय-वितान इन्हीं तीन बिन्दुओं से कहीं-न-कहीं संबद्ध होता है और इन्हीं से ही अन्य विषय पल्लवित होते हैं। ठकुरेला जी की मुकरियाँ भी विविध विषयों से संबद्ध है, जो इस प्रकार है – विभिन्न ऋतुएँ, आकाश (चाँद, तारे आदि), वनस्पति (पेड़-पौधे आदि), जीव-जगत (पशु-पक्षी, जीव-जंतु), दिन-रात, धरती (जल, नदी, सागर), पैसा,  नारी एवं नारी शृंगार-परिधान, त्यौहार, रसोई (खान-पान की वस्तुएँ), सामाजिक-व्यवसायिक जीवन, राजनीति, महँगाई, आधुनिक उपकरण और अन्य वस्तुएँ, ईश्वर आदि।

मुकरी के परंपरागत विषयों जैसे – चंदा, तारा, पानी, जाड़ा, सावन, जूता, लोटा, तोता, मैना, आम, बुखार, मच्छर जैसे विषयों को लेकर खुसरो और भारतेंदु ने कई मुकरियाँ लिखी है। इन्हीं परंपरागत विषयों का प्रयोग ठकुरेला जी की मुकरियों में भी बराबर हुआ है। प्रस्तुत संग्रह की पहली ही मुकरी चंदा को लेकर है, जो कि बहुत सुन्दर बन पड़ी है –

जब भी देखूँ, आतप हरता। / मेरे मन में सपने भरता।

जादूगर है, डाले फंदा। / क्या सखि साजन? ना सखि, चंदा।  (पृ.15)

एक सखी के द्वारा वर्णित ‘बूझो तो जाने’ वाली बात को दूसरी सखी बूझते हुए उसे प्रियतम/ साजन ही समझने की भूल करती है और फिर सखी उसे शरारती अंदाज़ में सही उत्तर देती है। परंपरागत मुकरियों में विशेषतः अमीर खुसरो की मुकरियों में वर्णन इस तरह से हुआ है कि बूझने वाले को साजन के अतिरिक्त कोई और विकल्प नज़र नहीं आता। इसी तरह का  काव्य सौन्दर्य ठकुरेला जी की मुकरियों में भी दिखाई देता है, जहाँ बूझने वाले को सिर्फ साजन उत्तर ही प्रतीत होता है। कुछ इसी तरह की मनभावन मुकरियाँ देखिए –

v रस लेती हूँ उसके रस में। / हो जाती हूँ उसके वश में।

मैं खुद उस पर जाऊँ वारी।/ क्या सखि साजन?, ना, फुलवारी। (पृ.19)

v रात हुई तो घर में आया।/ सुबह हुई तब कहीं न पाया।

कभी न वह हो पाया मेरा।/ क्या सखि साजन?, नहीं अँधेरा।(पृ.21)

अपने प्रियतम के ख्यालों में डूबे रहना और हर पल उसी की ही बातें करना। प्रेम में यह बहुत स्वाभाविक है, इस तरह का वर्णन प्रस्तुत संग्रह की मुकरियों में देखा जा सकता है –

v मैं झूमूँ तो वह भी झूमे।/ जब चाहे गालों को चूमे।

खुश होकर नाचूँ दे ठुमका।/ क्या सखि साजन? ना सखि, झुमका।  (पृ.24)

v यौवन के सारे रस लेता। / चूम-चूम के पागल करता।

प्रेम पिपासा, करता दौरा। / क्या सखि साजन? ना सखि, भौंरा।  (पृ.26)

v मैं उसकी बाँहों में सोती।/ मीठे-मीठे स्वप्न सँजोती।

सखी, अधूरा बिन उसके घर।/ क्या सखि साजन? ना सखि, बिस्तर।  (पृ.26)

उपर्युक्त सभी मुकरियों के उत्तर में साजन के बदले दूसरा सही उत्तर मिलने पर श्रोता हतप्रभ तो होता है, उसके मनोरंजन के साथ-साथ उसका बुद्धि परीक्षण भी होता है। उपर्युक्त सभी मुकरियाँ बहुत ही प्रभावी बन पड़ी है। विरह के बिना प्रेम अपूर्ण है, विरह के भाव को प्रस्तुत करती मुकरी और उसमें उसके उत्तर विरहन के स्थान पर उसके सही उत्तर का आनंद      लीजिए –

    जब-जब उसको विरह सताए।/ पी, पी कहकर वह चिल्लाए।

सखि, न लगाना उसको पातक। / क्या सखि विरहन? ना सखि, चातक।  (पृ.30)

प्रेम में कभी न कभी विरहावस्था से तो गुजरना ही पड़ता है। एक विवाहित स्त्री के लिए अपनी सौतन से बड़ा न कोई शत्रु है और न ही इससे बड़ा जीवन में कोई दुःख। सौतन के आने से होने वाले नुकसान को रेखांकित करती निम्न मुकरी का सौन्दर्य अनूठा है और उसका सही उत्तर तो और भी अद्भुत प्रतीत हुआ है –

           जब-जब आती दुःख से भरती।/ पति के रूपये पैसे हरती।

उसकी आवक रास न आई।/ क्या सखि सौतन? ना, महँगाई।  (पृ.28)

ठकुरेला जी ने कुछ मुकरियों में नवीन उपकरणों को विषय बनाकर भी अच्छी मुकरियाँ लिखी है, जैसे – कंप्यूटर, हीटर, मोबाइल। विभिन्न व्यवसायों को लेकर भी कुछ मुकरियाँ संग्रह में देखी जा सकती है, यथा – भिखारी, दर्जी, चपरासी, मदारी आदि। बेटी, नारी, जोगी आदि को लेकर भी सुन्दर मुकरियाँ संग्रह के सौन्दर्य को शोभित कर रही है।  मच्छर को लेकर एक सुंदर मुकरी देखिए –

    बिना बुलाए, घर आ जाता।/ अपनी धुन में गीत सुनाता।

    नहीं जानता ढाई अक्षर।/ क्या सखि साजन? ना सखि, मच्छर।  (पृ.25)

कथ्य की दृष्टि से संग्रह में विविधता दिखाई देती है और शिल्प की दृष्टि से भी सभी मुकरियाँ 16-16 मात्राएँ कुल 64 मात्राओं एवं चरण के अंत में आठवीं मात्रा पर यति के क्रम विधान का अनुपालन करती हुई शुद्ध मुकरियाँ सिद्ध होती है। बेशक, संग्रह की तमाम मुकरियाँ पाठक को आनंद की अनुभूति कराने में सक्षम कही जा सकती है। संग्रह से गुजरने के पश्चात् शीर्षक ‘आनंद मंजरी’ सार्थक प्रतीत होता है। यह संग्रह शोधार्थियों और साहित्य प्रेमियों के लिए तो लाभकारी सिद्ध होगा ही, साथ ही मुकरी जैसी लुप्त होती विधा को जीवित रखने में यह संग्रह संजीवनी साबित होगा। त्रिलोक सिंह ठकुरेला जी को इस सुन्दर संग्रह के लिए बधाइयाँ एवं साधुवाद। भविष्य में भी इनके इस तरह के संग्रह पढ़ने का सुअवसर हमें प्राप्त होगा इसी उम्मीद के साथ .........

अस्तु


 

डॉ. पूर्वा शर्मा

वड़ोदरा

 

  

 

 

 

 

7 टिप्‍पणियां:

  1. शानदार पुस्तक की जानदार व ईमानदार समीक्षा ।
    कवि व समीक्षक दोनों को हार्दिक बधाई ।

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  2. इस समीक्षा से लेखक और समीक्षक दोनों की विद्वता सिद्ध होती है ।

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  3. मुक़री के लिए सबसे पहले श्री आमिर खुसरो का ही नाम जुबां पर आता है । इन्हीं की मुकरियाँ पढ़ते पढ़ते मेरे मित्र राजा दुबे ने 1976 में ये मुक़री बनाई थी -
    जिसे देख सुस्ती भग जाये
    चुस्ती फुर्ती तेजी आये
    क्यों सखी साजन
    ना सखी चाय
    इस पुस्तक में भी अच्छी अच्छी मुकरियाँ है । लेखक को दिल से बधाई ।

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  4. धन्यवाद Ma'am आपका सुन्दर जानकारी के साथ सुन्दर पुस्तक समीक्षा ।
    आनंद हुआ कुछ नया जानकर ।

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  5. सुन्दर पुस्तक की सरस समीक्षा।

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