22 अगस्त, जन्म जयंती
काल के कपाल पर हस्ताक्षर : हरिशंकर परसाई
राजेन्द्र चन्द्रकांत राय
होशंगाबाद : इतिहास पर एक नज़र
मध्यप्रदेश में नर्मदा के तट पर बसा हुआ है, ज़िला होशंगाबाद। होशंगाबाद ज़िले और शहर का नाम, इसी नाम के एक कस्बे के नाम पर पड़ा है। 15 वीं शताब्दी में सुल्ताल हुशंगशाह मालवा इलाके के मांडू का राजा हुआ करता था। उसी के नाम पर एक कस्बा बसाया गया था। सन् 1405 में सुल्तान हुशंगशाह घोरी के शासनकाल के जो ऐतिहासिक अभिलेख मिले हैं, उनसे ही इस नाम कर जानकारी पहली बार ज्ञात हुई है। हुशंगशाह घोरी ने हंडिया और जोगा में क़िला भी बनवाया था।
बैतूल के पास खेरला के गोंड राजा का इलाका लगता था। उसके खिलाफ अपने युद्ध-अभियानों के लिये सुल्तान ने
हमेशा ही हरदा और होशंगाबाद से होकर जाने वाले रास्ते का ही प्रयोग किया। 1567 में मांडू का पतन हो जाने के बाद, मालवा को मुगल साम्राज्य के एक उपराज्य के रूप में समाहित कर लिया गया था।
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वीं सदी की शुरुआत में, होशंगाबाद जिले को सात राजनीतिक प्रभागों में विभाजित किया गया था। सिवनी और हरदा तहसील के उत्तरी हिस्से मोहम्मद फौजदार की राजधानी हंडिया के अधीन थे, जबकि पूर्वी हिस्से में रजवाड़ा, उसके चार राजाओं (सामंतों) के माध्यम से, गढ़ा-मंडला के गोंड साम्राज्य के अधीन था। खुद होशंगाबाद भी, उस समय के गिन्नौर-शासक के नियंत्रण में हुआ करता था। बाबई और बागरा हवेली, सोहागपुर के बागरा क़िले के राजा के पास थी, जो स्वयं देवगढ़ के राजा के अधीन हुआ करता था। इसी तरह सओलीगढ़ के राजा ने भी सिवनी और हरदा के कुछ हिस्सों पर अपना आधिपत्य जमा रखा था। उसके अधिकारी रहटगाँव में तैनात किये गये थे।
1722
ई में होशंगाबाद के क़िले सहित गिन्नौरगढ़ के राज्य क्षेत्र, इस्लामनगर के नवाब और भोपाल वंश के संस्थापक दोस्त मोहम्मद खान के पास चले गये थे। पेशवा बालाजी बाजीराव ने, सन् 1742 में गंजल नदी के पश्चिम में, हंडिया की राजधानी सिरकर पर कब्जा कर लिया था।
गंजल के पूर्व में सिवनी मालवा, होशंगाबाद और सोहागपुर तहसील में पड़ने वाली शेष रियासतें, धीरे-धीरे, सन् 1740 से 1775 के बीच, नागपुर के भोंसला राजा के कब्जे में चली गयी थीं। बेनीसिंह, भंवरगढ़ में भोंसलों का सूबेदार था। उसने 1796 में होशंगाबाद क़िले पर कब्जा कर लिया। सन् 1802 से 1808 के दरम्यान, होशंगाबाद और सिवनी को, भोपाल के नवाब ने हथिया लिया था। पर सन् 1808 के अंत में, नागपुर के भोंसला राजा ने होशंगाबाद पर कब्जा कर लिया। फिर हुआ यह कि 1817 के अंतिम अंग्रेज-मराठा युद्ध में, होशंगाबाद पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया था।
1857
की ग़दर का इस क्षेत्र पर बहुत असर हुआ था। बुंदेला राजा-रजवाड़े बहुत पहले से ही अंग्रेजों से नाराज चल रहे थे। 1824 में सागर के चंद्रपुर के जवाहर सिंह बुंदेला, नरहुत के मधुकर शाह और मदनपुर के गोंड मुखिया दिल्ली शाह ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर दी थी। मेरठ, कानपुर, लखनऊ, दिल्ली, बैरकपुर आदि के विद्रोह की लपटें यहाँ तक पहुंच चुकी थीं। तात्या टोपे और नाना साहेब पेशवा के संदेश वाहक, ग्वालियर, इंदौर, महू, नीमच, मंदसौर, जबलपुर, सागर, दमोह, भोपाल, सीहोर और विंध्य के क्षेत्रों में घूम-घूमकर, विद्रोह के पक्ष में वातावरण बनाने का काम कर रहे थे।
उन्होंने थ्थानीय राजाओं और नवाबों के साथ-साथ अंग्रेजी छावनियों के हिंदुस्तानी सिपाहियों से भी संपर्क बना लिये थे। विद्रोह के प्रतीक के तौर पर ‘रोटी और कमल का फूल’ गाँव-गाँव भेजा जा रहा था। 3 जून 1857 को नीमच छावनी में विद्रोह भड़क गया और सिपाहियों ने अंग्रेज फौज के अधिकारियों को मार भगाया। मंदसौर में भी ऐसा ही हुआ। 14 जून को ग्वालियर छावनी के सैनिकों ने भी हथियार उठा लिए। इस तरह शिवपुरी, गुना, और मुरार में भी विद्रोह भड़क गया था।
तात्या टोपे और झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर को अंग्रेजों से मुक्त करा लिया था। महाराजा सिंधिया भागकर आगरा गया और वहाँ पर उसने अंग्रेजों की शरण ली। 1 जुलाई 1857 को शादत खाँ के नेतृत्व में होल्कर नरेश की सेना ने छावनी रेसीडेंसी पर हमला किया। तब कर्नल ड्यूरेंड और स्टूअर्ट, सीहोर की ओर भागे, पर वहाँ भी विद्रोह की आग सुलग चुकी थी। ऐसी दशा में, भोपाल की बेगम ने अंग्रेज अधिकारियों को सरंक्षण दिया। अजमेरा के राव बख्तावरसिंह ने भी विद्रोह कर दिया था और धार और भोपाल आदि क्षेत्र विद्रोहियों के कब्जे में पहुंच गये थे। महू की सेना ने भी अंग्रेज अधिकारियों को मार भगाया था।
मंडलेश्वर और सेंधवा क्षेत्रों में विद्रोह का नेतृत्व भीमा नायक कर रहा था। शादत खाँ, महू इंदौर के सैनिकों के साथ दिल्ली चला गया। दिल्ली के बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र के प्रति, मालवा के क्रांतिकारियों ने अपनी वफादारी प्रकट की। सागर, जबलपुर और शाहगढ़ भी विद्रोह के केंद्र बन चुके थे। विजयराघवगढ़ के राजा, ठाकुर सरजू प्रसाद इन क्रांतिकारियों के अगुआ थे। गढ़ा के गोंड राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह विद्रोह की योजना के सूत्रधार थे। जबलपुर की 52वीं रेजीमेंट उनका साथ दे रही थी। नरसिंहपुर में 1942 के बुंदेला विद्रोह के नायक राजा हिरदेशाह के पुत्र, मेहरबान सिंह ने अंग्रेजों को खदेड दिया था। मंडला में रामगढ़ की रानी विद्रोह की अगुआ बनी हुई थी। बावजूद इसके विद्रोहियों में आपसी तालमेल न होने के कारण, अंग्रेजों ने विद्रोह का बुरी तरह से दमन कर दिया था।
होशंगाबाद ज़िले की भूमि का अपना ऐतिहासिक व पुरातात्विक महत्व भी है। यहाँ के सिवनी मालवा क्षेत्र मे ऐसी कंदरायें पायी गयी हैं, जहाँ प्राचीनतम शैलचित्र हैं। इन्हीं में से एक कंदरा तो ऐसी है, कि वह पृथ्वी सतह से भी नीचे स्थित है। यह एक भौगौलिक अचरज ही है।
इटारसी से सिवनी-मालवा की दिशा में जाने वाले रास्ते पर, इटारसी से सिर्फ़ बारह किमी की दूरी पर जमानी नाम का गाँव है। इसी गाँव में हरिशंकर परसाई का जन्म 22 अगस्त, सन् 1924 में हुआ था।
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पूर्व पीठिका
अपने प्रस्तावित पति, राजकुमार शोणभद्र की अभद्रता से नाराज़ होकर, नर्मदा ने एक बार उनकी तरफ से अपना मुँह मोड़ा, तो उनकी ही तरफ से नहीं, पूर्व दिशा से ही मुँह मोड़ लिया, ओर पश्चिम दिशा की ओर प्रवाहित हो गयीं। ऐसी मानिनी नर्मदा के तट पर ही बसा हुआ है, होशंगाबाद ज़िला। इसी ज़िले में एक जगह है, बाबई। बाबई के आसपास के तीन-चार गाँव ऐसे हैं, जहाँ पर परसाईयों का निवास है।
कुंदनलाल परसाई नाम के एक सज्जन भी इन्हीं गाँवों में से एक गाँव में रहा करते थे। वे साधारण गृहस्थ थे। मेहनत-मजदूरी करके अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे। वहीं पास में ही, जमानी गाँव में एक श्यामलाल पटेल रहा करते थे। वे खासे संपन्न थे। उनकी लंबी-चौड़ी खेती-बाड़ी थी। धन-धानय से परिपूर्ण थे। उत्तम स्वभाव और सज्जनता के लिये ख्यात थे। चार गाँव में मान-सम्मान था।
उनकी पत्नी और कुंदनलाल परसाई की पत्नी, आपस में बहनें थीं। इस तरह श्यामलाल पटेल और कुंदनलाल परसाई में साढ़ू-भाई का रिश्ता था। श्यामलाल पटेल को पता चला कि कुंदनलाल परसाई का परिवार आर्थिक रूप से परेशानी में चल रहा है। आजीविका के लिये दूसरों के यहाँ मेहनत-मजदूरी करना पड़ती है, तो उनका हृदय करुणा से भर गया। उन्होंने अपने खास हरकारे के द्वारा कुंदनलाल परसाई के पास ख़बर भिजवायी, कि आप तंगी में चल रहे हैं, पर आपने हमें ख़बर न की। हमें अपना न समझा। अब हमारा ऐसा अनुरोध है कि आप सपरिवार हमारे गाँव जमानी तुरंत ही आ जाइए। आप हमारी ज़मीनों की मुख़्तारी कीजिए। उसका आपको सम्मानजनक वेतन मिलेगा। इतना ही नहीं, इसके अलावा, हम आपको खेती करने के लिये, कुछ ज़मीनें भी दे देंगे। आप उसमें खेती करना। अपने लिये अन्न उगाना।
जमानी वाले साढ़ू भाई श्यामलाल पटेल जी का स्नेह, सम्मान और उदारता से भरा संदेश पाकर कुंदनलाल परसाई पहले तो अचकचा गये। समझ में न आया कि अचानक ऐसा प्रस्ताव कैसे उनके द्वार पर चला आया। पत्नी से चर्चा की, तो उन्होंने प्रस्ताव से खुश होकर कहा- भगवान ने हमारी सुन ली। बहनोई साहब की मार्फत भगवान ने ही अपनी किरपा बरसाई है। आप इसे मंजूर करो और जमानी चलने की तैयारी करो। यहाँ की मेहनत-मजदूरी दूसरों की गुलामी करने के बराबर है। वहाँ सब अपने हैं। आप को मुख़्तारी दे रहे हैं। इज्जत-मान से बुलाया है, तो उस बुलावे का मान भी रखना चाहिए...।
पत्नी की बातों ने कुदनलाल परसाई के मन में छाये हुए असमंजस को मिटा दिया। वे आश्वस्त हुए, कि प्रस्ताव को मंजूर कर लेने से स्वाभिमान पर आँच न आती थी। लेन-देन बराबर था। वे वेतन देंगे, तो बदले में हम पूरी मेहनत और ईमानदारी से मुख्तारी भी तो करेंगे। खेती की ज़मीनें देंगे, तो हम उन पर पसीना बहायेंगे। अन्न उपजायेंगे और उनकी ज़मीनों को सुरक्षित रखेंगे। ज़मीन उन्हीं की रहनी थी। यह रिश्तेदारी की भावना से की जाने वाली सहायता थी, तो उसे भी वक़्त आने पर, अपने परम् कर्तव्य की तरह किसी न किसी रूप में हम भी चुकाने में पीछे न रहेंगे। रिश्तेदार, आखि़र इसी दिन के लिये तो होते हैं, अन्यथा उनके होने का क्या मतलब!
कुंदनलाल परसाई का बड़ा परिवार था। उनके पाँच बेटे थे, मुकुंदीलाल, कन्हैयालाल, रामदयाल, झूमकलाल और श्यामलाल। दो बेटियाँ थीं, लक्ष्मीदेवी और बटेश्वरी देवी। इस तरह उन्हें और उनकी पत्नी को मिलाकर, परिवार में कुल नौ सदस्य होते थे। साढ़ू-भाई श्यामलाल पटेल की सदाशयता और उदारता के प्रति कुंदनलाल परसाई का मन कृतज्ञता से भर गया। वे उनके प्रति विनीत भाव मन में धारण कर अपने भरे-पूरे परिवार को लेकर जमानी चले आये।
श्यामलाल पटेल ने कुंदनलाल परसाई के परिवार का सच्ची आत्मीयता से स्वागत किया। उन्हें भी अपने लिये ऐसे सहयोगी की ज़रूरत थी, जो भरोसेमंद हो और उनकी ज़मीनों की जिम्मेदारी के साथ देख-रेख कर सके। मजदूरों से काम ले सके। फसलों का हिसाब रखने, उन्हें बाज़ार भिजवाने, बेचने और रकम लाने का काम कर सके। तो यह रिश्तेदारी, परस्पर प्रेम के अलावा, परस्पर ज़रूरतों को पूरा करने वाला गंठजोड़ भी था।
जमानी आकर कुंदनलाल परसाई ने, श्यामलाल पटेल की ज़मीनों की मुख्तारी सम्हाल ली। श्यामलाल पटेल ने अपने प्रस्ताव और वादे के मुताबिक उन्हें इतनी भूमि भी दे दी, जिस पर खेती करके वे अपने परिवार के लिये, साल भर का अनाज उत्पन्न कर सकें और कुछ बाज़ार में बेच भी सकें। दो-तीन साल में उनके हालात बदल गये। बड़े परिवार का भरण-पोषण करने के दूरगामी उद्देश्य से उन्होंने जमानी में ही कुछ सिकमी ज़मीन भी ले ली थी और उस पर भी खेती करने लगे थे। वे जल्दी ही आर्थिक रूप से सम्हल गये। लड़कों ने भी काम में योगदान किया और संपन्नता के द्वार खोले।
समय आने पर कुंदनलाल परसाई ने अपने बच्चों के शादी-विवाह किये। उनके घर-परिवार हुए। ज़रूरतें बढ़ीं। काम-काज बढ़ा। लड़कों ने स्वतंत्र काम भी अपनाये। कुंदनलाल परसाई अपनी उम्र जी कर, एक दिन संसार से चले गये। मुकुंदीलाल, कन्हैयालाल और रामदयाल ने अपने लिये दूसरे गाँवों में नया काम-काज और ठिकाना तलाशा और जाकर वहीं पर बस गये।
मुकुंदीलाल, कन्हैयालाल और रामदयाल के कोई संतान नहीं थी। चौथे पुत्र झूमकलाल के दो पुत्र हरिशंकर और गौरीशंकर हुए। तीन बेटियाँ रुक्मणीं देवी, सीता देवी और मोहिनी देवी कहलायीं। मोहिनी देवी का एक घरेलु नाम भी था, हन्ना।
पाँचवे पुत्र श्यामलाल थे। उनकी एक पुत्री थी और वह भी निःसंतान ही रही। श्यामलाल बहुत दिनों तक अपने भाई झूमकलाल परसाई के साथ ही रहे। रुक्मणीं देवी का विवाह मिश्रीलाल दुबे के साथ हुआ। वे कर्मकांडी ब्राह्मण थे और पंडिताई करके आजीविका चलाते थे। वे वैचारिक रूप से कम्युनिस्ट थे। यह जरा अजीब ही है कि एक तरफ ब्राह्मण-जीवन शैली और कर्मकाण्डों को संपन्न कराने का का और दूसरी तरफ कम्युनिस्ट पार्टी और साम्यवादी विचारधारा के प्रति समर्पण। आंदोलन, जेल यात्राएँ और सर्वहारा समाज के साथ गहरा सहजीवन।
वे नसरुल्लागंज के पास रेंहटी गाँव में बस गये थे। जब 1947 में भारतीय स्वाधीनता आंदोलन सफल हो चुका था और रियासतों का भारत संघ में विलय हो रहा था, तब जिन रियासतों ने अपने को भारत संघ में विलीन न करने का फैसला किया था, उनमें भोपाल रियासत भी शामिल थी।
सुल्तान कैखुसरो जहान बेगम के बेटे, नवाब हमीदुल्लाह खान, 1926 में भोपाल की गद्दी पर बैठे। वही भोपाल रियासत के आखिरी नवाब हुए। वे चैंबर ऑफ प्रिंसेस के चांसलर भी हुआ करते थे। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रियता के साथ भागीदारी की थी। वे सन् 1930 से 1932 तक गोलमेज सम्मेलन में प्रतिनिधि और मुस्लिम लीग के सक्रिय सदस्य तथा मुहम्मद अली जिन्ना के निकटतम राजनीतिक सहयोगी भी रहे।
कश्मीर, हैदराबाद, सिक्किम और ऐसी ही दूसरी रियासतों की तरह, वे भी भोपाल रियासत की स्वायत्तता को कायम रखने के पक्षधर थे। इसलिये भोपाल रियासत, हैदराबाद और त्रावणकोर रियासतों के साथ, एक ऐसा समूह बन गयी थी, जिसने आधिकारिक तौर पर भारत और पाकिस्तान के डोमिनियन में शामिल होने से साफ इंकार कर दिया था।
मध्य भारत की एक रियासत के मुस्लिम नवाब होने के कारण, हमीदुल्ला खान ने भारत के विभाजन का विरोध भी किया था, क्योंकि उन्हें डर था कि ऐसा हो जाने पर, पश्चिम या पूर्वी पाकिस्तान के बाहर के मुसलमान मुख्यधारा से बाहर हो जायेंगे। इसलिये उन्होंने भारत गणराज्य के अंदर ही भोपाल रियासत के लिये क्षेत्रीय मुस्लिम स्वायत्तता की माँग की थी।
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अगस्त 1947 को भारत अंग्रेजों की पराधीनता से आज़ाद हुआ। बहुत सी रियासतें भारत संघ में विलीन हो गयीं। भोपाल के नवाब हमीदुल्लाह खाँ ने भोपाल राज्य को स्वतंत्र रखने का निर्णय लिया। नवाब हमीदुल्ला खान ने, मार्च 1948 में भोपाल को एक अलग स्वतंत्र राज्य के रूप में बनाए रखने की अपनी इच्छा सार्वजनिक रूप से व्यक्त भी कर दी। मई 1948 में नवाब ने भोपाल सरकार का एक मंत्रिमंडल भी घोषित कर दिया। चतुरनारायण मालवीय को प्रधानमंत्री बनाया।
भोपाल राज्य का जनमत इसके पक्ष में न था। लिहाजा दिसंबर 1948 में नवाब की इस इच्छा के खिलाफ जनता का आंदोलन शुरु हो गया। माँग उठी कि भोपाल राज्य का, भारत संघ में विलय किया जाये। आंदोलन की व्यापकता का ऐसा असर हुआ, कि नवाब के सबसे भरोसेमंद और उनके प्रधानमंत्री चतुर नारायण मालवीय भी विलीनीकरण आंदोलन के पक्ष में हो गए।
विलीनीकरण आंदोलन की रणनीति और गतिविधियों का मुख्य केंद्र रायसेन था। रायसेन में ही उद्घवदास मेहता, बालमुकुन्द, जमना प्रसाद और लालसिंह ने विलीनीकरण आंदोलन चलाने के उद्देश्य से, जनवरी-फरवरी 1948 में प्रजा मंडल की स्थापना की। रायसेन के साथ ही सीहोर से भी आंदोलनकारी गतिविधियां चलाई गईं।
माँग के समर्थन में एक जबरदस्त आंदोलन आरंभ हुआ, जिसका नेतृत्व भाई रतन कुमार, डॉ. शंकरदयाल शर्मा, प्रो अक्षय कुमार, पत्रकार प्रेम श्रीवास्तव, सूरजमल जैन, मथुरा प्रसाद, बालकृष्ण गुप्त, मिश्रीलाल दुबे, मोहनी देवी, शांति देवी, बसंती देवी, राम चरण राय, बिहारीलाल घाट, ठाकुर लालसिंह और लक्ष्मीनारायण सिंहल जैसे जांबाज लोगों ने किया और जेल यात्राएँ कीं। 5 जनवरी, 1949 के दिन भाई रतन कुमार और 6 जनवरी, 1949 के दिन डॉ. शंकरदयाल शर्मा को भोपाल रियासत की पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। दोनों नेताओं के अलावा उनके प्रमुख सहयोगियों को भी जेल में डाल दिया गया। डॉ.. शर्मा ने प्रतिबंध तोड़ कर सार्वजनिक सभाएं कीं और आठ महीने के लिये जेल की सजा पायी। पुलिस के द्वारा गोली चलाने से बहुत से आंदोलनकारियों की मृत्यु भी हो गयी थी। रायसेन जिले के ग्राम बोरास में चार नौजवान, पच्चीस वर्षीय धनसिंह और विशाल सिंह, तीस वर्षीय मंगलसिंह, और सोलह वर्षीय छोटेलाल शहीद हो गये थे।
इस आंदोलन को ताकत देने और जनता में चेतना जगाने के लिये, भाई रतन कुमार और उनके सहयोगियों ने ‘नई राह’ नाम का समाचार पत्र का प्रकाशन आरंभ किया था। आंदोलन का केंद्र जुमेराती स्थित वही ‘रतन कुटी’ बन गया था, जहाँ ‘नई राह’ का दफ्तर चलता था। भोपाल के नवाब को यह नागवार गुजरा और उसने एक हुक्म जारी कर दफ्तर को बंद करवा दिया। दफ्तर बंद हो जाने पर भी, अख़बार बंद नहीं हुआ, वह होशंगाबाद के एडवोकेट बाबूलाल वर्मा के घर से, भूमिगत रूप में निरंतर निकाला जाता रहा। विलीनीकरण का आंदोलन भी वहीं से चलाया जाता रहा।
सरदार पटेल ने भोपाल रियासत को भारत संघ में विलय करने की माँग वाले आंदोलन ओर आंदोलनकारियों का बर्बरता के साथ किये जाने वाले दमन को गंभीरता से लिया। उन्होंने 23 जनवरी 1949 को, विलय समझौते के लिये वार्ता हेतु वी पी मेनन को भोपाल भेजा। दोनों पक्षों में गहन वार्ता हुई। मेनन ने भारत सरकार के गृहमंत्री के कठोर और निर्णायक रवैये के बारे में नवाब को बता दिया था। वार्ता के नतीजे में, फरवरी 1949 में, विलय आंदोलन के राजनीतिक बंदियों को रिहा कर दिया गया।
नवाब भोपाल को 30 अप्रैल 1949 के दिन, विलय पत्र पर हस्ताक्षर करन ही पड़ा। इस प्रकार 1 जून 1949 को भोपाल राज्य भी भारत संघ में शामिल हो गया।
भोपाल राज्य विलीनीकरण आंदोलन में, हरिशंकर परसाई की बहन रुक्मणी देवी और उनके पति मिश्रीलाल दुबे तथा सबसे छोटी बहन मोहिनी देवी, जो उन दिनों रुक्मणी देवी के साथ ही रहा करती थीं, ने सक्रियतापूर्वक हिस्सेदारी की थी। रुक्मणी देवी, मिश्रीलाल दुबे और मोहिनी देवी जुलूसों और जलसों में खुलकर भाग लेते थे। जब रुक्मणी देवी और मोहिनी देवी हरिशंकर, परसाई जी के पास जबलपुर आया करती थीं, तो कम्युनिस्ट पार्टी तथा देश के दूर-दराज के इलाकों में चलने वाले उसके आंदोलनों, सम्मेलनों तथा दीगर गतिविधियों पर उनके बीच आधी-आधी रात तक चर्चाएं चला करती थीं। वे घरेलु बातों को दरकिनार कर साम्यवादी-विमर्श में ही जुटे रहते थे।
सीता देवी का विवाह बैतूल के देवकीनंदन दुबे के साथ हुआ था। वे नगर पालिका के ऑक्ट्राय विभाग में इंस्पेक्टर हुआ करते थे। मोहिनी देवी का विवाह कैलासचंद्र दीवान से हुआ। वे बीना में रेल्वे में गार्ड के पद पर थे।
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एक
झूमकलाल परसाई और उनके छोटे भाई श्यामलाल, जमानी वाले पटेल-मौसा से मिली हुई ज़मीन पर खेती करते रहे। यहीं पर 22 अगस्त, 1924 को झूमकलाल परसाई के घर पहले पुत्र का जन्म हुआ। थाली बजायी गयी। खुशियाँ मनायी गयीं। पिता दूर गाँव जाकर एक नामी पंछित जी को अपने साथ लेकर जमानी आये। नवजात की उनसे कुंडली बनवायी। पंडित जी ने बालक के ग्रहों की पड़ताल करके बताया कि जातक का भविष्य उज्जवल है। वह थानेदार बनेगा। उसका रुतबा दूर-दूर तक फैलेगा। यश कमायेगा।
पंडित जी ने कहा- इसका नाम ‘ह’ से रखना होगा, क्योंकि राशि यही कहती है, तो हरि नाम ठीक रहेगा।
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जी पंडत जी...। हम भगवान शिव के भक्त हैं, तो क्या उनके नाम पर बच्चे का नाम रख सकते हैं...?
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हाँ, रख सकत हौ, परसाई जी। हरि के आगे शंकर और जोड़े देत हैं, तो अब जातक हो गया, हरीशंकर।
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हरीशंकर...! हाँ, जे ठीक है, पंडतजी महराज...। विष्णु के साथ भोलेनाथ भी।
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हओ, रचनाकर्ता के संगै संहारकर्ता भी। रचने वाला और मिटाने वाला साथ-साथ।
पिता को ऐसे जातक पर गर्व हुआ। पंडित जी को दक्षिणा में नये कपड़े, सवा रुपया और अनाज दिया गया। वे पूरे परसाई कुल को आशीर्वाद देते हुए विदा हुए।
हरि का लालन-पालन करने में कोई कसर न छोड़ी गयी। घीरे-घीरे चार साल का अरसा गुजर गया। चपल बालक ने अपने पिता की तरह लंबा कद निकाला। लंबाई देख कर पिता ने हिसाब लगा कर देखा, तो हरि की उम्र स्कूल जाने वाली लगी। वे उसे खूब पढ़ाने और बड़ा आदमी बनाना चाहते थे। नया ज़माना आ चुका था। बिना पढ़े सब बेकार था। जमानी में तब स्कूल ही नहीं था। ऐसे में क्या किया जाये, की चिंता उन पर सवार हो गयी।
मन ने कहा, जहाँ स्कूल हो, वहाँ जाना होगा।
जवाब मिला- हाँ, जायेंगे।
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पर इधर तो खेती-बाड़ी है, जहाँ जाओगे, वहाँ रोटी का कौन ठिकाना पाओगे...?
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पता नईं। पर जाना तो पड़ेगा ही। जाये बिना लड़के का जीवन बरबाद हो जायेगा...।
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सोच लो...।
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सोच लिया है...।
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कहाँ जाओगे...?
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धरमकुंडी जाने का सोचा है...।
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पक्का...?
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हाँ, सोला आना पक्का...।
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तो जाओ...।
रात को ब्यारी करने बैठे तो भाई से कहा- श्यामलाल हमें यहाँ से जाना होगा।
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जमानी छोड़के...?
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हाँ...।
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क्यों भईया का हो गओ, जो जमानी छोड़बे की बात कर रए हौ...?
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अपने हरी की उमर अब स्कूल जाने की हो रही है। यहाँ पर तो स्कूल है नईं...। तो कहीं और जाना पड़ेगा..., जहाँ स्कूल हो...।
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और खेती-बाड़ी...?
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वह अपनी तो है नईं...। मौसा की है...अपन तो बा पे खेती करत रहे और खात रहे...। उनईं की चीज है, उनईं खौं लौटा दैहैं और निकल चलहैं...।
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कैंसी बात करत हो भईया जी...? अच्छी भली खेती और जमीन छोड़ के अपन चले जाहैं, तो उतै खाहैं का...ऐं...?
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कुछ करेंगे...। चार पैसे जोड़े हैं, तो इनईं से कछु दिन काम चलहै...। तब तक कोई काम-धंधा ढूँढ लैहैं...।
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मगर जाहैं कहाँ? जा सोची है...।
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धरमकुंडी जाबे के बारे में सोची है...।
श्यामलाल को बात न जमी, कहा- इतै से जाबे की का जरूरत है। इतै हमाये पास जमीनें हैं। पेट को सहारो है...।
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ज़मीनें अपनी कहाँ हैं...? पटेल मौसा की हैं। उन्होंने हमाई गरीबी पे दया करके दद्दा जी खौं इतै बुला लओ हतो। मुख्तारी दई ओर खेती करके कमाने-खाने के काजै जमीनें भी दईं हतीं...।
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तो का पड़बो इत्ती जरूरी है...।
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हाँ, बहुत जरूरी है...। बिना पढ़ै हमाई-तुमाई जिंदगी कैसी है, खुदई देख लौ...। हमने मिडिल तक की पढ़ाई करी है, पर इतै जमानी में बा पढ़ाई को भी कछु उपयोग है का...? मेहनत करत-करत मरबे को टैम आओ जा रहो है...।
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ठीक है, पर जमीनें तो नै छोड़ो...।
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तो का करैं...?
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जमीनें अपनी हैं। उन्हें सिकमी दै दो...। नईं तो हम इतै रहत हैं और खेती करत रैहैं...।
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तुम और खेती करहौ...? तुम्हें अपने दोस्तों-यारों से फुरसत भी है...? दिन भर जुआ और खैनी में डूबे रहत हौ...। काम के न धाम के...। कहत हौ खेती करहैं...। दो घंटा तो कभी खेत पे रहे नईं...।
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पर जमीन तो अपनई है...। अपनई रैहै...।
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नईं मौसा खौं लौटा दैहें...। कलई सब बात कर लैहैं...। उनके लड़कन को हक है जमीनों पे। हमाओ-तुमाओ नईयां...।
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अरे आप कैसी बात करत हौ, भईया जी...? भौजी अब आपई इन्हैं समझाओ...। देखौ भईया हमने सुनी है कि ऐसों एक कानून है कि माली मकबूजा की जमीन पै बोई को हक होत है, जौन बा पे खेती करत है।
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तुम्हारा मतलब है कि हम जमीनों पर कब्जा कर लें। उन पर अपना हक जमायें...?
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और का...। इत्ते साल से बामें हर चला रए हैं...। पसीना गिरा रए हैं...। तो ओहे छोड़ें काये...?
- तो जिनने हमाई गरीबी पे दया करके, हमें खेती करने के लिये जमीनें दीं। दद्दा जी खौं मुख्तारी दी, मुख्तारी को बेतन दओ, अब हम उनके परोपकारों को भूल जायें और उनका धन्यबाद करने की बजाय, उनकी जमीनें हथिया लें...! कब्जा कर लैं...। ना, जे तो हम कभी ना करेंगे...। समझे...।
झूमकलाल जी थाली छोड़ कर उठ गये।
श्यामलाल की कूट-बुद्धि झूमकलाल जी की सज्जनता के आगे नहीं चली और पूरा परिवार पटेल जी के प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता जता कर 1928 में धरमकुंडी के लिये रवाना हो गया। रास्ते में श्यामलाल ने कहा- भैया, हमाई कछु चीज छूट गयी है...। हम जाके ले आ रए हैं...। आप सब चलौ...। हम भी आई रए हैं पीछे-पीछे...।
झूमकलाल जी ने जरा शंकालु दृष्टि से उन्हें देखा। वे कुछ कह पाते, उसके पहले ही श्यामलाल अपने ‘दुख-भंजन’ को दायें हाथ में झुलाते हुए तेज चाल से लौट पड़े। ‘दुख-भंजन’ उनकी लाठी का नाम है। उसे नियम से तेल पिलाते हैं। तेल में उसे नहला कर, घर के एक कोने में टिका देते हैं। वह उनका अस्त्र थी। उनका श्रृंगार थी। शोभा थी। उसके बिना बाहर कदम न रखते थे। पर उसका प्रयोग ज्यादा कभी किया नहीं। बस डराने का सामान थी। पर दो-चार बार सिरों को फोड़ भी चुके थे, इसलिये उनका रोब बहुत था।
जवानी के दिनों में ही पत्नी, एक बेटी को अपने पीछे छोड़ कर, चल बसी थी। सो श्यामलाल पूरी तरह से निछक्के हो गये थे। कोई खूंटा न बचा था, जो उन्हें बांध कर रख सकता, इसलिये दनदनाते रहते थे। मन स्त्री-देह की आकांक्षा में तरसता था और तन सिर फोड़ने की। सिर्फ़ तरसता था। व्यवहार में उसे साकार करने से जरा थमक जाते थे। बड़े भाई का लिहाज और ब्राह्मण होने का गौरव, उन्हें थामे रहता।
कोई एक घंटा बाद श्यामलाल लौटे। झूमकलाल जी ने पूछा- क्या रह गया था, श्यामलाल...?
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अरे कछु नईं भैया, तमाखु की डिबिया भूल आये हते...। लै आये हैं...।
पर असल बात यह थी, कि वे खेतों में पेड़ की छाया में बैठे हुए, अपने मौसेरे भाई को दो लट्ठ जमा कर आये थे। इस तरह उन्होंने ज़मीनें छोड़ने का हिसाब चुकता कर लिया था। ज़मीनें मुफ्त में न छोड़ी थी।
परिवार धरमकुंडी में जा बसा। झूमकलाल आठवीं तक पढ़े हुए थे। पढ़ाई काम आयी। वे सरकारी प्रायमरी स्कूल में अध्यापक हो गये। जब हरि पाँच साल के हो गये और अपने दायें हाथ को, दायें कान पर से ले जाकर, बायें कान के ऊपर का हिस्सा छू सकने में सफल हो गये, तो उनका नाम पहली कक्षा में लिखवा दिया गया।
श्यामलाल पहले तो झूमकलाल जी के साथ धरमकुंडी में ही रहे। उनके पास कोई काम भी न था। कुछ महीनों के बाद वे खंडवा चले गये और वहाँ किसी सेठ के यहाँ नौकरी करने लगे।
झूमकलाल जी का व्यक्तित्व बड़ा रुआबदार था। लंबा क़द। चौड़ी काठी। बड़ी-बड़ी मूछें। गोरे-चिट्टे। सिर पर साफा बांधते थे। घोड़े पर चलते थे। ऐसे में उन्हें देख कर लगता था, कोई ज़मींदार साहब चले आ रहे हैं। उनका परिवार धीरे-धीरे बड़ा हो रहा था। पाँच बच्चे हो गये थे। दो लड़के और तीन लड़कियां। प्रायमरी स्कूल के अध्यापक के वेतन में गुजारा नहीं हो पा रहा था। ज्यादा आमदनी वाले किसी दूसरे काम-धंधे की फिराक में लगे रहते थे। एक दिन उनकी भेंट एक गुजराती जंगल-ठेकेदार से हो गयी। उसे जंगल के काम में पढ़े-लिखे आदमी की ज़रूरत थी। स्कूल के अध्यापक से जान-पहचान हुई और उनकी ठसक देखी, तो ठेकेदार ने कहा- आप हमारे साथ जंगल के काम में आ जाओ...। स्कूल की मास्टरी में का धरा है...?
झूमकलाल जी तैयार हो गये। टिमरनी के पास मरदानपुर के घनघोर जंगल में काम चलता था। पेड़ काटे जाते, फिर उन्हें कम ऑक्सीजन में जलाकर, कोयला बनाया जाता। कोयला, बाज़ार में फुटकर विक्रेताओं के पास बिकने भेज दिया जाता।
मरदानपुर में स्कूल न था। तो रहटगाँव रहने चले गये। दूसरी कक्षा में हरि का नाम लिखा दिया गया। हरि ने बस्ता कांधे पर टांगा और बाबूजी के संग अपने नये स्कूल पहुंचे। बाबूजी ने हरि को शिक्षक के हवाले किया, उस पर कड़ी नज़र रखने और ज्ञान देने का अनुरोध किया और अपने काम पर चले गये। शिक्षक ने हरि को दूसरी कक्षा के बच्चों के संग प्रार्थना की कतार में लगा दिया।
प्रार्थना हुई। बच्चे कतार में चल कर कक्षा में आये। फर्श पर बिछी टाट पट्टियों पर बैठे। हरि ने भी आसन जमाया। पाटी निकाली। बड़ी देर बाद, एक हाथ में रजिस्टर लिये हुए वही शिक्षक कक्षा में आये। बच्चों ने खड़े होकर उन्हे सैल्यूट किया। सैल्यूट पाकर वे मुस्कुराये। अंग्रेजों ने ही यह विद्या भारतीयों को सिखायी थी।
शिक्षक अपनी कुर्सी पर पालथी लगा कर बैठ गये। रजिस्टर मेज पर रख दिया। कुरते की जेब से चूना-तम्बाकू की लंबी वाली डिबिया निकाली। उससे तम्बाकू लिया। चूना मिलाया। फिर उसे बायें हाथ की हथेली पर रखा और दायें हाथ की अंगुली से, दत्त-चित्त होकर, देर तक घिसते रहे। घिस लेने के बाद तम्बाकू का चूर्ण गाल में दबाया और तब रजिस्टर खोला। फिर जरा जोर से कहा- लड़को सब सांत हो जाओ...। मुँह पे ताला लगा लो...। अब हाजरी होगी...। का होगी...?
लड़कों ने चिल्लाकर कहा- हाजरी...।
शिक्षक रोज़ ऐसा ही करते थे, इसलिये बच्चों को उनकी प्रत्येक गतिविधि का पहले से ज्ञान रहता था। लड़कों ने अपने दायें हाथ की एक अंगुली को होठों पर रख कर ताला लगा लिया। शिक्षक महोदय ने लय में एक-एक नाम पुकार कर हाजिरी ली। जो नहीं आया उसके बारे में, उसके पास बैठने वाले बच्चे से पूछताछ भी की। हाजिरी के क्रम में हरिशंकर का नाम भी आया।
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हरीसंकर...।
हरि ने अपनी जगह पर खड़े होकर कहा- जी, उपस्थित गुरुजी...मगर...।
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मगर का रे हरीसंकर...?
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हमारा नाम हरिशंकर है, गुरुजी...।
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तो हम भी तो हरीसंकर ही कह रहे हैं...। जटासंकर तो नहीं कह रहे हैं...।
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हरीसंकर नहीं, हरिशंकर है, गुरुजी...।
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अरे हमको सिखाता है रे लड़के..., मास्टर का लड़का है तो जादई पटर-पटर करता है का...।
हरि बैठ गये।
हाजिरी हो जाने के बाद शिक्षक ने अक्षर ज्ञान दोहराने के लिये बच्चों से कहा- निकालो पाटी और अच्छर लिखो...।
खुद उन्होंने दीवार पर लगे काले तख्ते पर लिखा, क और कहा- बच्चो अपनी अच्छर ग्यान वाली किताब खोलो।
बच्चों ने किताब खोली। हरि ने भी अपनी किताब खोली।
शिक्षक ने बच्चों के पास जाकर देखा, कि उन्होंने सही किताब और किताब का सही पन्ना निकाल लिया है या नही। जिन्होंने नहीं निकाला था, उनकी किताब से वह पन्ना खोल कर सामने कर दिया।
हरि चंट़ थे। घर पर ही अक्षरों को पहचानना और लिखना सीख लिया था। पिता अध्यापक रह चुके थे, तो समय मिलने पर पढ़ा दिया करते थे। हरि ने अपने आसपास के बच्चों की किताबों में भी सही पन्ना निकालने में सहायता कर दी। अध्यापक ने जब देख लिया, कि सभी बच्चे अक्षरों वाला पन्ना अपने सामने खोले बैठे हैं, तो उन्होंने श्याम पट पर लिखे वर्ण क को कैसे लिखा जाता है, यह लिखकर बताया- बच्चो, अब अपनी पाटी पर, पहले एक आडी लकड़ी खींचो, अइसे। खींचो-खींचो...।
उन्होंने दो-चार बच्चों की स्लेट पर खिंची हुई लकीर देखी। जिनको समझ नहीं आया था, उनकी स्लेट पर लकीर खींच कर बताया- अरे अइसे खींचो...।
हरि ने अपनी पाटी पर, लकीर ही नहीं पूरा वर्ण ही लिख रखा था- क।
अपने आसपास के बच्चों को भी लकीर कैसे खींचना है, हरि ने बता दिया था। फिर आड़ी लकड़ी पर खड़ी लकड़ी भी खिंचवा दी। फिर बायीं ओर एक गोला बनाकर, उसे दायीं ओर लाकर, आधा गोला बनाना भी वही सिखा रहे थे।
शिक्षक की नज़र उन पर पड़ी। देखा उनकी स्लेट पर क वर्ण बना हुआ है। वह औरों की स्लेट पर भी क वर्ण बनवा रहे हैं। दस पर शिक्षक की त्योरियां चढ़ गयीं- अरे हरीसंकर, तुम तो खुदई मास्टर बन गये हौ...। आगे-आगे भाग रए हौ। बताओ मास्टर कौन है, हम हैं कि तुम...?
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आप हैं गुरुजी...।
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तो भइया, हमईंखों पढ़ान दो ना...। तुम नैं पढ़ाओ...। का...?
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जी, गुरुजी।
अध्यापक श्याम पट के पास गये- देखो लड़को, पहले आड़ी लकड़ी खींची थी ना, अब उस पर एक खड़ी लकड़ी खींचना है। अइसे...।
श्याम पट पर खड़ी लकड़ी खींची गयी। बच्चों ने श्याम पट पर देखा और अपनी स्लेट पर खींचने के काम में जुटे। शिक्षक उनके पास जा-जाकर देखने लगे, कि लकड़ी सही खींची जा रही है या नहीं।
शिक्षक ने पूछा- सबने खींच ली...?
बच्चों ने समवेत स्वर में कहा- खींच ली गुरुजी।
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ठीक है। अब हम इसमें बायीं तरफ एक आड़ा चूल्हा बनायेंगे, अइसे। बनाओ...।
बच्चों ने बनाना शुरु किया। शिक्षक ने लड़कों की पाटियां देखीं। जो नहीं बना पा रहे थे, उनकी पाटी में बनवाया। फिर श्याम पट के पास गये- अब खड़ी लकड़ी के दायीं तरफ को आधा, मगर सीधा चूल्हा बनायेंगे, अइसे। बनाओ-बनाओ...।
बच्चों ने बनाया। हरि चुप बैठा रहा। शिक्षक ने पूछा- हरी, तुम नहीं बना रहे हो...?
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गुरुजी हमने तो बना लिया है, ये देखिये...।
हरि ने पाटी दिखा दी। शिक्षक ने देखा कि पाटी में पूरा वर्ण ही बना हुआ है।
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अरे, तुमने तो पूरा बरन ही बना लिया है...!
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जी, गुरुजी। हम तो पूरे वर्ण बना लेते हैं। बाराखड़ी भी लिख लेते हैं...।
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अच्छा, कहाँ से सीख लिया है रे हरी...?
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घर पर। हमारे बाबूजी ने सिखाया है...।
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अच्छा...अच्छा...। हूं...। तो सबने बना लिया...?
समवेत स्वर पैदा हुआ- जी गुरुजी।
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ठीक है। अब बोलो, क कमल का।
बच्चों ने कहा- क कमल का।
हरि ने कहा- नहीं गुरुजी, क कलम का।
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नहीं, बोलो, क कमल का।
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नहीं गुरुजी, क कलम का।
शिक्षक नाराज हो गये- अरे जब हम कह रहे हैं, कि क कमल का, तो क कमल का ही होगा ना। समझे...!
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नहीं गुरुजी, क कलम का होता है...।
शिक्षक ने डाँटा- मुँह लड़ाता है...? खड़ा हो जा...।
हरि खड़े हो गये। शिक्षक उनके पास गये- देख किताब में क्या लिखा है...? ये कमल का फूल बना है कि नईं...?
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बना है।
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कहीं कलम बनी है का...?
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नहीं बनी।
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तो हुआ न क कमल का।
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नहीं गुरुजी, हुआ तो क कलम का ही...।
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तो किताब झूठी है...जिसमें कमल बना है...?
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पर हमारे हाथ में तो सचमुच की कलम है..., गुरुजी...ये देखिये...।
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बहुतई जबर लड़का है...। परसाद देना पडत्रेगा। चल हथेली खोल...।
हरि ने हथेली खोल दी। एक संटी पड़ी, सड़ाक्। बच्चा किलबिला गया। आँखें डबडबा आयीं।
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बोल क कमल का...।
हरि ने रुआंसी आवाज़ में कहा- क कलम का...।
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अरे अब भी वही, चल अब दूसरी हथेली खोल।
हरि ने दूसरी हथेली खोल दी। एक और संटी पड़ी, सड़ाक्। बच्चा दोहरा हो गया। दोनों हथेलियों पर नीले रंग की लकीरें खिंच गयी। शेष भाग लाल हो गया। आंसु गालों पर बह चले।
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अब बोल क कमल का...।
हरि ने अपनी दोनों मुट्ठियों को पेट के निचले हिस्से में दबाये-दबाये कहा- क कलम का...।
शिक्षक ने माथा पीट लिया। समझ गये कि यह लड़का अलग मिट्टी का बना है। जाकर कुर्सी पर धम्म से बैठ गये। शून्य में ताकने लगे।
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क्रमशः
राजेन्द्र
चन्द्रकांत राय
‘अंकुर’, 1234, जेपीनगर, आधारताल,
जबलपुर
(म.प्र.) - 482004
हिन्दी व्यंग्य के प्रमुख हस्ताक्षर हरिशंकर परसाई जी के जीवन सफर व सर्जनात्मक प्रतिभा की औपन्यासिक शिल्प-शैली में प्रस्तुति ......
जवाब देंहटाएंबहुत खूब।
आदरणीय राजेंद्र जी को बधाई।
अगले प्रकरण का इन्तजार....