नववर्ष एवं विश्व हिन्दी दिवस की अशेष शुभकामनाओं सहित.....
चंद बातें भारत-भारती की......
विचार स्तवक – माखनलाल चतुर्वेदी / डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी / अमरनाथ झा / डॉ. पूर्वा शर्मा
शब्द संज्ञान – डॉ. मदनमोहन शर्मा
नववर्ष एवं विश्व हिन्दी दिवस की अशेष शुभकामनाओं सहित.....
चंद बातें भारत-भारती की......
विचार स्तवक – माखनलाल चतुर्वेदी / डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी / अमरनाथ झा / डॉ. पूर्वा शर्मा
शब्द संज्ञान – डॉ. मदनमोहन शर्मा
वैश्विक
अर्थ-व्यवस्था जगत में बैंकिंग क्षेत्र की अनिवार्यता एवं उपादेयता के मद्देनजर,
व्यावहारिक आयाम पर कामकाज के निपटारे के लिए, अंग्रेजी के समानांतर
यथावश्यक रूप से, अन्य भाषाओं की शब्दावली का प्रयोग होना
स्वाभाविक है और इस क्रम में हिन्दी- शब्दावली भी अपवाद नहीं है । बहुधा ,चिर-परिचित और प्रचलित शब्दावली का प्रयोग न केवल अपेक्षित है बल्कि
हिन्दी के प्रचार-प्रसार के नजरिए से भी उसकी उपादेयता बढ़ जाती है। सामान्य रूप से
अर्थ जगत में ‘बैंक’, ‘चेक’, ‘ड्राफ्ट’,
‘कोड नम्बर’, ‘ए टी एम’ , ‘पिन’, ‘काउन्टर’, ‘बाउंस’ आदि ऐसे अनेक शब्द हैं जो बैंकिंग क्षेत्र में अंग्रेजी
में ही प्रयुक्त होते हैं और बैंकिंग सम्बन्धी कामकाज को संपन्न करने के प्रयोजन
की पूर्ति बड़ी सुगमता से करते हैं । बैंक के लिए ‘अधिकोष’ शब्द
का प्रचलन शायद ही कहीं दिखता हो । परन्तु दूसरी तरफ राजभाषा हिन्दी की निर्धारित
व संसूचित शब्दावली का प्रयोग भी व्यापक
रूप से, विशेष रूप से हिन्दी क्षेत्रों में होता है और
न्यूनाधिक रूप से हिन्दीतर प्रदेशों में
भी परिलक्षित है । बैंकिंग क्षेत्र की इस शब्दावली के अंतर्गत प्रमुख रूप से जो
शब्द प्रचलन में हैं उनमें – Exchange (विनिमय), Transaction (लेन देन),
Cash (नकद), Branch(शाखा), Account (खाता), Savings (बचत), Deposit (जमा), Customer
(ग्राहक), Recurring (आवर्ती), Term (मियाद/ अवधि), Withdrawal
(निकासी), Guarantee( प्रतिभूति), Manager
(प्रबंधक), Regional (क्षेत्रीय),
Loan (ऋण), Fee (शुल्क), Payment (भुगतान ), Recovery (वसूली)
, Sector (क्षेत्र), Slip (पर्ची),
Working hours ( कामकाज का समय), Office (कार्यालय),
Clerk (लिपिक), Peon(चपरासी), Cashier (खजांची), Amount (राशि), Land
Lord (भू स्वामी), Trade (व्यापार), Commerce (वाणिज्य), Market (बाज़ार),
Rate (दर), Interest (ब्याज), Maturity (परिपक्वता), Cost (मूल्य), Current (चालू), Compensation (राहत), Charge (प्रभार), Treasury (तिजोरी/कोष), Implementation (कियान्वयन),
In effect (प्रभावी), Profit (लाभ), Loss (हानि), Mortgage (गिरवी), Subscription (अंश दान) आदि समावेश किया जा सकता है।
बैंकिंग
क्षेत्र में हिन्दी शब्दावली के अनुप्रयोग के क्रम में उल्लेखनीय है किे क्षेत्रीय
भाषा-प्रयोग के अनुरूप कुछ हिन्दी शब्दों के स्थान पर उर्दू भाषा
के कतिपय शब्द भी उपलब्ध होते हैं। उत्तर भारत के कुछ राज्यों में बहुत बड़ी मात्रा
उन शब्दों की है जो संस्कृतनिष्ठ या हिन्दीनिष्ठ नहीं हैं, परंतु अन्य भाषाओं से
आगत शब्द है। ‘कर्ज़’,
‘नकद’, ‘रियायत’, ‘राहत’,
‘मुआवजा’, ‘वसूली’ आदि ऐसे ही शब्द हैं। यद्यपि
राजभाषा में हर सन्दर्भ के लिए हिन्दी की पारिभाषिक शब्दावली नियत है तथापि
व्यावहारिक सुगमता की दृष्टि से अन्य भाषाओं के शब्दों का प्रचलन में होना सामान्य
है। कुल मिलाकर, भारतीय परिप्रेक्ष्य में हिन्दी-शब्दावली के
प्रयोग का दायरा अन्य क्षेत्रों के समानांतर बैंकिंग क्षेत्र में भी सतत व्यापक
होता जा रहा है, जो कि एक संतोषजनक संकेत है। बैंकिंग क्षेत्र में कार्यरत-सेवारत
कार्मिकों के अलावा जन-सामान्य को भी बैंकिंग की हिन्दी शब्दावली से परिचित कराना
आवश्यक है ताकि अधिकाधिक रूप से हिन्दी व मानक हिन्दी की शब्दावली को जीवन-व्यवहार
में लाया जा सके।
डॉ.
मदनमोहन शर्मा
प्रोफ़ेसर
स्नातकोत्तर
हिन्दी विभाग
सरदार
पटेल विश्वविद्यालय
वल्लभ
विद्यानगर
जिला-
आणंद (गुजरात) – 388120
आदिकाल
से आधुनिक काल तक हिंदी भाषा के इतिहास पर नज़र डालने से यह स्पष्ट हो जाता है कि
समय के साथ उसके रूप और विन्यास दोनों में
ही परिवर्तन हुए हैं। आज हिंदी जिस रूप में हमारे समक्ष है अपने प्रारंभिक दौर में
उसका वही रूप नहीं था। इस स्तर तक पहुँचने के लिए उसने निरन्तर संघर्ष किया। आज
हिंदी विश्व के विशाल फलक पर अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज करा चुकी है,
स्नेह और सौहार्द की भाषा बन विदेशी मूल के लोगों का दिल जीत चुकी
है। भाषा के संदर्भ में यह उक्ति सर्वविदित है कि "कोस कोस पर पानी बदले,
चार कोस पर बानी", अर्थात एक ही भाषा
ज़रा से स्थानांतरण पर अलग अलग तरीके से
बोली जाती है । भारत में ही हिंदी की अनेक बोलियाँ हैं, जब
यह विदेश में पहुँची तो इनका रूप-रंग और बदल गया, कहीं
क्रियोली का प्रभाव पड़ा, तो कहीं अंग्रेजी और काईबीती का।
सूरीनाम में जाकर यह सरनामी हो गई, फीजी में फीजीबात,
तो दक्षिण अफ्रीका में नैताली। इन देशों में हिंदी पहुँची भारतीय
प्रवासी या आप्रवासियों के साथ जिनमें से अधिकांश शर्तबंदी प्रथा के अंतर्गत
ब्रिटिश एजेंटों द्वारा बहला-फुसलाकर ले
जाए गए थे। भारतीय मूल के इन लोगों ने अपनी नई कर्मभूमि में हिंदी को अपनी भारतीय
अस्मिता की पहचान बनाया और आज हिंदी की सभी बोलियाँ और विदेशी शैलियाँ न सिर्फ हिंदी को समृद्ध कर रही हैं अपितु यह
उसकी शक्ति हैं। विश्व में हिंदी की स्थिति का आकलन करते समय इन सभी बोलियों और
विदेशी शैलियों का आकलन किया जाता है, इन्हीं की वजह से
हिंदी का अस्तित्व है।
सूरीनाम,
वह देश है जहाँ औपचारिक हिंदी के साथ साथ सरनामी हिंदी हर
हिंदुस्तानी के घर में बोली जाती है। दक्षिण अमरीका के इस देश में 145 बरस पहले भारत से रवाना पहला जहाज लालारुख पहुँचा था जिसमें सवार
हिंदुस्तानियों में से कुछ इच्छा से, कुछ धोखे से, कुछ अज्ञानवश, कुछ पराधीन भारत में विद्यमान
समस्याओं, देश में उत्तरोत्तर बढ़ती बदहाली, 1873 में बिहार में पड़े अकाल से पीड़ित, भुखमरी गरीबी,
लाचारी से भाग एक बेहतर जीवन की तलाश में, सुख
की लालसा में और सोने की खोज में एक बेहतर जीवन का सपना लेकर पहुँचे थे। सूरीनाम
में हिंदी का उदय इन्हीं गिरमिटिया मजदूरों के माध्यम से हुआ। यह समुदाय बहुत
पढ़ा-लिखा तो नहीं था किंतु अपनी संस्कृति को जीने वाला वर्ग था, यहाँ आने वाले भारतीय श्रमिक मूलतः उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों से थे
जहाँ भोजपुरी, अवधी, मगही, मैथिली, ब्रज भाषाएँ बोली जाती हैं । सूरीनाम लाकर
उन्हें अलग प्लान्टेशनों में रखा जाता था जिसके कारण उनके परस्पर व्यवहार में हिंदी
की बोलियों का ही प्रयोग होता था। ये लोग रामायण, गीता,
पुराण, सत्यनारायण कथा आदि साथ ले कर आए थे।
दिन भर के कठिन परिश्रम के बाद ये अपने साथ लाए रामचरितमानस की चौपाइयां पढ़ते,
आपस में मिल बैठ कर भजन गाते किस्से कहानियाँ कहते-सुनते और इन्हीं
बैठकों के माध्यम से भाषा, धर्म व संस्कृति का प्रचार होता
रहा।भाषा धर्म और संस्कृति को बचाए रखने के लिए स्वाध्याय मंडलों, हिंदी कक्षाओं मंदिरों व गुप्त पंचायतों ने जन्म लिया। जिनको देवनागरी
लिपि का ज्ञान था उन्होंने अपनी सन्तानों व गाँव वालों को रात्रि के समय और छुट्टी
के दिन पढ़ाना आरम्भ किया। यह किसी के घर या झोंपड़ी में होता था । इस तरह परोक्ष
रूप से सूरीनाम में हिंदी का वृक्षारोपण हुआ। धीरे-धीरे यह वृक्ष पल्लवित होने
लगा।
आज सूरीनाम में हिंदी के दो स्वरूप देखने को मिलते हैं एक शुद्ध मानक हिंदी और दूसरी सरनामी जो सूरीनाम के हिंदुस्तानियों की भाषा है। अवधी, भोजपुरी व अन्य बोलियों की इस मिश्रित भाषा, जिसमें कालांतर में स्थानीय भाषाओं के शब्द भी जुड़ गए को सरनामी नाम देने का मुख्य ध्येय उसे इस देश की भाषा के रूप में स्थापित करना था क्योंकि जब तक उसे उस देश के साथ नहीं जोड़ा जाता वहाँ उसकी लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती थी। सरनामी हिंदी को प्रायः एक नई भाषा माना गया है किंतु मैं उसे हिंदी का ही एक रूप कहूँगी। जिस तरह अवधी, भोजपुरी, बुंदेली, छत्तीसगढ़ी, मगही, मारवाड़ी, हरियाणवी, कन्नौजी सब हिंदी की ही बोलियाँ हैं उसी प्रकार सरनामी भी हिंदी की एक शैली है। डॉ. बद्री नारायण के अनुसार कई बोलियों का मिश्रण होते हुए भी सरनामी में भोजपुरी की प्रधानता है।
सूरीनाम में आने वाले भारतीय श्रमिक मूलतः उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों से थे जहाँ अलग अलग भाषाएँ बोली जाती हैं (जैसे भोजपुरी, अवधी, मगही, मैथली, ब्रज तथा अन्य भाषाएं) ये सभी भाषाएँ संबद्ध हैं किंतु इसका अर्थ यह नहीं की सभी लोग इन भाषाओं को आपस में बोलते थे। संभव हैं कि इन लोगों ने अपनी भाषाओं के वह रूप छोड़ दिए जो बाकी भाषा-भाषी नहीं समझ पाते थे। और क्योंकि किसी एक भाषा विशेष के समूह की अधिकता नहीं थी तो सभी भाषाओं का एक मिश्रण तैयार होकर सामने आया। अतः कहा जा सकता है कि सरनामी भोजपुरी, अवधी, मगही, मैथली, ब्रज तथा अन्य बोलियों की मिश्रित भाषा हैं जिसमें कालांतर में डच, स्रनांग तोंगो, जावानीज व अंग्रेजी भाषा के शब्दों का समावेश हुआ है। कुछ लोगों का मानना है कि यह भोजपुरी के सबसे करीब है तो कुछ अवधी का अधिक समावेश मानते हैं। इस क्षेत्र में अधिक भाषा वैज्ञानिक शोध अपेक्षित हैं। सूरीनाम में सरनामी हिंदी के प्रोद्रभव में सहायक कारण हैं-
1. आरम्भ में हिंदुस्तानियों को शिक्षा प्राप्त न होना।
2. नियमित अन्तराल पर
भारत से श्रमिकों का आगमन।
3. हिंदुस्तानी
शर्तबंधी श्रमिकों को अन्य श्रमिकों से अलग रखा जाना।
4. हिंदुस्तानी
श्रमिकों की अधिक संख्या और इन श्रमिकों का आसपास के क्षेत्रों में होना।
5. सूरीनाम में
अंग्रेजी से इतर भाषा को सम्मान प्राप्त होना।
मौजूदा
सरनामी हिंदी की मुख्य विशेषताएँ निम्नानुसार हैं-
1. इसमें कई भारतीय
भाषाओं की भाषिक प्रवृत्तियां हैं ।
2. इसमें किसी भी एक
भारतीय भाषा की व्याकरणिक विशेषताएँ नहीं हैं।
3. आंतरिक परिवर्तनों के परिणाम स्वरूप कई व्याकरणिक रूप सामने आए हैं जिन पर अन्य सूरीनामी भाषाओं का भी प्रभाव हैं
4. स्रनांग तोंगो का प्रभाव है।
सरनामी
हिंदी के दो मुख्य रूप हैं- मानक सरनामी हिंदी और निकेरी की सरनामी हिंदी। (निकेरी
सूरीनाम का दूसरा सबसे बड़ा शहर हैं)
सन
1961 में श्री ज्ञान अधीन ने सरनामी को सरकारी मान्यता दिलवाने की दिशा में ठोस प्रयास किए और हिंदी के सरनामी
रूप को मान्यता दिलवाने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर बहस चलाई और इसे राष्ट्र की
महत्वपूर्ण भाषा घोषित करवाया। सरनामी नाम देना भी इसी रणनीति का एक हिस्सा रहा।
श्री अधीन ने सरनामी को रोमन लिपी में लिखने का प्रस्ताव भी रखा और यह प्रस्ताव
माना गया जिसके परिणाम स्वरूप आज भी सरनामी को रोमन लिपि में लिखा जाता है।
सरनामी
का पहला मुद्रित पाठ पैरेबल आफ द प्रॉडिगल सन 1956
में क्रूस की रोशनी नामक पत्रिका में छपा। इसे
सरनामी में छापने का मुख्य कारण हिंदुस्तानी वर्ग में सरनामी का अधिक
प्रभाव होना था । इसके बाद सरनामी में बाइबल के कई पाठ छपे।
सरनामी
का पहला साहित्यिक पाठ वर्ष 1968 में
पारामारिबो में छपा । यह थी श्रीनिवासी (मार्तिन हरिदत्त लक्षमन) की कविता
बुलाहट यह कविता किसी राजनीतिक
प्रतिक्रिया स्वरूप नहीं बल्कि सूरीनाम में साहित्यिक वास्तविकता के एक अक्स के
रूप में उभरी थी।
कौन
रात्रि में हमके बुलाइस है
आवाज
बाहर से धीरे से आइल है
मालूम
ना है कौन पुकारिस
कहे
के हमारे द्वारे पर आइल है
नेवता
लेकर....... साइद नाउ है
गुसायके
के जाने फिर लौट गइल
सरम
से –आलस हम-राह गइली
कौन
रात्रि में हमके बोलाइस है
अँधियार
में चिराग लेकर
मेढ़ी
पार से आ पुकारिस
जवाब
देली गदगद दिल से
उसको
जो हमार भगवान है
वर्ष 1973 में श्री मोतीलाल मारहे ने सरनामी हिंदी की पहचान के लिए भाषाविद के रूप
में संग्राम शुरू किया। वस्तुतः सरनामी हिंदी संबंधी सभी गतिविधियां नीदरलैडंस में
आरम्भ हुई। 1980 में नीदरलैंड में प्रवास कर चुके सूरीनामी
हिंदुस्तानियों के एक समूह ने सरनामी हिंदी में लेख, कविताएं
कहानियां छापकर सरनामी को ऊँचा स्तर दिलाने का प्रयास किया इसके अतिरिक्त सरनामी
के मानकीकरण की प्रक्रिया आरम्भ की गई, श्री ज्ञान अधीन की
अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई जिसमें सरनामी रोमन में लिखने के संबध में
प्रस्ताव रखा गया। श्री मोतीलाल मारहे ने सरनामी हिंदी के व्याकरण का विवरण दिया। 1970 व 80 के दशकों में सरनामी में कविताओं की कई
पुस्तकें और पत्रिकाएं छपीं। वर्ष 1982 से डॉ.जीत नाराइन ने
अकेले ही सरनामी पत्रिका का संपादन किया। यह पत्रिका अपनी भाषा पर गौरव का प्रतीक
थी।वह पाँच वर्ष तक इसका संपादन करते रहे। सरनामी में छपे डॉ. जीत नाराइन के एक
लेख “हिंदुस्तानियों के लानत है” का एक अंश नमूने के तौर पर प्रस्तुत है -
हिंदुस्तानी अपन कमाय खाय खात हौलांस सीखे है।ई भाषा खाय के देवे है,और हां उ उतने दूर तक ओको सीखे जितना में उसका पेट भर जाइ। अपन उन्नति खात इके ना पढे है। लिखे के, के बोले, इके अच्छे से बोले के अभ्यास ना करे है। साहित्य के का कही, ईतो उ लोग के ना लगे है। इके जैसे ना मालूम है, कि जतना भी लेख दुनिया में लिखे है आदमी के लिखे है। और इही लेख से भाषा के बढ़न्ति होवे है और संस्कीरति के अपन जोर बढ़े है।
सन
1990 के दशक में सरनामी हिंदी को पूर्ण रूप से विकसित सूरीनामी भाषा मान लिया
गया। सरनामी में पहला लंबा गद्य 1984 में प्रकाशित रबिन एस
बलदेव सिंह का उपन्यास स्तीफा ( Farewell) था। इसके बाद
इन्हीं का दूसरा उपन्यास सुनवाई कहाँ सन 1987 में छपा। अप्रैंल 1984 में द हेग में सरनामी
नीदरलैंड संस्था की स्थापना की गई और इस संस्था ने सरनामी कलेक्टिफ झुम्पा राजगुरू
के कार्यों को अपने हाथ में ले लिया।
दामस्तीग के अनुसार सरनामी नीदरलैड संस्था का एक कार्य सरनामी हिंदी पाठों
का प्रकाशन था। दामस्तीग का मानना हैं कि यदि पाठ
सामान्य प्रकाशनों द्वारा प्रकाशित किये जाते तो बेहतर था किंतु ऐसा करने
में किसी की कोई रुचि नहीं थी क्योंकि ऐसे
प्रकाशनों की बिक्री सीमित थी और इसका कारण सरनामी हिंदुस्तानियों की कमी नहीं
अपितु सरनामी पाठ न पढ़ने की परम्परा था। इसके अतिरिक्त उस समय डच भाषा में सरनामी
हिंदी पर बहुत से लेख छपे। इन लेखों की विषयवस्तु भाषा की स्थिति, सरनामी हिंदी शिक्षण , लिपि का प्रस्ताव और सरनामी
हिंदी मुहावरे व लोक कथाएँ थी।
सन 1978 में श्री मोतीलाल मारहे का एक महत्वपूर्ण लेख छपा - वारम (Waarom toch die emancipatie van het Sarnami अर्थात सरनामी हिंदी का emancipation उद्धार – क्यों? इस लेख में पहली बार सरनामी हिंदी के पुनर्मूल्यांकन के सबंध में एक सुव्यवस्थित गुहार थी और उसके पक्ष में सुदृढ़ तर्क थे। मारहे जी द्वारा रखे गये मुख्य तर्क निम्नानुसार हैं -
1.संरचनात्मक आधार पर सरनामी को मानक हिंदी अथवा उर्दू की भाषिक शैली नहीं माना जाना चाहिए (इन भाषाओं का अपभ्रंश तो बिलकुल नहीं )।
2.सरनामी हिंदी को अनौपचारिक भाषा मानने का कोई कारण नहीं हैं।
3.कुछ जाने माने हिंदुस्तानियों द्वारा मानक हिंदी और उर्दू पर जोर देने से ऐसा प्रतीत होता हैं मानो भारतीय संस्कृति हिंदुस्तानियो की सरनामी हिंदी संस्कृति से कही ऊपर हैं। और जागरूकता विकास व सर्जनात्मकता पर इसका कुप्रभाव दिखाई देता हैं।
4. सूरीनाम में हिंदी व उर्दू को बनाए रखना हैं तो सबसे पहले सरनामी हिंदी को बचाना होगा।
5. सरनामी हिंदी कहे जाने पर सूरीनाम का संदर्भ आता हैं जो सरनामी संस्कृति की झलक देता हैं।
श्री
मारहे के लेख के अतिरिक्त कुछ अन्य महत्वपूर्ण प्रकाशन रहे। इनमें उल्लेखनीय हैं-
शीला सहतू बैजनाथशाह मास्टर का सरनामी हिंदी व्याकरण पर शोधपत्र (सन 1975 में) सरनामी कलेक्टिव झुम्पा राजगुरू के ऐसा समाचार में लेख। ऐसा समाचार
सरनामी पत्रिकाओं का आधार बनी। के. बैजनाथ का सरनामी हिंदी साहित्य पर शोधपत्र (सन
1978 में) , श्री डी रामलाल व श्री आर
रामलाल की सरनामी हिंदी की मूल निर्देशिका सन 1977) सीता किशन द्वारा वैज्ञानिक लेख
जिनमें मुख्य था उनका उनका स्नातकोत्तर शोधपत्र (Lexical interference in
Sarnami – a sociolinguistic approach) और जीत नाराइन व टी दामस्तीग
की सरनामी हिंदी पुस्तक- का हाल जिसे विशेष रूप से उन लोगों के लिए तैयार किया गया
है जो अपने आप हिंदी (देवनागरी) पढ़ना लिखना और जानना चाहते हैं। इस पुस्तक की
विशेषता यह है कि इसमें डच,अँग्रेजी, सरनामी,
स्रनाँग व जावा को माध्यम बनाया गया है। जिन्हें भी इनमें से कोई भी
भाषा आती है वह सरलता से हिंदी व देवनागरी लिपि सीख सकता है।
सरनामी
संबधी यह आंदोलन सन 1970 व 80 के दशक में चरम पर था किन्तु सन 1990 तक आते आते
इसकी तीव्रता कम होने लगी । इस दौरान सूरीनाम में 1986 में
सूरीनामी मंत्री परिषद ने निर्णय लिया कि सरनामी हिंदी रोमन लिपी में छपेगी। (यह
सूरीनाम के सरकारी राजपत्र में संकल्प संख्या 4562 में पारित
हुआ । 1983 से 1992 के बीच भाषा नामक
पत्रिका छपी जिसमें सरनामी हिंदी पर लेख छपे। जून 1983 में
पारामारिबो में सरनामी पर पहला सेमिनार आयोजित किया गया । सन 1985 व 1986 में पारामारिबो की वैज्ञानिक सूचना संस्था
ने सरनामी हिंदी में लोककथाओं की दो पुस्तकें निकाली।
समर
इंस्टीटयूट आफ लिंग्विस्टिक ने सरनामी पर कईं पुस्तकें प्रकाशित कीं जैसे
ङुइसकाम्प की पाठयपुस्तक (सन 1980 में)और कईं
छोटी छोटी कहानियों की पुस्तकें भी।
वर्तमान
स्थिति
आज
सूरीनामी हिंदुस्तानी सरनामी हिंदी को अपनी मातृभाषा तो मानते हैं किन्तु उसका
प्रयोग मुख्यतः घर के भीतर तक ही सीमित है। कार्यालयों,
सार्वजनिक स्थानों आदि पर डच व्यवहार में लाई जाती हैं तथा औपचारिक
स्थानों, पूजा स्थलों आदि में मानक हिंदी का प्रयोग किया
जाता है। यहाँ हिंदी को बहुत सम्मान और आदर दिया जाता है।
वर्ष 2010 में सूरीनाम में भाषा के मानकीकरण पर विशेष बहस आरंभ हुई जिसके लिए एक
भाषा आयोग गठित किया गया। हिंदुस्तानी वर्ग के दो प्रतिनिधि सूरीनाम हिंदी परिषद के मौजूदा अध्यक्ष श्री
भोलानाथ नारायण जी व भाषाविद श्रीमती लीला गोबरधन इस भाषा आयोग में शामिल हैं और
सरनामी को मान्यता दिलाने के लिए हिंदुस्तानी वर्ग के साथ मिलकर काफी सक्रियता से
कार्य कर रहे हैं।
सरनामी
की यह यात्रा जारी है और निरंतर हिंदी को समृद्ध कर रही है इसका जीता जागता प्रमाण
है हाल ही में प्रकाशित डॉ. जीत नाराइन का कविता संग्रह रहन। रहन की कविताओं का
चक्र सूरीनाम में जिए गए जीवन पर एक शोध है। कवि अपने पुरखों के अनुभवों को गहनता
से अपने भीतर उतारकर महसूस करता है और आगे बढ़ने की कोशिश करता है: स्थिति क्या है,
क्या हुआ, परिणाम क्या हैं, लोग क्या महसूस करते हैं, वे किस तरह का रवैया
अपनाकर नई स्थिति का सामना कर सकते हैं, ठीक वैसे ही जैसे
सरनामी नई स्थितियों का सामना करती रही है।
संदर्भ -
1. Theo Damsteegt, Sarnami a living
language in Language Transplanted, the Development of Overseas Hindi, edt by,
Richard K. Barz and Jeff Siegel; published by Otto handrassowitz Wiesbadden,
pp. 120
2. Caught between
Christianization, assimilationand religious independency - The Hindustani
community in Suriname, Erik Roosken
3. Theo Damsteegt, Sarnami as an
Immigrant Koine in Atlas of the Languages, edtd by Eithne B. Carlin Arendz,
published by KITLV Press, Royal Institute of Linguistics and Antropology, 2002,
pp 345.
4. हरिदेव सहतू;
सूरीनाम की भाषाओं के संदर्भ में हिंदी की स्थिति; शोधाध्ययन, 1986, pp. 76
5. Tim Van Der Avoird, Determining
Language Vitality; Tilburg University; 2001
6. रहन - डॉ. जीत
नाराइन,
2017
7. Culture and Emotional Economy of
Migration, Badri Narayan 2017, Routledge Taylor and Francis group, pp188
भावना सक्सैना
गृह मंत्रालय के राजाभाषा विभाग में कार्यरत
1.
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गाँव से लौटी अम्मा चूल्हे के पास पड़ी चूलें हिली
बेरंग छोटी- सी अल्मारी में नून ,तेल दालें और आटे से भरा कनस्तर देखकर एक बारगी ऐसे चुप खड़ी रह गई ,जैसे कुछ सोचने समझने की शक्ति ही न बची हो। हैरान
होते हुए, “अरे! आसिम यह क्या– कोई लाटरी-वाटरी लग गई क्या? या फिर…” कहते-कहते चुप हो गई।
“हम
ग़रीबों के भाग में लाटरी कहाँ अम्मी।”
“तो
यह सब इतना सारा राशन-वाशन।”
“छोड़ो
अम्मी जाओ बस आज तो कुछ अच्छा सा खाना पका के खिलाओ।”
“सो
तो ठीक है पर बता तो सही यह सब।”
“तुम
यूँ समझ लो कि अल्लाह ने हमारी सुन ली। साल दो साल की दिहाड़ियाँ तो पक्की हो ही
गईं ”- आँखों को खुशी से फैलाते हुए,
“ठेकेदार को बहुत बड़ा मंदिर बनाने का ठेका जो मिला है। यूँ तो
दिहाड़ी सुबह से शाम तक की होती है ;पर यहाँ तो रात के
बारह-बारह बजे तक का काम मिला है। मतलब एक दिन में ढेड़ दिन की कमाई।”
कानों
पर हाथ रखते हुए, “ हाय अल्लाह
यह क्या सुन रही हूँ। ख़ुदा ख़ैर करे–मुसलमान हो कर किसी मंदिर की चिनाई का काम
करेगा।”
“क्यों
अम्मी इसमें बुराई क्या है। इसी मंदिर के काम की ख़ातिर ही तो आज पहली बार घर में
राशन की बहार देख रही हो। मंदिर का काम करने से जब मेरा अल्लाह ख़ुश है ,तो तुम्हें क्यों एतराज़ है।
तुम्हीं न कहा करती थीं कि इस जहान में सबका मालिक एक है।”
2.
(लघुकथा सुनने के लिए क्लिक करें 👆👆)
प्रकाश की पत्नी का असमय देहांत हो गया। पत्नी से अगाध प्रेम
करने वाले प्रकाश ने कभी दूसरी शादी करने का सोचा तक नहीं। नन्हे आशीष को माँ और
बाप दोनों का प्यार देकर पाला-पोसा।
प्रकाश की छोटी सी प्राइवेट नौकरी थी, मगर बेटे के लिए सपने बड़े-बड़े
सजाए थे। अपनी अथाह लगन और मेहनत से उसे ख़ूब पढ़ाया -लिखाया।
पढ़-लिखकर बेटे को बड़े शहर की बड़ी कंपनी में नौकरी मिल
गई। जाते हुए बेटा बोला, “पापा जल्दी ही मैं आपको
अपने पास ले जाऊँगा। यह सुन कर प्रकाश ने सुख की साँस ली और बाकी बची ज़िंदगी आराम
से बेटे के साथ काटने के सुखद सपने लेने लगा।
उधर बेटा नई नौकरी और बड़े शहर के सुख आनन्द में ऐसा
मस्त हुआ कि पिता को ले जाना जैसे भूल ही गया। इधर प्रकाश इंतज़ार में दिनों-दिन
सूखता गया।
एक दिन आशीष के मित्र राघव ने उसे अपने पिता की
रिटायरमेंट की कुछ तस्वीरें दिखाईं तो आशीष को याद आया कि उसके पिता तो पिछले कई
महीनों से रिटायर हो गए होंगे। परेशान- सा हुआ सोचने लगा मुझे तो उन्हें लेने जाना
था। इतनी बड़ी भूल कैसे हो गई मुझसे। पापा तो जाने क्या-क्या सोच बैठे होंगे। अगले
ही दिन वह पिता को अपने साथ लिवाने के लिए घर रवाना हो गया।
पिता की ख़स्ता हालत देखकर हैरान होता हुआ बोला, “क्या हुआ पापा! आप इतने कमज़ोर कैसे
हो गए। आपने अपना ज़रा भी ख़्याल नहीं रखा। देखो तो कंधे कितने झुक गए हैं और आपसे
तो ठीक से चला भी नहीं जा रहा।”
“लेकिन एक बात बताओ ,आजकल तो आप रिटायर भी हो गए हैं, फिर ऐसा
कौन-सा काम करते रहे कि सेहत इतनी गिर गई।”
बेटे की बात सुन कर धीरे से प्रकाश कुर्सी से उठा और
अपनी पतलून की दोनों ख़ाली जेबों को बाहर निकाल कर उसे दिखाते हुए शिथिल आवाज़ में
बोला, “तुम्हारा इंतज़ार बेटा!”
कृष्णा वर्मा
कनाडा
विचार
स्तवक
1. हिन्दी हमारे देश और भाषा की प्रभावशाली विरासत है। - माखनलाल चतुर्वेदी
2. श्रुति-माधुर्य, ओज, कार्यशक्ति आदि में हिन्दी एक अनोखी भाषा है, ऐसी भाषा हमारा गौरव स्थल है। - डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी
3. सरलता, बोधगम्यता और शैली
की दृष्टि से विश्व की भाषाओं में हिन्दी महानतम स्थान रखती है। - अमरनाथ झा
4. परदेश में हिन्दी के दो
बोल, अपनेपन की महक के साथ सम्पूर्ण भारत की सैर कराते हैं । – डॉ. पूर्वा शर्मा
कवयित्री : सुदर्शन रत्नाकर,
मूल्य :220/- , पृष्ठ :110, संस्करण : 2021,
प्रवासी मन : हाइकु-संग्रह,
हाइकुकार : डॉ. जेन्नी शबनम,
मूल्य : 240/-, पृष्ठ :120, संस्करण : 2021,
प्रकाशक : अयन प्रकाशन, 1/20, महरौली,
नई दिल्ली-110030
काँच-सा मन : हाइकु-संग्रह,
हाइकुकार : भावना सक्सैना,
मूल्य :210 /-, पृष्ठ :104, संस्करण : 2021,
प्रकाशक : अयन प्रकाशन, 1/20, महरौली, नई दिल्ली-110030
मीलों चलना है :
काव्य-संग्रह
कवयित्री : डॉ कविता भट्ट ‘शैलपुत्री’
मूल्य : 200/- , पृष्ठ :144, संस्करण : 2021,
प्रकाशक :राघव पब्लिकेशंस, मंगोलपुरी नई दिल्ली-110083
गद्य-तरंग( अनुशीलन)
सम्पादक: डॉ कविता भट्ट,
मूल्य :380 , पृष्ठ :184,
संस्करण : 2021,
प्रकाशक : अयन प्रकाशन, 1/20, महरौली, नई दिल्ली-110030
भाव प्रकोष्ठ : हाइकु-संग्रह,
हाइकुकार : डॉ. सुरंगमा यादव,
मूल्य : 230/-, पृष्ठ :112, संस्करण : 2021,
प्रकाशक : अयन प्रकाशन, 1/20, महरौली, नई दिल्ली-110030
शब्द-सृष्टि फरवरी 202 5 , अंक 5 6 परामर्शक की कलम से : विशेष स्मरण.... संत रविदास – प्रो.हसमुख परमार संपादकीय – महाकुंभ – डॉ. पूर्वा शर्...