शुक्रवार, 8 जनवरी 2021

लघुकथा

1.

 सबका मालिक एक  

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गाँव से लौटी अम्मा चूल्हे के पास पड़ी चूलें हिली बेरंग छोटी- सी अल्मारी में नून ,तेल दालें और आटे से भरा कनस्तर देखकर एक बारगी ऐसे चुप खड़ी रह गई ,जैसे कुछ सोचने समझने की शक्ति ही न बची हो।  हैरान होते हुए, “अरे! आसिम यह क्या– कोई लाटरी-वाटरी लग गई क्याया फिर…” कहते-कहते चुप हो गई।

“हम ग़रीबों के भाग में लाटरी कहाँ अम्मी।”

“तो यह सब इतना सारा राशन-वाशन।”

“छोड़ो अम्मी जाओ बस आज तो कुछ अच्छा सा खाना पका के खिलाओ।”

“सो तो ठीक है पर बता तो सही यह सब।”

“तुम यूँ समझ लो कि अल्लाह ने हमारी सुन ली। साल दो साल की दिहाड़ियाँ तो पक्की हो ही गईं ”- आँखों को खुशी से फैलाते हुए, “ठेकेदार को बहुत बड़ा मंदिर बनाने का ठेका जो मिला है। यूँ तो दिहाड़ी सुबह से शाम तक की होती है ;पर यहाँ तो रात के बारह-बारह बजे तक का काम मिला है। मतलब एक दिन में ढेड़ दिन की कमाई।”

कानों पर हाथ रखते हुए,  “ हाय अल्लाह यह क्या सुन रही हूँ। ख़ुदा ख़ैर करे–मुसलमान हो कर किसी मंदिर की चिनाई का काम करेगा।”

“क्यों अम्मी इसमें बुराई क्या है। इसी मंदिर के काम की ख़ातिर ही तो आज पहली बार घर में राशन की बहार देख रही हो। मंदिर का काम करने से जब मेरा अल्लाह ख़ुश है ,तो तुम्हें क्यों एतराज़ है। तुम्हीं न कहा करती थीं कि इस जहान में सबका मालिक एक है।”


2.

शून्य का बोझ

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प्रकाश की पत्नी  का असमय देहांत हो गया। पत्नी से अगाध प्रेम करने वाले प्रकाश ने कभी दूसरी शादी करने का सोचा तक नहीं। नन्हे आशीष को माँ और बाप दोनों का प्यार देकर पाला-पोसा।

प्रकाश की छोटी सी प्राइवेट नौकरी थीमगर बेटे के लिए सपने बड़े-बड़े सजाए थे। अपनी अथाह लगन और मेहनत से उसे ख़ूब पढ़ाया -लिखाया।

पढ़-लिखकर बेटे को बड़े शहर की बड़ी कंपनी में नौकरी मिल गई। जाते हुए बेटा बोला, “पापा जल्दी ही मैं आपको अपने पास ले जाऊँगा। यह सुन कर प्रकाश ने सुख की साँस ली और बाकी बची ज़िंदगी आराम से बेटे के साथ काटने के सुखद सपने लेने लगा।

उधर बेटा नई नौकरी और बड़े शहर के सुख आनन्द में ऐसा मस्त हुआ कि पिता को ले जाना जैसे भूल ही गया। इधर प्रकाश इंतज़ार में दिनों-दिन सूखता गया।

एक दिन आशीष के मित्र राघव ने उसे अपने पिता की रिटायरमेंट की कुछ तस्वीरें दिखाईं तो आशीष को याद आया कि उसके पिता तो पिछले कई महीनों से रिटायर हो गए होंगे। परेशान- सा हुआ सोचने लगा मुझे तो उन्हें लेने जाना था। इतनी बड़ी भूल कैसे हो गई मुझसे। पापा तो जाने क्या-क्या सोच बैठे होंगे। अगले ही दिन वह पिता को अपने साथ लिवाने के लिए घर रवाना हो गया।

पिता की ख़स्ता हालत देखकर हैरान होता हुआ बोला, “क्या हुआ पापा! आप इतने कमज़ोर कैसे हो गए। आपने अपना ज़रा भी ख़्याल नहीं रखा। देखो तो कंधे कितने झुक गए हैं और आपसे तो ठीक से चला भी नहीं जा रहा।”

लेकिन एक बात बताओ ,आजकल तो आप रिटायर भी हो गए हैंफिर ऐसा कौन-सा काम करते रहे कि सेहत इतनी गिर गई।”

बेटे की बात सुन कर धीरे से प्रकाश कुर्सी से उठा और अपनी पतलून की दोनों ख़ाली जेबों को बाहर निकाल कर उसे दिखाते हुए शिथिल आवाज़ में बोला, “तुम्हारा इंतज़ार बेटा!”

 


कृष्णा वर्मा

कनाडा


3 टिप्‍पणियां:

  1. कृष्णा जी की दोनों लघु कथाएं अच्छी लगी उन्हें हार्दिक बधाई |उनका लेखन इसी प्रकार चलता रहे यही कामना है |

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  2. बहुत सुंदर लघुकथाएँ,शून्य का बोझ बहुत मार्मिक है।दोनो लघुकथाओं हेतु कृष्णा वर्मा जी को हार्दिक बधाई।

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