डॉ.
शिवकुमार मिश्र से मेरी पहली मुलाकात 1
मार्च, 1988, की शाम को, उनके
निवास-स्थान पर हुई थी। उस समय वे सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर, के स्टॉफ क्वार्टर (बी-3) में रहते थे। मैं रिसर्च एसोशिएट पद (भाषाविज्ञान) का इंटरव्यू देने के
लिए बनारस से आया था। इंटरव्यू 2 मार्च को था। पहली ही
मुलाकात में मैं मिश्रजी के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हो गया था। उनका
व्यक्तित्व ही ऐसा था। कई वर्षों के बाद साइंस के एक अध्यापक ने मुझसे कहा था कि
मिश्रजी का व्यक्तित्व ऐसा है कि अगर वे सामने से चले आ रहे हों, तो उन्हें देखकर, परिचय न होते हुए भी उनसे मिलने की
और बात करने की सहज ही इच्छा होती है।
मैं
ही अकेला उम्मीदवार था। मेरी नियुक्ति निश्चित थी। दूसरे दिन मिश्रजी ने बताया कि
इस महीने के अंत तक आप आने के लिए तैयार रहिएगा। तब तक आपको नियुक्ति-पत्र पहुँच
जाएगा। 30 मार्च, 1988, को मैं सरदार पटेल विश्वविद्यालय के
हिंदी विभाग के साथ विधिवत् जुड़ गया। विभाग बहुत बड़ा था। कुछ पुराने तथा ज्यादातर
नए, 15-16 लोगों का विभाग था। विभाग का अपना तीन मंजिला
स्वतंत्र भवन था। हालाँकि, वह सिर्फ हिंदी विभाग का भवन नहीं है। वह संस्कृत, हिंदी,
गुजराती तथा अंग्रेजी विभागों का संयुक्त भवन है, जिसमें हिंदी विभाग का हिस्सा बहुत ज्यादा है, जो
मिश्रजी द्वारा यूजीसी से लाई हुई ग्रांट से बना है।
जिस
समय मैं ऐसे हिंदी विभाग का हिस्सा बना, उस
समय विभाग में सदा उत्सव का माहौल बना रहता था। वर्षों से विभाग स्पेशल असिस्टेंस
के अंतर्गत काम कर रहा था। आए दिन सेमिनारों के आयोजन हुआ करते थे। बहुत बड़ी-बड़ी
हस्तियों का आना-जाना लगा रहता था। लेकिन विभाग के ऐसे माहौल में मेरी शुरुआत कुछ
अच्छी नहीं हुई, जिसका खामियाजा मुझे आने वाले समय में
भुगतना पड़ा। मैं तो बनारस का संस्कार लेकर वल्लभ विद्यानगर पहुँचा था -
धोती-कुर्ता, कुमकुम का टीका, चोटी,
जनेऊ के साथ। जबकि सारा विभाग मार्क्सवादी (?)।
उस समय विभाग में एक क्लर्क थे गंभीर गढ़वी। उनके पड़ोस में मुझे रहने के लिए कमरा
मिला था। मेरी वेशभूषा देखकर एक दिन उन्होंने मुझसे कहा : ‘पंडितजी, सारा विभाग मार्क्सवादी है। जरा सँभलकर रहिएगा।’ उस समय मेरे लिए
‘मार्क्सवाद’ या ‘मार्क्सवादी’ बड़े अजीब शब्द थे। एक तरह से गाली। मुझे लगता है,
बहुतों के लिए आज भी ऐसा ही होगा। उस समय तक मैं ‘मार्क्स’ या
‘मार्क्सवाद’ के बारे में नाम के सिवाय कुछ भी नहीं जानता था। मेरे मन में सिर्फ
इतना ही था कि ‘मार्क्सवादी’ अजीब किस्म के प्राणी होते हैं।
बनारस के अस्सी चौराहे पर मैंने ‘मार्क्सवादियों’ तथा ‘गैर-मार्क्सवादियों’ को भिड़ते हुए देखा था। उस समय मेरे मन में यही छाप थी कि जो लोग ईश्वर को नहीं मानते, परंपरा को नहीं मानते, नाम में से जाति सूचक शब्द हटा देते हैं या बहुत उल्टी-सुल्टी हरकतें करते हैं, वे ‘मार्क्सवादी’ होते हैं। मेरे परिचय में कई ऐसे ब्राह्मण या ठाकुर थे (और आज भी हैं), जो ‘प्रोग्रसिव’ कहलाने के लिए अपने नाम से जाति सूचक शब्द हटाए हुए थे। (क्रमश:)
डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र
भाषाचिन्तक
40, साईं पार्क सोसाइटी
बाकरोल – 388315
जिला आणंद (गुजरात)
अगली पोस्ट की प्रतीक्षा रहेगी मिश्र जी!
जवाब देंहटाएंपूर्वा संस्मरणांश कुछ अधिक ही छोटा रह गया। यह
एक साथ पूरा प्रकाशित होता तो और अच्छा रहता।
-कमलेश भट्ट कमल
संस्मरण बहुत रोचक चल रहा है,भाई कमलेश भट्ट जी का कथन उचित ही है संस्मरण एक साथ प्रकाशित होता तो बहुत अच्छा रहता।अगली कड़ी की प्रतीक्षा है।
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