बुधवार, 30 जुलाई 2025

जुलाई 2025, अंक 61

 

शब्द-सृष्टि

जुलाई 2025, अंक 61

परामर्शक की कलम से.... – ‘सा विद्या या विमुक्तये’ के बहाने कुछेक नये-पुराने संदर्भ..... – प्रो. हसमुख परमार

शब्द संज्ञान – ज़मीन तथा ज़मीं – डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

संस्मरण – एक था हृदयपाल सिंह ..... – डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

चोका – गुरु पूर्णिमा – प्रीति अग्रवाल

कविता – 1. वंचित क्यों रोटी से 2. ज़िंदगी का फ़लसफ़ा – डॉ. ज्ञानप्रकाश ‘पीयूष’

हाइकु – आषाढ़ घन – पार्वती देवी ‘गौरा’

गीत – आज यह गीत – इंद्र कुमार दीक्षित

कविता – 1. लहरों के पग रीते हैं ?? 2. देखता हूँ कौन है वो? – डॉ. मोहन पाण्डेय भ्रमर

कविता(मनहरण घनाक्षरी) – शिव – ज्योत्स्ना शर्मा प्रदीप

सामयिक टिप्पणी – एक थी रिधन्या ! – डॉ. ऋषभदेव शर्मा

प्रेमचंद विशेष

आलेख – मुंशी प्रेमचंद : हिंदी साहित्य के युगद्रष्टा – अपराजिता ‘उन्मुक्त’

आलेख – प्रेमचंद के देसिल बयना : संदर्भ ‘गुल्ली डंडा’ का – डॉ. ऋषभदेव शर्मा

आलेख – मुंशी प्रेमचन्द – डॉ. राजकुमार शांडिल्य

आलेख – मुंशी प्रेमचंद – एम. संध्या

काव्य रूपांतर – ईदगाह – डॉ. अनिल कुमार बाजपेयी काव्यांश

आलेख – यूँ ही नहीं बन जाता कोई ‘प्रेमचंद’ – डॉ. घनश्याम ‘बादल’

कहानी पर बात – ‘बाबा जी का भोग’ कहानी से गुजरते हुए… – सुशीला भूरिया

कविता – कलम के सिपाही प्रेमचंद – डॉ. ज्ञानप्रकाश ‘पीयूष’



आलेख

मुंशी प्रेमचन्द

एम. संध्या

मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई, 1880 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी के एक छोटे से गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम अजायबराय और माता का का नाम आनंदी देवी था। उनका वास्तविक नाम धनपतराय श्रीवास्तव था। धनपतराय श्रीवास्तव का मुंशी प्रेमचंद उपन्यास सम्राट’, कथा सम्राट बन जाना इतना भी आसान नहीं था। माता की मृत्यु के बाद बालक धनपतराय ने जिस प्रकार के अत्याचार को विमाता के पास से सहा वह कल्पनातीत था। लेकिन उस बच्चे ने अपने कष्टों को अपने कलम की ताकत बना डाला। तभी तो वे हिंदी में कलम के सिपाही कहलाए। उनका साहित्यिक जीवन सन् 1901 से प्रारंभ हुआ। प्रेमचंद की रचनाओं में समाजसुधारक आंदोलनों के सामाजिक प्रभावों का स्पष्ट चित्रण है, उसमें दहेज, अनमेल विवाह, पराधीनता, लगान, छुआछूत, जातिभेद, आधुनिकता का अंधानुकरण, विधवा विवाह आदि उस समय की सभी प्रमुख समस्याओं का चित्रण मिलता है।

       ईदगाह का हमीद जब अपनी दादी के लिए ईद के मेले में से चिमटा खरीदकर लाता है तो वह इस स्वार्थी जगत को त्याग और प्रेम का संदेश देता हुआ दिखाई पड़ता है। पूस की रात का हल्कू न केवल परिश्रम के महत्व को स्थापित करता हुआ दिखाई पड़ता है बल्कि वह भारतीय किसानों का सच्चा प्रतिनिधित्व  गोदान के होरी के समान ही करता हुआ दिखाई पड़ता है। कर्बला नाटक जिसे प्रेमचंद ने सन् 1924 में लिखा था। आज जब संपूर्ण विश्व विभिन्न धार्मिक, भौगोलिक, सामाजिक मुद्दों को लेकर लड़ रहा है ऐसे में आज भी सांप्रदायिक सद्भाव, धार्मिक एकता, सत्य और न्याय के लिए युद्ध की आवश्यकता, मानवता की स्थापना की आवश्यकता आदि मुद्दों पर प्रभावी संदेश देने की क्षमता रखता है।

                               प्रेमचंद केवल एक नाम नहीं बल्कि एक अमर कालखंड है।

मेरे कई प्रिय लेखकों में से एक प्रेमचंद हैं। उनके बारे में कुछ बातें लिख पाना मेरे लिए सौभाग्य की बात है।


एम. संध्या

कक्षा- बी. बी. ए. द्वितीय वर्ष

वर्ग – 2 बी.

क्रमांक- 107224684076

महाविद्यालय- भवंस विवेकानंद कॉलेज,

वाणिज्य,मानविकी और विज्ञान

सैनिकपुरी हैदराबाद केंद्र- 500094

कविता

 

कलम के सिपाही प्रेमचंद

डॉ. ज्ञानप्रकाश पीयूष

वाराणसी जनपद यूपी के

लमही ग्राम में जन्म हुआ।

धनपत राय उस बालक का

बचपन में नाम प्रसिद्ध हुआ।।

 

सन् अठारह सौ अस्सी था

इकत्तीस जुलाई महीना था।

वह शिशु सूर्य-सा तेजस्वी

साहित्य जगत का गहना था।।

 

किया स्नातक, वे बड़े हुए

प्रेमचंद नाम से विख्यात हुए।

गोदान’ ‘गबनके रचयिता

उपन्यास सम्राट अमर हुए।।

 

ग्रामीण संस्कृति के पोषक थे

प्रगतिशील विचारक थे।

मजदूर किसानों के प्रेमी

मानवता के साधक थे।।

 

ईदगाह’ ‘कफ़न’ के प्रणेता

कहानी पितामह कहलाए।

साहित्य कालजयी रचकर वे

मूर्धन्य मनीषी कहलाए।।

 

विविधमुखी प्रतिभा के धनी

अमर साहित्य में नाम उनका।

करते याद अब भी उनको

प्रिय प्रेमचंद नाम जिनका।।

***

डॉ. ज्ञानप्रकाश पीयूषआर. ई. एस.

पूर्व प्रिंसिपल,

साहित्यकार एवं समालोचक

1/258, मस्जिदवाली गली, तेलियान मोहल्ला,

नजदीक सदर बाजार ,सिरसा -125055(हरि.)

हाइकु


आषाढ़ घन

पार्वती देवी ‘गौरा’

1

आषढ़ घन

गये बरस अब

सरसा तन।

2

तप्त धरती

होकर अब नम

पीड़ा हरती।

3

आशायें जगी

पुन: नव सृजन

हर्षित मन।

4

पुरवा चले

मन में आर्द्रता भरे

सांझ के ढले।

5

तन झूमता

है आ रहा सावन

मन घूमता।

6

देख बादल

हर्षित तन-मन

माँ सा आँचल।

***

पार्वती देवी ‘गौरा’

देवरिया



शब्द संज्ञान

 

ज़मीन तथा ज़मीं

डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

ज़मीन तथा ज़मीं में कौन सही है?

ज़मीन तथा ज़मीं एक ही शब्द के दो रूप हैं।

मूल शब्द है ज़मीन।

ऐसा क्यों?

गीत-ग़ज़ल में एक मात्रा कम करने के लिए फ़ारसी में ज़मीन को ज़मीं कर दिया जाता है।

ऐसा केवल उन शब्दों में होता है, जिनके अंत में न ध्वनि/वर्ण होता है।

न एक नासिक्य व्यंजन है।

गीत-ग़ज़ल में एक मात्रा कम करने के लिए न का लोप कर दिया जाता है तथा न की उपस्थिति बताने के लिए या बनाए रखने के लिए शब्द में न के ठीक पहले आने वाले स्वर को अनुनासिक कर दिया जाता हैं।

ज़मीन में न के पहले ई स्वर है। न के लोप के बाद मौखिक स्वर ई अनुनासिक स्वर ईं में रूपांतरित हो जाता है।

जान  -  जाँ

हिन्दोस्तान - हिन्दोस्ताँ

जुनून  -  जुनूँ

ख़ून  -  खूँ

डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

40, साईंपार्क सोसाइटी, वड़ताल रोड

बाकरोल-388315,

आणंद (गुजरात)

 

परामर्शक की कलम से....

 


‘सा विद्या या विमुक्तये’ के बहाने कुछेक नये-पुराने संदर्भ.....

प्रो. हसमुख परमार

            हमारे यहाँ शिक्षादर्शन या शिक्षा विमर्श की भी एक दीर्घ व दृढ़ परंपरा रही है । प्राचीन शास्त्रों- श्रुतियों में ॠषि-मुनियों से लेकर वर्तमान चिंतकों और शिक्षाविदों ने शिक्षा का मतलब-महत्व, शिक्षा के विषय व शिक्षा प्रणाली आदि पर बहुत ही गंभीरतापूर्वक विस्तार से विचार किया है ।

             इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारे जीवन की विविध प्राप्तियों-उपलब्धियों में शिक्षा सर्वोपरि है । व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र के उत्थान-उन्नति में, उसके सुव्यवस्थित निर्माण में तथा उसे सुसंस्कृत करने में शिक्षा की ही महती भूमिका रहती है । “हमारी शैक्षिक योग्यता हमें एक उपाधिधारक की पहचान देने के साथ उसी के अनुरूप रोजगारलक्षी सुविधाएँ तो उपलब्ध कराती है, पर इसकी सार्थकता यहाँ पर ही पूरी नहीं होती बल्कि इसके आगे वह हमारे ‘स्व’ के साथ-साथ हमें हमारे समाज, हमारे राष्ट्र तथा हमारे बंधु-बाँधव के विकास हेतु प्रेरित करने, शोषित-पीड़ित वर्ग का उत्थान करने, सामाजिक-राष्ट्रीय-सांस्कृतिक-मानवीय मूल्यों की रक्षा व विकास करने, सद् विचारों को प्रचारित व क्रियान्वित करने आदि में हमारी उपयोगी भूमिका को ज्यादा से ज्यादा ऊर्जावान व तेजस्वि बनाने से भी संबद्ध है । शिक्षा का यही महत् व मुख्य उद्देश्य है और शिक्षित होने के सही मायने ।” ( कुछ कृती व्यक्तित्व: सरोकार और उपलब्धियाँ, प्रो.हसमुख परमार,डॉ.पूर्वा शर्मा)

            विद्या या शिक्षा से जुड़े विविध संदर्भों की चर्चा के प्रसंग में एक प्रसिद्ध पुराण-कथन का सहज ही स्मरण होता है –

सा विद्या या विमुक्तये

(तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये ।

आयासायापरं कर्म विद्यान्या शिल्पनैपुणम्  ।।

- विष्णुपुराण)

जो हमें मुक्ति प्रदान करे, जो मुक्ति की राह दिखाए, मतलब यह कि विद्या या शिक्षा वही जो हमें दुर्गुण, दुर्विचार, अज्ञान, दासता, दरिद्रता, बेरोजगारी, द्वेष आदि से मुक्ति दिलाए ।

विद्या या शिक्षा के महत्व को उजागर करते एक-दो और संस्कृत श्लोक/सुभाषित-

कामधेनुगुणा विद्या ह्यकाले फलदायिनी ।

प्रवासे मातृसदृशी विद्या गुप्तं धनं स्मृतम् ।।

 

विद्या ददाति विनयम, विनयाद् याति पात्रताम् ।

पात्रत्वात् धनमाप्नोति, धनात् धर्मं ततः सुखम् ।

जैसा कि हमने कहा कि हमारे प्राचीन ग्रंथों में ज्ञान, विद्या, शिक्षा आदि का विस्तृत वर्णन तथा तत्संबंधी महत्वपूर्ण चिंतन मिलता है । उदाहरणार्थ संस्कृत ‘पुराण साहित्य’, और उसमें भी विशेषतः एक पुराण- ‘अग्निपुराण’ को हम इस संदर्भ में देख सकते हैं । ‘अग्निपुराण’ सिर्फ एक धर्मग्रंथ ही नहीं है अपितु बहुआयामी व बहुविषयक ज्ञान व विद्या का एक बृहद कोश भी है । इसमें सभी प्रकार की विद्याओं का सारगर्भित वर्णन किया गया है । भारतीय विद्याओं- परा और अपरा विद्या तथा कलाओं का सार होने के कारण इस पुराण को ‘विद्यासारपुराण’ भी कहा गया है । असल में यह ग्रंथ तत्कालीन प्रचलित समस्त विद्याओं का संकलन है । 383 अध्यायों के विस्तृत कलेवर में रचनाकार ने ज्योतिष, धर्म, राजनीति, आयुर्वेद, छन्द, अलंकार, व्याकरण, कोश,योग प्रभृति विषयों-विद्याओं का वर्णन-विवेचन किया है । “ इस पुराण को यदि समस्त भारतीय विद्याओं का विश्वकोश कहें तो किसी प्रकार की अत्युक्ति न होगी । इस पुराण के 383 अध्यायों में नाना प्रकार के विषयों का सन्निवेश कम आश्चर्य का विषय नहीं है ।.... इस पुराण के अनुशीलन से समस्त ज्ञान-विज्ञान का परिचय मिलता है । इसलिए इस पुराण का यह दावा सर्वथा सच्चा ही प्रतीत होता है कि –

‘आग्नेये हि पुराणेऽस्मिन् सर्वाः विद्याः प्रदर्शिताः ।’

(पुराण दर्शन, आ. बलदेव उपाध्याय, पृ.151)

खैर, ‘सा विद्या या विमुक्तये’ शिक्षा का एक दर्शन है, शिक्षा का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है जो शिक्षा को रोजगार व सामाजिक महत्व प्रदान करने वाला एक साधन ही नहीं बल्कि आत्मज्ञान व स्वतंत्रता के लिए भी प्रेरित करने वाले एक उपकरण के रूप में देखता है । असल में शिक्षा ही हमें बंधनों से मुक्ति दिलाती है और एक बेहतर व्यक्ति बनने के पर्याप्त अवसर प्रदान करती है । नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 भी इस दर्शन से विशेष प्रेरित-प्रभावित कही जा सकती है । इसमें शिक्षा ज्ञान, व्यक्तित्व विकास और रोजगार के साथ साथ व्यक्ति के आत्मज्ञान तथा उसके जीवन के महत् उद्देश्य की सही दिशा को भी निर्देशित करती है ।

            व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के विकास का मुख्य आधार शिक्षा ही है । किसी भी राष्ट्र की अकादमिक शिक्षा मूलतः वहाँ की शिक्षा नीति पर ही आधारित होती है, अतः प्रत्येक देश की सरकार शिक्षा पर विशेष ध्यान देती है । “भारत में समय समय पर शिक्षा नीति को बदला जाता रहा है । पहली शिक्षा नीति पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने 1968 में शुरू की थी । इसके बाद अगली शिक्षा नीति राजीव गाँधी की सरकार ने 1986  में तैयार की जिसमें नरसिम्हाराव सरकार ने 1992 में कुछ बदलाव किए थे । इस प्रकार 34 वर्ष पुरानी शिक्षा नीति चल रही थी । नई शिक्षा नीति(2020) को के,कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में विशेषज्ञों की एक समिति ने तैयार किया जिसमें भविष्य के अनेक सुनहरे सपने बुने गए हैं ।” ( राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 की गंगोत्री-भारतीय ज्ञान परंपरा, सं. अनिल कुमार राय, पृ.118)

            नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP 2020) के बारे में, उसकी विशेषताओं व उद्देश्यों को लेकर सबसे पहले इस शिक्षा नीति समिति के अध्यक्ष के.कस्तूरीरंगन के शब्द- “ हमने एक ऐसी नीति निर्मित करने की कोशिश की है जो हमारी समझ में शैक्षिक परिदृश्य को परिवर्तित कर देगी ताकि हम युवाओं को वर्तमान और भावी चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार कर सकें । यह एक ऐसी यात्रा रही है जिसमें हर सदस्य ने वैयक्तिक और सामूहिक रूप से हमारे देश के व्यापक शैक्षिक परिदृश्य के विविध आयामों को शामिल करने की कोशिश की है । यह नीति सभी की पहुँच, क्षमता, गुणवत्ता, वहनीयता एवं जवाबदेही जैसे मार्गदर्शी उद्देश्यों पर आधारित है । पूर्व प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक हमने इस क्षेत्र को एक अविच्छिन्न निरंतरता में देखा है और साथ ही व्यापक परिदृश्य के इससे जुड़े अन्य क्षेत्रों को भी इसमें शामिल किया है ।”

शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन, व्यक्तित्व विकास-कौशल विकास तथा रोजगार के अवसर प्रदान करने वाले एक शक्तिशाली उपकरण के रूप में देखने वाली नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति की कतिपय विशेषताओं में मूल्य आधारित शिक्षा, मल्टीडिसिप्लिनरी, उन्नत भारतीय ज्ञान परंपरा, व्यवसाय-रोजगारपरक शिक्षा, भारतीय भाषाओं में शिक्षा, तकनीकी शिक्षा, समग्र-समतामूलक-समावेशी शिक्षा, शिक्षक-प्रशिक्षण, भारतीय संस्कृति व कलाएँ, शिक्षा में रचनात्मकता और नवाचार प्रभृति को देखा जा सकता है  । इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति का एक महत् उद्देश्य भारत को वैश्विक ज्ञान महाशक्ति बनाना ।

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अंतर्गत शिक्षा प्रणाली, शिक्षा के विषय, शिक्षा की माध्यम भाषा, शिक्षा के उद्देश्य में भारत-भारतीयता तथा राष्ट्र-राष्ट्रीयता का विशेष दृष्टिकोण रहा है । अतः भारतीय इतिहास, परंपरा, समाज, संस्कृति, भाषाएँ, कलाएँ, ज्ञान आदि का विशेष आग्रह ।

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति की भाषा नीति में मातृभाषा, क्षेत्रीय-प्रांतीय भाषाएँ, संस्कृत एवं अन्य भारतीय भाषाएँ यानी भारतीय भाषाओं को शिक्षा के माध्यम हेतु विशेष महत्त्व व बढ़ावा देने के प्रावधान हैं । यह नीति बताती है कि- “संस्कृति के संरक्षण, संवर्धन और प्रसार के लिए हमें उस संस्कृति की भाषाओं का संरक्षण, संवर्धन करना होगा । इसलिए कहा गया है कि- भारतीय भाषाओं का सुनहरा भविष्य लेकर आई है यह शिक्षा नीति ।”

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते

ज्ञानं तृतीयं मनुजस्य नेत्रं समस्ततत्तवार्थविलोकदक्षम्:

ज्ञान के महत्त्व को बताती इन पंक्तियों को पूर्णतः सार्थक करती है भारतीय ज्ञान परंपरा । वेद से लेकर इक्कीसवीं सदी तक की भारतीय ज्ञान-विज्ञान व चिंतन की सुदीर्घ, सुदृढ़ व विषयगत वैविध्यपूर्ण परंपरा में अनेकों  ग्रंथों, चिंतकों, दार्शनिकों, विचारकों, वैज्ञानिकों,अनुसंधानों, आविष्कारों और साहित्यकारों  की एक लम्बी सूची है जो हमारे धार्मिक, दार्शनिक , सामाजिक और भौतिक ज्ञान से हमें अवगत कराती है । भारतीय ज्ञान-विज्ञान संबंधी ग्रंथों में धर्म, अध्यात्म, दर्शन, योग, आयुर्वेद, ज्योतिष, व्याकरण, कला, खगोल, गणित, अर्थशास्त्र, राजनीति, समाज, नीतिशास्त्र, भूगोल. कृषि-व्यापार, चिकित्सा, जीव-विज्ञान, भौतिकी आदि से संबंधी ज्ञान उपलब्ध है । नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के प्रमुख आयामों में एक आयाम यह भारतीय ज्ञान परंपरा भी है ।

             वाकई में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के प्रावधान व सुझाव भारतीय शिक्षा व्यवस्था को और बेहतर बनाने तथा शिक्षा को और अधिक स्तरीयता प्रदान करने की दिशा में एक ऐतिहासिक प्रयास है ।

             अंत में डॉ. सच्चिदानंद जोशी के शब्दों में – “सन् 2020 की 29 जुलाई को भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू करने का प्रस्ताव पारित हुआ तो दरअसल ये 34 वर्ष बाद किया जाने वाला परिवर्तन नहीं है । यह परिवर्तन वस्तुतः भारत के इतिहास में 185 वर्ष बाद आया है । जैसे हम आजादी के बाद से औपनिवेशिक मानसिकता से उबरने के लिए संघर्षरत थे और भौतिक रूप से स्वतंत्र होने के बाद भी मानसिक गुलामी से मुक्त होने के लिए छटपटा रहे थे । वैसे ही हम विगत 185 वर्षों से हमें गुलाम और जर्जर बनाने वाली शिक्षा व्यवस्था से मुक्त होने के लिए छटपटा रहे थे । राष्ट्रीय शिक्षा नीति भारत के लिए सही मायनों में ‘सा विद्या या विमुक्तये’ का संदेश लेकर आई है ।”( राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 की गंगोत्री: भारतीय ज्ञान परंपरा. सं. अनिल कुमार राय, पृ.38)

प्रो. हसमुख परमार

स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय

वल्लभ विद्यानगर

आणंद (गुजरात)

 

कहानी पर बात

 

‘बाबा जी का भोग’ कहानी से गुजरते हुए

सुशीला भूरिया

हिंदी कथा साहित्य में मुंशी प्रेमचंद का नाम सामाजिक यथार्थवाद के अग्रदूत के रूप में सदा स्मरणीय रहेगा। उनके कथा साहित्य में समाज के भीतर की करुणा, नैतिकता तथा मानवीय मूल्यों की ध्वनि खुलकर सामने आती है। उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से समाज के दबे-कुचले, शोषित-वंचित वर्ग की आवाज को स्वर दिया। प्रस्तुत कहानी ‘बाबा जी का भोग’ प्रेमचंद की ऐसी ही एक संक्षिप्त कहानी है जो धर्म, श्रद्धा और गरीबी के त्रिकोण में फंसे आम भारतीय कृषकों की करुण गाथा को व्यंग्य के माध्यम से प्रस्तुत करती है। यह कहानी शोषण, गरीबी, धार्मिक आस्था और सामाजिक दबाव के बीच फंसे एक साधारण ग्रामीण परिवार की संवेदनशील झलक प्रस्तुत करती है। जो धार्मिक आडंबर और गरीब आत्मा की विवशता पर तीखा व्यंग्य करती है।

इस कहानी में लेखक गरीबों की उस विवशता को उजागर करते हैं, जहाँ धार्मिक आडंबर और देवताओं के प्रति भय के कारण वे स्वयं भूखे रहकर भी साधु-संतो की सेवा को अपना परम कर्तव्य मानते हैं। प्रेमचंद का यह व्यंग्यात्मक लेखन हमें सोचने पर मजबूर करता है कि क्या वास्तव में साधु-संत संन्यास की आड़ में छिपे अनेक तथाकथित ‘बाबा’ पुण्य के हकदार हैं ? प्रस्तुत कहानी में ‘रामधन अहीर’  और उसकी ‘पत्नी’ के माध्यम से प्रेमचंद एक ऐसे ही दारुण यथार्थ की तस्वीर खींचते हैं जहाँ भूख और आस्था आमने-सामने खड़ी है और मनुष्य अपने भीतर की संवेदना को मरने नहीं देता भले ही पेट खाली हो।

कहानी की शुरुआत उस दृश्य से होती है जब रामधन और उसकी पत्नी चैत के महीने में भूख- प्यास से जूझ रहे हैं। उनके पास अनाज भी लगभग खत्म हो चुका है। ऐसे में रामधन अहीर के द्वार पर एक साधु (बाबाजी) आकर भिक्षा माँगता है। साधु के आने पर रामधन अपनी स्त्री से कुछ देने को कहता है, जबकि घर की स्थिति अत्यंत दयनीय है। स्त्री बर्तन माँजते हुए इस चिंता में डूबी है कि आज घर में भोजन कैसे बनेगा क्योंकि अन्न का एक दाना तक घर में नहीं है। यह परिस्थिति भारत के उस कृषक वर्ग की वास्तविक स्थिति को उजागर करती है जो धान उगाता है पर खुद भूखा मरता है।

चैत का महीना जो सामान्यतः खेतों की हरियाली और फसल कटाई का समय माना जाता है यहाँ विपत्ति और अंधकार का रूपक बन जाता है और किसान के हिस्से में कुछ नहीं बचता। उपज सारी की सारी खलिहान से उठ गई। आधी महाजन ने ले ली आधी जमींदार के लोगों ने वसूल ली। मन भर दाना निकले उतनी ही फ़सल रामधन के हिस्से में आई। चैत माह के जाते जाते वह भी खत्म हो गई। रामधन अपने बैल भी भूसा बेचकर छुड़ाता है, यह किसान जीवन की विवशता कहे या कहानी की हास्यास्पद विडंबना। कहानी में प्रेमचंद कहते हैं– “दोपहर ही को अंधकार छा गया था।” यह वाक्य केवल मौसम का नहीं बल्कि किसान के जीवन में छाए निराशा और हताशा के अंधकार का संकेतक है। यहाँ मानवीय करुणा और धार्मिक आस्था का द्वंद देखने को मिलता है। इस अंधकार में जब एक साधु द्वार पर आकर भिक्षा मांगता है तो रामधन जैसे निर्धन व्यक्ति के मन में धार्मिक भावनाएँ और करुणा हावी हो जाती हैं। स्वयं भूखा होते हुए भी वह साधु को निराश नहीं करना चाहता क्योंकि उसका मन जानता है कि धर्म केवल बाह्य पूजा नहीं बल्कि मन की सच्ची श्रद्धा और सेवा भावना है। यहाँ कहानी धार्मिक पाखंड की ही नहीं बल्कि उस आंतरिक आस्था की बात करती है जो अभाव में भी उदारता सिखाती है। स्त्री का भी यही द्वंद है– वह जानती है कि उनके पास साधु को देने को कुछ नहीं लेकिन फिर भी वह साधु को खाली हाथ लौटाने में हिचकती है क्योंकि “द्वार पर साधु आ गया है, उसे निराश कैसे लौटायें, अपने दिल में क्या कहेगा।” यह वाक्य प्रेमचंद के पात्रों की अंतर्द्धद्धात्मक संवेदना को अभिव्यक्त करता है।

     बाबा जी का भोग’ कहानी की आगे की कथा को देखें तो, बाबा के आने पर उनको देने के लिए रामधन के पास कुछ भी नहीं था बस उसके घर में आधा सेर आटा बचा होता है जिसे उसकी पत्नी द्वारा देवताओं की पूजा के लिए बड़ी मेहनत से बचाया गया था वही आटा कटोरे में भरकर वह साधु की झोली में डाल देता है। साधु आटा लेकर रामधन के घर पर ही रहने की योजना बना लेता है। वह रामधन से कहता है “बच्चा अब तो साधु आज यहीं रमेंगे। कुछ थोड़ी-सी दाल दे, तो साधु का भोग लग जाए।” संयोग से दाल घर में थी रामधन ने दाल, नमक, उपले और पानी की व्यवस्था साधु को करके दी। साधु ने यह सब सामग्री पाकर “बड़ी विधि से बाटियाँ बनायी, दाल पकायी और आलू झोली में से निकालकर भूरता बनाया। जब सब सामग्री तैयार हो गयी, तो रामधन से बोले– बच्चा, भगवान के भोग के लिए कौड़ी- भर घी चाहिए। रसोई पवित्र ना होगी, तो भोग कैसे लगेगा ?” साधु की इस फरमाइश पर रामधन ने घर में जो थोड़ी सी दाल बची थी उसमें से थोड़ी निकाल कर उसे बनिये के यहाँ बेचकर घी लाकर साधु को दिया। “साधु जी ने ठाकुर जी की पिंडी निकाली, घंटी बजायी और भोग लगाने बैठे। खूब तन कर खाया, फिर पेट पर हाथ फेरते हुए द्वार पर लेट गये।” वही रात, साधु तो संतुष्ट होकर विश्राम करता है, लेकिन रामधन के घर चूल्हा नहीं जलता और वे दोनों यानी रामधन और उसकी पत्नी सिर्फ दाल पकाकर ही पीने को मजबूर होते हैं।

     कहानी के अंत में रामधन लेटे-लेटे खुद को तसल्ली देते हुए सोचता है– “मुझसे तो यही अच्छे !” क्योंकि वे कम से कम शांतिपूर्वक भोजन और विश्राम तो कर पाए। प्रस्तुत कहानी में बाबा जी स्वयं की भूख या आत्मसम्मान खोने पर भी धार्मिक ढोंग में अव्वल रहते हैं। इस कहानी के माध्यम से प्रेमचंद अंधविश्वास और धार्मिक दिखावे पर कटाक्ष करते हुए सवाल उठाते हैं कि यहाँ गरीब को शांति और पुण्य के नाम पर खुद नुकसान उठाना पड़ता है। कहानी धर्म के नाम पर फैलाए गए उस पाखंड की तीखी आलोचना करती है, जहाँ साधु-सन्यासी केवल ‘श्रद्धा’ के नाम पर आमजन की मेहनत की कमाई हड़पते हैं। बाबा जी की मांगे धीरे-धीरे बढ़ती जाती है पहले आटा, फिर दाल और घी यह दिखाता है कि कैसे ढोंग बढ़ते लालच का ही एक रूप है।

     कहानी में रामधन एक आदर्श ग्रामीण व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करता है। वह दयालु, श्रद्धालु और धार्मिक है लेकिन यही गुण उसकी व्यावहारिक विवेक-बुद्धि को कुंठित कर देते हैं। रामधन और उसकी पत्नी की स्थिति दर्शाती है कि धार्मिक भय और सामाजिक दबाव किस तरह गरीबों को अपनी भूख और जरूरतों को भूल जाने पर मजबूर कर देते हैं। भले ही उनके घर में चूल्हा न जले पर उन्हें संतुष्टि है कि उन्होंने ‘बाबा जी’  को भोग लगा के प्रसन्न कर लिया। प्रस्तुत कहानी पाठक को यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या ऐसा धर्म जिसकी कीमत इंसान की भूख हो, वाकई धर्म है ?

     बाबा जी का भोग’ कहानी की भाषा और शैली की बात करें तो यहाँ प्रेमचंद की भाषा सहज लोकजीवन से जुड़ी हुई और व्यंग्यात्मक दिखाई देती है। कथा में व्यर्थ का कोई शोर-शराबा और कृत्रिमता नहीं छोटे वाक्य, लोक प्रचलित शब्द और मर्मस्पर्शी संवाद इसे अत्यंत प्रभावशाली बनाते हैं। सबसे बड़ी विशेषता यह है कि प्रेमचंद उपदेश नहीं देते केवल एक दृश्य रचते हैं और पाठक को उसका अर्थ स्वयं समझने का अवसर देते हैं। यह कहानी अत्यंत संक्षिप्त किंतु गहराई से भरी हुई रचना है। इसमें प्रेमचंद ने बहुत ही सरल-सहज लेखन शैली में हमारे समाज की दो बड़ी समस्याओं गरीबी और धार्मिक पाखंड को उजागर किया है। साथ में महाजनों और जमींदारों द्वारा गरीब किसानों के शोषण की समस्या को भी चित्रित किया है। यह कहानी धर्म और करुणा के वास्तविक अर्थ पर पुनर्विचार करने को मजबूर करती है।

     बाबा जी का भोग’ आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी प्रेमचंद के समय में थी। वर्तमान समय में भी कई तथाकथित बाबाओं द्वारा अंधश्रद्धा, धर्म का भय और दिखावे का धंधा जारी है। गरीब वर्ग आज भी इस भ्रम में जी रहा है कि पुण्य करने से उसका भाग्य सुधर जाएगा, चाहे इसके लिए उसे भूखा ही क्यों न सोना पड़े। यह कहानी सिर्फ अतीत का बयान नहीं है बल्कि वर्तमान पर एक तीखा प्रश्नचिन्ह है।

संदर्भ सूची:

१.    प्रेमचंद की 51 श्रेष्ठ कहानियाँ, सं०डॉ० लक्ष्मीकांत पांडेय, पृष्ठ संख्या- 218

२.    वही, पृष्ठ संख्या-218

३.    और ४. वही, पृष्ठ संख्या-219

 

सुशीला भूरिया

पीएच.डी. शोध छात्रा

हिंदी विभाग, सरदार पटेल विश्वविद्यालय

वल्लभ विद्यानगर, आणंद, गुजरात

 

 

 

    

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