मंगलवार, 21 अक्टूबर 2025

आलेख

अर्चना कोचर की कविताओं में सामाजिक यथार्थ और सांस्कृतिक चेतना

डॉ.नरेश सिहाग

प्रस्तावना

भारतीय कविता की परंपरा केवल भावुकता और सौंदर्य-रस तक सीमित नहीं रही है, बल्कि उसने समाज, संस्कृति, राजनीति और जीवन के गहरे सवालों को भी स्वर दिया है। आधुनिक हिंदी कविता में विशेषकर स्त्री कवयित्रियों की रचनाएँ समाज के अंतर्विरोधों, विघटन और पुनर्निर्माण की प्रक्रिया को नए दृष्टिकोण से प्रस्तुत करती हैं। अर्चना कोचर की कविताएँ इसी परंपरा का सशक्त विस्तार हैं। उनकी कविताओं में एक ओर भारतीय संस्कृति की जड़ों की गहरी पहचान है तो दूसरी ओर आधुनिकता के दुष्परिणामों पर तीखा व्यंग्य भी मिलता है।

प्रस्तुत आलेख में उनकी चयनित कविताएँ – वसुधैव कुटुंबकम, ‘आँसुओं की झड़ी’, ‘माफीनामा लिखते हस्ताक्षर’ और ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर’ – के आधार पर उनके काव्य में सामाजिक यथार्थ, स्त्री विमर्श और सांस्कृतिक चेतना का विश्लेषण किया गया है।

 1. सांस्कृतिक संकट और परंपरा का प्रश्न

अर्चना कोचर की कविता ‘वसुधैव कुटुंबकम’ भारतीय सभ्यता और पाश्चात्य सभ्यता के बीच टकराव को केंद्र में रखती है। यहाँ पश्चिमी फैशन और उपभोक्तावादी संस्कृति पर तीखा प्रहार किया गया है –

“देहाती, अनपढ़ लगने लगी, साड़ी सूट-सलवार

धोती-लूंगी ने, जींस कोट-पेंट से मिलाए सुरताल।”

इस कविता में परंपरागत भारतीय परिधान, पूजा-पद्धति, यज्ञोपवीत और सनातनी मूल्य उस खोई हुई पहचान का प्रतीक हैं जिन्हें आधुनिकता के नाम पर भुला दिया जा रहा है। कवयित्री इस विस्मरण को केवल परंपरा की क्षति नहीं मानती, बल्कि उसे आत्म-अपमान और सांस्कृतिक पराजय के रूप में देखती हैं।

2. पारिवारिक विघटन और वृद्धावस्था की पीड़ा

कविता ‘आँसुओं की झड़ी’ पारिवारिक संबंधों की दरकती दीवारों और वृद्धावस्था की असुरक्षा को गहराई से चित्रित करती है। पिता की आँखों में आँसुओं की अविरल धारा केवल व्यक्तिगत दुख का संकेत नहीं, बल्कि उस बदलते सामाजिक ढाँचे का प्रतीक है जहाँ ‘बुजुर्ग’ अब परिवार का सहारा नहीं, बल्कि उपेक्षा का शिकार बनते जा रहे हैं।

“छोड़ गए मेरी कमाई पर पलने वाले,

बाबा, बुढ़ापे का सहारा अब तुम्हारे पास यह छड़ी है।”

यह कविता ‘आर्थिक समृद्धि और भावनात्मक निर्धनता” का गहरा द्वंद्व प्रस्तुत करती है। मकान की दीवारें, छत और ईंट-गारा यहाँ मानवीय संबंधों की टूटन और समय की विडंबना का मार्मिक प्रतीक बन जाते हैं।

3. आधुनिक परिवार और मूल्य-परिवर्तन

‘माफीनामा लिखते हस्ताक्षर’ कविता समकालीन परिवारिक जीवन की जटिलताओं और बदलते मूल्य-बोध का दस्तावेज़ है। छोटे परिवार, विलंबित विवाह, एग-फ्रीज जैसी आधुनिक प्रवृत्तियाँ, वृद्धाश्रमों का चलन, लिव-इन रिलेशनशिप – इन सबका कवयित्री ने सटीक और व्यंग्यात्मक चित्रण किया है।

“बहुत बड़े परिवार हुआ करते थे, हमारे बड़े-बुजुर्गों के,

जनसंख्या वृद्धि में हम, हमारे दो पर टिकने लग गए हैं।”

***

“लिव इन रिलेशनशिप की रीत-प्रीत में, बंध रहे हैं बच्चे,

हम भी बिन फेरे-हम तेरे वाले बंधन पर, आशीर्वाद बरसाने लग गए हैं।”

यह कविता उस पीढ़ीगत संकट को उजागर करती है जिसमें माता-पिता अपने बच्चों की हर गलती पर ‘माफीनामा’ लिखने को विवश हैं।

4. स्त्री विमर्श और महिला सशक्तिकरण

‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर’ कविता स्त्री विमर्श को केंद्र में रखती है। कवयित्री ने इस बात पर प्रश्न उठाया है कि नारी के लिए केवल एक दिन का ‘महिला दिवस’ क्यों? यह केवल दिखावटी उत्सव है, जबकि वास्तविकता में स्त्री आज भी अनेक बंधनों से जूझ रही है।

“सिर्फ एक दिन का महिला दिवस,

यह तो मौसमी बसंत है,

जल्द चला जाएगा,

फिर से हमारा वजूद सूखे पतझड़ सा छला जाएगा।”

कविता में नारी को दुष्ट-संहारक, संचालक, पालक और धर्म-दया का प्रतीक बताया गया है। कवयित्री मानती हैं कि स्त्री में वह अद्भुत शक्ति है जो समाज को नई दिशा दे सकती है।

5. काव्यभाषा और शिल्प

अर्चना कोचर की भाषा सहज, व्यंग्यपूर्ण और भावनात्मक है। वे प्रतीक और बिंबों का अत्यधिक प्रयोग करती हैं – छत, आँसू, छड़ी, माफीनामा, मौसमी बसंत – ये सब मिलकर उनके काव्य को जीवंत और यथार्थपरक बनाते हैं। उनकी कविताएँ न तो केवल भावुकता में डूबी हैं और न ही केवल नारेबाज़ी हैं, बल्कि यथार्थ के प्रति संवेदनशील दृष्टि को अभिव्यक्त करती हैं।

6. सामाजिक यथार्थ का समग्र परिदृश्य

इन कविताओं के आधार पर स्पष्ट होता है कि अर्चना कोचर का काव्य सामाजिक यथार्थ का बहुआयामी दस्तावेज़ है –

v भारतीय संस्कृति और परंपराओं का क्षरण (वसुधैव कुटुंबकम)

v वृद्धावस्था और पारिवारिक विघटन (आंसुओं की झड़ी)

v आधुनिक परिवार और मूल्य परिवर्तन (माफीनामा लिखते हस्ताक्षर)

v स्त्री शक्ति और महिला विमर्श (अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर)

इन सभी में एक साझा स्वर है – बदलते समय के दबाव में भारतीय समाज की जड़ों का हिलना, रिश्तों का बिखरना और पहचान का संकट।

उपसंहार

अर्चना कोचर की कविताएँ केवल व्यक्तिगत पीड़ा या सामाजिक आलोचना तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वे भारतीय समाज के सामने खड़े गंभीर प्रश्नों को सामने लाती हैं। उनकी कविताएँ हमें आत्ममंथन के लिए विवश करती हैं और यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि आधुनिकता की अंधी दौड़ में कहीं हम अपनी अस्मिता, संस्कृति और मानवीय संवेदनाओं को तो नहीं खो रहे।

इस दृष्टि से अर्चना कोचर का काव्य न केवल साहित्यिक महत्व रखता है, बल्कि सामाजिक दस्तावेज़ के रूप में भी मूल्यवान है।



डॉ. नरेश सिहाग

एडवोकेट

गुगन निवास 26 पटेल नगर

भिवानी – हरियाणा


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