मंगलवार, 30 सितंबर 2025

लघुकथा

 

बूढ़े कंधों का बोझ

श्वेता कंडुलना

शम्भूनाथ ने अपने जीवन के साठ वर्ष पूरे कर लिए थे। वह बहुत खुश था कि अब उसे अपनी नौकरी से सेवानिवृत्ति मिलने वाली है। उसने अपने जीवन के सारे वर्ष अपने परिवार के भरण-पोषण और जिम्मेदारियों में बिता दिए थे। शम्भूनाथ के परिवार में उसकी पत्नी किशोरी और पाँच बच्चे थे — दो बेटे और तीन बेटियाँ। पूरा परिवार मिल-जुलकर एक खुशहाल जीवन व्यतीत कर रहा था। घर में सभी को अपनी मर्ज़ी से जीने की आज़ादी थी।

अब शम्भूनाथ की खुशी का ठिकाना नहीं था, क्योंकि इतने वर्षों की नौकरी के बाद उसे अब अपने शेष जीवन को परिवार और बच्चों के साथ बिताने का अवसर मिल रहा था।

दो दिन बाद, यानी 15 मार्च को, शम्भूनाथ को पूरे परिवार सहित दफ्तर बुलाया गया था — विदाई समारोह के लिए।

उस दिन वह अपनी पत्नी किशोरी से कहता है —

"सुनती हो किशोरी, आज मैं बहुत खुश हूँ। इतने लंबे समय तक नौकरी करते-करते मैं थक-सा गया था… अब आराम करने का समय आ गया है। अब मेरा सारा समय तुम्हारे लिए होगा।"

किशोरी मुस्कराकर बोली —

"हाँ जी, आपने बिल्कुल सही कहा। जीवन का आधा भाग तो आपने परिवार की देखभाल में ही बीता दिया। अब हमारे बेटे हैं, वो सब संभाल लेंगे।"

शम्भूनाथ ने मुस्कुराते हुए कहा —

"मैंने अकेले नहीं किया सब कुछ, पगली… तुमने भी तो अपना पूरा जीवन परिवार की सेवा में लगा दिया। इसलिए अब आराम करने का समय हम दोनों का है।"

यह सुनकर किशोरी की आँखों से आँसू छलक पड़े।

शम्भूनाथ ने पूछा —

"क्या हुआ किशोरी? तुम रो क्यों रही हो?"

किशोरी बोली —

"आप अच्छी तरह जानते हैं… आप भले कुछ न कहें, लेकिन मैं आपके मन की पीड़ा को देख सकती हूँ, महसूस कर सकती हूँ।"

शम्भूनाथ ने अपने आँसू रोकने की पूरी कोशिश की, लेकिन असफल रहा… और अंततः वह भी रो पड़ा।

वह बोला —

"क्या करूँ किशोरी, मुझे समझ में नहीं आता। हर माँ-बाप का सपना होता है कि उनके बच्चे बुढ़ापे में उनका सहारा बनें। हमने भी वही सपना देखा था… क्या हमने कोई गुनाह कर दिया? लगता है हमारी परवरिश में ही कोई कमी रह गई, जो आज हमें ये दिन देखना पड़ रहा है।"

किशोरी ने उसे ढाँढ़स बँधाते हुए कहा —

"आप मत रोइए जी। विधाता ने जरूर कुछ अच्छा सोच रखा होगा। मुझे यकीन है कि सब कुछ ठीक होगा। हम इतने कमज़ोर नहीं पड़ सकते। यह सब हमारे ही पूर्व कर्मों का फल है जो हम भोग रहे हैं।"

शम्भूनाथ की आँखों में आँसू थे। वह बोला —

"किशोरी, मुझे माफ करना… लेकिन मैं क्या करूँ, अब मेरे कंधे बूढ़े हो चुके हैं। अब मुझसे यह बोझ नहीं उठाया जा रहा…"

कहानी यहीं खत्म नहीं होती — यह तो उस मोड़ की शुरुआत है, जहाँ जीवन की सच्चाई और रिश्तों की परीक्षा शुरू होती है…

 

श्वेता कंडुलना

पीएचडी शोधार्थी

हिंदी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय

वल्लभ विद्यानगर

 

 

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