मंगलवार, 30 सितंबर 2025

आलेख

रामकथा के अनन्य व्याख्याता : बाबा कामिल बुल्के

इन्द्रकुमार दीक्षित

विदेशी भूमि से आने के बावजूद राष्ट्र भाषा हिन्दी को अपने शोध, सृजन, अभिव्यक्ति और प्रचार का माध्यम बनाकर बाबा फादर कामिल बुल्के ने इसे देश-विदेश में जो प्रतिष्ठा दिलाई और जीवन पर्यंत इसकी साधना में निरत रहे इसके लिये हम  हिन्दी भाषियों को इस देव तुल्य मनीषी का ऋणी  होना चाहिये।

          स्वभाव से अत्यन्त सहज, सरल, शान्त, सौम्य और भव्य व्यक्तित्व के स्वामी फादर बुल्के का जन्म  पहली सितम्बर 1909 को बेल्जियम के एक गाँव  में हुआ था। इनके दादा बड़े  जमीदार थे उनकी जमीदारी के उस गाँव का नाम  जहाँ  कामिल बुल्के का जन्म हुआ, राम्स  कैसलअर्थात राम का किलाथा,आगे चलकर यही बालक राम के चरित्र - राम कथाका मर्मज्ञ हुआ। भारतीय  संस्कृति के गूढ तत्वों को आत्मसात करके  जीवन भर उसके प्रति समर्पित रहा। भारतीय संस्कृति के मूर्तिमान नक्षत्र  महाकवि गोस्वामी तुलसीदास  के राम चरितमानस पर गहन शोध एवं अध्ययन करके विदेशों में उसे लोक प्रिय बनाने में महत्त्व पूर्ण योगदान किया।

(फादर कामिल बुल्के)

         बालक कामिल की माता का नाम मेरी तथा पिता का नाम एडोल्फ़ बुल्के था। कामिल नाम उन के ताऊ ने रखा था। बुल्के कुल चार भाई बहन थे। इनका परिवार मध्य वर्गीय था पर इनके ताऊ एक धनी व्यापारी थे। पिता अत्यधिक संतोषी प्रकृति के - थोड़े में काम चलाने वाले, जबकि माता धार्मिक विचारों वाली, भाव- प्रवण पर दृढ़ निश्चयी महिला थीं। फादर अपनी माता से अगाध प्रेम करते थे और माँ  से भी उन्हें वैसा ही तरल वात्सल्य मिला। इनके पिता 1914 में शुरू हुए प्रथम विश्व युद्ध में जब भाग लेने चले गये  उस समय माँ  के एकाकी करुण जीवन  का बालक कामिल बुल्के पर बहुत गहरा असर हुआ। यही कारण था कि  उनके व्यक्तित्व पर इसी करुणा की छाप अंकित हो गई।

          फादर  की प्रारंभिक शिक्षा मातृभाषा फ्लैमिश में प्रारंभ हुई। चूँकि उच्च कुलस्थ अधिकारी वर्ग फ्लैमिश की जगह फ़्रैंच भाषा का प्रयोग करते थे, इससे किशोर वय के कामिल का मन  आहत हो जाता और वे मातृभाषा फ्लैमिश को प्रतिष्ठा पूर्ण स्थान दिलाने के लिये बेचैन  हो उठते। लगता हैं भारत आकर बाबा का हिन्दी प्रेम इसी मनोभाव का परिचायक था। फादर कामिल  बुल्के मेधावी  और सहनशील थे, हाई स्कूल तक उन्होंने फ्लैमिश और फ़्रैंच पढ़ी। आगे चल कर  लुवेन विश्वविद्यालय में उन्होंने फ़्रैंच भाषा में भौतिक विज्ञान  और इंजीनियरिंग का अध्ययन कियाऔर बी एस सी की परीक्षा सर्वोच्च अंकों से उत्तीर्ण किया।

        पढ़ाई  के बाद वे सेना की अनिवार्य नौकरी मे चले गये जहाँ  उन्होंने मेडिसिन की  जानकारी भी हासिल की। पर उनका अन्तर्मन भौतिक जगत की उपलब्धियों में नहीं रमता था। कोई अदृश्य शक्ति उन्हें मानो किसी महान कार्य के लिये प्रेरित कर रही थी।

          माँ  की आज्ञा से एक बार  जब वे पड़ोस की एक लड़की की मृत्यु होने पर उसकी अंत्येष्टि क्रिया में शामिल हुए तो कामिल को इस संसार की असारता और नश्वरता का बोध हुआ।

फिर तो उनके  मन में संसार त्याग कर सन्यास ग्रहण करने की भावना का उदय हुआ। धीरे-धीरे इस विचार ने निश्चय का रूप धारण कर लिया। वे रात दिन इसी के बारे में सोचने  लगे। जब माँ ने उनकी इस उद्विग्नता का कारण पूछा तो उन्हों ने माँ  को अपने निश्चय के बारे में बताया, थोड़ी देर के लिये उन्हें बहुत दुख हुआ और वे विचार मग्न हो गई परंतु इसे ईश्वर की ही कोई प्रेरणा मानकर उन्होंने पुत्र के निर्णय को अपनी स्वीकृति प्रदान कर दिया। 21 वर्ष की अवस्था में फादर कामिल बुल्के ने गुरु की शरण में जाकर सन्यास ग्रहण कर लिया,और प्रभु सेवा का मार्ग अपना लिया।

          सन्यास ग्रहण करने के बाद पाँच  वर्ष का समय  फादर  बुल्के ने धर्म दर्शन के गहन अध्यय न और मानव सेवा में बिताया। तत्पश्चात 1935 ईस्वी में इसाई मिशनरी( धर्म प्रचार)  कार्य के लिये भारत आ गये।

उन्हें बिहार के मिथिलांचल का आदिवासी क्षेत्र कार्य- स्थल के रूप में मिला जहाँ हिन्दी भाषा सीखे बिना उनका मिशनरी  और समाज सेवा काकार्य आगे नहीं बढ सकता था। 1941 में वे पादरी पद  पर प्रतिष्ठित हुए। उनके ऊपर मिथिला प्रदेश में प्रचलित राम और सीता  के जीवन सम्बंधी लोक कथाओं तथा राम चरित मानस के दोहे और चौपाइयों के सस्वर गायन का बहुत प्रभाव पड़ा। वे हिन्दी और संस्कृत का मन लगाकर अध्ययन  करने लगे। भारतीय  संस्कृति के गूढ तत्वों को समझने  के लिये कामिल बुल्के ने कोलकाता विश्वविद्यालय से संस्कृत में बी ए किया और तत्पश्चात इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 1947 में हिन्दी विषय में एम. ए.  किया, उन्होंने अपना शोध कार्य प्रसिद्ध विद्वान डॉ  माता प्रसाद गुप्त के निर्देशन में “राम कथा उद्भव और विकास” नामक  विषय पर पूरा किया और  1949 में पीएच. डी.  की उपाधि प्राप्त किया।

सन 1950 में फादर कामिल बुल्के को राँची विश्व विद्यालय में हिन्दी विषय का विभागाध्यक्ष नियुक्त किया गया। उसके बाद राँची  को ही अपनी  कर्म भूमि और हिन्दी भाषा को ही अपनी साधना मानकर अथक परिश्रम करते हुए  अनुराग पूर्वक अपनी लेखनी से माँ  भारती  का भण्डार भरते रहे। अंग्रेजी  हिन्दी शब्दकोशनामक ग्रंथ का सम्पादन हिन्दी भाषा को उनकी अनुपम देन है, जो अपनी कुछ विशेषताओं के कारण अबतक प्रकाशित अन्य कोशों की अपेक्षा  अधिक महत्त्व रखता है।

         फादर  कामिल बुल्के  चाहते  तो अपने मिशनरी का अनुमोदन लेकर शेष जीवन बिताने के लिये स्वदेश लौट सकते थे, पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। भारत को ही अपना कर्म क्षेत्र मानकर  वे  आजीवन हिन्दी भाषा के प्रति समर्पण भाव से  सेवा करते रहे। उन्होँने अपनी कृतियों से हिन्दी गद्य विधा को न केवल नई  ऊर्जा, चेतना और दिशा प्रदान किया वरन उसे रसमयता, सरसता, सौष्ठव तथा गहरी भावमयता से आपूरित किया। वे फ्लैमिश, फ़्रैंच, जर्मन, लैटिन, ग्रीक,अंग्रेजी, हिन्दी तथा संस्कृत सहित करीब चौदह भाषाओं के निष्णांत अधिकारी विद्वान थे, फिर भी उनमें अपनी विद्वत्ता के प्रति जरा भी अहं भाव नहीं था। एक सन्त की सहजता  के साथ अपनी वाणी में वे हिन्दी और संस्कृत के शुद्ध और परिष्कृत शब्दों के प्रयोग पर बल देते थे।

          फादर  बुल्के का कहना था कि, “कोई विदेशी भाषा बोलने वाला तुम्हारी भाषा नहीं सम्भालेगा,भारत में तो मुझे इंगलिस्तान का धोखा होता है, सारे नाम पट्ट, दुकानों, गलियों और सड़कों के नाम यहाँ  अंग्रेजी  में लिखे नज़र आते हैं,” हिन्दी की वांछित उन्नति न होने के पीछे वे हिन्दी बोलने, लिखने व पढ़ने वालों का ही अधिकतम दोष मानते थे, वह कहा करते थे कि संस्कृत भाषाओं की महारानी, हिंदी बहूरानी और अंग्रजी  नौकरानी  है। इसाई  साधना पद्धति में शिक्षित व दीक्षित  होने के बावजूद  भी वे तुलसी  के राम चरित मानस को भारत का सांस्कृतिक दस्तावेज मानते थे। उनके शोध के अनुसार राम वाल्मीकि  के कल्पित पात्र नहीं बल्कि वे इतिहास पुरुष हैं। उन्होंने  पहली बार साबित किया कि रामकथा  केवल भारत की रामकथा न होकर अन्तर्राष्ट्रीय  रामकथा है।

यह म्यामार,थाइलैंड,वियतनाम, श्याम और इंडोनेशिया आदि  देशों में भी उनके  रामायण तथा लीलाओं में वर्णित है।

    तुलसी  के अनन्य प्रशंसक होने के साथ वे उनके श्रद्धा एवं भक्ति-भाव के कायल हैं। बाबा कामिल बुल्के कहा करते  थे “ऊपर जाकर मैं सबसे पहले बाबा तुलसी  से मिलूँगा।”

      हिन्दी भाषा के प्रति फादर कामिल बुल्के की अभूत पूर्व सेवा के लिये 1974 में उनको पद्म भूषण अलंकरण से सम्मानित किया गया। भारतीय आचार व्यवहार  तथा आतिथ्य भावना  उनके  व्यवहार  में गहराई तक समाहित हो गये थे। उनका निधन 17 अगस्त, 1982 ईस्वी को राँची में हुआ। आज वे बेशक हमारे बीच नहीं हैं परंतु भारत, भारतीयता और  माँ भारती के प्रति उनका लगाव, स्नेह तथा इनकी उन्नति  के लिये चिंता-भाव उन्हें राष्ट्र भाषा हिन्दी के दत्तक पुत्र के रूप में अमरत्व प्रदान करते रहेंगे।

 

इन्द्रकुमार दीक्षित

वरिष्ठ उपाध्यक्ष नागरी

प्रचारिणी सभा देवरिया

म नं  5/45, गीतांजलि ,

मुंसिफ  कालोनी रामनाथ देवरिया(उत्तरी)  

देवरिया -274001

 

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