मिच्छामी
दुक्कड़म
सुरेश
चौधरी
भगवान
महावीर ने जिन दस लक्षणों को जैन धर्म की आधार शिला बनाया उनमें क्षमा उत्तम है,
वे कहते हैं –
'मैंने अपने मन में जिन-जिन पाप की वृत्तियों का संकल्प किया हो, वचन से जो-जो पाप वृत्तियाँ प्रकट की हों और शरीर से जो-जो पापवृत्तियाँ
की हों, मेरी वे सभी पापवृत्तियाँ विफल हों। मेरे वे सारे
पाप मिथ्या हों।'
यही
वाक्य है जो कहलाता है मिच्छामी दुक्कड़म : वस्तुतः यह पालि या प्राकृत भाषा का
शब्द है ,
उस समय अधिकांश बौद्ध एवं जैन ग्रन्थ इन्हीं भाषा में लिखे गए थे,
यह शब्द संस्कृत के शब्द मिथ्या में दुष्कृत्य से अपभ्रंश हो कर बना है जिसका शाब्दिक अर्थ है,
जो भी मेरे दुष्कृत्य हैं
वे मिथ्या हों, अतः वे प्रार्थना करते हैं कि समस्त पाप वृतियाँ झूठी हों । यह भी क्षमा मांगने का एक सर्वोच्च ढंग है
पर्युषण
पर्व पर क्षमत्क्षमापना या क्षमावाणी का कार्यक्रम ऐसा है जिससे जैनेतर जनता को
काफी प्रेरणा मिलती है। इसे सामूहिक रूप से विश्व-मैत्री दिवस के रूप में मनाया जा
सकता है। पर्युषण पर्व के समापन पर इसे मनाया जाता है। गणेश चतुर्थी या ऋषि पंचमी
को संवत्सरी पर्व मनाया जाता है।
उस
दिन लोग उपवास रखते हैं और स्वयं के पापों की आलोचना करते हुए भविष्य में उनसे
बचने की प्रतिज्ञा करते हैं। इसके साथ ही वे चौरासी लाख योनियों में विचरण कर रहे,
समस्त जीवों से क्षमा मांगते हुए यह सूचित करते हैं कि उनका किसी से
कोई बैर नहीं है। परोक्ष रूप से वे यह संकल्प करते हैं कि वे पर्यावरण में कोई
हस्तक्षेप नहीं करेंगे।
मन,
वचन और काया से जानते या अजानते वे किसी भी हिंसा की गतिविधि में
भाग न तो स्वयं लेंगे, न दूसरों को लेने को कहेंगे और न लेने
वालों का अनुमोदन करेंगे। यह आश्वासन देने के लिए कि उनका किसी से कोई बैर नहीं है,
वे यह भी घोषित करते हैं कि उन्होंने विश्व के समस्त जीवों को क्षमा
कर दिया है और उन जीवों को क्षमा माँगने वाले से डरने की जरूरत नहीं है।
खामेमि
सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्तिमे सव्व
भुएस् वैरं ममझं न केणई।
FORGIVE ALL LIVING
BEINGS.MAY ALL SOULS FORGIVE ME,I AM ON FRIENDLY TERMS WITH ALL,I HAVE NO
ANIMOSITY TOWARD ANY SOUL.
MICCHĀMI DUKKAḌAṂ:
PLEASE FORGIVE MY BAD DEEDS DONE KNOWINGLY OR UNKNOWINGLY
यह वाक्य परंपरागत
जरूर है,
मगर विशेष आशय रखता है। इसके अनुसार क्षमा माँगने से ज्यादा जरूरी
क्षमा करना है।
क्षमा
देने से आप अन्य समस्त जीवों को अभयदान देते हैं और उनकी रक्षा करने का संकल्प
लेते हैं। तब आप संयम और विवेक का अनुसरण करेंगे, आत्मिक
शांति अनुभव करेंगे और सभी जीवों और पदार्थों के प्रति मैत्री भाव रखेंगे। आत्मा
तभी शुद्ध रह सकती है जब वह अपने से बाहर हस्तक्षेप न करे और बाहरी तत्व से विचलित
न हो। क्षमा-भाव इसका मूलमंत्र है।
सुरेश
चौधरी
एकता
हिबिसकस
56
क्रिस्टोफर रोड
कोलकाता
700046
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें