डॉ.
योगेन्द्रनाथ मिश्र
क्रिया
बोलना/बुलाना/बुलवाना
बोलना
बुलाना
बुलवाना
ये तीन क्रियाएँ हैं।
इनकी वर्तनी को देख कर सहज ही लगता है कि
इनमें ‘बोलना’ मूल क्रिया है। ‘बुलाना’
उसका प्रथम प्रेरणार्थक रूप है और ‘बुलवाना’
उसका द्वितीय प्रेरणार्थक रूप है।
परंतु ऐसा नहीं है।
आइए वाक्य में इनका प्रयोग करके देखते हैं।
1. यह बच्चा भले ही अभी बोलता नहीं है।
2. परंतु मैं इसे बुलवा कर रहूँगा।
3. तुम अभी रमेश को बुला नहीं रहे हो।
4. परंतु मैं तुमसे रमेश को बुलवा कर
रहूँगा।
आप ध्यान दें -
पहले वाक्य में ‘बोलना’ अकर्मक क्रिया है। बच्चा बोलता है। बच्चा
बोलता नहीं है।
संदर्भ के अनुसार दूसरे वाक्य में ‘बुलवाना’ क्रिया ‘बोलना’
क्रिया का द्वितीय प्रेरणार्थक रूप है। बच्चे को बोलने के लिए किसी
(मैं) के द्वारा प्रेरित करने का भाव निहित है।
बोलना बच्चे को ही है। परंतु किसी की
प्रेरणा से।
तीसरे वाक्य में ‘बुलाना’ सकर्मक क्रिया है। वर्तनी की लगभग समानता के
कारण सामान्यतः लोग ‘बुलाना’ को ‘बोलना’ का प्रेरणार्थक रूप मान बैठते हैं।
परंतु ऐसा बिलकुल नहीं है।
अर्थ पर विचार करें तो ‘बोलना’ अलग प्रकार की क्रिया है तथा ‘बुलाना’ अलग प्रकार की क्रिया है। दोनों मूल
क्रियाएँ हैं। दोनों स्वतंत्र क्रियाएँ हैं। कोई किसी से व्युत्पन्न नहीं है।
चौथे वाक्य की ‘बुलवाना’ क्रिया ‘बुलाना’
क्रिया का प्रेरणार्थक रूप है।
बुलाना और बुलवाना।
बुलाना अर्थात् किसी को स्वयं बुलाना।
बुलवाना अर्थात् किसी को दूसरे के द्वारा
(दूसरे को प्रेरित करके) बुलवाना।
निष्कर्ष यह कि ‘बुलवाना’ समान वर्तीनी की दो ‘द्वितीय
प्रेरणार्थक’ क्रियाएँ हैं -
बोलना
(मूल अकर्मक ) - बुलवाना (बोलना का
द्वितीय प्रेरणार्थक रूप)।
बुलाना (मूल सकर्मक) -
बुलवाना (बुलाना का द्वितीय प्रेरणार्थक रूप)।
डॉ.
योगेन्द्रनाथ मिश्र
40,
साईंपार्क सोसाइटी, वड़ताल रोड
बाकरोल-388315,
आणंद
(गुजरात)
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