गुरुवार, 26 जून 2025

कविता

 


डॉ. अनिल कुमार बाजपेई ‘काव्यांश’

1

नारी देवी रूप...

(रोला छंद)

नारी  देवी  रूप, कभी   सीता   कहलाती।

कभी शीत की धूप, मातु बन मन सहलाती।।

कभी  बने भगवती, दुष्टजन  को  संहारे।

कभी अहिल्या बनी, राम की राह निहारे।।

 

कभी बने वो नीर, आँख से अविरल बहती।

चुभते कंटक नित्य, मौन होकर सब सहती।।

कभी उर्मिला बनी, विरह में जलती रहती।

कभी  राम  के  संग, वनों में चलती रहती।।

 

नेह–बदरिया  बनी, कभी साजन पर बरसे।

ममता की है खान, कभी ममता को तरसे।।

थक जाती कर काम, सँजोती सुंदर सपने।

पल में जाते रूठ, कभी थे उसके अपने।।

***


2

दूरदर्शन

(हास्य रचना-गीतिका छंद)

 

हाय देखो दूरदर्शन,

को भला क्या हो गया ।

गीत बढ़िया आ रहा था,

क्यों न जाने खो गया ।।

नायिका के थी थिरकती,

दामिनी सी अंग में ।

यूँ लगे जैसे किसी ने,

रंग डाला भंग में ।।

 

चढ़ जरा बेटा चला जा,

देख तो क्या बात है ।

बिंदु से क्यों दिख रहे हैं,

क्या हुई बरसात है?

अल्प एंटीना घुमा बस,

वाह अब सब साफ है ।

पर कभी ऐसे न चढ़ना,

आज बस ये माफ़ है ।।


डॉ. अनिल कुमार बाजपेई काव्यांश

जबलपुर

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

मई-जून 2025, अंक 59-60(संयुक्तांक)

  शब्द-सृष्टि मई-जून 2025, अंक  59 -60(संयुक्तांक)   व्याकरण विमर्श – क्रिया - बोलना/बुलाना/बुलवाना – डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र कविता – 1 नार...