रविवार, 31 अगस्त 2025

प्रसंगवश

 परामर्शक की कलम से....

पुष्प और पत्थर की अभिलाषा

देशभक्ति तथा मातृभूमि प्रेम का चरमोत्कर्ष

प्रो. हसमुख परमार

हमारे भीतर भरे हुए सारे भाव, किसी विशेष पर्व-प्रसंग, संदर्भ-स्मरण यानी विशेष आधार-आलंबन मिलते ही जागृत होकर उठते-बढ़ते और हमारे द्वारा किसी न किसी माध्यम से व्यक्त होते हैं । देश के प्रति, मातृभूमि के प्रति गाढ़ा लगाव स्वाभाविक है, अत: उसकी स्वाधीनता व सुरक्षा की चिंता उतनी ही स्वाभाविक, किंतु उससे भी ज्यादा स्वाभाविक है अपने देश की स्वाधीनता व सुरक्षा के संघर्ष काल में, लम्बे संघर्ष और लडाई के बाद राष्ट्र को मिली आजादी को राष्ट्रीय पर्वों-त्यौहारों के दिन तथा अपने आत्म बलिदान से इन पर्वों-त्यौहारों का निमित्त बने सपूतों की जन्म व मृत्यु तिथियों के दिन इस देशभक्ति के जज़्बे का उफान तथा इसकी अभिव्यक्ति । और इसमें भी साहित्य के सर्जकों का तो ऐसे अवसरों पर देशप्रेम व राष्ट्रीय चेतना का स्वर बड़ा ही बुलंद होकर बड़ी प्रखरता से उनकी रचनाओं में प्रकट होता है ।

वैसे साहित्य के नियमित पाठक होने के नाते कुछ कालजयी साहित्यिक रचनाओं का स्मरण तो किसी न किसी निमित्त होता ही रहता है, लेकिन कुछ खास अवसरों पर, उन अवसरों की मूल संवेदना से जुडी कुछ खास रचनाओं को विशेष रूप से याद करना, उनको गुनना तथा उन पर कुछ कहना-लिखना हमारा स्वभाव है और एक दायित्व भी । इस स्वभाव व दायित्व के चलते 15 अगस्त-स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर दो विशेष रचनाएँ-कविताएँ, एक हिन्दी की कालजयी रचना- माखनलाल चतुर्वेदी रचित पुष्प की अभिलाषातथा गुजराती के मूर्धन्य कवि दादकी रचना घडवैया मारे ठाकोरजी नथी थावुं (घडवैया मुझे ठाकोर जी नहीं होना है) को याद करते हुए एक बार और इन रचनाओं के रचयिताओं की राष्ट्रीयभावना तथा रचनाओं की संवेदना से गुजरते हैं ।

दोनों रचनाओं की भाषा अलग, दोनों का रचनाकाल अलग, दोनों के सृजन की पृष्ठभूमि अलग लेकिन दोनों रचनाओं का मूल स्वर और केन्द्रीय भाव एक है । देशभक्ति तथा मातृभूमि प्रेम का एक ऊँचा मानक प्रस्तुत करने वाली ये दोनों कविताएँ जिनमें माखनलाल चतुर्वेदी ने एक पुष्प के माध्यम से और कवि दादने एक पत्थर के माध्यम से, और उनकी अभिलाषा में अपनी तथा हर देशभक्त की अभिलाषा को प्रकट करते हुए देशप्रेम तथा मातृभूमि के प्रति लगाव की एक उम्दा मिशाल प्रस्तुत की है ।

देश व मातृभूमि के प्रति हमारी प्रेम भावना का एक महत्वपूर्ण पक्ष है जिसमें देश व मातृभूमि की रक्षा हेतु अपना आत्म बलिदान देने वाले वीरों का स्मरण कर उनके प्रति मान-सम्मान की तथा उनके लिए कुछ कर गुजरने की उदात्त भावना हम अपने भीतर कायम रखें । उक्त दोनों रचनाओं में यही बात विशेष रूप से प्रस्तुत की गई है ।

भारतीय आत्माके रूप में अपनी एक विशिष्ट पहचान रखने वाले माखनलाल चतुर्वेदी हिन्दी की राष्ट्रीय काव्यधारा के प्रमुख हस्ताक्षर हैं । राष्ट्रीय भावना से सराबोर इस कृती व्यक्तित्व के जीवन का और उनके सृजन कर्म का महत्‌ उद्देश्य था स्वाधीनता और राष्ट्रप्रेम । अत: उनके काव्य में राष्ट्र के प्रति समर्पण की भावना अत्यधिक पुष्ट रूप में अभिव्यक्त हुई है । उनका लेखन भारत के विराट मुक्ति आंदोलन का जीवंत दस्तावेज है । चतुर्वेदी जी की यह देशभक्ति काव्यसृजन तक ही मर्यादित नहीं रही बल्कि वे स्वयं स्वाधीनता आंदोलन में बतौर स्वतंत्रतासेनानी अपनी भूमिका का निर्वहण करते हुए कई बार जेल भी गए और वहाँ से भी अपनी कलम से स्वाधीनता की चाह व चेतना को जन-मन में फूँकते रहे । उनकी जिस अमर रचना पुष्प की अभिलाषाका हम यहाँ विशेष स्मरण कर रहे हैं उसकी रचना भी उन्होंने 18 फरवरी 1922 को बिलासपुर जेल में की थी ।

अपने राष्ट्रदेवता के प्रति, अपनी मातृभूमि के प्रति पूरी प्रतिबद्धता, निष्ठा व समर्पण भाव को कवि ने इस कविता में एक पुष्प की अभिलाषा के माध्यम से प्रस्तुत किया है । भारतभूमि पर खिले एक पुष्प में भारत की स्वतंत्रता की प्रबल इच्छा तथा स्वातंत्र्य संग्राम में अपने प्राणों से भी अधिक देश की चिंता करने वाले वीरों के प्रति वह भी अपने राष्ट्रधर्म को निभाने के लिए पूरी तरह तैयार है ।

दरअसल फूलों की उपयोगिता को लेकर समाज में उसके महत्व को व्यक्ति-वस्तु की शोभा-सजावट, व्यक्ति व देवी-देवताओं के प्रति प्रेम तथा भक्ति, दिवंगत के प्रति अत्यंत भावपूर्ण श्रद्धांजलि प्रभृति के अंतर्गत देखा जाता है, किंतु यहाँ तो पुष्प को इस तरह के किसी काम में अपने उपयोग तथा प्राप्त महत्व की चाह बिल्कुल नहीं है –

चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ,

चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ,

चाह नहीं सम्राटों के शव पर हे हरि डाला जाऊँ,

चाह नहीं देवों के सिर सर चढूँ भाग्य पर इठलाऊँ,

इस तरह की चाह हो भी कैसे सकती है ! ? जब अपने देश का जन-जन और मातृभूमि का कण-कण सिर्फ और सिर्फ स्वतंत्रता की ही चाह रखता हो और वही उसका एक मात्र ध्येय हो । ऐसे समय में राष्ट्रीयभावना से पूर्णतया सराबोर कवि ह्रदय ....स्वाधीनता का प्रबल अभिलाषी और इस स्वाधीनता के महासंग्राम में अपने बलिदान के लिए तत्पर पुष्प की अभिलाषा तो है –

मुझे तोड देना वनमाली !

उस पथ में देना तुम फेंक ।

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने,

जिस पथ जावें वीर अनेक ।

 पद्मश्री दादूदान  प्रतापदान गढ़वी (1940-2021) यानी गुजराती भाषा के ‘कवि दाद’, जिनका एक सर्जक के रूप में गुजराती काव्य तथा गुजराती फ़िल्मी गीत, साथ ही गुजराती लोक साहित्य तथा लोक गायकी में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । उनके द्वारा रचित ‘घडवैया मारे ठाकोर जी नथी थावुं’ अर्थात् ‘घडवैया मुझे ठाकोर जी नहीं होना है’ । (घडवैया- निर्माता-निर्माणकर्ता और यहाँ विशेषतः वह शिल्पकार जो पत्थर को उसके उपयोग के अनुसार विविध आकार देता है ) गुजराती साहित्य की खासकर राष्ट्रीय भावना- मातृभूमि प्रेम से ओतप्रोत रचनाओं की प्रथम पंक्ति की रचना है ।

            दरअसल यह एक शौर्यगीत है जिसके सृजन की पृष्ठभूमि को लेकर कहा जाता है कि ई.1962 के भारत-चीन युद्ध के दरमियान हमारे राष्ट्र की, हमारी भारतमाता की हिफ़ाजत के लिए दिन रात लड रहे, आत्म बलिदान दे रहे वीर योद्धाओं के शौर्य व पराक्रम का गान करने तथा उन शहीदों के आत्म बलिदान के प्रति जन मन में एक विशेष मान-सम्मान की भावना प्रकट हो उस उद्देश्य से यह गीत कवि ‘दाद’ ने लिखा । और एक तथ्य यह भी मिलता है कि उक्त विषय व संवेदना को लेकर इस गीत को लिखने का अनुरोध कवि दाद से गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र के नाट्यकार हेमु गढ़वी ने किया था ।

 हमने प्रारंभिक पंक्तियों में ही कहा है कि दोनों कविताओं ( ‘पुष्प की अभिलाषा’ और  ‘घडवैया मुझे ठाकोर जी नहीं होना है’) के सर्जक, भाषा, सृजन काल तथा सृजन की पृष्ठभूमि अलग, परंतु दोनों रचनाओं की संवेदना और संदेश एक ही । और उसे प्रस्तुत करने का ढंग भी लगभग एक जैसा ही । माखनलाल जी जहाँ पुष्प की अभिलाषा के माध्यम से प्रस्तुत करते है तो कवि दाद उसे एक पत्थर की इच्छा बताते हुए ।

            वैसे देखें तो एक पत्थर के लिए उसका भगवान की मूर्ति बनकर मंदिर में स्थापित होना बड़े सौभाग्य व महिमा-महत्ता की बात है । किंतु यह भी न भूलें कि देवी-देवता व उनकी भक्ति जितना ही महत्व है राष्ट्रदेवता का, मातृभूमि का । और कभी कभी तो किसी विशेष स्थिति में राष्ट्रधर्म व मातृभूमि प्रेम सबसे बड़ा धर्म तथा सर्वोपरि भावना बन जाते हैं ।

माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा प्रस्तुत पुष्प की अभिलाषा की तरह यहाँ कवि दाद ने एक पत्थर की इच्छा व्यक्त की है । पत्थर अपनी इच्छा घडवैया के समक्ष रखते हुए कहता है कि मुझे ठाकोर जी नहीं यानी भगवान की मूर्ति होकर नहीं बल्कि पाळिया होकर पूजे जाने की इच्छा है । ( पाळिया- देश-राष्ट्र-मातृभूमि-जन्मभूमि या किसी और के रक्षण हेतु लड़ते हुए शहीद हुए शूरवीरों की  याद में बनाया गया पत्थर का स्मारक, जो गाँव व नगर के बाहर, गाँव-नगर के प्रवेश द्वार के आगे खुले मैदान-जगह में बनाया जाता है । यह शहीदों के शौर्य-पराक्रम-साहस-वीरता का प्रतीक होता है । यह ‘पाळिया’ विशेषतः गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में स्थापित हुए ज्यादा मिलते हैं )

 पत्थर की इच्छा देखिए-

धड धींगाणे जेना माथा मसाणे अेना पाळिया थइने पूजावुं

घडवैया मारे ठाकोर जी नथी थावुं....

होम हवन के जगन जापथी मारे नथी धरावुं

बेटडे बापना मोढां न भाळ्या अेवा कुमळा हाथे खंडावुं

घडवैया मारे......

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धड जिसका युद्ध मैदान में मस्तक श्मशान में

उनका पाळिया बन पूजा जाऊँ

घडवैया...

घडवैया मुझे ठाकोर जी नहीं होना है ।

होम-हवन या यज्ञ-जाप से मुझे नहीं होना तृप्त

जिस बेटे ने बाप का मुँह नहीं देखा उसके कोमल हाथ से जड़ा जाऊँ

घडवैया मुझे ठाकोर जी नहीं होना है ।

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 ऐसे वीर जो युद्धभूमि में लडते हैं, लड़ते लड़ते उनके सिर कट जाते हैं लेकिन सिर कट जाने के बाद भी उनके धड लडते हैं, ऐसे किसी शूरवीर का पाळिया बनने की इच्छा है पत्थर की, नहीं कि ठाकोरजी की मूर्ति ।  तभी तो अपने को आकार देने वाले- अपने निर्माता-शिल्पकार को वह कहता है कि भगवान की मूर्ति नहीं शहीदों का पाळिया बनना है । पत्थर को उस ठाकोरजी की मूर्ति नहीं बनना जिसे पीले पीतांबर-रेशमी किमती वस्त्र व महँगे आभूषण पहनाये जाते हैं, उसे तरह तरह के भोग-चढावा, पूजापाठ, होम-हवन के साथ लोग पूजते हैं, पत्थर तो चाहता है कि युद्ध में वीरगति प्राप्त करने वाले किसी शूरवीर के नवजात शिशु के कोमल हाथों के स्पर्श से उस वीरयोद्धा के पाळिया रूप में स्थापित हो जिसे लोग उस वीर के शौर्य को याद कर उसके प्रति सम्मान का भाव प्रकट करते हैं ।

प्रो. हसमुख परमार

स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय

वल्लभ विद्यानगर

आणंद (गुजरात)


2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुंदर......

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  2. पद्मश्री दादूदान प्रतापदान गढ़वी के पत्थर की कामना विलक्षण और मार्मिक है - "मुझे ठाकुरजी नहीं, शहीद-स्मारक बनना है!"
    सादर अभिवादन!

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