हेड कि हेडेक
डॉ. सुषमा देवी
आज टेम्स कॉलेज के भाषा विभाग में बड़ी चहल-पहल है । मिसेज
वर्मा की वर्षों की दबी इच्छाओं को साकार रूप मिला है । मिसेज
माही वर्मा दिल्ली से जब पहली बार हैदराबाद आयीं थीं,
हैदराबाद में हर जगह दिल्ली ढूँढती रहती थीं । उनके
पति मि. रुपेश वर्मा सूचना तकनीकि विभाग में कार्यरत थे । उनका
स्थानांतरण होने के बाद से ही मिसेज वर्मा बड़ी चिंतित रहने लगी थीं । क्योंकि
दिल्ली में घर के आस-पास ही सभी रिश्तेदार रहा करते थे और अनजान शहर में पति के
कार्यालय जाने के बाद वे क्या करेंगी, यही चिंता उन्हें व्यग्र कर रही थी । मिसेज
वर्मा को टेलीविजन देखने की भी आदत नहीं थी, उस पर उनके दोनों बेटे बोर्डिंग में पढ़ रहे थे । मि.
रुपेश वर्मा के माता-पिताजी वाराणसी में रहते थे ।
बात यही कोई 2012 की है , पूरी दुनिया में अफवाहें उडी हुई थीं कि इसी साल दुनिया समाप्त होने वाली है । मिसेज
माही वर्मा अंग्रेज़ी का समाचार पत्र डेकन क्रॉनिकल पढ़ते हुए उबासी ले रही थीं, कि
अचानक उनकी नज़र टेम्स कॉलेज की रिक्तियों पर पड़ी । एक
बार के लिए उनकी आँखों में चमक आ गयी । यह
कॉलेज न केवल हैदराबाद , बल्कि
भारत के प्रतिष्ठित महाविद्यालयों की श्रेणी में आता था । इन रिक्तियों को देखने के बाद आज मिसेज माही
वर्मा को समय काट रहा था । वे मिस्टर
रुपेश वर्मा के ऑफिस से लौटने का इंतजार कर रही थीं । शाम के यही कोई आठ बजे मुख्य दरवाजे की डोररिंग
बजते ही माही दरवाजा खोलने पहुँचीं । रुपेश को देखते ही अपने स्वभाव के विपरीत आज माही
कॉलेज रिक्तियों के बारे में बताने के लिए उतावली हो रही थीं । आज पत्नी को रुपेश ने शातिराना मुस्कान बिखेरते
हुए देखा, तो दिन भर की थकान भूलकर पत्नी को अंक में भरकर पूछा- क्या है? कोई कोहिनूर
हाथ लगा गया क्या?
माही अपने हमेशा के अंदाज में बोलने लगी- आज पता है, जब मैं
डेकन क्रॉनिकल पढ़ रही थी, तो उसमें हैदराबाद के प्रसिध्द टेम्स कॉलेज की वेकेंसी
पर नजर पड़ी । उसमें असिस्टेंट प्रोफेसर के
पद के लिए इंग्लिश में पोस्ट ग्रेजुएशन में केवल 55 प्रतिशत पूछा गया है । मेरा तो
पी.जी. में 68 परसेंट है । आप कहें तो मै
अप्लाई कर दूँ ।
मिस्टर रुपेश- अरे
भई, कर देना अप्लाई । पहले मुझे फ्रेश
होने दो, कॉफ़ी- वाफी तो पिला दो ।
मि.रुपेश को तो मानो अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा
था । क्योंकि उसके घर में हर कोई ऊँचे
प्रशासनिक एवं शैक्षणिक पदों पर कार्यरत है । स्वयं उसके पिताजी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय
में भूगर्भ विज्ञान विभाग में डीन थे तथा माँ भी सरकारी विद्यालय की प्राचार्या
थीं । मि. रुपेश का छोटा भाई लंदन बिजिनेस
स्कूल में निदेशक हैं । माता-पिताजी
वाराणसी में अपने पुश्तैनी घर में रहते हुए धर्म-कर्म के कार्यों में व्यस्त रहते
थे । रुपेश के भाई ने ब्रिटिश महिला से
विवाह कर लिया था, सो उनका भारत में आना-जाना कम ही रहता था ।
विवाह के आरंभिक तीन वर्षों में दोनों बेटों अजय और अभय के
जन्म के बाद प्रायः माही इतनी अस्वस्थ रहने लगी थी कि वे चाह कर भी पत्नी से नौकरी
की चर्चा न कर पाए । माही का नौकरी करने
की आवश्यकता आर्थिक कम मि. रुपेश के लिए पारिवारिक और सामाजिक प्रतिष्ठा अधिक थी ।
उन्होंने माही के मुख से पहली बार नौकरी
शब्द सुनते ही बिना कुछ सोचे ‘हाँ’ कह दिया ।
माही को कॉफ़ी लेकर
आते देख कर मि. रुपेश ने कहा कि- टेम्स कॉलेज का जो कह रही थी, तुरंत आवेदन कर दो ।
यह भी कोई पूछने की बात है और हाँ, आज
डिनर बनाने की जरुरत नहीं । हम दोनों बाहर
चलेंगे, तुम्हारे अप्लाई करने की ख़ुशी सेलिब्रेट करेंगे । दोनों बेटे नैनीताल के बोर्डिंग स्कूल में पढ़
रहे थे । घर में अन्य कोई भी न था, ऐसे में वे दोनों डिनर बाहर करने के लिए अकसर चले जाया
करते थे ।
माही ने टेम्स कॉलेज की कुंडली गूगल पर ढूँढ़नी शुरू की, तो
ख़ुशी से झूम उठीं, मानो अंधे के हाथ बटेर
लग गया हो । वेबसाइट पर यह हैदराबाद के
सर्वोत्तम कॉलेज में से एक था । माही ने तुरंत
एप्लीकेशन भरकर मेल कर दिया और दस दिन के अंतराल में ही साक्षात्कार के लिए उन्हें
बुलावा भी आ गया । चूँकि अंग्रेजी भाषा पर
उनकी अच्छी पकड़ थी । अतः पी.जी. करने के 11
वर्षों बाद तक कोई कार्य अनुभव न होने पर भी उन्हें चुन लिया गया ।
टेम्स कॉलेज के भाषा विभाग की अध्यक्ष हिंदी विषय की शिक्षिका
डॉ. रेणुका थीं । माही का अंग्रेजी का अहम् हिंदी विषय की विभागाध्यक्ष
के अंतर्गत बहुत चोटिल हुआ । भाषा विभाग
में कुल पंद्रह भाषा शिक्षिका थीं । टेम्स कॉलेज में अस्सी प्रतिशत महिला
शिक्षिकाएँ ही थीं, क्योंकि उनको नगर के इतने बड़े कॉलेज में कामकाजी होने का रुतवा
और मोटी तनख्वाह मिलती थी और संस्था को इनका खून चूसने का अधिकार । माही को सबसे अधिक तनाव अपनी विभागाध्यक्ष से
रहता था । वह सामने से तो नहीं, लेकिन एक-दूसरे
से पीछे-पीछे अपनी दबी हुई मंशा व्यक्त कर चुकी थीं । डॉक्टर रेणुका को भी इस संस्था में काम करते हुए
पूरे 28 साल हो गए थे । माही की नियुक्ति
के बाद विभाग में उनसे पहले के कार्यरत अधिकांश अध्यापकों की सेवानिवृत्ति हो चुकी
थीं । माही के सामने एक के बाद एक तेरह नए
शिक्षक भाषा विभाग में नियुक्त हुए । डॉ.
रेणुका जी की सेवानिवृत्ति के बाद मिसेज माही वर्मा वरिष्ठता सूची में सर्वप्रथम आ
गईं । अतः डॉ. रेणुका जी के विदाई समारोह
में प्राचार्य ने मिसेज माही को जैसे ही अगली भाषा विभागाध्यक्ष के रूप में नामित किया। उनकी बारह वर्षों की दबी
महत्वाकांक्षाओं ने पर खोल दिए। एकदम शांत, शातिराना अंदाज की मालकिन मिसेज माही
इस दिन के इंतजार में वर्षों से घात लगाए हुए थीं। घर में पति की नजरों में और अपनी सोसाइटी में
सम्मान पाने का वे यही एक माध्यम समझती थीं। टेम्स कॉलेज में आने के बाद शुरू के 9 साल शिक्षण,
अकादमी कार्यों के अलावा उन्होंने कभी कुछ नहीं किया। लेकिन जब कॉलेज में पीएचडी के आधार पर वेतन
वृद्धि का नियम देखा, तो तुरंत शहर के नामी विश्वविद्यालय में अपना दाखिला करा
लिया । भाषा विभागाध्यक्ष के पद के लिए नामित होते ही वे खुशी से भूली न समाईं
।
समारोह सभागार में मिली-जुली प्रतिक्रिया मिसेज माही के लिए
देखी गई । कंप्यूटर विभाग की मिसेज लांबा जो थोड़ी सी मुहफट थीं, उन्होंने कहा कि भाषा
विभाग वालों बचकर रहना । ये इतनी धीरे से
वार करेंगी कि तुम्हें भी पता न चलेगा, पूरी मीठी छुरी हैं । जब ऐसे वाक्य भाषा विभाग
में नई-नई शिक्षिकाओं को सुनने को मिलें, तो उन्हें लगा कि पता नहीं क्या करेंगी,
ये नई विभागाध्यक्ष ।
ये सभी जानते थे कि इस कॉलेज में सभी सेवा देने के लिए आए
हुए हैं । किंतु कॉलेज में नौकरशाही चरम
पर थीं । स्वायत्तशाषी संस्था होने के
कारण प्रबंधन समिति स्वयं को एक कॉलेज का प्रबंधक नहीं, अपितु किसी राज्य का राजा
समझते थे । प्रिंसिपल अन्य शिक्षकों को
अपने अधीन काम करने वाले कर्मचारी न मान कर अपने घर के सहायक व्यक्तियों की भाति आदेश
देते थे । इस कॉलेज में ‘विवेक’ शब्द कहीं
नहीं दिखता था । ‘विद्या विनय ददाति’ की
उक्ति इस कॉलेज से कोसों दूर थी । कॉलेज
को सेवा देने वाले समस्त कर्मचारियों में मालिक-नौकर जैसा व्यवहार देखा जा सकता था
।
भाषा विभाग की चापलूस मंडली ने दूसरे ही दिन मिसेज माही
वर्मा के नाम की पट्टिका मंगा कर कांजीवरम की साड़ी उपहार के रूप में दिया। माही विभागाध्यक्ष की कुर्सी पर बैठीं, तो अचानक
सबने अनुभव किया कि उनकी गर्दन बिना किसी कॉलर बेल्ट के तन गई। एक अदृश्य कॉलर
बेल्ट अब हमेशा उनके विभागाध्यक्ष की कुर्सी पर बैठते ही लग जाती थी । जैसे ही वे कुर्सी से उठती थी, वह गायब हो जाता
था और वे सभी से सामान्य शिक्षिका जैसा व्यवहार करने लगती थीं ।
मिसेज माही ने अति शीघ्र पीएचडी का कार्य भी आरंभ कर दिया,
जो शोध कार्य पिछले 4 सालों में न कर पायीं थीं, वह उन्होंने 3 महीने में कर डाला ।
अपनी आयु के 50 वें साल में प्रवेश
करते-करते आखिर अपने शोध निर्देशक की सहायता से अपने जीवन में पहला शोधालेख
प्रकाशित कर लिया । शोधालेख यूजीसी केयर
पत्रिका में प्रकाशित होने की खुशी उन्होंने पूरे विभाग को कॉफ़ी, समोसे और अंजीर
बर्फी के साथ बाँटी । डॉ. अदिति चतुर्वेदी
हिंदी की नई शिक्षिका थीं, जो डॉ. रेणुका के स्थान पर नई शिक्षिका के रूप में
नियुक्त हुई थीं । डॉ. अदिति चतुर्वेदी आश्चर्यचकित
थीं कि शोधालेख प्रकाशित होने पर इस प्रकार से भी खुशी व्यक्त किया जाता है तो
निश्चय ही उसके कटोरा पकड़ कर भीख मांगने की स्थिति शीघ्र आ सकती है । क्योंकि पिछले 14 वर्षों में वह 50 से भी अधिक
आलेखादि राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित कर चुकी थीं, ऐसे में
आलेख प्रकाशित होने की ऐसी खुशी को कभी व्यक्त नहीं किया । क्योंकि वे इसे भी अकादमिक गतिविधियों का
अनिवार्य हिस्सा मानती थीं । अदिति स्वयं
की उपलब्धियों को कभी अनुभूत न कर पायीं थीं ।
मिसेज माही के
भाग्य खुल गए थे । विभागाध्यक्ष बनकर
उन्हें कुलपति जैसा आनंद प्राप्त हो रहा था। अदिति से मिसेज माही की कभी न बनती थी । क्योंकि प्राय अन्य महाविद्यालय से अतिथि
व्याख्याता के रूप में अदिति को बुलाया
जाता, तो वे कुंठा में छुट्टियों के अनुमोदन पर
शिकंजा कसने लगीं । अंततः वेतन कटौती,
आकस्मिक छुट्टी के बावजूद भी अदिति को व्याख्यान
व प्रपत्र प्रस्तुति के लिए अनुमति देने में वे आनाकानी करने लगीं । लेकिन रुकना तो जैसे अदिति ने सीखा ही न था । इसलिए मिसेज माही की कोपभाजक बनी रहती थीं ।
मिसेज माही पीएचडी के नाम पर हर दिन दोपहर एक बजे ही निकल
जाती थीं और एक दिन विभाग में फिर से मिठाइयों के साथ प्रवेश किया, यह कहते हुए कि
मेरी पीएचडी मौखिक की परीक्षा हो गई है । अदिति
को तो अपने कान पर भरोसा ही नहीं हो रहा था । वह सोचने लगी कि अंतरराष्ट्रीय स्तर के शिक्षण
संस्थान में ऐसी धांधली कि पीएचडी मौखिक की रिपोर्ट रातों-रात आ जाए । और तो और शोध प्रबंध मिसेज माही ने ऑनलाइन जमा
किया था और इतने आनन-फानन में मिसेज माही डॉ. माही बन चुकी थीं । यद्यपि विभाग में तीन लोगों का पीएचडी शोध कार्य
चल रहा था । लेकिन इतना त्वरित कार्य करने
में कोई सक्षम न था । जैसे ही विभागाध्यक्ष
को डॉक्टर की उपाधि मिली, विभाग की संस्कृत शिक्षिका मिसेज श्वेतमणि को बेचैनी
होने लगी । उन्होंने भी प्रेरित होकर अपना
पीएचडी जल्दी पूर्ण करने का निश्चय कर लिया । एकमात्र ईमानदार अंग्रेजी की शिक्षिका नीता शर्मा का पीएचडी शोध-प्रबंध तीन
साल की कठोर तपस्या के बाद भी अब तक जमा न हो पाया था, शोध प्रबंध जमा करने से पूर्व की स्वीकृति के अभाव में उनका
कार्य रुका हुआ था । जबकि उनका यह शोध कार्य आठ माह पूर्व ही पूरा हो
चुका था । अदिति शिक्षण जगत की कलाबाजियों
से हतप्रभ थी ।
अब तक माही का कई बार अदिति से गतिरोध हो चुका था । डॉ. माही वर्मा विभाग में सभी को ये सीखाने पर अमादा
थीं कि बिना उनकी अनुमति के दूसरे विभाग के लोगों से कोई मिले भी न और न ही
पुस्तकालय जाए । दूसरे विभाग के शिक्षकगण प्रायः
यह कहते रहते थे कि आप लोग तो लघु शंका भी बिना अपने विभागाध्यक्ष की अनुमति के न
जाते होंगे ।
अदिति की दृष्टि में शिक्षण जगत बुद्धि, विवेक के विकास का
स्थान होता है । ऐसे में जब तीन शिक्षकों
का कार्य भार उसे दिया गया, तो उसने अपने स्वास्थ्य की परवाह न करते हुए पूरी
कक्षाएँ लीं, ताकि विद्यार्थियों को कोई समस्या न हो । उसके महाविद्यालय में प्रवेश के करने के बाद तीन
प्रिंसिपल बदल चुके थे । शिक्षा व्यवस्था
तो दिन-ब-दिन व्यापार बनता जा रहा है । कॉलेज प्रबंधन जहाँ तक हो सके पैसे बचाने की
कोशिश करते रहते हैं । किंतु विद्यार्थियों
की पढ़ाई का हर्ज न हो, इस प्रयास में अदिति पचास कक्षाओं के विद्यार्थियों को
ठूँस-ठूँस कर तीस कक्षा में लेने लगी । विद्यार्थियों तक अपनी आवाज पहुँचाने के प्रयास
में वह लगभग चिल्लाकर पढ़ाने लगी थी । यह क्रम चार महीने तक चला, जिससे उसका गला हमेशा
के लिए खराब हो गया । उसका ध्वनि यंत्र
पूरी तरह से नष्ट होने की स्थिति में आ चुका था । अदिति का स्वास्थ्य अत्यधिक बिगड़ने के बाद जब सत्र
समाप्त होने वाला था, तो नई शिक्षिका को नियुक्त किया गया ।
अदिति का दूसरे वर्ष के नौकरी संविदा के नवीकरण में जब वेतन
वृद्धि शून्य से आगे न बढ़ा, तो वह सीधे प्राचार्य के समक्ष अपने महाविद्यालय से
जुड़े रहने के संदर्भ में अपनी असहमति व्यक्त करने पहुँच गई । लेकिन प्राचार्य के आश्वासन पर उसने नई संविदा
के लिए स्वीकृति दी, किंतु वेतन वृद्धि दो माह बाद जब पूरे कॉलेज के संविदा शिक्षकों
के साथ हुआ, तो उसका माथा ठनका । अरे! यह
क्या? दो हजार, तीन हजार,पाँच हजार, आठ हजार तथा यहाँ तक कि चौदह हजार तक वेतन में
वृद्धि अलग-अलग शिक्षकों की हुई थी, जिसका कोई निश्चित तथा स्पष्ट आधार न था । यद्यपि पाँच हजार की वेतन वृध्दि अदिति की भी हुई
थी, लेकिन सबके वेतन में इतने अंतर को देखकर प्राचार्य से इसका आधार पूछने जब पुनः
गई, तो कोई संतोषजनक उतर न पाकर सत्र समाप्त करते हुए त्यागपत्र देने का निर्णय
लिया । टेम्स कॉलेज से निकलकर अदिति ने
पुनः पूर्व के शिक्षण संस्थान में कार्य करने का निश्चय किया । अदिति जब से टेम्स कॉलेज में आयी थी, लगातार
अवसाद में जी रही थी । अवसाद की दवाएँ भी उसे ठीक नहीं कर पा रही थीं । उसकी स्थिति साँप-छछूंदर की हो गई थी । पिछले दो
सालों में अदिति को ऐसा प्रतीत होने लगा था, मानो उसने किसी भ्रष्ट तंत्र को अपने
जीवन का आधार बना लिया है । शिक्षण जगत का ऐसा भ्रष्ट स्वरूप अदिति के लिए
कल्पनातीत था । भ्रष्टाचार तो उसने अपने
कार्यानुभव में बहुत देखे थे, किंतु टेम्स कॉलेज में अंतरराष्ट्रीय स्तर के
विद्यार्थी पढ़ने आते थे, इसलिए इस शिक्षण संस्थान का भ्रष्ट स्वरूप उसके लिए
कल्पनातीत था । यद्यपि अदिति टेम्स कॉलेज
में अति शीघ्र विभागीय कार्यों का कुशलतापूर्वक निष्पादन करने लगी थी, इसलिए डॉ.
माही वर्मा मन ही मन तो चाह रही थीं कि अदिति को रोक लें, किन्तु उनका अहम् आड़े आ
रहा था ।
डॉ. सुषमा देवी
असोसिएट प्रोफ़ेसर
हिंदी विभाग
बद्रुका कॉलेज,काचीगुडा
हैदराबाद-27, तेलंगाना
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें