हिंदी:
दृढ़ संकल्प और नेकनीयत बनाएँगे राष्ट्रभाषा
डॉ.
घनश्याम बादल
भारत
संभवतः दुनिया का अकेला देश होगा जिसकी अधिकारिक रूप से कोई राष्ट्रभाषा
नहीं है । हम आज एक बडी आर्थिक शक्ति हैं राष्ट्रभाषा के मामले में बहुत
गरीब हैं । आश्चर्य कि संसद की कार्यवाही के लिए भी अनेक भाषाएँ हैं और संविधान की 26 वीं अनुसूची में कई
क्षेत्रीय भाषाएँ भी दर्ज हैं पर आज भी हमारी राष्ट्रभाषा के रूप में कोई भी भाषा
दर्ज नहीं है। हालाँकि यह सच है कि उत्तर भारतवासी भावनात्मक रूप से देवनागरी
हिन्दी को राष्ट्रभाषा का मान देते हैं पर संविधान उसे ऐसा कोई दर्जा नहीं देता और
वह भी दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं की तरह ही एक भाषा मात्र है जिसे राज्य व केन्द्र
सरकारें अपने काम काज में ला सकती हैं । पर, हर आदेश
व प्रपत्र में अंतिम स्वीकृति आज भी अंग्रेजी अनुवाद की ही मान्य है ।
पाकिस्तान, तुर्की,
बहरीन फिजी व मॉरीशस जैसे छोटे छोटे देशों से लेकर ब्रिटेन, अमेरिका, चीन व जर्मनी जैसे बड़े देशों तक सबकी अपनी
एक अधिकृत राष्ट्रभाषा है और वहाँ का हर सरकारी काम उसी में करने की अनिवार्यता है
। इतना ही नहीं संयुक्त राष्ट्रसंघ व दूसरे मंचों पर भी उसे अंकित करा रखा है
जिसका बड़ा लाभ यह होता है कि वहाँ अपनी बात अपनी ही भाषा में कह सकते हैं हालांकि
कई बार संयुक्त राष्ट्रसंघ में हिन्दी का प्रयोग हमारे प्रतिनिधि कर चुके हैं पर
राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी वहाँ आज तक
भी अंकित नहीं है ।
भारत के कुछ राज्यों में तो हिन्दी का जमकर
विरोध होता है । पहचान व क्षेत्रीय
अस्मिता का बहाना बनाकर वहाँ हिन्दी का विरोध जारी है । ऐसे कई राज्य हैं जहाँ का
सारा सरकारी काम या तो अंग्रेजी में होता है या वहाँ की स्थानीय भाषा में । तमिलनाड़ु,
आंध्र, तेलंगाना, केरल , कर्नाटक,
असम, मिजोरम, त्रिपुरा,
मणिपुर, गोवा, महराष्ट्र
आदि में हिन्दी के विरोध का सहारा लेकर सत्ता हासिल करना आम राजनैतिक खेल है जो
कभी खत्म होता नहीं दिखता है ।
अब
चूँकि केन्द्र सरकार राज्यों की स्वायत्तता की बात कह कर इसमें हस्तक्षेप न करने
की नीति का पालन करती है तो इससे दूसरे कुछ राज्यों की महत्वाकांक्षाएँ भी बढ़ रही
हैं । जैसे पंजाब भी अब चाहता है कि उसे गुरुमुखी में ही काम करना चाहिए ,
कश्मीर व हिमाचल में भी
उर्दू व डोगरी के प्रति जूनून बढ़ रहा है
और हिन्दी प्रधान माने जाने वाले उत्तरप्रदेश , मध्यप्रदेश
, हरियाणा राजस्थान में भी सरकारी कामों में अधिकतर पहले
अंग्रेजी का प्रयोग होता है फिर उसका अनुवाद देवनागरी में किया जाता है । कई बार
तो यह अनुवाद इतना स्तरहीन व क्लिष्ट होता है कि हास्य का पात्र बन जाता है । अब
ऐसी स्थिति में अपने ही देश में हिन्दी का उन्नयन व विकास कैसे हो सकता है ?
हिन्दी
का प्रयोग न करने के पीछे कई बार बहुत ही थोथा तर्क दिया जाता है कि हिन्दी में
कारगर व सरल शब्दावली नहीं है । किसी हद तक यह बात एकदम गलत भी नहीं है पर यह कहना
कि हिन्दी एक कमजोर या अक्षम भाषा है हजम नहीं होता है । वास्तविकता तो यह है कि
हिन्दी जैसी समर्थ भाषाएँ बहुत ही कम हैं और जहाँ तक उसके वैज्ञानिक व व्याकरण
सम्मत होने का प्रश्न है तो उसमें तो वह बेजोड़
भाषा है । कम से कम अंग्रेजी से तो
इस संदर्भ में वह बहुत आगे है जिसका न कोई सटीक ध्वनि विज्ञान है न ही उच्चारण का
मानक व अपना बृहद शब्दकोश ।
इंग्लैंडवासी
अंग्रेजी पर जान देते हैं अंग्रेजी के हिमायती यूरोपीय देशों ने भी उसका प्रयोग अपनी उन्नति में तो किया है पर
वें अपनी क्षेत्रीय व स्थानीय भाषाएँ भी बचाए हुए हैं । आज भी जर्मन ,
फ्रेंच , डच, बल्गारियन,
जापानी, चीनी, कोरियन और
नेपाली तक अपनी भाषा में बोलने , लिखने को गर्व के साथ
प्राथमिकता देते हैं । मगर भारतीय अंग्रेजी में बोल व लिखकर खुद को गौरवान्वित
मानते हैं और यही है हिंदी के पिछडने की सबसे बड़ी वजह ।
हमारे
देश में भी क्षेत्रीय बोलियों व भाषाओं के प्रति गज़ब का आकर्षण है । बंगाली, गढ़वाली, राजस्थानी,
मराठी, कोंकणी, तामिल,
तेलुगु, कन्नड़ सब अपनी-अपनी बोलियों का
इस्तेमाल करते हैं मगर जब बात हिन्दी की आती है
पीछे हट जाते हैं और इसके पीछे का बहुत बड़ा कारण है देश की राजनीति ।
राजनीतिज्ञ अपने वोट बैंक बचाने के लिए हिन्दी का हक छीनकर
किसी और को दे रहे हैं बिना यह जाने कि
भारत की भाषा के रूप में अगर कोई पहचान है
तो वह केवल और केवल हिन्दी है । दूसरी भाषाएँ वैसे ही है जैसे गंगा के साथ यमुना
या दूसरी सहायक नदियाँ व प्रवाहिकाएँ हों । याद रखिए कि अगर हिन्दी नहीं बची तो
भारत की पहचान व उसकी बोलियाँ भी संकट में
होंगीं ।
चिंतन
का विषय है कि आखिर हिन्दी समृद्ध होकर भी क्यों कमजोर हो रही है ?
तो जानिए , उसके पीछे जहाँ क्षेत्रीयतावाद की राजनीति व हिन्दी भाषी लागों द्वारा
अहिन्दी भाषी क्षेत्रों के लोगों के रोजगार छीन लेने का छद्म भय खड़ा करना व
क्षेत्रीय पहचान खोने का भय भी है वहीं हिन्दी के अंदर की राजनीति भी इसके लिए कम
जिम्मेदार नहीं है ।
किसी
भी भाषा के विकास का मूल होता है सरकार , बाजार व
रोजगार के अवसर देने की क्षमता । दुर्भाग्य से इस मामले में हिन्दी पिछड गई है । सरकार उसे दोयम मान बैठी है,
प्राइवेट क्षेत्र में भी उसी का बोलबाला है । अगर हिन्दी को अगे
लाना है तो उसे रोजगार के अवसर देने की क्षमता देनी होगी , बाजार
में वह आ और छा चुकी है बस सरकार के समर्थन का इंतजार है।
हिन्दी
के विद्वानों ने जितना जोर अपना वर्चस्व बढा़ने में लगाया है अगर उसका शतांश भी
हिन्दी कें संवर्द्धन व विकास में लगाते , उसकी
शब्दावली व शब्दकोष को बढ़ाते, उसे सार्थक, सरल,सहज व ऐसे उपयोगी शब्द दे पाते जो बोलने में
आसान व प्रचलन में आने लायक होते, उसे क्लिष्टता के प्रेत से
मुक्ति दिलाने का ईमानदार प्रयास करते, खेमेबाजी से बचकर
मिलकर काम करते तो हिन्दी आज सिरमौर भाषा
ही नहीं राष्ट्रभाषा भी होती ।
हिंदी
दिवस मनाना हिंदी एवं महोत्सवों का आयोजित
करना बुरा नहीं है परंतु केवल दिखावे के लिए यह सब करने से हिंदी का भला नहीं होने
वाला है। यदि हमें हिंदी को सचमुच
राष्ट्रभाषा बनते हुए देखना है तो उसे हमें मन एवं मस्तिष्क दोनों से ही अपनाना
एवं समर्थन देना होगा। यदि दूसरे देश अपनी राष्ट्रभाषा में काम करने को अनिवार्य
बना सकते हैं तो फिर हम क्यों नहीं । यदि हिंदी को राष्ट्रभाषा बना दिया जाता है
तो जहाँ देश का गर्व बढ़ेगा वहीं इससे जिस खतरे की आशंका जताई जा रही है वह भी उसी
तरह गायब मिलेगा जैसे कश्मीर से धारा 370 हटाने पर वहाँ कुछ भी गलत नहीं हुआ और आज
कश्मीर बाकी राज्यों की तरह देश का अभिन्न हिस्सा है । बस आवश्यकता है तो केवल
दृढ़ संकल्प और नेक नियत की ।
डॉ.
घनश्याम बादल
215,
पुष्परचना कुंज,
गोविंद
नगर पूर्वाबली
रुड़की
- उत्तराखंड - 247667
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