प्रेमचंद
और उनका साहित्य
मायने और महत्त्व
प्रो. हसमुख
परमार
अनेक और अनगिनत सर्जकों
की लेखनी से बड़ी मजबूती व समृद्धि प्राप्त करने वाली सुदीर्घ भारतीय
साहित्य-परंपरा में कुछेक नाम ऐसे हैं जिन्होंने अपने सृजन-लेखन से केवल साहित्य
जगत और अकादमिक परिवेश को ही नहीं, वरन्
बृहद् समाज तथा संस्कृति-सभ्यता को भी अत्यधिक प्रभावित किया । विशाल जन-जीवन को
मानवीयता के पाठ से प्रशिक्षित किया । इसी वजह से इनकी ख्याति-प्रसिद्धि का व्याप
अपने देश और राष्ट्र तक ही नहीं बल्कि वैश्विक धरातल तक पहुँचा । मसलन महर्षि
वाल्मीकि, महर्षि व्यास,
कालिदास,
कबीर,
तुलसी,
टैगोर,
शरत्चंद्र,
प्रेमचंद
प्रभृति । बड़े ही असाधारण इन साहित्यिक व्यक्तित्वों ने अपनी सर्जनात्मक प्रतिभा,
गहरी
मानवीय संवेदना तथा पैनी लोकदृष्टि के गहरे संस्पर्श से तथा देश,
राष्ट्र,
समाज,
संस्कृति
व जीवन दर्शन को लेकर बतौर सर्जक-लेखक अपने दायित्वों का बराबर निर्वहण करते हुए
अपने सृजन कर्म को भारतीय और विश्व साहित्य की एक मूल्यवान थाती के रूप में
गौरवान्वित किया ।
साहित्य की सामाजिकता तथा
साहित्य में सांस्कृतिक संस्पर्श, उभय
के परिप्रेक्ष्य में जब हम हिन्दी साहित्य का अवलोकन करते हैं तब हिन्दी
साहित्यकारों की लम्बी फेहरिस्त में सबसे ऊपर तीन बड़े नाम आते हैं- मध्यकाल से
कबीर और तुलसी तथा आधुनिक काल से मुंशी प्रेमचंद । साहित्य और साहित्यकार के
सामाजिक सरोकार या उनके समाजदर्शन की दृष्टि से कबीर ज्यादातर समाजसुधारकर की
भूमिका में और तुलसी एक समाज उपदेशक या समाज मार्गदर्शक के रूप में नज़र आते हैं
जबकि प्रेमचंद में इन दोनों भूमिकाओं की विशेषताएँ बराबर मिलती हैं ।
दरअसल शैक्षिक परिसर की
कक्षाओं के पाठ्यक्रम के अंतर्गत प्रेमचंद को पढ़ना-पढ़ाना और इसके बाहर प्रेमचंद के
बारे में कुछ कहना-लिखना, दोनों
में थोड़ा अंतर है । लगता है कि बी.ए.-
एम.ए.
के प्रेमचंद केन्द्रित पाठ्यक्रम को पढ़ाने के बाहर प्रेमचंद पर कुछ विशेष उद्देश्य
के तहत् बात करते समय लगभग हम दो तरह के अनुभव से गुजरते हैं । एक- प्रेमचंद पर
कुछ लिखना-कहना बहुत सरल काम, क्योंकि
प्रेमचंद-साहित्य का शोध-समीक्षा के रूप में इतने अधिक प्रमाण में विवेचन-विश्लेषण
हो चुका है, मूल्यांकन और
पुनर्मूल्यांकन भी । बस उसी सब को व्यवस्थित रूप से रख लें या उसी में से आवश्यकतानुसार कुछेक संदर्भ उद्धृत कर लें । और
यह बड़ा सरल काम है । दो- कुछ नया कहना है,
पिष्टपेषण
से बचते हुए नई दृष्टि से, जो
सरल न सही संभव तो है । इसमें बिल्कुल अत्युक्ति नहीं कि यदि विजन हो तो हर गंभीर
पाठक को, अध्येता को
प्रेमचंद की लेखनी का कोई न कोई नया मिजाज व तेवर मिल सकता है या कुछ नवीन कोण से
उनके लेखन को देखा-परखा जा सकता है क्योंकि इस तरह की संभावनाएँ इस लेखक में भरपूर
है ।
भारतेन्दु हरिश्चंद्र,
जयशंकर
प्रसाद, रांगेय राघव,
आचार्य
रामचंद्र शुक्ल आदि हिन्दी के ऐसे हस्ताक्षर कि जिन्होंने जितनी आयु प्राप्त की
उसके सामने उनके सृजन-लेखन की मात्रा बड़ी ही विपुल और विशाल और उसकी स्तरीयता भी
बड़ी ही ऊँची । प्रेमचंद को भी इन्हीं सर्जकों की पंक्ति में हम देख सकते हैं । सन्
1880 से सन् 1936 तक प्रेमचंद का जीवनकाल और लगभग सन् 1900 से 1936 ई. तक उनका
लेखनकाल । “प्रेमचंद ने बीसवीं सदी की एकदम शुरुआत में लिखना आरंभ किया था । सन् 1936 ई. तक
उनकी लेखनी अबाध गति से चली । सन् 1936 ई. में ही उम्र के छ्ठे दशक में वे अपनी
जीवन-लीला समाप्त कर इस दुनिया से विदा हो गये । बहुत कम समय मिला उन्हें जीने और
लिखने के लिए । बावजूद इसके विरासत के रूप में जो कुछ भी वे दे गये,
नयी
सदी के बहुत बदले हुए समय-संदर्भ में भी वह हमारे लिए बेहद महत्वपूर्ण बेहद जरूरी
और बेहद मूल्यवान है ।” (प्रेमचंद का रचना-संसार (पुनर्मूल्यांकन) सं.डॉ.सुशीला
गुप्ता, पृ.27)
सिर्फ हिन्दी कथा साहित्य
के पाठक की हैसियत से ही नहीं, अपितु
भारतीय कथा साहित्य के पाठक के नाते भी, और
सिर्फ भारतीय कथा साहित्य के पाठक के नाते ही नहीं बल्कि इससे भी आगे बतौर विश्व
कथा साहित्य के पाठक, प्रेमचंद
को पढ़ते हुए अभिभूत व प्रभावित होना उतना ही स्वाभाविक है । और अभिभूत-प्रभावित के
साथ-साथ प्रेमचंद साहित्य की यात्रा से पाठक को अपने विचार व व्यवहार में होने
वाले एक सकारात्मक बदलाव का भी अनुभव होता है ।
साहित्यकार की महानता व
अत्यधिक लोकप्रियता की शर्तें व पहचान या इसके मानक को लेकर बहुत कुछ कहा जा सकता
है । उदाहरणार्थ दो-तीन बिंदुओं पर अवश्य हम प्रकाश डालेंगे । एक बडे और महान
सर्जक की पहचान-बड़ी पहचान यह कि उसकी व्यापक पाठक वर्ग तक पहुँच,
और
उसमें भी वह अकादमिक शोध-समीक्षा व अध्ययन-अध्यापन के बाहर भी समाज व
साहित्यप्रेमियों व साहित्यपाठकों में खूब पढ़ा जाए,
गुना
जाए, व्यवहार में उद्धृत किया
जाए । उक्त निकष पर हिन्दी के ऊपर उल्लेखित तीनों साहित्यकार- कबीर,
तुलसी
और प्रेमचंद खरे उतरते हैं । अकादमिक परिसर व परिवेश में ही नहीं,
पाठ्यक्रम
के अंतर्गत ही नहीं बल्कि इसके बाहर भी हिन्दी भाषा के माध्यम से जनता बडे प्रेम
से तुलसी, कबीर,
प्रेमचंद
को पढ़ती है । आज से वर्षों पूर्व अमृतराय का भी कहना था कि- “ मेरे देखने में तो
तुलसी के बाद यही एक ऐसा लेखक है जो सीधे जनता तक पहुँचा है और बिना किसी धार्मिक
आसङ् के, जो और भी बड़ी बात
है । आप भी पता लगाइए, मुझे
तो ऐसे कितने ही लोग समय-समय पर मिले हैं जिन्हें,
साहित्य
के नाम पर, रामचरितमानस के
अलावा बस प्रेमचंद साहित्य से मतलब रहा है । शायद दूसरे किसीका नाम भी उनको नहीं
मालूम-और न उन्हें ठीक अर्थों में साहित्य का पाठक ही कहा जा सकता है ।” (प्रेमचंद
: परिचर्चा, सं. कल्याणमल लोढा,
रामनाथ
तिवारी, पृ.19)
कहने का मतलब कि प्रेमचंद
पाठ्यक्रम तक ही सीमित लेखक नहीं है । दरअसल यह लेखक हिन्दी कथा साहित्य के विशाल
पाठक वर्ग के अंत:करण में स्थायी रूप से उपस्थित हैं । और हाँ,
प्रेमचंद
की लोकप्रियता के बारे में अमृतराय ही कहते हैं कि यह लोकप्रियता उस गुलशन नन्दाई ‘लोकप्रियता’
से
बिलकुल अलग चीज है, यह
भी न भूलना चाहिए ।
एक पश्चिम के समीक्षक को
उद्धृत करते हुए डॉ.शिवकुमार मिश्र प्रेमचंद की महत्ता को कुछ इस तरह से रेखांकित
कर रहे हैं – “जर्मन आलोचक राबर्ट वाइमन ने कभी शेक्सपीयर पर लिखते हुए ‘क्लासिक’
को,
किसी
बड़े लेखक को, पहचानने का एक
सूत्र दिया था । क्लासिक या महान लेखक वह होता है,
जो
अपने विगत के महत्व को बरकरार रखते हुए वर्तमान में भी हमारे लिए उतना ही अर्थवान
हो । उनका सूत्र था ‘Past Significance and Present Meaningfulness’ अर्थात
विगत की महत्ता और वर्तमान की अर्थवत्ता । उनके अनुसार विगत की इस महत्ता और
वर्तमान की अर्थवत्ता के बीच जितना तनाव होगा,
लेखक
का बडप्पन उतना ही भास्वर होकर सामने आयेगा । हम समझते हैं कि प्रेमचंद में हमें
क्लासिक की यह पहचान मिलती है ।” ((प्रेमचंद का रचना-संसार,
पुनर्मूल्यांकन,
सं.डॉ.सुशीला
गुप्ता, पृ.27)
प्रेमचंद के कृतित्व तथा
उसके कथ्य व भाषा के आधार पर उनकी महत्ता को रेखांकित करने से पूर्व साहित्य के
लक्ष्य व महत्व को लेकर उन्होंने जो अलग से कुछ विचार रखे हैं,
उसे
भी देखना बहुत जरूरी है । जरूरी इसलिए कि लेखकीय दृष्टिकोण को जान सकें सीधे सीधे
। साथ ही इनके इस दृष्टिकोण के अनुप्रयोग को उनकी रचनाओं में अच्छी तरह से हम तलाश
सकें ।
प्रेमचंद के विचार से
साहित्य की कसौटी- “हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिन्तन हो,
स्वाधीनता
का भाव हो, सौन्दर्य का सार
हो, सृजन की आत्मा हो,
जीवन
की सच्चाइयों का प्रकाश हो - जो हममें गति,
संघर्ष
और बेचैनी पैदा करे, सुलाये
नहीं क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है ।”
प्रेमचंद स्वप्नकथाओं को
गढ़ने वाले या बुद्धि की जुगाली करने वाले कथाकार नहीं बल्कि वास्तविक जीवन को ही
आधार बनाकर लिखने वाले लेखक हैं । दलित, पीड़ित
और शोषित व्यक्ति या समूह की पक्षधरता या वकालत करना बतौर लेखक अपना मुख्य दायित्व
मानने वाले प्रेमचंद की लेखनभूमि पूरी तरह लोकभूमि पर ही केन्द्रित रही ।
प्रेमचंद की रचना-भूमि-
कथा भूमि वह लोक है जिससे प्रेमचंद बडी मजबूती के साथ जुड़े हुए थे । लेखन और जीवन
के प्रति उनकी प्रतिबद्धता बराबर की रही । किसी ने ठीक ही कहा है कि प्रेमचंद का
जीवन स्वयं एक उच्च कोटि की रचना है । प्रेमचंद के जीवन और लेखन से गुजरने पर एक
बड़ी सच्चाई सामने आती है वह यह कि प्रेमचंद के सामाजिक व्यक्तित्व और साहित्यिक
व्यक्तित्व में कोई अंतर नहीं । जैसा जिया वैसा लिखा । अपना और अपने समाज के
अभावों, संघर्षों व
समस्याओं को जिस तरह जिया, अनुभव
किया उसे अच्छी तरह से अपनी रचनाओं में गूँथकर-बुनकर प्रस्तुत किया ।
प्रेमचंद और उनके साहित्य
के मूल व मुख्य मायने पर जब हम विचार करते हैं तो इस संदर्भ में सबसे पहले और सहज
रूप से जो बिंदु उभरकर सामने आते हैं जिनमें- एक प्रबल लेखकीय सामाजिक प्रतिबद्धता,
कथा
साहित्य-हिन्दी कथा साहित्य का एक महत्वपूर्ण आदर्श व मानक,
भारतीय
समाज व परिवार का बाहरी-भीतरी यथार्थ तथा अपने समय व सृजनकाल के साथ वर्तमान में
भी सार्थक-प्रासंगिक ।
हमने पहले भी कहा कि
प्रेमचंद की विशेष संवेदना-सहानुभूति समाज के शोषित-पीड़ित व किसान-मजदूर वर्ग से
जुड़ी रही किंतु इस वर्ग की वास्तविकता को निरुपित करने के लिए समाज के बहुआयामी
रूप को एवं हर वर्ग के चरित्रों को लेकर चलना जरूरी,
और
प्रेमचंद की रचनाएँ इस मामले में बडी ही वैविध्यपूर्ण कही जा सकती हैं । इनकी
रचनाओं में जहाँ किसान, मजदूर,
अपने
परंपरागत व्यवसाय से जुड़े कारीगर हैं वहाँ उनके साथ किसी न किसी रूप से जुड़े
जमींदार, नवाब,
महाजन,
साहूकार,
पांडे-पुरोहित,
सरकारी
कर्मचारी, राजनीतिक
कार्यकर्ता आदि की उपस्थिति भी बराबर रही है ।
प्रेमचंद की प्रतिबद्धता
उनकी दृष्टि तथा रचना के सामाजिक सरोकार से जुड़ी है । लेखक के ये सामाजिक सरोकार
उन्हें विशेषरूप से एक आला दर्जे के सामाजिक यथार्थ के तथा प्रगतिवादी लेखक के रूप
में स्थापित करते हैं । एक और दृष्टि से भी प्रेमचंद को प्रगतिवादी लेखक के रूप
में देखा और माना गया है- “प्रगतिवाद, अपने
काल और परिवेश से आगे देखने और बढ़ने का नाम है । मार्क्सवादी खूंटे से यदि
प्रेमचंद को नहीं बाँधना है तो हम पायेंगे कि प्रेमचंद प्रगतिवादी ही नहीं,
अपितु
हिन्दी कथा साहित्य में प्रगतिवाद के जनक थे ।” (प्रेमचंद परिचर्चा,
पृ.145)
असल में समाज के प्रति
गाढ़ी प्रतिबद्धता, गहन
लोक दृष्टि जिसके चलते अपने साहित्य में सामाजिक यथार्थ की बहुलता,
साथ
ही एक दूरगामी दृष्टि जिससे अपनी नजदिकियों को ही नहीं बल्कि दूरियों को भी अच्छी
तरह से देख सकना और अनुभव करना,
यही
प्रेमचंद की लोकप्रियता का मूल आधार है और इसीलिए यह लोकप्रियता देवकीनंदन खत्री
और गुलशन नंदा वाली लोकप्रियता से बिल्कुल अलग चीज है । प्रेमचंद की इसी विशेषता
की वजह से कहा जाता है कि प्रेमचंद का योगदान व उनकी उपलब्धि जितनी साहित्यिक है
उतनी ही समाजशास्त्रीय भी ।
प्रेमचंद की रचनाओं से
गुजरना मतलब जीवन के विविध आयामों व पडावों से गुजरना,
समाज
को देखना-जानना, जीवन संघर्ष से
रूबरू होना, संघर्ष हेतु बल व
दिशा पाना, संवेदना का संचार होना आदि...
आदि ।
एक अध्येता की दृष्टि से-
“ प्रेमचंद के रचना संसार
का मूल स्त्रोत जीवन संघर्ष है । सामान्य जनता के दु:ख-दर्द की कथा से ही उन्होंने
अपने साहित्य की सामग्री जुटाई थी । दरअसल इसी तरह की जिन्दगी जीते हुए और इसी तरह
की जिन्दगियों के बीच रह कर ही शायद ऐसी पुस्तकें लिखी जा सकती हैं जिन्हें छूने
पर एक एक कवि के शब्दों में हम पुस्तक नहीं - मनुष्य को ही छूते होते हैं । ”
इसमें कोई संदेह नहीं कि
प्रेमचंद की लेखनी के स्पर्श से ही अपने कथ्य व शिल्प को लेकर हिन्दी उपन्यास अपना
आदर्श रूप प्राप्त करता है । “ प्रेमचंद हिन्दी के पहले रचनाकार हैं जिनके कृतित्व
में उपन्यास एक सम्मानित विधा की हैसियत पाता है,
सामाजिक
यथार्थ का जीवन्त दस्तावेज बनता है, मानव
चरित्र की जटिलताओं से रूबरू होता है, मध्यमवर्गीय
जीवन के महाकाव्य होने के गौरव का अतिक्रमण करता हुआ हिन्दुस्तान के साधारण जनों
की, महेनतकशों की जिन्दगी का
आख्यान बनकर नई अर्थवत्ता पाता है, भारत
के विराट मुक्ति-आदोलन का भाष्य बनता है ।” (प्रेमचंद के आयाम,
सं.ए.अरविंदाक्षन,
आलेख-
प्रेमचंद की परंपरा...शिवकुमार मिश्र, पृ.15)
हिन्दी जगत में प्रेमचंद
की लेखनी के उदय से लेकर आज हिन्दी कथा साहित्य लगभग सवा सौ वर्षों की यात्रा तय
कर चुका है । इस लम्बी अवधि में समय, समाज,
स्थितियाँ,
साहित्य
के शिल्प व कथ्य में बदलाव स्वाभाविक है और इन परिवर्तित सामाजिक व साहित्यिक
संदर्भों में प्रेमचंद और उनके साहित्य को लेकर कतिपय प्रश्न उठने भी स्वाभाविक
हैं । बावजूद प्रेमचंद का महत्व मात्र ऐतिहासिक ही नहीं बल्कि बदलते हुए आज के
परिवेश में, साहित्यिक-सामाजिक
दोनों, उनका स्थान व
महत्व अक्षुण्ण है । प्रेमचंद साहित्य की संवेदना,
साहित्य
में निरुपित जीवन यथार्थ, कहानी-उपन्यास
के कुछ विशेष मानक व आदर्श, साथ
ही आज के कथा साहित्य के केन्द्र में रहे स्त्री विमर्श-दलित विमर्श-अल्पसंख्यक
विमर्श तथा साहित्यिक पत्रकारिता के वास्तविक रूप आदि की दृष्टि से आज इक्कीसवीं
सदी में भी प्रेमचंद का प्रभाव कम नहीं हुआ है,
और
यही है एक बड़े साहित्यकार की पहचान ।
प्रो. हसमुख परमार
स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग
सरदार पटेल विश्वविद्यालय
वल्लभ विद्यानगर
आणंद (गुजरात)
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