श्रीकृष्ण
की लौकिक लीला और पारलौकिक स्वरूप
डॉ. मोहन पाण्डेय भ्रमर
द्वापर
युग में वासुदेव एवं माँ देवकी के गर्भ से प्रकट हुए लौकिक श्री कृष्ण का पूरा
जीवन ही लीलाओं से भरा हुआ है । बात आती है कि श्रीकृष्ण ने जन्म लिया या प्रकट
हुए।यह पौराणिक ग्रंथों में मौजूद है कि वे मृत्यु लोक पर एक माता के माध्यम से
अवतीर्ण हुए थे। जब माँ देवकी को अवतार से पूर्व ही अनुमान हो गया था कि तारनहार
आने वाले हैं। तारनहार यानी स्वयं नारायण।
लेकिन यह उस नारायण की लीला ही थी कि अवतार के बाद सब कुछ भूल गया।यही उनकी पहली लीला थी जिसे लौकिक माता पिता के समक्ष उन्होंने प्रदर्शित किया। क्योंकि अवतार के बाद देवकी और वासुदेव ने जिस स्वरूप को देखा तो अपने को धन्य मानते हुए स्तुति करने लगे। चार भुजाएँ शंख, चक्र और कमल से सुशोभित थीं। और साक्षात् परमेश्वर का दर्शन हो रहा था। नाना तरह से स्तुति करते हैं।
विदितोऽसि
भवान् साक्षात् पुरुष: प्रकृते:पर:।
केवलानुभवानन्द
स्वरुप:सर्व बुद्धि दृक।।
स
एव स्व प्रकृत्येदं सृष्द्वाग्रे त्रिगुणात्मकम्।
तदनु
तवं हृयप्रविष्ट: प्रविष्ट इव भाव्यसे।।
यथा
इमे अविकृता भावा:तथा ते विकृतै:सह।
सन्निपत्य
समुत्पाद्य दृश्यन्तेऽनुगता इव।
प्रागेव
विद्यमानत्वात् तेषां इह संभव:।।
(श्रीमद्भागवत दशम स्कंध अध्याय 3, ।।14,15,16,)
यहाँ यह
भी उद्धृत करना आवश्यक है कि कृष्णावतार के पूर्व ही दिशाएँ गुंजायमान हो उठीं,
देव भी स्तुति करने लगे।
बाद
में प्रभु की लीला ही थी कि उनके वास्तविक स्वरूप का भान नहीं रहा। इस दिव्य अवतार
का वर्णन श्रीमद्भागवत् पुराण के दशम स्कंध के तीसरे अध्याय में उल्लिखित है
जिसमें अवतार के बाद की अलौकिक छटा और माँ देवकी और वासुदेव जी के द्वारा भगवान
श्री कृष्ण की स्तुति का मनोरम वर्णन किया गया है। वहीं वे बताते हैं कि उन्हें
नन्द बाबा के घर पहुँचा दें। बाल कृष्ण मथुरा से गोकुल अंधेरी रात और भारी बरसात
के मौसम में वासुदेव जी के सिर पर हैं। उफनती यमुना नदी में वासुदेव जी उतरते हैं
यह श्री कृष्ण की लीला ही थी कि यमुना जी भी सादर मार्ग प्रशस्त करती हैं।उनकी
लीला ही थी कि न तो मथुरा कारागार के रक्षक जान सके और न ही गोकुल में नंद बाबा के
घर किसी को पता चला। यह महा रहस्य किसी को पता नहीं चला। इधर कंस भी धोखा खा गया।
दूसरी तरफ गोकुल में बधाई बजने लगी। उत्सव मनाया जाने लगा। तमाम बाल लीलाओं को
श्री कृष्ण ने गोकुल में किया। तमाम असुरों को बाल्य काल में ही सुरधाम पहुँचाया। यह
भी पूर्व निर्धारित था कि द्वापर में उन्हीं के हाथों उद्धार होगा। पूतना उद्धार,
बकासुर उद्धार, आदि तमाम इसके उदाहरण हैं।
ऐसा
कहा जाता है कि तमाम लीलाओं को करने के क्रम में बाबा नंद एवं मैया यशोदा को भी
कभी कभी यह महसूस हो गया कि वे साक्षात नारायण हैं लेकिन लीलाधारी श्री कृष्ण की
माया में घिरे हुए थे उन्हें कुछ स्मरण नहीं रहता था।
जिस
प्रकार मनुष्य के जीवन के प्रत्येक अवस्था में कर्म निश्चित होते हैं वैसे ही
नारायण अवतार श्री कृष्ण के जीवन में भी घटित हुआ। इसके पीछे यह बहुत ही बड़ा
रहस्य है।एक ऐसा भी समय था जब गो पालन, ग्वाल
बालों के संग खेल कूद, गोपियों के संग रास, मक्खन चोरी जैसी बाल लीलाओं में एक अलौकिक आनन्द का सुख उन्होंने भोगा।
लेकिन समय बलवान होता है। समय आ गया था कुछ और करने का।जो बाल कृष्ण अवतार के बाद
मथुरा छोड़ गोकुल पहुँचे थे अब समय आ गया था धरती के बोझ और जन आक्रांता कंस के
उद्धार का। मथुरा पहुँचे और वहाँ भी तमाम लोगों पर कृपा करी।कंस का अंत हुआ और
अंततः उसे भान हो ही गया कि वे साक्षात नारायण के अवतार हैं। जीवन के संघर्षों में
श्री कृष्ण को तमाम रूप धरने पड़े। यदुकुल की रक्षा के लिए तमाम आततायियों का भी संहार
किया। बहुत ही गहरा रहस्य यही है कि जो श्री कृष्ण प्रेम की बांसुरी बजाया करते थे
वे एक समय आने पर शस्त्र उठाते हैं।
प्रेममय
संसार की स्थापना करने के बाद एक नया अध्याय शुरू किया और अपने पुरुषार्थ और शक्ति
के प्रयोग से ही तमाम असुरों का संहार किया। इसमें उनकी असलियत और माया का भान कुछ
लोगों को ही हो सका। कुरूक्षेत्र में अर्जुन को ज्ञान देते हुए चतुर्भुज रूप का
दर्शन देते हैं। हालाँकि भीष्म पितामह और बिदुर जी को सब कुछ पता था। द्वारकाधीश
के रूप में भी उन्होंने भू लोक में तमाम लीलाओं का संपादन किया। राज व्यवस्था,समाज व्यवस्था, कूटनीति,कर्म
योग, ज्ञान योग, और प्रेम के जिन
मूल्यों के आदर्श योगेश्वर श्रीकृष्ण ने स्थापित किया वह द्वापर युग का एक अहम
अध्याय था।वह अध्याय जो युगों युगों तक चराचर जगत में अपनी छटा बिखेरता रहेगा।
राधा
जी और श्री कृष्ण की प्रेम गाथा अगर छोड़ दी जाए तो श्री कृष्ण के अवतार की कथा
अधूरी रह जाएगी। हाँ यह वही राधा जी हैं जो सर्वदा गो लोक में विराजती हैं। पृथ्वी
के भार हरण के निमित्त जब अवतार का समय आया तो उन्हें भी भू लोक में आना पड़ा।जो
श्री कृष्ण और राधा जी सदैव गो लोक में वास करते हैं ।श्री राधा जी द्वापर युग में
भगवान श्री कृष्ण के अवतार की कथा और लौकिक जीवन की गूढ़ रहस्य हैं।देवी भागवत्
में राधा जी को सर्वोच्च देवी, कृष्ण की प्रियतमा,अनंत गुणों से परे बताया गया है।जो कृष्ण के शरीर का आधा भाग हैं।वे शाश्वत
हैं और सभी लोकों की माता हैं।वे कृष्ण के शरीर का बायां भाग हैं।आयु,बल और सौंदर्य में उनके समान हैं। लक्ष्मी और लक्ष्मी पति भी उनकी पूजा
करते हैं।
पद्म
पुराण में राधा के महत्व को स्थापित किया गया है। राधा कृष्ण की भक्ति के मार्ग को
दर्शाया गया है। जहाँ प्रेम का अद्भुत वर्णन किया गया है -
गतोराधापति
स्थानं यत्सिद्धैरप्य गोचरम्।
ततश्च
तदुपादिष्टो गोलोकादु परिस्थितिम्।।
नित्यं
वृंदावनं नाम नित्य रास रसोत्सवम्।
अदृश्य
परमं गुह्यं पूर्ण प्रेम रसात्मकम्।।
अर्थात्
प्रियतम के उस स्थान पर पहुँचना जो सिद्धों के लिए भी अगोचर है,जिसकी स्थिति गोलोक से भी ऊपर है,जिसका नाम नित्य
वृन्दावन है, जहाँ नित्य रास आदि रसोत्सव होते रहते हैं,जो स्थान पूर्ण प्रेमरसात्मक, अत्यंत गुह्य तथा
अदृश्य है।
श्री
वृन्दावन धाम को कभी गोविंद त्याग नहीं करते।अन्यत्र जगह जैसे मथुरा और द्वारका
में जो उनका शरीर दृष्टिकर होता है वह कृत्रिम है --
वृंदावन
परित्यागो गोविंदस्य न विद्यते।
अन्यत्र
यद्वपुस्ततु कृत्रिमं तन्न संशय:।।
(अध्याय 77,छंद 71।।पाताल खण्ड,पद्म पुराण।।
उनकी
माया को बिरले ज्ञानी और महा मुनि गण ही समझ सकते हैं। सचमुच श्री कृष्ण के रहस्य
को समझ सकना यदि संभव भी हो सके तो केवल उनकी कृपा से ही संभव है।
डॉ.
मोहन पाण्डेय भ्रमर
हाटा
कुशीनगर, उत्तर प्रदेश
संपादक महोदय के प्रति हार्दिक आभार और परामर्शक आदरणीय प्रोफेसर हसमुख परमार जी का व्यक्तिगत रूप से आभार
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