यूँ ही नहीं बन जाता कोई ‘प्रेमचंद’
डॉ० घनश्याम ‘बादल’
हिन्दी कथा साहित्य प्रेमचंद बिना अधूरा है । प्रेमचंद हिन्दी साहित्य के वह कालजयी रचनाकार हैं
जिन्होने जीवन को झकझोरती वास्तविक के निकट की कहानियां दी हैं । उनकी कहानियों में कथानक वास्तविकता के धरातल के
इतने पास होता था कि ऐसा लगता था जैसे वह कहानी हमारे साथ ही घटित हो रही हो।
प्रेमचंद
वह
कथाकार हैं जिनका हर पात्र ऐसा लगता है जैसे हमारे बीच का कोई जीवंत आदमी पन्नों पर
उतर आया हो । होरी, बंशीधर, गोबर, धनिया, शतरंज के खिलाड़ी के
नवाब नमक के दरोगा
के वंशीधर और अलोपीदीन अथवा बड़े भाई साहब आदि सब पात्र केवल पुस्तक के पन्नों तक नहीं रहते अपितु अपने काल व वातावरण
का एकदम असली रंग बिखेरते हुए रोजमर्रा के जीवन में कहीं न कहीं दिख जाते हैं ।

प्रेमचंद को ऐसे ही सार्वकालिक महान रूसी कथाकार
लियो टालस्टाय व मैक्सिम गोर्की का मिश्रित अवतार नहीं माना जाता है । बेशक मुंशी प्रेमचंद को एक तरफ कर
देने पर हिंदुस्तानी साहित्य अपूर्ण रह जाता है । प्रेमचंद
ऐसे ‘डार्क पीरियड़’ में पैदा हुए जिसमें गुलामी का
दंश गहरे डस रहा था , आम भारतीय सुख की जिंदगी जीने की कल्पना नहीं कर सकते
थे । अंग्रेजी शासन के तले भारतीय बुरी तरह त्रस्त थे । गरीबी व पोषण बहुत सामान्य
बात थी, वर्गभेद व छुआ-छूत से त्रस्त भारतीय समाज को उच्च शिक्षा से दूर रखने व उच्च पदों तक न पंहुचने देने का पूरा इंतजाम
अंग्रेजी शासन ने कर रखा था । अजायबराय व आनंदी देवी के बेटे धनपत राय में पढ़ाई लिखाई के प्रति बहुत रुचि न थी । परिणामतः
लगातार पिछड़ते गये, यहां तक कि बारहवीं भी नहीं ही
पास नहीं कर पाए किंतु, मेहनत के बल पर प्रेमचंद ‘डिप्टी
एजुकेशन आफिसर’ के पद तक पंहुचे ।
गरीबी प्रेमचंद से जोंक की तरह ता उम्र
चिपकी रही । लिखने के प्रति जुनून
के चलते प्रेमचंद ने पद से इस्तीफा दे जीविकोपार्जन के लिए दोस्तों के कहने पर प्रिटिंगप्रेस भी खोली पर पैसा
उनके हाथ नहीं लगा और यही किल्लत धनपत राय को अपेक्षाकृत बड़े कैनवास हिन्दी लेखन में
ले आई और जल्दी ही
उनके कलम डंका बजने लगा और वें कथा व उपन्यास के ऐसे 'लाइटहाऊस' बने कि आज तक रोशन कर रहे हैं
।
प्रेमचंद काल में हिन्दी लेखन की विडम्बना रही कि इस काल के अधिकांश रचनाकार फ़ाकाक़शी के शिकार
रहे । वैसे सच यह भी है कि कि निर्धनता,भूख व मज़बूरी ने उन्हे
जीवन के कड़वे सच को नज़दीक से देखने, समझने का मौका भी दिया जिससे उनका लेखन यथार्थवादी बना । प्रेमचंद हिन्दी साहित्य को भी परिस्थितियों की
देन कहा जा सकता है ।
प्रेमचंद के सहित्य में जहां अपने समय की विसंगतियां , विद्रूपतायें, सामाजिक असमानता, अत्याचार व विवशता सब कुछ सह लेने की कायरता समाहित है वहीं उच्चवर्ग की अय्याशी, असंवेदनशीलता, चाटुकारिता व अहंकार जिस सहजता से आया है वह अन्यत्र दुर्लभ है
।
‘गोदान’ के होरी ,झुमरु, गोबर, धनिया, ‘ईदगाह’ के
हमीद, ‘नमक के दारोगा’ के वंशीधर व पंडित अलोपीदीन, ‘पंचपरमेश्वर’ के जुम्मन व अलगू ,निर्मला
की निर्मला, बड़े ‘भाई साहब’ के बड़े भाई , ‘पूस की रात’ के हरखू आदि अपने युग के प्रतिनिधि
पात्र हैं व तात्कालिक जीवन की पीड़ा स्वर देते हैं ।
प्रेमचंद ने हिन्दी साहित्य को अकेले दम इतना कुछ दिया है कि बाद
की कई पीढ़ियां भी उतना नहीं दे पाई । अपनी लगभग हर कहानी में प्रेमचंद ने समाज को
एक न एक नैतिक पाठ जरूर पढ़ाया है । साठोत्तरी कहानी के तो प्रेमचंद बादशाह हैं , उनकी कहानियों में कथ्य, शिल्प, संदेश व ताने बाने का अद्भुत समन्वय
है ।
कथा व कहानी के क्षेत्र में प्रेमचंद बेजोड़
हैं । उन जैसा लेखन न तो उन से पहले और न ही उनके बाद आज तक हो पाया है । मगर दुर्भाग्य
यह है कि जो प्रेमचंद जीते जी गरीबी व फ़ाक़ाकशी में रहे मरने के बाद उनके ही साहित्य ने उनके बेटे, प्रकाशकों व आलोचकों को मालामाल किया है ।
लमही का यह धरतीपुत्र अपने कर्म व आचरण में सदैव ही विनम्र व यथार्थवादी
रहा । पर , अपने पीछे एक महाप्रश्न भी छोड़ गया कि अखिर वें कौन से कारण व कारक
हैं जिनके चलते भारतीय लेखकों को जीते जी अभावों से जूझना होता है । भले ही आज के
कुछ लेखकों के पास पैसा व शोहरत है पर आज भी सच यही है कि काम कम और नाम ज्यादा चलता
है , नाम के आगे - पीछे लगे झूठे सच्चे विशेषण व पद ज्यादा प्रभावकारी
हो गए हैं । छपने के लिए भी जोड़
- जुगाड़, संसाधन, सिफारिश
व धड़े बंदियां , प्रकाशकों की मनमानी अब छिपी नहीं है । प्रकाशक अधकचरे लेखकों की छपने की लिप्सा को पूरी तरह दुह रहे हैं । अपने
पैसे से चंद प्रतियां छपवाने व बंटवाने वाले विमोचन समारोही लेखकों के अलावा सोशल
मीड़िया व वेब पेजों तक सीमित रहने वाले कुकुरमुत्तों टाइप लेखको के बीच क्यों एक दूसरा
प्रेमचंद पैदा नही हुआ इस बात पर प्रेमचंद की जयंती पर चिंतन मनन करने की आज महती
आवश्यकता है ।
बेशक, प्रेमचंद होना आसान नहीं है फाका कशी में जिंदा रहना, बिना संकोच किए फटे जूतों में चमकती हुई
उंगलियों के साथ समारोह में चले जाना, खादी
के साधारण से धोती कुर्ते में जीवन बिताकर
कालजयी साहित्य लिखना कोई आसान काम नहीं है । आज की पीढ़ी जब कम श्रम में ही अधिक से अधिक पा लेना चाहती है और वह जीवन
के यथार्थ को भोगने और जीवन को गहराइयों से महसूस करने व उसे जीने से कतराती है तब
उसके लेखन में प्रेमचंद सा यथार्थवादी लेखन आए भी तो कैसे ?
अच्छी बात है कि प्रेमचंद की जयंती पर साहित्य जगत
उन्हे याद करता है । पर, होना तो यह चाहिए
कि हम अपने समय में भी कुछ ऐसे प्रेमचंद तराशें व तलाशें जो समकालीन भारतीय
जीवन को वांछित मूल्य प्रदान करने वाले एवं सार्थक साहित्य सृजन की परंपरा को आगे
बढ़ा सकें ।
डॉ. घनश्याम बादल
215, पुष्परचना कुंज,
गोविंद नगर पूर्वाबली
रुड़की - उत्तराखंड -
247667
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